मुनाफ़े की भेंट चढ़ता हसदेव जंगल : मेहनत और कुदरत दोनों को लूट रहा पूँजीवाद

चन्द्रप्रकाश

पूँजीवादी व्यवस्था में मुनाफ़े की हवस को पूरा करने के लिए पूँजीपति वर्ग द्वारा पर्यावरण की तबाही एक आम नियम हैं। आरे जंगल, बक्सहवा जंगल के बाद मोदी सरकार और मुनाफ़ाखोर गौतम अडानी की गिद्धदृष्टि मध्य भारत के फेफड़ा कहे जाने वाले हसदेव जंगल पर पड़ चुकी है। हसदेव अरण्य उत्तरी छत्तीसगढ़ के तीन जिलों कोरबा, सूरजपुर, और सरगुजा में फैला हुआ है। मध्य भारत के पर्यावरणीय सन्तुलन और मानसून का रुख़ तय करने में इसकी अहम भूमिका है। हसदेव अरण्य का यह इलाका वन्य जीवों और दुर्लभ पेड़-पौधों की प्रजातियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। एक अनुमान के मुताबिक़ इन जंगलों के नीचे करीब 5 अरब टन कोयले का भण्डार है और इसलिए धन्नासेठों और इनकी सेवा में लगी मोदी सरकार किसी भी क़ीमत पर इस जंगल को तबाह कर कोयला खनन पर तुली है। यहाँ के निवासी और देशभर के पर्यावरणविद इसके पेड़ों की कटाई और यहाँ पर खनन की मुखालफ़त करते रहे है क्योंकि पारिस्थितिक तन्त्र को पूरी तरह चौपट कर देने की कीमत पर सरकारें मुट्ठीभर धनपशुओं के मुनाफ़े की हवस को तृप्त करने में लगी हुयी हैं। छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव घोषणापत्र में हसदेव जंगल से कोयला खनन की अनुमति को “धोखा” कहने वाली भाजपा सत्तासीन होते ही अपने इतिहास के मुताबिक़ जनता को ठेंगा दिखा कर अडानी को खदानों के लिए हसदेव जंगल और इसपर आश्रित लाखों लोगों तथा हजारों जैव प्रजातियों की तबाही की पटकथा लिख चुकी है।

छत्तीसगढ़ में भाजपा की ‘विष्णु देव-नरेन्द्र मोदी’ डबल इंजन सरकार ने अडानी के मुनाफ़े की हवस को पूरा करने के लिए 1.76 लाख हेक्टेयर में फैले हसदेव अरण्य की कटाई की अनुमति दे दी है। 21-23 दिसम्बर, 2023 तक 500 पुलिसकर्मियों की तैनाती में हसदेव के कई आदिवासी गाँवों के नौजवानों को नज़रबन्द कर 30,000 से ज़्यादा पेड़ काट डाले गए और अभी 4 लाख से ज़्यादा पेड़ों की कटाई की जानी है। गौरतलब है कि हसदेव अरण्य का इलाका संविधान की पाँचवीं अनुसूची के तहत आता है। जिसके तहत इन इलाकों में ग्राम सभाओं को पेसा क़ानून के तहत विशेष अधिकार प्राप्त है जिसके मुताबिक जब तक ग्राम सभा सहमति नहीं देगी, तब तक खनन के लिए भूमि अधिग्रहित नहीं की जा सकती है। 20 ग्राम सभाओं ने अडानी द्वारा किये जाने वाले जंगल की कटाई और कोयला खनन के ख़िलाफ़ प्रस्ताव पारित किया था। लेकिन अडानी ने 2018 में फर्जी प्रस्ताव बनाकर पेड़ों की कटाई शुरू कर दी। साल 2018 में छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार बनी। इस फर्जी प्रस्ताव के ख़िलाफ़ आदिवासियों ने 75 दिनों तक धरना किया और 300 किलोमीटर की यात्रा निकालकर वे मुख्यमन्त्री भूपेश बघेल के पास पहुँचे। लेकिन कोई सुनवाई नहीं की गई। साल 2023 में भाजपा की सरकार बनी और सत्ता में आते ही भाजपा ने अडानी को दूसरे चरण के खनन की भी अनुमति दे दी। हसदेव अरण्य के परसा ईस्ट केते ब्लॉक के अन्तर्गत पहले चरण के खनन के दौरान 58 मिलियन टन कोयला घोटाला समाने आया था। दूसरे चरण के खनन की शुरुआत 2028 में होनी थी लेकिन तमाम क़ानूनों की धज्जियाँ उड़ाते हुए और आदिवासियों के विरोध के बावजूद परसा ईस्ट केते बासन के इलाके में दूसरे चरण के कोयला खनन के लिए 91 हेक्टेयर पर वनों की कटाई शुरू कर दी गई है।

ऐसे में सवाल उठता है कि क्या भारत के पास अन्य जगहों पर कोयला भण्डार नहीं है? क्या हसदेव जंगल के लाखों पेड़ों की कटाई इसलिए की जा रही है कि भारत में कोयला संकट है!? जवाब है – नहीं। ग्लोबल एनर्जी मॉनिटर के अनुसार कोल इण्डिया लिमिटेड के कोयला खदानों से अबतक उपलब्ध कोयले की केवल 1 फ़ीसदी ही खुदाई हुई है। यानी पहले से भारत सरकार के पास इतने कोयले के खदानों का भण्डार है कि अगले 100 साल तक कोयले की कमी नहीं होने वाली है। दूसरी तरफ भारत सरकार ने 2070 तक कोयले का इस्तेमाल बन्द करने का भी दावा किया है। तो ऐसे में सवाल उठता है कि हसदेव जंगल की कटाई कर कोयला क्यों निकाला जा रहा है?

