2014 के आम लोकसभा चुनावों के लिए शासक वर्गों के तमाम दलालों की साज़िशें
अपने असमाधेय राजनीतिक और आर्थिक संकट से निपटने के लिए शासक वर्ग द्वारा साम्प्रदायिक उन्माद, जातिगत वैमनस्य और क्षेत्रीय कट्टरवाद भड़काकर मज़दूर वर्ग को तोड़ने की तैयारी
सम्पादकीय
2014 के लोकसभा चुनावों की उलटी गिनती शुरू हो चुकी है। सारे चुनावी मदारी अपने बुनियादी एजेण्डे पर वापस लौट रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस-नीत संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन सरकार की बढ़ती अलोकप्रियता और संकट का लाभ उठाना चाहती है लेकिन इन फ़ासीवादियों का अपना खेमा भी भयंकर बिखराव और मारकाट का शिकार है। न तो भाजपा के पास कोई ऐसा नेतृत्व है जो कि इन फ़ासीवादियों की एकजुटता को क़ायम रख सके और न ही वह कांग्रेस की असफलताओं का लाभ उठा पा रही है। भ्रष्टाचार के मसले पर संघ परिवार मौजूदा सरकार को कोने में धकेलना चाहता था लेकिन स्वयं उसके अनुषंगी चुनावी संगठन भाजपा के नेता-मन्त्रियों ने पिछले डेढ़ दशक में केन्द्र की सत्ता में रहने के दौरान और कई राज्यों में सत्ता में रहने के बाद भ्रष्टाचार के ऐसे रिकार्ड बनाये हैं कि भ्रष्टाचार की इस रेस में कौन किससे आगे है, इसका फैसला करने के लिए सरकार को एक आयोग बैठाना पड़ सकता है! भ्रष्टाचार-विरोधी नौटंकी (जिसकी योजना बनाने में संघ परिवार के तोप चिन्तकों ने काफ़ी मगजमारी की थी) के दो-तीन वर्षों में ही भाजपा को समझ में आ चुका है कि भ्रष्टाचार के नाम पर वह कांग्रेस के शरीर से जितने कपड़े नोच सकती है, कांग्रेस भी इस मसले पर उसके शरीर से उतने ही कपड़े नोच सकती है! और एक-दूसरे को नंगा करने के पिछले दो-तीन वर्षों के खेल में अब इन दोनों पूँजीवादी चुनावी पार्टियों ने वैसे भी एक-दूसरे के शरीर पर सूत का एक धागा भी नहीं छोड़ा है। पूँजीवादी मीडिया, पूँजीवादी पार्टियों और अण्णा हज़ारे और केजरीवाल जैसे जोकरों के ज़रिये भ्रष्टाचार का जो हौव्वा खड़ा किया गया था उसकी हवा निकल चुकी है और आम जनता भी समझ चुकी है कि यह मसला तो सिर्फ़ जनता का ध्यान इस व्यवस्था की अन्दरूनी और असमाधेय सड़न-गलन से ध्यान हटाने के लिए उछाला गया था। इस बीच इस पूरी नौटंकी के लिए जिस जमूरे केजरीवाल को खड़ा किया गया था उसकी सत्ता की अपनी महत्वाकांक्षाएँ भी उसके सिर चढ़कर बोल रही हैं। वह भ्रष्टाचार के मुद्दे पर अभी भी उछल-कूद मचा रहा है। अब चूँकि दिखने में केजरीवाल और उसके चेले-चपाटी कहीं से भी ‘आम आदमी’ नहीं लगते, इसलिए उसे अपनी टोपी पर यह लिखकर बताना पड़ता है कि ‘वह आम आदमी है!’ हम जानते हैं कि इस देश के आम मेहनतकश नागरिक को अपने ‘आम’ होने और दिखने को साबित करने के लिए कोई टोपी लगाने की ज़रूरत नहीं है! लुब्बेलुबाब यह कि केजरीवाल जैसे लोगों को छोड़ दिया जाये (जिसकी आने वाले लोकसभा चुनावों में अच्छी गत बनने वाली है!), तो पूँजीपतियों के तलवे चाटने वाली सारी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियाँ समझ चुकी हैं कि भ्रष्टाचार के मुद्दे की डग्गामार गाड़ी जो उन्होंने चलायी थी, उसके टंकी में किरासन ख़त्म हो गया है। देश की पूँजीवादी राजनीति का भयंकर संकट जनता के बीच पूरी पूँजीवादी व्यवस्था के प्रति बची-खुची आस्था को भी ख़त्म कर रहा है। और ऊपर से जिस असमाधेय संकट की शिकार समूची पूँजीवादी व्यवस्था पिछले कुछ वर्षों से है, उसका असर अब भारतीय अर्थव्यवस्था पर भी पूरे ज़ोर-शोर से दिखने लगा है। इस संकट के भँवर से निकलने का कोई रास्ता पूँजीपति वर्ग और उसके राजनीतिक नुमाइन्दों के पास नहीं है। भूमण्डलीकरण की नवउदारवादी नीतियों को वे पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे के भीतर छोड़ नहीं सकते, और मुनाफ़े की गिरती दर ने पूँजीपति वर्ग के लिए कल्याणकारी नीतियों को लागू कर पाना और भी असम्भव बना दिया है। ऐसे में, सरकार में बैठे लोग न तो बेरोज़गारी पर काबू कर सकते हैं और न ही महँगाई और भ्रष्टाचार पर। इन प्रकोपों का जनता पर जो कहर बरपा हो रहा है, उसके कारण जनता के भीतर रोष और भी भयंकर तरीक़े से पनप रहा है। दुनिया के कई देशों में जनता के जो विद्रोह पिछले कुछ वर्षों में हुए हैं और अभी भी जारी हैं, उनसे उन देशों का पूँजीपति वर्ग भी घबराया हुआ है जहाँ अभी ऐसे जनविद्रोह शुरू नहीं हुए हैं। वह जानता है कि जनता के पास अभी कोई क्रान्तिकारी विकल्प और क्रान्तिकारी पार्टी नहीं है जो उसे एकजुट और संगठित करके ऐसे विकल्प को लागू कर सकती हो। लेकिन इन सभी देशों के शासक वर्ग यह भी जानते हैं कि जनता बिना किसी क्रान्तिकारी विकल्प और संगठन के जो भी जनविद्रोह करती है, वह अगर क्रान्ति तक नहीं भी जाता है, तो वह पूँजीवादी व्यवस्था की चूलें हिला देता है। और इस बात से लुटेरे शासकों का डरना लाज़िमी है। नतीजतन, कोई ऐसा मुद्दा न मिलने पर, जिसके आधार पर 2014 के चुनावों में वोटों की फसल की सुचारू रूप से कटाई हो सके, भारतीय शासक वर्ग अपने आपसी अन्तरविरोधों के बावजूद, एक व्यापक सहमति के साथ अपने मूल एजेण्डे पर वापस लौट रहे हैं: यानी, बाँटो और राज करो!
