इस जानलेवा महँगाई में कैसे जी रहे हैं मज़दूर

आनन्द, रामाधार

कुछ महीने पहले कुछ दिनों के लिए जानलेवा महँगाई की ख़बर अखबार और टीवी की सुर्ख़ियों में आयी थी। ‘महँगाई डायन खाये जात है’ या ‘बढ़ती क़ीमतों की मार ग़रीब के पेट पर’ जैसी ख़बरें अखबारों के पहले पन्ने पर दिखती थीं। लेकिन जल्दी ही ये खबरें सुर्ख़ियों से ग़ायब हो गयीं। उनकी जगह भ्रष्टाचार मिटाने का दावा करने वाले तरह-तरह के आन्दोलनों, घपलों-घोटालों, संसद में हंगामे, सरकार बचाने-गिराने की तिकड़मों और साम्प्रदायिक दंगों की ख़बरें मीडिया में छा गयीं। ऐसा लगा जैसे कि महँगाई अब कोई समस्या ही नहीं रह गयी है। समाज के ऊपरी 15-20 प्रतिशत मलाईदार तबकों के लिए बेशक यह कोई समस्या नहीं होगी, बल्कि बहुतों को तो इस महँगाई से भी कमाई के तमाम रास्ते मिल जाते हैं। लेकिन इस देश की 80 फीसदी मेहनतकश जनता के लिए तो इस महँगाई ने जीने का भी संकट पैदा कर दिया है।

पूँजीवादी ”विकास” की सरपट दौड़ में शामिल खाये-पिये-अघाये वर्गों के लिए जिस तरह देश के ग़रीब मेहनतकश लोग नज़र से ओझल रहते हैं, उसी तरह इन ग़रीबों की ज़िन्दगी के सबसे अहम सवाल भी उनकी नज़र से, और उन्हीं की सेवा करने वाले मीडिया की नज़र से ओझल रहते हैं। यह भी सोचने की बात है कि जब रोज़ी-रोटी के ये सवाल बहुत तीखेपन के साथ उभरने लगते हैं, तभी तमाम तरह के बखेड़े खड़ा करके उन्हें परदे के पीछे धकेलने की कोशिश शुरू हो जाती है। यह शासक वर्गों की सोची-समझी और बार-बार आज़मायी हुई तरक़ीब है जो कभी नाकाम नहीं रहती। याद कीजिये, 1990 के दशक की शुरुआत में जब पूँजीवादी संकट चरम पर था और निजीकरण-उदारीकरण की नीतियाँ देश में लागू करने की तैयारी की जा रही थी। जनता के पैसे से खड़े किये गये बड़े-बड़े सरकारी उद्योगों को कौड़ियों के मोल निजी पूँजीपतियों को सौंपा जा रहा था। हज़ारों कारख़ाने बन्द हो रहे थे, करोड़ों मज़दूरों और कर्मचारियों की छँटनी हो रही थी। बेरोज़गारी और महँगाई ने आम जनता का जीना हराम कर दिया था और जनता में असन्तोष और आक्रोश बढ़ता जा रहा था। ठीक ऐसे ही समय में पहले पिछड़े वर्गों के आरक्षण का सवाल उछाला गया और फिर बाबरी मस्जिद को लेकर देश भर में साम्प्रदायिक नफ़रत और मारकाट की लहर उभारी गयी। पक्ष-विपक्ष की सारी चुनावी पार्टियाँ और पूरा पूँजीवादी मीडिया सुनियोजित ढंग से जन भावनाओं को भड़काने के इस खेल में लगे रहे और लोगों का ध्यान बँटाने में कामयाब रहे। इसका नतीजा यह हुआ कि आम लोगों के लिए घनघोर विनाशकारी आर्थिक नीतियाँ बिना किसी ख़ास विरोध के लागू हो गयीं जिसकी क़ीमत आज तक देश के मेहनतकश अपनी जान देकर चुका रहे हैं।

