पर्यावरण और मज़दूर वर्ग
– भारत
हर साल की तरह इस बार भी इस मौसम में दिल्ली-एनसीआर एक गैस चैम्बर बन गया है जिसमें लोग घुट रहे हैं। दिल्ली और आसपास के शहरों में धुँआ और कोहरा आपस में मिलकर एक सफ़ेद चादर की तरह वातावरण में फैला हुआ है, जिसमें हर इन्सान का साँस लेना दूभर हो रहा है। ‘स्मोक’ और ‘फॉग’ को मिलाकर इसे दुनियाभर में ‘स्मॉग’ कहा जाता है। मुनाफ़े की अन्धी हवस को पूरा करने के लिए ये पूँजीवादी व्यवस्था मेहनतकशों के साथ-साथ प्रकृति का भी अकूत शोषण करती है, जिसका ख़ामियाज़ा पूरे समाज को जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण व ध्वनि प्रदूषण के रूप में भुगतना पड़ता है। इससे भी सबसे ज़्यादा प्रभावित मेहनतकश अवाम ही होती है क्योंकि उनके पास इस प्रदूषण से बचने के लिए कोई भी सुरक्षा नहीं है और न ही इससे होने वाली बीमारियों का उन्हें बेहतर ढंग से इलाज मिल पाता है।
आइए पहले जान लें कि आज प्रदूषण का स्तर कितना जानलेवा हो चुका है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक़ वायु प्रदूषण दिल की बीमारियों, फेफड़े के रोगों, फेफड़े के कैंसर, मस्तिष्क आघात जैसी जानलेवा बीमारियों के जोखिम को बढ़ाने वाला एक प्रमुख कारण है। साँस की नली में संक्रमण का जोखिम भी इससे बढ़ जाता है और दमे की समस्या गम्भीर हो जाती है। दिल्ली को लगातार तीसरी बार दुनिया की सबसे ज़्यादा प्रदूषित राजधानी का ‘तमग़ा’ मिला है। स्विट्ज़रलैंड की संस्था आई.क्यू. एयर की रेटिंग में दिल्ली दुनिया की 50 राजधानियों में सबसे ज़्यादा प्रदूषण वाला शहर है। यहाँ पर पी.एम 2.5 का स्तर काफ़ी ज़्यादा है, जो फेफड़ों से सम्बन्धित बीमारियों को जन्म देता है। आईक्यू एयर की 2020 वर्ल्ड एयर क्वालिटी रिपोर्ट में 106 देशों के प्रदूषण स्तर का डेटा जांचा गया। ग़ौरतलब है कि दुनिया के 50 सबसे ज़्यादा प्रदूषित शहरों में से 35 भारत में मौजूद हैं, जिनमें दिल्ली सबसे ज़्यादा प्रदूषित शहर और दुनिया की सबसे ज़्यादा प्रदूषित राजधानी है। इसी संस्था की रिपोर्ट के मुताबिक़ वायु प्रदूषण की वजह से नई दिल्ली में साल 2020 में 54 हज़ार लोगों की असामयिक मृत्यु यानी समय से पहले मौत हुई है और भारत मे हर साल 20 लाख लोगों की मौत वायु प्रदूषण की वजह से होती है। यूनिसेफ़ की 2016 की एक रिपोर्ट के अनुसार सिर्फ़ वायु प्रदूषण के कारण हर पाँच वर्षों के दौरान दुनिया में 6 लाख बच्चों की मौत होती है। दुनिया के दो अरब बच्चे प्रदूषित हवा में साँस लेते हैं। इनमें से 62 करोड़ बच्चे दक्षिण एशिया के (जिनमें भारत सबसे ऊपर है), 52 करोड़ अफ़्रीका के तथा 45 करोड़ पूर्वी एशिया व प्रशान्त क्षेत्र के हैं। अब तक के शोधों के अनुसार, वायु प्रदूषण से टी.बी., दमा, फेफड़ों के कैंसर और दिल के रोगों के साथ ही दिमाग़ भी क्षतिग्रस्त हो जाता है। गर्भवती स्त्रियाँ, गर्भस्थ बच्चे और कम उम्र के बच्चे इससे सर्वाधिक प्रभावित होते हैं।
