आपस की बात
“ठेकेदार अपना आदमी है!”
लुधियाना से एक मज़दूर
मैं एक लोहा प्लांट में काम करता हूँ। मालिक ने सारा काम ठेके पर दे रखा है। श्रम क़ानून जैसी बात न तो मालिक मानता है और न ही ठेकेदार। हमें पहचान पत्र, हाज़िरी कार्ड, ई.एस.आई. कार्ड, बोनस जैसी कोई भी सुविधा नहीं मिलती। मालिक से पूछो तो वो ठेकेदार की ओर भगा देता है, और ठेकेदार से पूछो तो वो मालिक की ओर उँगली कर देता है। दोनों मिल के हमें श्रम क़ानूनों में लिखी कोई भी सुविधा देने के लिए तैयार नहीं हैं। इसमें मज़दूरों का भी बहुत दोष है। जिस ठेकेदार के पास मैं काम करता हूँ, उसके ज़्यादातर मज़दूर या तो उसके रिश्तेदार हैं या फिर उसके गाँव के लोग हैं। अगर मैं या एकाध और मज़दूर जो ठेकेदार के रिश्तेदार नहीं हैं, दूसरे मज़दूरों से श्रम क़ानूनों की बात करते हैं तो सभी का यही जवाब होता है – यार ठेकेदार अपना आदमी है, रिश्तेदार है, गाँव का है। अब अपने आदमी से क्या कहें, अच्छा नहीं लगता। उसने हमें काम दिलाया है। हमारे मज़दूर ये नहीं समझते कि अगर वो अपना आदमी है तो क्या उसको हमारे अधिकार छीनने चाहिए यदि वो अपना आदमी है तो उसे तो हमारा ज़्यादा ख़्याल रखना चाहिए था, मगर वो तो बाकी सभी ठेकेदारों की तरह ही हमारी लूट कर रहा है। अगर उसको हमारा रिश्तेदार या गाँव का आदमी होकर भी हमारी लूट करने में थोड़ी-सी शर्म नहीं है, तो हम लोग अपना अधिकार माँगने में इतना क्यों शर्माते हैं मेरे विचार से तो इस मुनाफे की दौड़ में कोई अपना-पराया नहीं होता। अगर ठेकेदार ज़्यादा कमाई करने के लिए अपने रिश्तेदारों या गाँव-देहात के लोगों का ख़ून चूसने में संकोच नहीं करता तो हमें भी उससे अपने अधिकार लेने में हिचक नहीं दिखानी चाहिए।
मज़दूर बिगुल, जुलाई 2012
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन