सी.ओ.पी-26 की नौटंकी और पर्यावरण की तबाही पर पूँजीवादी सरकारों के जुमले
– भारत
बीते 31 अक्टूबर से 13 नवम्बर तक स्कॉटलैण्ड के ग्लासगो में ‘कॉन्फ़्रेंस ऑफ़ पार्टीज़ (सीओपी) 26’ का आयोजन किया गया। पर्यावरण की सुरक्षा, कार्बन उत्सर्जन और जलवायु संकट आदि से इस धरती को बचाने के लिए क़रीब 200 देशों के प्रतिनिधि इसमें शामिल हुए। कहने के लिए पर्यावरण को बचाने के लिए इस मंच से बहुत ही भावुक अपीलें की गयीं, हिदायतें दी गयीं, पर इन सब के अलावा पूरे सम्मेलन में कोई ठोस योजना नहीं ली गयी है। (ज़ाहिर है कि ये सब करना इनका मक़सद भी नहीं था।)
कहने के लिए इस सम्मेलन का मक़सद था कि वैश्विक उत्सर्जन कम करने का लक्ष्य तय करना और उसे देश की नीतियों में लागू करना। साथ ही सीओपी-21 में जो पेरिस समझौता हुआ था, उसके अन्तर्गत कितना लक्ष्य पूरा हुआ, इसकी भी रिपोर्ट पेश की गयी। पेरिस समझौते में 194 देशों के राष्ट्राध्यक्षों, प्रधानमंत्रियों, पर्यावरण मंत्रियों ने मिलकर तय किया था कि भूमण्डलीय ताप जो कि सदी के अन्त तक 2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है, उसे कम कर 1.5 डिग्री तक लाना है। इस सम्मेलन में उत्सर्जन को कम करने के लिए किये गये प्रयोगों की भी रिपोर्ट पेश की गयी। रिपोर्ट से सिर्फ़ और सिर्फ़ निराशा ही हाथ लगी। क्योंकि सभी देशों की सरकारों को पूँजीपति वर्ग के हितों का पहले ध्यान रखना होता है, न कि पर्यावरण का।
2030 तक राष्ट्रीय स्तर पर उत्सर्जन कम करने का जो लक्ष्य निर्धारित किया गया था, सभी देश उसमें बहुत पीछे हैं। 2030 तक 45 प्रतिशत उत्सर्जन कम करना था, पर अभी हालात यह कि यह दुगने से भी तेज़ रफ़्तार से बढ़ रहा है। अगर इसी प्रकार यह उत्सर्जन होता रहा तो सदी के अन्त तक यह 2.7 डिग्री सेल्सियस होगा जो कि पेरिस समझौते की तय सीमा से क़रीब 1 डिग्री सेल्सियस ज़्यादा है। इस हिसाब से अभी 2030 तक उत्सर्जन कम करने का लक्ष्य दूर की कौड़ी ही साबित होगा। पूँजीपति वर्ग अपने मुनाफ़े की हवस को पूरा करने के लिए पर्यावरण का शोषण तो करेंगे ही!
