कारख़ाना इलाक़ों से
मज़दूरों में मालिक-परस्ती कम चेतना का नतीजा है

शिवानन्द, बादली, दिल्ली

जी-1 फेस-3 बादली औद्योगिक क्षेत्र दिल्ली-42 स्थित फैक्टरी में रांगा की बनी हुई प्लेटें आती हैं जिसकी फिटिंग करके बैट्री बनाकर तैयार होती है। मालिक की कई पार्टियाँ बँधी हुई हैं जो कि राँगे की प्लेटें, प्लास्टिक का खोल, टोप, हैण्डिल और ढक्कन छोड़ जाती हैं और तैयार बैट्री ले जाती हैं। यहाँ रोज़ाना करीब 100 बड़ी बैट्री (12 वोल्ट) तैयार होती हैं जिनकी बाज़ार में कीमत करीब 7 से 10 हजार रुपये प्रति बैट्री है। ख़ुद बाप-बेटा एसी की हवा में कुर्सी तोड़ने के चार्ज के रूप में लगभग 1000 रुपये एक बैट्री पर लेते हैं। इस फैक्ट्री में कुल 12 मज़दूर काम करते हैं जिसमें दो कारीगरों की तनख्वाह 10,500 रुपये, 6 हेल्परों की तनख्वाह 4500 रुपये है और एक ठेकेदार पीस रेट पर प्रति बैट्री 7 रुपये के हिसाब से प्लेटों को गर्म करके नक्खा लगाने का काम करता है। 3 पुराने हेल्परों की 6-7 हज़ार तनख्वाह और बिल्डिंग का किराया वगैरह निकालकर भी हर बैट्री पर 300 रुपये मालिक को फायदा होता है। यानी कम से कम 30,000 रुपये का मुनाफा रोज़ाना!

फैक्ट्री में सभी मज़दूर मालिक से बहुत खुश रहते हैं क्योंकि मालिक कभी भी मज़दूरों से न गुस्से में और न ही बुरा शब्द बोलता है। बाप-बेटा दोनों बस मीठी छुरी चलाते हैं। आराम से दोनों ऑफिस में एसी की हवा खाते हुए काम का जायज़ा लेते रहते हैं। चेहरे पर एक शिकन तक नहीं दिखती है। मालिक तो मज़दूरों को कुछ नहीं कहता मगर मज़दूर ही एक-दूसरे की टाँग-खिंचाई करते रहते हैं। काम करने में कोई कोर-कसर नहीं। सभी बारहों मज़दूर बैल की तरह लगे रहते हैं। 12 घण्टे में 12 लोग 100 बैट्री बनाकर तैयार करते हैं। कोई मामूली बात नहीं है। पूरी फैक्ट्री का टेम्परेचर दिनभर 50 डिग्री सेल्सियस से भी ऊपर रहता है क्योंकि एक तो कढ़ाई में राँगा गलाया जाता है, दूसरे, लोहे की चादर काटने के लिए दिनभर गैस भी जलायी जाती है। इसके अलावा बैट्री में ढक्कन लगाने के लिए 400 डिग्री सेल्सियस पर हीटर गर्म किया जाता है। दोमंज़िला इमारत में मज़दूरों के लिए केवल 3 पंखे और 3 एक्ज़ास्ट लगे हुए हैं। प्लेटों से कार्बन छुड़ाने के लिए प्लेटों की घिसाई होती है जिससे फैक्ट्री में फेफड़ों के लिए बेहद नुकसानदेह प्रदूषण भी फैला रहता है। अंग्रेज़ों के ज़माने से नियम बना हुआ है कि प्रदूषण वाली फैक्ट्रियों में हर मज़दूर को 100 ग्राम गुड़ व 250 ग्राम दूध रोज़ मिलना चाहिए। मगर आजकल किसी को बताओ तो कहेगा कि मज़ाक कर रहे हो! यहाँ तो दस्ताने तक नहीं मिलते; यहाँ तक कि जो आदमी मशीन पर प्लेट की घिसाई करते हैं उनको भी नहीं मिलते हैं जिससे कि हाथ कटते-फटते रहते हैं। मशीन वाले मज़दूर को भी बहुत रिरियाना पड़ता है, तब जाकर कहीं एक हाथ का दस्ताना मिलता है (जोड़ा नहीं)। दस्ताना फट तो दो घण्टे में ही जाता है मगर दो दिन बाद दिया जाता है। मुँह पर बाँधने वाले कपड़े देने का नियम है। मगर यहाँ कपड़ा अगर गन्दा हो जाये तो उसको धोकर तब तक बाँधना पड़ता है जब तक चिथड़े-चिथड़े न हो जाये।

इन सब स्थितियों के बाद भी मज़दूर कहते हैं, ‘मालिक बहुत दिलदार है।’ इसका कारण यह है कि उन्हें न तो अपने अधिकारों की जानकारी है और न ही इस बात की चेतना है कि इंसाफ और बराबरी किस चिड़िया का नाम है। इसीलिए मालिकों से छोटे-छोटे टुकड़े पाकर ही मज़दूर ख़ुश हो जाते हैं। हमें मज़दूरों में फैली इस सोच के ख़िलाफ भी लड़ना होगा, क्योंकि यह मानसिकता मज़दूरों को संगठित होने में बाधक है।

 

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2012
 


 

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