दीवाली के बाद दिल्ली के कई हिस्सों में पार्टिकुलेट मैटर (पीएम) 2.5 की कॉसंट्रेशन 999 प्रति क्यूबिक मीटर मापी गयी। पीएम 2.5 के इस स्तर को स्वास्थ्य विशेषज्ञ बेहद ख़तरनाक मान रहे हैं। सिस्टम ऑफ़ एयर क्वालिटी एण्ड वेदर फ़ॉरकास्टिंग एण्ड रिसर्च (सफ़र) के मुताबिक़ दिल्ली में 4 नवम्बर के बाद से पीएम 2.5 प्रदूषकों के स्तर में 38 प्रतिशत तक की वृद्धि हुई है। ऐसे वातावरण में रहने वाले लोगों को गम्भीर बीमारियों का ख़तरा हो सकता है। आँकड़ों के मुताबिक़ साल 2015 में पीएम 2.5 के लम्बे समय तक सम्पर्क में रहने के कारण दुनियाभर में 42 लाख से अधिक लोगों की जान गयी थी। लगातार कई दिनों से दिल्ली का एक्यूआई ‘बेहद ख़राब’ और ‘गम्भीर’ की श्रेणी में बना हुआ है।
इस बेहद गम्भीर स्थिति के लिए कारख़ानों की अनियंत्रित धुँआ उगलती चिमनियों के साथ-साथ सड़कों पर हर रोज़ बढ़ती वाहनों की संख्या ही मुख्य तौर पर ज़िम्मेदार है। अकेले दिल्ली की सड़कों पर रोज़ाना 1 करोड़ 15 लाख से भी ज़्यादा मोटर वाहन चलते हैं और इनकी संख्या हर साल बेरोकटोक बढ़ती जा रही है। जाड़े के दिनों में दिल्ली और आसपास के राज्यों में स्मॉग और प्रदूषण की समस्या को अति-गम्भीर बनाने वाला एक अतिरिक्त कारण पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड के तराई अंचल के किसानों द्वारा मध्य अक्टूबर से लेकर नवम्बर के शुरुआती हफ़्ते तक खेतों में धान की पराली जलाना होता है। इसमें पंजाब सबसे आगे है। दूसरे स्थान पर हरियाणा है, लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश और तराई में भी यह चलन बढ़ता जा रहा है और अब राजस्थान भी इसकी चपेट में है। जबकि पराली जलाने की अति-गम्भीर समस्या के कई तकनीकी समाधान आज मौजूद हैं। देखा जाये तो मुट्ठीभर जो धनी किसान हैं, उन्हीं के पास खेती की ज़मीन का 90 प्रतिशत के आसपास है और वही पराली जलाते हैं। छोटे किसान पराली नहीं जलाते हैं। अदूरदर्शी मुनाफ़ाख़ोर बड़े किसान यह नहीं सोच पाते कि पराली जलाने से खेत की मिट्टी से पोषक जैविक तत्वों का भारी विनाश होता है और रासायनिक उर्वरकों-कीटनाशकों पर उनकी निर्भरता बढ़ती जाती है। वे सिर्फ़ तात्कालिक बचत और मुनाफ़े के बारे में सोचते हैं। सुपर स्ट्रॉ मैनेजमेण्ट सिस्टम, टीएचएस मशीन का प्रयोग, प्लावर के प्रयोग से पराली को मिट्टी में मिला देना और रोटावेटर और बेलर के इस्तेमाल जैसी पराली के निस्तारण की तमाम तरीक़े उपलब्ध होने के बावजूद लागत कम से कम रखने के लिए धनी किसान इन्हें नहीं अपनाते और सरकारें भी अपनी वर्ग-पक्षधरता के चलते चुप्पी साधे रहती हैं। भारत जैसे पिछड़े पूँजीवादी देशों में अभी भी ऊर्जा के लिए ख़राब क़िस्म के डीज़ल-पेट्रोल और कोयले का ही ज़्यादा प्रयोग किया जाता है, जो प्रदूषण के फैलने का एक बड़ा कारण है।