इसमें विकासशील देशों पर ज़ोर दिया गया कि जीवाश्म ईंधन से पूँजी निवेश स्थानान्तरित करके ‘हरित’ तकनीक और आधारभूत में निवेश करें। पर असल बात तो यह है कि हरित विकास तकनीक विश्वभर में बहुत अधिक उन्नत नहीं की गयी है क्योंकि इस पर निवेश ही नहीं किया गया है। जितनी हरित तकनीक है वह भी उन्नत देशों के पास ही है और वे उसे विकासशील देशों को नहीं देना चाहते। असल में ये पर्यावरण से नहीं बल्कि राजनीतिक अर्थशास्त्र से जुड़ा है। विकासशील देशों के शासक पूँजीपति वर्ग को हरित तकनोलॉजी अपनाने और जीवाश्म-ईंधन का इस्तेमाल छोड़कर कार्बन उत्सर्जन को कम करने के उपदेश देने वाले विकसित देश के पूँजीपति वर्ग अपने उभार के दौर में इन्हीं जीवाश्म ईंधनों का ज़बर्दस्त इस्तेमाल कर चुके हैं। इसलिए विकासशील देशों का पूँजीपति वर्ग इनके इन उपदेशों पर कहता है कि जब तुमने किया तो ठीक, जब हम करें तो ग़लत! लेकिन असली बात यह है कि मुनाफ़े की ख़ातिर आपस में गलाकाटू प्रतिस्पर्द्धा में लगे अलग-अलग देशों के पूँजीपति वर्ग और एक देश के भीतर पूँजीपति वर्ग के अलग-अलग धड़े कभी भी पर्यावरण की परवाह नहीं कर सकते हैं। वे धरती को बचाने के लिए दीर्घकालिक तौर पर प्रकृति को संरक्षित करने की कोई नीति अपना ही नहीं सकते हैं। कोई भले दिल का पूँजीपति ऐसा करेगा तो उसका मुनाफ़ा मारा जायेगा और कोई और पूँजीपति उसे निगल जायेगा। सच्चाई तो यह है कि मेहनत और कुदरत की लूट पर टिकी व्यवस्था में पर्यावरण को बचाने की उम्मीद करना व्यर्थ है। यही कारण है कि अब समाजवाद का प्रश्न मनुष्यता के अस्तित्व का प्रश्न बन गया है।
इण्टरनेशनल एनर्जी एरिया की रिपोर्ट बताती है कि 509 टन कोयले, कच्चे तेल और गैस का उत्पादन सिर्फ़ 2020 में ही किया गया है। वहीं अमेरिका आज पूरे विश्व का 20 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन कर रहा है, चीन 11 प्रतिशत, रूस 7 प्रतिशत व ब्राज़ील 5 प्रतिशत।
इस सम्मेलन में दो सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जन करने वाले देशों अमेरिका और चीन के बीच समझौता हुआ कि दोनों मिलकर ग्लोबल वार्मिंग को कम करेंगे। ऐसे समझौतों पर सिर्फ़ हँसी ही आ सकती है, क्योंकि हमेशा की तरह इसपर कोई ठोस बात नहीं कही गयी है कि आख़िर कैसे ग्लोबल वार्मिंग को वे देश रोकेंगे जो सबसे ज़्यादा कार्बन उत्सर्जन करते हैं! साथ ही, ऐसे क़रार पहले भी हो चुके हैं लेकिन स्थिति में कोई गुणात्मक परिवर्तन नहीं आया है। इसकी वजह ठीक यही है कि पूँजीपति वर्ग पर्यावरण को बचाने की क़ीमत अपने मुनाफ़े के तौर पर नहीं चुकाना चाहता है।
इस समय इन दोनों साम्राज्यवादी देशो की आपस में गलाकाटू प्रतियोगिता चल रही है। चीन कार्बन उत्सर्जन में अमेरिका को टक्कर दे रहा है। इनके बीच हुए समझौते की सच्चाई इससे ही सामने आ जाती है कि इस बीच चीन 143 नये कोयला प्लाण्ट लगाने जा रहा है और 1000 के क़रीब प्लाण्ट पहले से ही कार्यरत हैं। वहीं अमेरिका के बाइडन प्रशासन ने घोषणा की है कि वो भी आगामी समय में कच्चे तेल और गैस का उत्पादन करेंगे, जो क़रीब 50 मिलियन बैरल होगा और इसके साथ ही 4.4 टन जीवाश्म गैस भी बनायेगा। असल में सम्मेलन में समझौता सिर्फ़ दिखावे के लिए किया गया है। इसके पीछे मुनाफ़े की प्रतिस्पर्धा छिपी हुई है।