यही कहानी फिर से दोहराती नज़र आ रही है। जिस वक्त महँगाई ने देश के 100 में 80 लोगों के लिए ज़िन्दा रहना दूभर कर दिया है, उस वक्त भी देश की संसद के पास इस मुद्दे पर चर्चा करने के लिए समय नहीं है। जिस संसद की एक मिनट की कार्यवाही पर जनता की गाढ़ी कमाई से आने वाले दो लाख रुपये खर्च हो जाते हैं, उस संसद में कई-कई दिन सिर्फ हंगामा और जूतम-पैज़ार होता रहा लेकिन आम लोगों को जानलेवा महँगाई से राहत देने का सवाल एक बार भी नहीं उठा।

टीवी चैनलों में कभी-कभी महँगाई की ख़बर अगर दिखायी भी जाती है तो भी उनके कैमरे कभी उन ग़रीबों की बस्तियों तक नहीं पहुँच पाते जिनके लिए महँगाई का सवाल जीने-मरने का सवाल है। टीवी पर महँगाई की चर्चा में उन खाते-पीते घरों की महिलाओं को ही बढ़ते दामों का रोना रोते दिखाया जाता है जिनके एक महीने का सब्ज़ी का खर्च भी एक मज़दूर के पूरे परिवार के महीनेभर के खर्च से ज्यादा होता है। रोज़ 200-300 रुपये के फल खरीदते हुए ये लोग दुखी होते हैं कि महँगाई के कारण होटल में खाने या मल्टीप्लेक्स में परिवार सहित सिनेमा देखने में कुछ कटौती करनी पड़ रही है। मगर हम ‘मज़दूर बिगुल’ के पाठकों के सामने एक तस्वीर रखना चाहते हैं कि देश की सारी दौलत पैदा करने वाले मज़दूर इस महँगाई के दौर में कैसे गुज़ारा कर रहे हैं।

Janlewa mahangai

आगे दिल्ली की एक मज़दूर बस्ती में किये गये सर्वेक्षण से मिले आँकड़े दिये जा रहे हैं। इन दामों को पढ़कर चौंकियेगा नहीं कि ये दाम तो मध्यवर्गीय कालोनियों या शॉपिंग मॉलों की दुकानों से भी ज्यादा हैं। क्योंकि हक़ीक़त यही है। दिल्ली की सभी मज़दूर बस्तियों में सबसे घटिया माल आता है और सबसे ऊँचे दाम वसूले जाते हैं। उधार लेने पर और थोड़ा-थोड़ा करके सामान ख़रीदने पर क़ीमतें और भी बढ़ जाती हैं। ज्यादातर बस्तियों में मकानमालिकों ने ही किराने की दुकान भी खोल रखी है और किराये पर रहने वाले मज़दूरों को मजबूरी में उन्हीं से मनमाने दामों पर सामान ख़रीदना पड़ता है।

पहले तीन लोगों के एक मज़दूर परिवार की हालत देखते हैं।

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पति-पत्नी व 6 वर्ष के बच्चे के 20 दिन के खाना-खुराकी का खर्च

(बादली, दिल्ली की राजा विहार बस्ती में किराने की दुकान के उधरी रजिस्टर से, 15-8-12 से 5-9-12 तक)