इन सब पर केजरीवाल ने भी नौटंकी करते हुए दफ़्तर और स्कूल बन्द कर दिये, पर कारख़ानों में जहाँ मज़दूर वायु प्रदूषण के साथ-साथ कारख़ानों के अन्दर के ज़हर से जूझते है, उनके बारे में एक शब्द नहीं बोला। साथ ही यही केजरीवाल सरकार कारख़ाना मालिकों को भी पर्यावरण को तबाह करने का पूरा अधिकार दे रही है। इसके अलावा इस बार प्रदूषण की इस आपातकालीन स्थिति से निपटने के लिए फिर से बिना किसी तैयारी के लॉकडाउन की बात करने लगा।
मज़दूर वर्ग की बात करें तो उन्हें गर्मी में लू के थपेड़े पड़ते हैं, बारिश में नाले का सड़ा हुआ पानी घर में घुसता है और जाड़े में पर्याप्त कपड़े न होने की वजह से वह मारा जाता है। और अब इसी मरणासन्न सड़ते हुए पूँजीवाद ने वायुमण्डल को भी बुरी तरह प्रदूषित कर दिया है। इससे मज़दूर वर्ग को मौसम की मार के साथ-साथ इस प्रदूषण से भी जूझना पड़ रहा है। उच्च और मध्य मध्यम वर्ग तो तमाम तरह के संसाधनों का प्रयोग कर एक हद तक इस प्रदूषण से बच भी जाता है और इसे न हल हो सकने वाली समस्या बताता है। पर मज़दूर इलाक़ों में बिना फ़िल्टर वाली चिमनियों से ज़हरीला धुआँ निकलता रहता है, कूड़े-करकट के निकास तक की ढंग की व्यवस्था नहीं होती, बस मध्यवर्गीय और उच्च वर्गों के इलाक़ों से कूड़ा इकट्ठा कर मज़दूर बस्तियों के आस-पास कहीं जमा कर दिया जाता है। मज़दूर इलाक़ों के आस-पास कूड़े के ढेर से भी कई प्रकार की बीमारियाँ फैलती हैं। इसके अलावा जिन कारख़ानों में मज़दूर काम करने जाते हैं, वहाँ सुरक्षा के कोई इन्तज़ाम नहीं होते। केमिकल लाइन, दाना लाइन जैसे कारख़ानों के धुएँ व गैस के बीच तो मज़दूर आम दिनों में भी रहते ही है, जहाँ पर स्थिति हमेशा गम्भीर श्रेणी में बनी रहती है। ऐसी जगहों पर कितने भी मास्क आदि लगा लिये जायें, किसी काम के नहीं। कारख़ानों की अन्धी कोठरियों में साफ़ हवा तक नहीं आती। इस सब के साथ अब मज़दूरों को इस व्यवस्था द्वारा फैलाये गये प्रदूषण को भी झेलना होगा।
कुल मिलाकर, यही कहा जा सकता है कि वायु प्रदूषण की समस्या पूँजीवादी समाज व्यवस्था की अन्तर्निहित अराजकता, समृद्धिशाली वर्गों की निकृष्ट स्वार्थपरता और विलासिता तथा पूँजीवादी समाज में सरकारों की वर्गीय पक्षधरता का परिणाम है। जनसमुदाय यदि जागरूक होकर और संगठित होकर दबाव बनाये, तभी सत्तातंत्र को इस समस्या से राहत दिलाने के लिए कुछ सार्थक क़दम उठाने को बाध्य किया जा सकता है। इसके साथ ही ज़रूरी है हमें पर्यावरण के विनाश को रोकने के लिए भी पूरे समाज में लोभ-लालच, मतलबपरस्ती और मुनाफ़ाख़ोरी के दम पर टिकी इस पूँजीवादी व्यवस्था का नाश करने की तैयारी करनी होगी।
मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2021
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