केरल में भूस्खलन एवं असम और आन्ध्र-तेलंगाना में बाढ़ से भीषण तबाही
ऐसी आपदाओं से निजात पाने के लिए पूँजीवाद से निजात पानी होगी

आनन्द

पिछले दो महीनों के दौरान देश के विभिन्न हिस्सों में भारी बारिश से भूस्खलन और बाढ़ जैसी आपदाओं में सैकड़ों लोग मारे गए और लाखों लोग उजड़ गए। जुलाई में केरल के वायनाड ज़िले में स्थित पहाड़ियों में भारी बारिश के बाद हुए भूस्खलन से चार गाँवों का वजूद ही ख़त्म हो गया और क़रीब 300 लोग मारे गए। जुलाई महीने में ही असम में भारी बारिश के बाद आयी बाढ़ से राज्य के 26 जिले प्रभावित हुए और क़रीब 80 लोगों की मौत हो गयी तथा तक़रीबन 17 लाख लोग अपने घरों से उजड़ गए। अगस्त के आखिर और सितम्बर की शुरुआत में बंगाल की खाड़ी में निम्न दबाव का क्षेत्र बनने की वजह से आन्ध्र प्रदेश व तेलंगाना में कई दिनों तक भारी बारिश हुई जिसमें 80 से ज़्यादा लोग मारे गए, एक लाख से ज़्यादा लोग प्रभावित हुए तथा हज़ारों एकड़ ज़मीन में उगायी गयी फ़सलें बर्बाद हो गयीं। सरसरी तौर पर देखने पर ये आपदाएँ कुदरत का कहर जान पड़ती हैं जिनके सामने इन्सान ख़ुद को असहाय पाता है, लेकिन सावधानी से देखने पर हम पाते हैं कि असामान्य तौर पर अधिक वर्षा, भूस्खलन, बाढ़ आदि के लिए कुदरत नहीं बल्कि पूँजीवादी विकास ज़िम्मेदार है और अगर विकास का लक्ष्य मुनाफ़ा न होकर लोगों की ज़रूरतें पूरी करना हो तो ऐसी आपदाओं से बचा जा सकता है।

पिछले कुछ वर्षों के दौरान कम समय में असामान्य रूप से अधिक बारिश की परिघटना बढ़ती हुई दिख रही है जो सीधे तौर पर जलवायु परिवर्तन से जुड़ी हुई है। अब इसमें कोई शक नहीं रहा कि जलवायु परिवर्तन एक सच्चाई है और यह पूँजीवादी विकास का ही नतीजा है। पिछली कुछ शताब्दियों के दौरान दुनिया के विभिन्न हिस्सों में मुनाफ़े को अधिक से अधिक करने की सनक में पृथ्वी के वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों के बेहिसाब उत्सर्जन के वजह से उनकी अधिकता होने से दुनिया के विभिन्न हिस्सों में जलवायु में अनिश्चितता और असामान्यता बढ़ी है और साथ ही आपदाओं की बारम्बारता और उनकी भयावहता भी बढ़ी है। इस प्रकार जलवायु परिवर्तन की वजह से मौसम की बढ़ी अनिश्चितता सूखे और बाढ़ दोनों प्रकार की विभीषिकाओं को जन्म देती है। दुनिया के विभिन्न हिस्सों में बढ़ती गर्मी और असामान्य वर्षा की परिघटनाएँ चीख-चीख कर जलवायु परिवर्तन की वास्तविकता की गवाही दे रही हैं। कहने की ज़रूरत नहीं कि जलवायु परिवर्तन का सबसे ज़्यादा कहर आम मेहनतकश आबादी को ही झेलना पड़ता है।