दरअसल यह सारा खेल 2013 में शुरू हुआ, जब राजस्थान की वसुन्धरा राजे सरकार ने राजस्थान विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड और अडानी इण्टरप्राइजेज लिमिटेड के साथ मिलकर एक ज्वाइण्ट वेंचर बनाया था। जिसका 74 फ़ीसदी मालिकाना अडानी के पास था। पहले राजस्थान सरकार बिजली उत्पादन के लिए कोयला सार्वजनिक उपक्रम, कोल इण्डिया लिमिटेड से कोयला ख़रीदती थी लेकिन इस ज्वाइण्ट वेंचर के बनने के बाद राजस्थान सरकार कोयला अडानी की कम्पनी से कई गुना ज़्यादा दाम पर खरीदने लगी। यानी जनता की गाढ़ी कमाई से वसूले गए टैक्स को राजस्थान सरकार अडानी की झोली में डाल रही है। दूसरा कारण यह है कि हसदेव के इलाके में कोयला निकालने के लिए ज़्यादा गहरा नहीं खोदना पड़ता है, इससे अडानी को खुदाई में होने वाले खर्च में काफ़ी बचत होगी और मोटा मुनाफ़ा होगा। अब सहज ही समझा जा सकता है कि यह उत्खनन देश में कोयले की आपूर्ति के लिए नहीं बल्कि अडानी को मुनाफ़ा पहुँचाने के लिए किया जा रहा है। जिसकी क़ीमत वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण आदि के जरिये इलाके की आम मेहनतकश जनता चुका रही है। वहीं दूसरी ओर अन्धाधुन्ध पेड़ों की कटाई के कारण हाथी तथा अन्य जीव-जन्तु मारे जा रहे हैं और कुछ भाग कर आसपास के गाँवों में जा रहे हैं। पहले से ही छत्तीसगढ़ मानव-हाथी संघर्ष से जूझ रहा है। जिन इलाकों में पेड़ काटे गए हैं वहाँ से हाथी भागकर आसपास के गाँवों में जा रहे हैं और आदिवासियों के घरों को तोड़ रहे हैं और खेतों को बर्बाद कर रहे हैं। हसदेव के कुछ इलाकों से जंगलों की कटाई के बाद हसदेव नदी की कुछ शाखाएँ सूख गई हैं जिसका खामियाजा वहाँ के किसान, जो इन नदियों से सिंचाई कर रहे थे, भुगत रहे हैं। भारतीय वन्यजीव संस्थान के एक रिसर्च में पता चला कि अगर हसदेव जंगल के इलाके को काटा गया तो हसदेव नदी और बांगो बाँध के अस्तित्व पर संकट खड़ा हो सकता है। हसदेव नदी के अस्तित्व पर आने वाले संकट से “धान का कटोरा” कहे जाने वाले छत्तीसगढ़ के 3 लाख हेक्टेयर में लगी फसलों की सिंचाई का संकट खड़ा हो जायेगा। इसके अलावा हसदेव के जंगलों में 150 से ज़्यादा ऐसी वनस्पतियाँ हैं जो विलुप्तप्राय हैं और 67 दुर्लभ चिडियों की प्रजातियाँ हैं, इनका अस्तित्व भी ख़तरे में पड़ जायेगा।

छत्तीसगढ़ में हजारों लोग हसदेव जंगल में पेड़ों की कटाई को रोकने के लिए पिछले एक दशक से आन्दोलन कर रहे हैं तथा जल, जंगल और ज़मीन बचाने की लड़ाई लड़ रहें हैं। लोगों को आन्दोलन में जाने से रोकने के लिए लोगों को डराने-धमकाने से लेकर मीडिया चैनलों के माध्यम से झूठ को सच बनाने की पूरी कोशिश की जा रही है। इस लूट और पर्यावरणीय तबाही में भाजपा और कांग्रेस की अडानी के साथ मिलीभगत है। तमाम बुर्जुआ पार्टियाँ आज पूँजीपतियों के मैनेजिंग कमेटी की तरह काम कर रही हैं और पूँजीपतियों को मुनाफ़ा पहुँचाने के लिए पर्यावरण को तबाह कर रही हैं जिसका खामियाजा आम ग़रीब मेहनतकश वर्ग चुका रहा है। आम तौर पर, पर्यावरण की तबाही को रोकने के लिए ज़रूरी है कि मुनाफ़े पर टिकी इस पूँजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंका जाए और मेहनतकशों का राज कायम किया जाए। जो क्रान्ति की बात किये बिना पर्यावरण को बचाने के लिए रोना-गाना करते हैं, वे जनता को धोखा देते हैं। बिना यह जाने के पर्यावरण को तबाह कर कौन रहा है, आप पर्यावरण को कैसे बचा सकते हैं?

 

मज़दूर बिगुल, फरवरी 2024


 

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