आटा  –     20 किलो     रु. 400

चावल –     20 किलो     रु. 418

चीनी  –     4 किलो            रु. 160

तेल   –     2 लीटर            रु. 200

चना   –     1/1/2 किलो   रु. 90

दाल   –     2/1/2 किलो   रु. 217

वाशिंग पाउडर –           रु. 40

मसाले –                 रु. 120

सोया बड़ी    –     1/2 किलो    रु. 50

रस्क  –                 रु. 40

बिस्कुट –                 रु. 35

साबुन –                 रु. 27

चाय पत्ती    –           रु. 10

अण्डा  –                 रु. 36

कुकिंग गैस – 4 किलो            रु. 280

फुटकल

(मंजन, खैनी, बीड़ी, नमक, गुटखा, माचिस, फोन)                   रु. 300

कुल खर्च            रु. 2423

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20 दिन के इस खर्च के आधार पर इसमें 10 दिन के लिए 1200 रुपये और जोड़ दें तो क़रीब 3600 रुपये हो जाते हैं। बच्चे के लिए कभी-कभार दूध और सस्ती से सस्ती सब्जी का खर्च जोड़ें तो खर्च लगभग रु. 4400 तक पहुँच जाता है। इसमें कमरे का किराया और बिजली का बिल (रु. 1600) जोड़ दें तो 6000 रुपये हो जाते हैं। इन बस्तियों में बिजली का बिल 6 रुपये प्रति यूनिट की दर से लिया जाता है, कोई-कोई मकान मालिक तो 8 रुपये भी वसूलता है। कमरों में बिजली का मीटर घोड़े की रफ्तार से भागता है। ज़ीरो वाट का बल्ब जलाने पर भी महीने में 10 यूनिट ख़र्च हो जाते हैं, एक पंखा चलाओ तो महीने में 30 यूनिट बन जाते हैं। यह तीन लोगों के ज़िन्दा रहने की बुनियादी ज़रूरतों का खर्च है। इसके अलावा साल भर में दो जोड़ी कपड़े, चप्पल, बच्चे की पढ़ाई आदि के खर्च का औसत निकालें तो महीने में कम से कम 500 रुपये आयेगा।

ये कभी-कभी बिना दूध की चाय पी लेते हैं, बाहर कभी कुछ नहीं खाते, कभी घूमने नहीं जाते और न ही इनके पास मनोरंजन का और कोई साधन है। यह मज़दूर बादली औद्योगिक क्षेत्र की एक चम्मच फैक्टरी में काम करता है जहाँ इसकी तनख्वाह 8 घण्टे के 4000 रुपये हैं। तनख्वाह के डेढ़ गुना से भी अधिक महीने का खर्च पूरा करने के लिए इसे लगातार ओवरटाइम और ‘नाइट’ लगाना पड़ता है। फिर भी, अगर किसी की तबियत ख़राब हो गयी, तो 5 रुपया सैकड़ा हर महीने ब्याज पर कर्ज़ लेना पड़ता है।

एक छोटे-से कमरे में रहने वाले तीन युवा मज़दूरों का महीने का खर्च

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राशन/तेल/मसाले/साबुन/मंजन आदि – रु. 3200

सब्जी                    – रु. 1050

मीट-मछली/अण्डा          – रु. 1120

दूध, चीनी, चाय, गैस         – रु. 420

कमरे का किराया व बिजली – रु. 1500

पान मसाला/सिगरेट/चाय-समोसा/चाउमीन

आदि, कभी-कभार देशी शराब       – रु. 2200

कपड़े, चप्पल आदि का तीन लोगों का

औसत मासिक खर्च        – रु. 600

कुल खर्च                 – रु. 10,090

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इस तरह से, 22 से 26 वर्ष उम्र के इन तीन मज़दूरों में से हरेक का अपना खर्च लगभग 3400 रुपये होता है जिसमें घूमने-फिरने, मनोरंजन आदि के लिए कोई गुंजाइश नहीं होती। और इन्हें हर महीने पैसे बचाकर गाँव भेजने पड़ते हैं जहाँ इनके माँ-बाप, भाई-बहन या बीवी-बच्चे इन पर आश्रित हैं। साल में एक-दो बार घर जाने के लिए भी कुछ पैसे बचाने पड़ते हैं। अगर ये बिना कोई छुट्टी लिये, हफ्ते में सातों दिन 12-14 घण्टे ओवरटाइम न करें और ऊपर से बीच-बीच में नाइट न लगायें तो गुज़ारा कैसे चलेगा, आप ख़ुद सोच सकते हैं।

एक और लॉज के एक कमरे में रहने वाले पाँच मज़दूरों के खर्च का मोटा-मोटा हिसाब यहाँ दिया जा रहा है। इनका मकानमालिक थोड़ा उदार है इसलिए एक कमरे में 5 लोगों को रहने की इजाज़त दे दी है, वरना तीन से अधिक नहीं रह सकते।