केरल में भूस्खलन से मची भयानक तबाही

केरल में स्थित पश्चिमी घाट की पहाड़ियों में भूस्खलन पहले भी होते रहे हैं। परन्तु गत 30 जुलाई की रात में वायनाड के मुंडक्कई पुंजिरिमैट्टम, चूरलमाला और अट्टामाला नामक गाँवों में भूस्खलन का जो मंजर देखने में आया वह केरल ही नहीं बल्कि भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास में अभूतपूर्व था। जब भूस्खलन हुआ तो इन गाँवों के निवासी सो रहे थे और उन्हें सँभलने का मौक़ा भी नहीं मिला। सुबह तक ये गाँव मलबे और कीचड़ में तब्दील हो चुके थे। यह भूस्खलन क़ुदरत की एक चेतावनी है कि अगर पश्चिमी घाट की पहाड़ियों में अँधाधुँध पेड़ों की कटाई, निर्माण, खनन और उत्खनन जैसी गतिविधियों पर नकेल नहीं कसी गयी तो आने वाले दिनों में इससे भी भयंकर त्रासदी के मंजर देखने को मिलेंगे।

ग़ौरतलब है कि केरल के वायनाड ज़िले में स्थित पहाड़ियाँ पारिस्थितिकी के लिहाज़ से पश्चिमी घाट के सबसे संवेदनशील क्षेत्रों में आती हैं। साल 2011 में प्रसिद्ध पर्यावरणशास्त्री माधव गाडगिल की अध्यक्षता में बने पश्चिमी घाट पारिस्थितिकी विशेषज्ञ पैनल ने ऐसी आपदाओं के बारे में आगाह किया था और बताया था कि पश्चिमी घाट का 64 प्रतिशत हिस्सा पारिस्थितिकी के लिहाज़ से बेहद संवेदनशील है और इन हिस्सों में आपदाओं से बचने के लिए पेड़ों की कटाई, निर्माण, खनन और उत्खनन जैसी कार्रवाईयों पर रोक लगाने की ज़रूरत है। ऐसे इलाक़ों में वायनाड भी शामिल है। ग़ौरतलब है कि पहाड़ों पर स्थित पेड़ वहाँ की नाज़ुक ज़मीन के लिए कवच का काम करते हैं। पेड़ों की मौजूदगी में बारिश का पानी सीधे ज़मीन पर नहीं गिरता है जिसकी वजह से उसकी धार कम हो जाती है और उसके ज़मीन द्वारा सोख लेने की सम्भावना बढ़ जाती है। लेकिन पेड़ों की कटाई होने से बारिश का पानी तेज़ रफ़्तार से सीधे ज़मीन पर पड़ता है और अपने साथ मिट्टी को लेकर ढलान से नीचे घाटियों की ओर बह जाता है। साथ ही पहाड़ों की चट्टानों पर बारिश का पानी सीधे पड़ने से उनकी अस्थिरता बढ़ जाती है और भूस्खलन का ख़तरा बढ़ जाता है। इसी प्रकार निर्माण कार्य, खनन व उत्खनन की गतिविधियाँ भी पहाड़ों की चट्टानों के दरकने और उसके नतीजे में भूस्खलन की सम्भावना को बढ़ाती हैं। यही वजह है कि गाडगिल पैनल ने इन गतिविधियों पर रोक लगाने की सिफ़ारिश की थी। परन्तु केन्द्र व राज्य सरकारों ने इन सिफ़ारिशों पर कोई ध्यान नहीं दिया। बाद में गाडगिल पैनल की रिपोर्ट का मूल्यांकन करने के लिए कस्तूरीरंगन कमेटी बनायी गयी जिसने गाडगिल पैनल की रिपोर्ट में दी गयी सख़्त सिफ़ारिशों पर लीपापोती करते हुए सीमित रूप से निर्माण कार्य, खनन व उत्खनन की गतिविधियों पर रोक लगाने की बजाय उनको नियन्त्रित करने की सिफ़ारिश दी। लेकिन कॉरपोरेटों, बिल्डरों, खनन माफ़ियाओं और ठेकेदारों के हितों की नुमाइन्दगी करने वाली सरकारों ने इस रिपोर्ट पर भी कोई ठोस कार्रवाई कार्रवाई नहीं की। ग़ौरतलब है कि केरल में पिनाराई विजयन के नेतृत्व वाली फ़र्जी वामपन्थी सरकार ने भी पारिस्थितिकी से जुड़े इतने अहम मुद्दे पर कोई कार्रवाई नहीं की और वायनाड में विकास के नाम पर विनाश की गतिविधियों को बदस्तूर जारी रखने दिया। इसके अलावा, वायनाड ज़िले में भारी बारिश के बाद भूस्खलन की प्रबल सम्भावना होने के बावजूद ग्रामीणों को कोई चेतावनी नहीं दी गयी तथा न तो केन्द्र सरकार ने और न ही राज्य सरकार ने ऐसी आपदाओं से बचने के लिए पहले से कोई तैयारी की। आपदा प्रबन्धन की पूरी सरकारी मशीनरी आपदा होने के बाद जाकर सक्रिय होती है। आपदा को रोकने की दिशा में कोई क़दम नहीं उठाया जाता है।

