इबोला – महामारी या महाक़त्ल?
ग़रीबों की बस्तियों में सफ़ाई अभियान तब शुरू होता है जब वहाँ पर फैली गन्दगी से पैदा होने वाली बीमारियों का अमीरों के इलाक़ों में फैलने का ख़तरा खड़ा हो जाता है। यह बात आज के मेडिकल ‘अनुसन्धान’ पर अक्षरतः फिट बैठती है। 1976 में इबोला वायरस के पता चलने से लेकर अब तक, इस बीमारी के लिए वैक्सीन बनाने या दवा खोजने का काम कोल्ड-स्टोरेज में पड़ा रहा है क्योंकि इबोला अब तक ग़रीब अफ़्रीकी देशों की बीमारी थी! ग़रीबों को होने वाली बीमारियों के इलाज के लिए आज के मेडिकल अनुसन्धान को तब तक कोई दिलचस्पी नहीं होती है, जब तक कि वह अमीरों के लिए कोई ख़तरा नहीं बनतीं। आज का मेडिकल अनुसन्धान पूरी तरह दवा-कम्पनियों के कब्ज़े में है इसलिए अनुसन्धान उन बीमारियों के लिए होते हैं जिनके लिए दवा खोजने से बड़ा मुनाफ़ा होने की सम्भावना हो, यानी इसके ग्राहक अमीर तथा उच्च-मध्यवर्ग के लोग ही हैं। डायबिटीज़, उच्च रक्तचाप तथा दिल की बीमारियाँ जो मुख्यतः पूँजीपतियों और उनके टुकड़ों पर पलने वाले आरामपरस्त परजीवी लोगों को होती हैं, उनके लिए पहले ही अच्छी-खासी दवाएँ होने के बावजूद अरबों-खरबों डॉलर ‘अनुसन्धान’ पर लुटाये जा रहे हैं जबकि बहुसंख्यक मेहनतकश, मज़दूर आबादी के लिए नयी दवाएँ खोजना तो दूर, आधी सदी पहले से खोजे जा चुके इलाज तथा बीमारियों को रोकने के लिए जानकारी पहुँचाने के लिए फूटी-कौड़ी ख़र्च नहीं की जाती।