चीन की आर्थिक वृद्धि का आधार ही कोयला और तेल आधारित उद्योग हैं। इन्हीं उद्योगों और उनमें मज़दूरों के भयंकर शोषण के बूते चीन पिछले कई वर्षों से ज़बर्दस्त वृद्धि कर रहा है। दूसरी तरफ़ अमेरीका और यूरोपीय अर्थव्यवस्था भी संकट की मार झेल रही है। उन्हें चीन से ही चुनौती भी मिल रही है जो आने वाले समय में उनके लिए और भी गम्भीर होती जायेगी।
इसके साथ ही साम्राज्यवादी देशों ने दिखावे के लिए 100 बिलियन डॉलर पर्यावरण सुधार के लिए देने की बात कही, यह स्पष्ट नहीं किया कि किस रूप में इसका आवण्टन होगा और इसे 2023 तक टाल दिया गया।
वार्ता के आख़िर में जीवाश्म ईंधन के प्रयोग को ‘फ़ेज़ आउट’ करने के बजाय ‘फ़ेज़ डाउन’ करने की बात कही गयी जो कि विकसित साम्राज्यवादी देशों की चौधराहट दिखाता है। वहीं दूसरी ओर जीवाश्म ईंधन पर सब्सिडी को पूरी तरह बन्द करने का प्रस्ताव भी रखा गया जिसका भारत और चीन ने विरोध किया। इसपर भारत के जलवायु परिवर्तन मंत्री ने कार्बन बजट पर विकासशील देशों के न्योचित अधिकार की बात कही। इसी के साथ यह सम्मेलन पूरी तरह विफल हो गया क्योंकि भारत और चीन जैसी उभरती पूँजीवादी ताक़तों की भी अपनी साम्राज्यवादी महत्वकांक्षाएँ हैं और राजनीतिक मसलों पर भारत अपने राजनीतिक हितों को ही प्राथमिकता देता है। यह भी दर्शाता है कि भारत साम्राज्यवादी देशों का दलाल नहीं बल्कि कनिष्ठ साझीदार है।
भारत के प्रधानमंत्री मोदी ने भी इस सम्मलेन को सम्बोधित किया और बड़ी लोकलुभावन जुमलेबाज़ी की जिसके लिए वो जाने जाते हैं। मोदी ने बताया कि भारत 2030 तक अपनी ग़ैर-जीवाश्म ऊर्जा को 500 गीगावाट तक पहुँचाएगा और 50 प्रतिशत ऊर्जा की ज़रूरत अक्षय ऊर्जा से पूरी करेगा। इसके साथ कार्बन उत्सर्जन में एक अरब टन की कमी करेगा तथा 2070 तक भारत नेट ज़ीरो का लक्ष्य हासिल करेगा।
ये सब बातें बड़े मंच से पेश करने के लिए किये जा रहे दिखावे का अंग थीं, पर असल में फ़ासीवादी मोदी सरकार पर्यावरण का दोहन कर पूँजीपति वर्ग की सेवा करने में सबसे आगे रहती है। जिस तरह से ग्लोबल वार्मिंग के कारण वैश्विक तापमान में वृद्धि हो रही है, उसका असर हिमालय पर्वत श्रृंखला पर भी दिख रहा है। एक अनुमान के मुताबिक़, उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश और जम्मू और कश्मीर में लगभग सैंकड़ो की तादाद मे ग्लेशियर हैं। हाल के समय हिमालयी क्षेत्र के कई भाग ऐसे हैं जहाँ बांध निर्माण व सड़क निर्माण आदि के कारण पर्वतों की ढाल पूर्व की अपेक्षा अधिक हो गयी है। सड़कें आदि बनाने के लिए बड़े पैमानों पर वृक्षों की कटाई के कारण भी पहाड़ों पर मृदा अपरदन की दर तेज़ हुई है और इन कारणों के वजह से भूस्खलन की घटनाएँ बढ़ी हैं। हालात कितने भयावह हैं, इस बात का अन्दाज़ा इससे लगाया जा सकता है कि सिर्फ़ पिछले दो सालों में हिमाचल व उत्तराखण्ड में क़रीब 170 भूस्खलन की घटनाएँ हो चुकी हैं। वहीं ‘काउंसिल ऑन एनर्जी एनवॉयरमेण्ट एण्ड वाटर’ ने अपने हाल के अध्ययन में बताया है कि 1970 से लेकर अब तक उत्तराखण्ड में भूस्खलन व बाढ़ जैसी त्रासदियाँ 4 गुना बढ़ी हैं।