असम में बाढ़ की विभीषिका

जुलाई के पहले सप्ताह में असम व उत्तर-पूर्व के अन्य राज्यों में भारी बारिश हुई जिसकी वजह से असम के दर्जनो ज़़िले भीषण बाढ़ की चपेट में आ गए। बारिश की वजह से ब्रह्मपुत्र और उसकी दर्ज़नों सहायक नदियाँ ख़तरे के निशान से ऊपर बहने लगीं और बाढ़ का पानी इन नदियों के किनारे बसे गाँवों, क़स्बों और शहरों में फैल गया। असम के उत्तर में अरुणाचल प्रदेश के पहाड़ों और दक्षिण में मेघालय की पहाड़ियों में हुई भारी बारिश का पानी ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियों में जमा होने की वजह से बाढ़ का स्वरूप और भयावह हो गया। असम सहित उत्तर-पूर्व के समूचे इलाक़े में हाल के वर्षों में असामान्य बारिश और बादल फटने की कई घटनाएँ सामने आयी हैं जो जलवायु परिवर्तन का ही नतीजा है। इसके अलावा पेड़ों की अँधाधुँध कटाई और बेरोकटोक निर्माण व खनन-उत्खनन की गतिविधियाँ आग में घी डालने का काम कर रही हैं। भारी बारिश, वन-विनाश और अन्धाधुन्ध निर्माण, खनन-उत्खनन की वजह से पहाड़ों की ढलान से बहकर आया गाद और कीचड़ नदियों में जमा होता है जो बाढ़ की विभीषिका को कई गुना बढ़ा देता है।

ऐसा नहीं है कि असम सरकार या केन्द्र सरकार को बाढ़ की इस विभीषिका की वजहों के बारे में कुछ पता नहीं है। राष्ट्रीय बाढ़ आयोग ने असम के 40 प्रतिशत क्षेत्र को बाढ़ की सम्भावना वाले क्षेत्रों में घोषित किया है। वहाँ बाढ़ नियमित अन्तराल पर आती रहती है, लेकिन फिर भी उसपर काबू पाने और उससे होने वाले नुक़सान को कम करने के लिए कोई समग्र योजना नहीं बनायी जाती है। राज्य में सैकड़ों तटबन्ध अब जर्जर हो चुके हैं और बाढ़ रोकना तो दूर वे बाढ़ को बढ़ावा देने की काम कर रहे हैं क्योंकि उनसे निकला गाद और कीचड़ नदियों की तलहटी पर जमा होकर बाढ़ को और भीषण बना देता है।

