चन्द्रशेखर आज़ाद के 110वें जन्मदिवस (23 जुलाई) के अवसर पर
‘यश की धरोहर’ पुस्तिका से एक अंश

लेखक: आज़ाद के साथी क्रान्तिकारी भगवान दास माहौर

शहादत थी हमारी इसलिये कि आज़ादियों का बढ़ता हुआ सफ़ीना रुके न एक पल को मगर ये क्या? ये अँधेरा! ये कारवाँ रुका क्यों है? चले चलो कि अभी काफ़िला-ए-इंक़लाब को आगे, बहुत आगे जाना है।

शहादत थी हमारी इसलिये कि
आज़ादियों का बढ़ता हुआ सफ़ीना
रुके न एक पल को
मगर ये क्या? ये अँधेरा!
ये कारवाँ रुका क्यों है?
चले चलो कि
अभी काफ़िला-ए-इंक़लाब को
आगे, बहुत आगे जाना है।

आज़ाद का जन्म हद दर्जे की ग़रीबी में हुआ था। वे किसी बड़े बाप के बेटे न थे। उनके पिता पं. सीताराम तिवारी मूलत: उत्तर-प्रदेश के जिला उन्नाव के ग्राम बदरका के रहने वाले थे और संवत 1956 में देशव्यापी अकाल के समय जीविकोपार्जन के लिए घर से निकल कर भावरा में सरकारी बाग़ की रखवाली का काम करने लगे थे। वेतन पाँच रुपया मिलता था जिस पर ही वे अपनी पत्नी और एक बच्चे का (आज़ाद के सबसे बड़े भाई शुकदेव, जो बदरका में ही पैदा हुए थे) पेट पालते थे। उनका यह वेतन बढ़कर बाद में आठ रुपये मासिक तक हो गया था। आज़ाद का जन्म भावरा में ही ही टूटी-फूटी बाँस के टट्टरों में हुआ था। पिता जी कुछ विशेष पढ़े-लिखे न थे। माता जी तो बिल्‍कुल निरक्षर ही थीं। आज़ाद बचपन से ही तेजस्वी, कर्मशील और नटखट थे। ग्राम में पास-पड़ोस के लड़कों में तो वे नेता स्वभावत: ही बन गए थे। अपने नटखटपने के कारण वे प्राय: अपने पिता के कोप-भाजन बनते थे। जिनकी चार सन्तानें मर चुकी हों ऐसे माता के वे लाडले थे ही। तेजस्वी ब्राह्मण बालक और फिर संस्कृत पढ़ा-लिखा न हो! यह कैसे हो सकता है? एक दिन किसी बात पर पिता से मार खाकर आज़ाद घर से भाग निकले और इधर-उधर भटकते अन्तत: पढ़-लिख कर योग्य ब्राह्मण बनने के लिए वे काशी पहुँचे और एक क्षेत्र में पढ़कर व्याकरण पढ़ने लगे। उन दिनों सन 20-21 का सत्याग्रह आन्दोलन चल रहा था। बालक आज़ाद उसके प्रति आकर्षित हुए और बढ़ चढ़ कर काम करने लगे। नेताओं का ध्यान उनकी ओर आकृष्ट हुआ। सत्याग्रह आन्दोलन में अपनी कम उम्र के कारण उन्हें बेतों की सज़ा मिली जो उन्होंने बड़ी बहादुरी से भुगती तथा श्रीप्रकाश जी से उन्होंने ‘आज़ाद’ उपनाम पाया। सन् 20-21 का सत्याग्रह समाप्त हो जाने के बाद काशी में श्री मन्मथनाथ गुप्त आदि के सम्पर्क से वे गुप्त क्रान्तिकारी दल में सम्मिलित हुए। अमर शहीद पं. रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ के नेतृत्व में उन्होंने काकोरी ट्रेन काण्ड में भाग लिया और सन् 1925 में काकोरी षडयन्त्र केस से फ़रार होकर झाँसी आये। झाँसी और ओरछे के बीच सातार नदी के किनारे पर एक कुटिया में वे हरिशंकर ब्रह्मचारी बन कर रहे। यहीं से उन्होंने दल के छिन्न-भिन्न सूत्रों के फिर से जोड़ लिया और क्रान्तिकारी दल के नेता के रूप में अमर शहीद भगतसिंह आदि से मिलकर उन्होंने उस दल  का संगठन और संचालन किया जिसके प्रमुख कार्य लाहौर में लाला लाजपतराय पर लाठी चार्ज करने वाले ए.एस.पी. साण्डर्स का वध, देहली की धारा-सभा में बम विस्‍फोट तथा वायसराय की गाड़ी के नीचे बम विस्फोट करना थे। सन 1931 की फरवरी की 27 तारीख़ को वे इलाहाबाद के एल्फ्रेड पार्क में पुलिस से एकाकी युद्ध करते हुए शहीद हुए।

एकश्लोकी रामायण की तरह संक्षेप में आज़ाद का चरित्र इतना ही है, परन्तु उनके जीवन में इस भाँति अशिक्षित, कुसंस्कारग्रस्त, ग़रीबी में पड़ी हुई जनता के क्रान्ति के मार्ग पर बढ़ते जाने की एक संक्षिप्त उद्धरणी-सी हमें मिलती है। आज़ाद का जन्म हद दर्जे की ग़रीबी, अशिक्षा, अन्धविश्वास और धार्मिक कट्टरता में हुआ था, और फिर वे, पुस्तकों को पढ़कर नहीं, राजनीतिक संघर्ष और जीवन संघर्ष में अपने सक्रिय अनुभवों को सीखते हुए ही उस क्रान्तिकारी दल के नेता हुए जिसने अपना नाम रखा था: ‘’हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी’ और जिसका लक्ष्य था भारत में धर्म निरपेक्ष, वर्ग-विहीन समाजवादी प्रजातंत्र की स्थापना करना। इसी हिन्दुस्तानी प्रजातंत्र सेना के प्रधान सेनानी ‘‘बलराज’’ के रूप में वे पुलिस से युद्ध करते हुए शहीद हुए। इस प्रकार ये सर्वथा उचित ही है कि चन्द्रशेखर आज़ाद का जीवन और उनका नाम साम्राज्यवादी उत्पीड़न में अशिक्षा, अन्ध-विश्वास, धार्मिक कट्टरता में पड़ी भारतीय जनता की क्रान्ति की चेतना का प्रतीक हो गया है। इस दृष्टि से चन्द्रशेखर आज़ाद अमर शहीद भगतसिंह से भी अधिक लाक्षणिक रूप में आम जनता की क्रान्ति भावना का प्रतिनिधित्व करते हैं।

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2016


 

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