कमरे का किराया (1400), बिजली का बिल (200), राशन, तेल, सब्ज़ी, गैस, मंजन-साबुन आदि का कुल खर्च (7000), पाँचों लोगों का बाहरी खर्च (पान-मसाला, बीड़ी, चाय-पान, बस भाड़ा, देशी शराब आदि मिलाकर 5000), साल भर के कपड़े, चप्पल आदि का औसत मासिक खर्च (1000), यानी कुल 14,600 रुपये। इस तरह, खर्च कम करने के लिए 8 गुणा 8 फीट के छोटे-से कमरे में पाँच लोगों के रहने के बावजूद एक मज़दूर को गुज़ारा करने के लिए कम से कम 2900 रुपये चाहिए। इन सभी मज़दूरों को गाँव में अपने परिवार के पास महीने में ढाई से तीन हज़ार रुपये भेजने पड़ते हैं। किसी के घर में बूढ़े माँ-बाप हैं, किसी की पत्नी और छोटे बच्चे हैं, तो किसी के घर में दूसरा कोई रोज़गार नहीं है। कभी बीमार पड़े तो उतने दिन की दिहाड़ी भी गयी और दवा-इलाज का खर्च उफपर से। फिर सोचना पड़ता है कि अपनी रोटी काटें या फिर माँ-बाप-बच्चे के गुज़ारे में से कटौती करें।

यह भी ध्यान रखने की बात है कि ऊपर की सारी चर्चा ऐसी बस्ती की है जो कारख़ाना इलाके से लगी हुई है इसलिए रोज़ काम पर आने-जाने का खर्च इसमें शामिल नहीं है। मगर यहाँ ऐसे भी मज़दूर रहते हैं जो दूर-दूर तक काम करने जाते हैं। कुछ लोग जो पहले बस से जाते थे अब पैसे बचाने के लिए एक-एक घण्टा पैदल चलकर काम पर जाते हैं। पिछले चन्द सालों में दिल्ली में दर्जनों बस्तियों को उजाड़कर लाखों मज़दूरों को शहर के बाहरी इलाकों में फेंक दिया गया है। इन मज़दूरों को किराये-भाड़े का मारक बोझ भी उठाना पड़ता है।

कुछ दिन पहले देश के योजना आयोग ने कहा था कि शहर में जो व्यक्ति रोज़ 32 रुपये खर्च कर लेता है वह ग़रीब नहीं है। इस हिसाब से तो इस बस्ती के सारे मज़दूर मालामाल कहे जायेंगे! कई बुद्धिजीवी अपने कमरों में बैठकर या टीवी चैनलों पर बहस किया करते हैं कि ग़रीबी के ये आँकड़े कितने सही या कितने ग़लत हैं। ऐसे लोगों को पकड़कर इन बस्तियों में लाया जाना चाहिए और दिखाना चाहिए कि 12-14 घण्टे पसीना बहाने के बाद भी मज़दूर किस तरह जानवरों ज़ैसी ज़िन्दगी बसर करने पर मजबूर हैं। ये लोग हमारे घावों पर ऐसे ही नमक छिड़कते रहेंगे, जब तक मज़दूर ख़ुद अपनी इस हालत के ख़िलाफ़ आवाज़ नहीं उठायेगा।

ऐसी भयानक महँगाई में भी अगर हम जैसे-तैसे जोड़-तोड़कर, बचत-कटौती करके, मालिकों से थोड़ी-बहुत मज़दूरी बढ़ाने की चिरौरी-मिन्नत करके बस किसी तरह जी लेने में ही लगे रहेंगे तो हमें इस हालत से कभी भी निजात नहीं मिलेगी। हमें यह समझना ही होगा कि जब तक पूँजीवाद रहेगा, महँगाई कभी ख़त्म नहीं हो सकती।

 

मज़दूर बिगुल, अगस्त-सितम्बर 2012

 


 

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