हद तो तब हो गयी जब बाढ़ की बेहिसाब त्रासदी के आलम में भी असम का भाजपाई मुख्यमन्त्री हिमन्त बिस्वा सरमा अपनी ज़हरीली ज़ुबान से मुस्लिम समुदाय के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाने से बाज़ नहीं आया। लव-जिहाद, लैण्ड जिहाद के फ़र्जी ज़हरीला दुष्प्रचार तो वह आए दिन करता ही रहता है, बाढ़ की त्रासदी के समय उसने बाढ़-जिहाद का नया जुमला उछाला। असम में हुए अनगिनत अवैध निर्माणों में से उसने एक निजी विश्वविद्यालय को बलि का बकरा बनाया क्योंकि उसका मालिक एक मुस्लिम है। ये है भाजपा का बाढ़ नियन्त्रण का तरीक़ा! ऐसे फ़ासिस्ट शासन में अगर बाढ़ से इतनी भीषण तबाही मच रही है तो इसमें ताज्जुब की बात नहीं है। पूँजीवाद अपनी मरणासन्न अवस्था में मानवता को ऐसी त्रासदियाँ ही दे सकता है।

आन्ध्र प्रदेश तेलंगाना में भारी बारिश के बाद आयी बाढ़

अगस्त के अन्तिम दिनों और सितम्बर के शुरुआती दिनों में बंगाल की खाड़ी में शुरू हुए निम्न दबाव के क्षेत्र के कारण आन्ध्र प्रदेश व तेलंगाना में भी भारी बारिश हुई जिसके बाद इन दो राज्यों के कई ज़िले भीषण बाढ़ की चपेट में आए और बड़े पैमाने पर जान-माल की क्षति हुई। आन्ध्र प्रदेश के विजयवाड़ा शहर में बाढ़ का पानी घुस गया और उसके बाद कई दिनों तक जनजीवन अस्तव्यस्त रहा। केरल और असम की तरह आन्ध्र-तेलंगाना में भी भारी बारिश जलवायु परिवर्तन का ही नतीजा है। विजयवाड़ा जैसे शहरों में आयी भीषण बाढ़ की मुख्य वजह अनियोजित शहरीकरण की परिघटना है। देश के तमाम शहरों की ही तरह विजयवाड़ा और हैदराबाद जैसे शहरों के जलाशयों को पाटकर उनपर बिल्डर माफ़िया द्वारा अपार्टमेण्ट, होटल-रिसॉर्ट और अम्यूज़मेण्ट पार्क बनाए जा रहे हैं जिसकी वजह से इन शहरों में प्राकृतिक जलनिकास प्रणाली तबाह हो चुकी है। ग़ौरतलब है कि इन शहरों की झीलें, तालाब व अन्य जलाशय प्राकृतिक रूप से जलनिकासी के लिए बेहद अहम हुआ करती थीं। परन्तु मुनाफ़े की अन्धी हवस को पूरा करने के लिए हो रहे अनियन्त्रित शहरीकरण की प्रक्रिया में एक ओर इस प्राकृतिक प्रणाली की तबाही हो रही है वहीं दूसरी ओर वैकल्पिक जलनिकासी की कोई समग्र योजना नहीं बनायी जा रही है। यही वजह है कि थोड़ी-सी बारिश होने पर ही इन शहरों में भीषण जलभराव की समस्या पैदा हो जाती है। ख़ासकर नदियों, जलाशयों और नालों के आसपास निचले इलाक़ों में रहने को मजबूर मेहनतकश आबादी के लिए हर साल बारिश का मौसम एक कहर के समान होता है। अगर बारिश ज़्यादा हो जाती है, जैसाकि इस साल हुआ तो फिर यह समस्या और विकराल होकर भीषण बाढ़ का रूप अख़्तियार कर लेती है।