चार धाम महामार्ग सड़क परियोजना के भी परिणाम घातक सिद्ध हो रहे हैं, जिसे प्रधानमंत्री मोदी ने बहुत शोर-शराबे के साथ उद्घाटित किया था ताकि एक साथ विकास पुरुष व हिन्दू हृदय सम्राट की छवि को मज़बूत कर सकें। इस परियोजना के शुरू होने के बाद क़रीब 25,300 पेड़ काटे जा चुके हैं और क़रीब 373 हेक्टेयर वन भूमि प्रभावित हुई है। जब स्थानीय लोगों ने इस परियोजना के ख़िलाफ़ आवाज़ उठायी व इसे चुनौती दी तो सरकार ने क़ानूनों में मौजूद प्रावधानों की ख़ामियों का फ़ायदा उठाते हुए एनजीटी के समक्ष इस सड़क परियोजना को 57 हिस्सों में बँटा हुआ क़रार दे दिया, क्योंकि 100 किमी से कम दूरी के हाइवे निर्माण के लिए एनवायर्नमेण्टल क्लीयरेंस यानी पर्यावरणीय इजाज़त की ज़रूरत ही नहीं होती। ये दिखाता है कि बड़े मंचों पर जाकर साफ़ नीयत के कितने भी दावे प्रधानमंत्री कर लें, पर मज़दूर-मेहनतकश आबादी के शोषण के साथ-साथ पर्यावरण का दोहन कर अपने मालिकों की सेवा करना ही उसका असल मक़सद है।
बताने की ज़रूरत नहीं कि पूँजीवादी देशों के बीच पर्यावरण को बचाने के सवाल पर आम सहमति बन पाना मुश्किल है। प्रतिस्पर्धा और बाज़ार की अन्धी ताक़तों पर टिकी एक पूँजीवादी दुनिया में विभिन्न देशों के पूँजीवादी लुटेरे कभी एकजुट होकर मानवता के दूरगामी हितों के बारे में नहीं सोच सकते। मुनाफ़े की गलाकाटू प्रतियोगिता और एक दूसरे से आगे निकल जाने की होड़ उन्हें कभी इस पर सोचने की इजाज़त नहीं दे सकती। पर्यावरणीय आपदा पूँजीवाद जनित आपदा है। इस दुनिया के आदमख़ोर राष्ट्रपारीय-बहुराष्ट्रीय निगम और समूचा पूँजीपति वर्ग ही है जो पर्यावरण तबाह कर रहे हैं। दुनियाभर की पूँजीवादी सरकारें इन्हीं पूँजीपति वर्गों की नुमाइन्दगी करती हैं। भारत में फ़ासीवादी मोदी सरकार पर्यावरण को और भी अधिक भयानक रूप से तबाह-बर्बाद कर रही है, ताकि यहाँ के कॉरपोरेट पूँजीपति वर्ग समेत समूचे पूँजीपति वर्ग की और भी नग्न तरीक़े से सेवा की जा सके। इसलिए आज पहले से कहीं अधिक ज़रूरत है कि इस मुनाफ़ाख़ोर पूँजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंका जाये और मानव-केन्द्रित समाजवादी व्यवस्था का निर्माण किया जाये। ऐसी व्यवस्था का निर्माण एक समाजवादी क्रान्ति के ज़रिए ही हो सकता है और एक ऐसी व्यवस्था में ही प्रकृति और मानव समाज के बीच एक सही सम्बन्ध स्थापित हो सकता है, जिसमें इन्सान केवल प्रकृति का उपभोग व इस्तेमाल ही नहीं करता, बल्कि उसे लगातार पुनर्जीवन भी प्रदान करता है। संक्षेप में, पर्यावरणीय संकट कोई “मानव-जनित संकट” नहीं है, बल्कि पूँजीवाद-जनित संकट है और पूँजीवाद के ध्वंस और समाजवाद के निर्माण के साथ ही इसका अन्त हो सकता है।
आज दो ही रास्ते हैं या तो हम चुपचाप पर्यावरण को तबाह होते देखते रहें, सी.ओ.पी-26 जैसी नौटंकी देखते रहें या फिर मानवता और पर्यावरण को बर्बाद करने वाली इस व्यवस्था को बदल डालें। तय हमें करना है।
मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2021
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