शहरों में जलभराव और बाढ़ की समस्या से निपटने के नाम पर तेलंगाना के मुख्यमन्त्री रेवन्त रेड्डी ने हाल ही में हैदराबाद डिजास्टर रिस्पॉन्स और एसेट प्रोटेक्शन एजेन्सी (हाइड्रा) नामक एक संस्था बनायी है जिसकी बहुत चर्चा हो रही है। यह संस्था हैदराबाद शहर की तमाम झीलों व जलाशयों के आसपास हुए अवैध निर्माण को ध्वस्त करके जलभराव व बाढ़ की समस्या का समाधान करने का दावा करती है। कई पर्यावरणवादी भी रेवन्त रेड्डी के इस क़दम से अभिूभूत हो रहे हैं। आन्ध्र प्रदेश के उपमुख्यमन्त्री पवन कल्याण ने भी इस संस्था की प्रशंसा की है और आन्ध्र प्रदेश में भी ऐसी संस्था बनाने की बात कही है। हाइड्रा ने हैदराबाद में कुछ रसूख़दार लोगों (मिसाल के लिए तेलुगू फ़िल्म स्टार नागार्जुन) के अवैध फ़ार्म हाउस को बुलडोज़र से गिराकर यह जताने का प्रयास किया है कि अमीरों और हैसियतदार लोगों को भी नहीं बख़्शा जायेगा। परन्तु हम जानते हैं कि पूँजीवादी राज्यसत्ता की किसी संस्था को जब बुलडोज़र इस्तेमाल करने की ताक़त दी जाती है तो निर्विवाद रूप से उसके निशाने पर ग़रीब व मेहनतकश आबादी ही होती है। हाइड्रा भी शुरू में दिखाने के लिए कुछ रईसों के अवैध निर्माण ध्वस्त करने के बाद अब ग़रीबों-मेहनतकशों के रहने की जगहों को तबाह करने के काम में जुट गयी है और हैदराबाद में कई जगहों पर उसके ख़िलाफ़ जनप्रदर्शन भी शुरू हो चुके हैं। रेवन्त रेड्डी को अगर अवैध निर्माण से वाक़ई दिक़्क़त है तो वह हैदराबाद शहर में बिल्डर माफ़िया को आगे से कोई भी ठेके न देने का फ़ैसला करते, परन्तु तेलंगाना सरकार ने ऐसा कोई भी क़दम नहीं उठाया है। 

सच तो यह है कि जब तक पूँजीवाद रहेगा तब तक भूस्खलन और बाढ़ जैसी आपदाओं की बारम्बारता और भयावहता बढ़ती ही जायेगी। पूँजीवाद के दायरे में पर्यावरण को बचाने और पारिस्थितिक तन्त्र को स्थिर करने की तमाम कोशिशों के बावजूद अगर यह संकट कम होने की बजाय तीखा ही होता जा रहा है तो ऐसा इसलिए है कि मुनाफ़ा-केन्द्रित और अनियोजित विकास पूँजीवाद की संरचना में ही निहित है। मुनाफ़े की दर को लगातार बढ़ाते जाने की ज़रूरत पूँजी को नियन्त्रण और नियोजन की दीवारों को तोड़कर बेक़ाबू होने पर मजबूर करती है। इस समस्या के समाधान की दिशा में तभी आगे बढ़ा जा सकता है जब सामाजिक उत्पादन की प्रेरणा मुनाफ़ा न होकर लोगों की ज़रूरत पूरा करना हो। केवल तभी जलवायु परिवर्तन, पेड़ों की अन्धाधुन्ध कटाई, बेरोकटोक खनन-उत्खनन की प्रक्रिया को काबू में लाया जा सकता है। केवल ऐसे समाज में ही न सिर्फ़ फ़ैक्टरी के भीतर उत्पादन को योजनाबद्ध किया जा सकता है बल्कि समाज के स्तर पर भी उत्पादन व वितरण की एक समग्र योजना बनायी जा सकती है और उसपर अमल किया जा सकता है। इस प्रक्रिया में ही शहरीकरण को नियोजित किया जा सकता है। सामाजिक उत्पादन की प्रणाली को नज़रअन्दाज़ करके पर्यावरण विनाश की समस्या के समाधान की दिशा में एक क़दम भी नहीं बढ़ाया जा सकता है।         

 

मज़दूर बिगुल, सितम्‍बर 2024


 

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