सभी चुनावी पार्टियाँ 2014 के लोकसभा चुनावों के लिए अपने एजेण्डे तैयार करने में लग गयी हैं, और चूँकि उनका हर मुद्दा अब चुक गया है, इसलिए वे अपने मूल मुद्दों की तरफ लौट रही हैं। इसीलिए भाजपा एक बार फिर से राम मन्दिर, गोरक्षा और इस्लामी आतंकवाद के मुद्दे की तरफ लौट रही है, तो बसपा जैसी जाति-आधारित राजनीति करने वाली पार्टियाँ दलितवाद के एजेण्डे को एक बार फिर से पूरी ताक़त के साथ उछालने में लग गयी हैं; राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना और उद्धव ठाकरे की शिवसेना एक बार फिर से ‘मराठी माणूस’ का गाना गाने के लिए झाल-करताल लेकर उतर आयी हैं; असम से लेकर गुजरात तक और कश्मीर से कन्याकुमारी तक सभी धर्मों के कट्टरपन्थी और कठमुल्ले अपने-अपने झोलों में से अपना पुराना नुस्खा निकाल रहे हैं, चाहे वह ओवैसी हो, या फिर तोगड़िया। यह सब अभी पिछले कुछ महीनों से विशेष तौर पर शुरू हुआ है। और इसके कारण समझे जा सकते हैं।
6 फ़रवरी को भाजपा के नये अध्यक्ष राजनाथ सिंह (क्योंकि पुराने अध्यक्ष, यानी खाये-पिये-मुटियाए व्यापारी गडकरी का बोझ उठाना भाजपा के लिए मुश्किल हो गया था, इसलिए उन्हें अध्यक्ष पद से धक्का देकर लुढ़का दिया गया और वह अभी तक लुढ़क ही रहे हैं) कुम्भ मेले में पहुँचे और संगम में डुबकी लगायी। इस डुबकी के बाद राजनाथ सिंह ने कुम्भ मेले में जुटे श्रद्धालुओं के बीच घोषणा की कि भाजपा अयोध्या में राम मन्दिर बनाने के प्रति कटिबद्ध है, और वह इसे एक राजनीतिक मुद्दा मानती है, देश के गौरव का मुद्दा मानती है और वह यह मन्दिर बनाकर ही रहेगी। कुम्भ मेले में ही विश्व हिन्दू परिषद के अशोक सिंघल ने कहा कि देश के हिन्दू सरकार को चेतावनी दे रहे हैं कि छह महीने के भीतर सरकार ने अगर एक कानून पास करके अयोध्या में मन्दिर निर्माण की शुरुआत को आज्ञा नहीं दी तो एक बार फिर से हिन्दुओं का एक आन्दोलन शुरू किया जायेगा जो कि 1990 के कारसेवा आन्दोलन से भी बड़ा और भयंकर होगा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भाजपा और विहिप ने कुम्भ मेले के दौरान “सन्तों-महात्माओं” के केन्द्रीय मार्गदर्शक मण्डल की बैठक में हिस्सा लिया। और इस बैठक का मूल एजेण्डा ही यही था कि सभी हिन्दूवादी ताक़तों को एक बार फिर से साथ लाकर देश में एक बार फिर से साम्प्रदायिक फ़ासीवाद की लहर कैसे उठायी जाय। एक तरफ ज़मीनी स्तर पर भाजपा हिन्दुत्व के एजेण्डे को फिर से ज़िन्दा करने में लगी हुई है, वहीं दूसरी तरफ देश भर के मीडिया में प्रधानमन्त्री पद के दावेदार के तौर पर गुजरात के कसाई नरेन्द्र मोदी का नाम उछाला जा रहा है। भाजपा के नेतृत्व में अपने नाराज़ नेताओं को मनाने के लिए मोदी ने अलग-अलग दरवाज़ों के चक्कर काटने शुरू कर दिये हैं। भाजपा के काडरों में इस बात की ज़बर्दस्त माँग है नरेन्द्र मोदी को अगले चुनावों को के लिए प्रधानमन्त्री पद का दावेदार घोषित किया जाय। असल में, भाजपा के निचले काडर भी पिछले 10 वर्षों से जारी भाजपा की दुर्गत से ऊब गये हैं। पूरे देश में भाजपा कांग्रेस को पटखनी देने के लिए जो भी जुगत भिड़ाती है, वह अन्त में उसके ऊपर ही कहर बरपा कर देती है। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर ज़्यादा उछल-कूद मचायी तो व्यापारी गडकरी की बलि चढ़ गयी। सरकारी सौदों और ख़रीद में घोटालों की बात की तो उसके ही कई मन्त्री चपेट में आ गये! इसलिए अब फ़ासीवादी मानसिकता वाले भाजपा काडरों (जिसमें कि छोटे व्यापारियों, व्यवसायियों और उनके लुच्चे-लम्पट लौण्डों की जमात सबसे प्रमुख है) में यह राय बनने लगी है, कि बाकी सारे मुद्दे बेकार हैं और वास्तव में एक ही मुद्दे को लेकर देश में ध्रुवीकरण कराया जाना चाहिए – मुसलमान-विरोध और राम मन्दिर। ज़मीनी धरातल पर भाजपाइयों ने संघ परिवार के बाकी संगठनों के साथ मिलकर ऐसे प्रयास शुरू भी कर दिये हैं, और ऐसे प्रयोग का केन्द्र इस समय उत्तर प्रदेश बन रहा है, क्योंकि भाजपा को यह बात समझ में आ चुकी है कि उत्तर प्रदेश में साम्प्रदायिक फ़ासीवादी लहर भड़काये बगै़र केन्द्र की सत्ता में आने का सपना सपना ही रह जायेगी। यही कारण है कि पिछले दो से तीन वर्षों में उत्तर प्रदेश के कई शहरों में साम्प्रदायिक दंगे भड़काने की भरपूर कोशिशें की गयीं, जैसे कि बरेली, फैज़ाबाद, गोरखपुर आदि। ऐसे ही प्रयास राजस्थान और मध्यप्रदेश में भी जारी रहे। भाजपा पर्याप्त संकेत दे चुकी है कि वह वापस अपने हिन्दुत्ववादी एजेण्डे पर लौट रही है और वह आने वाले चुनावों में एक बार फिर से राम मन्दिर का मसला उछालकर और देश को साम्प्रदायिक दंगों की आग में झोंककर अपनी चुनावी गोट लाल करने की फ़िराक में है।
भाजपा नेतृत्व सीधे तौर पर कहीं भी मोदी अपना प्रधानमन्त्री पद का उम्मीदवार नहीं बता रहा है लेकिन अनौपचारिक तौर पर हिन्दुओं के वोटों के अपने पक्ष में ध्रुवीकरण के लिए मोदी के नाम को हर चीज़ में आगे कर रहा है। दिल्ली विश्वविद्यालय के एक सम्मानित कॉलेज में मोदी फ़रवरी में “विकास” के विषय पर व्याख्यान देकर आया। मोदी को बीच में गोण्डा विधानसभा क्षेत्र से भाजपा का उम्मीदवार बनाने की बात भी सामने आयी। बिहार प्रदेश की भाजपा इकाई के अध्यक्ष ने तो अपनी तरफ से मोदी को प्रधानमन्त्री पद का उम्मीदवार एक प्रकार से घोषित ही कर दिया। लेकिन यही बात भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व खुलकर नहीं बोल रहा है क्योंकि उसे यह आत्मविश्वास नहीं है कि वह बिना अन्य सहयोगियों के, जो कि राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन में हैं, और विशेष तौर पर जनता दल (यूनाईटेड) के बिना बहुमत हासिल कर सकता है। लेकिन उसने अपने इस विकल्प को खुला रखा है कि अगर 2014 के लोकसभा के चुनावों के पहले वह साम्प्रदायिक फ़ासीवादी की लहर उठाने में कामयाब होती है, तो वह अपनी शर्तें राजग के अन्य घटकों के सामने रख सकता है। और राजग के तमाम घटकों के तौर पर जो क्षेत्रीय पूँजीवादी पार्टियाँ यह तालमेल का खेल खेल रही हैं, उनके सामने भी उस सूरत में ज़्यादा विकल्प नहीं बचेंगे। उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर अगर सत्ता में भागीदारी चाहिए तो वे या तो भाजपा की पूँछ पकड़ने या फिर कांग्रेस की मालिश करने को मजबूर हैं। तीसरे मोर्चे जैसी किसी ताक़त का राष्ट्रीय राजनीति में उभरना अभी सम्भव नहीं दिख रहा है। ऐसे में, गठबन्धन के कुछ नये समीकरण बन सकते हैं। लेकिन एक बात तय है कि भाजपा को यह समझ में आ गया है कि हमेशा की तरह इस संकट के दौरान भी उसकी आखि़री लाइफलाइन हिन्दुत्व की लाइन है और वह उस पर चलने की पूरी तैयारी कर चुकी है।
भाजपा के हिन्दुत्ववादी एजेण्डे की तरफ खिसकने की प्रक्रिया और उसकी सफलता की सम्भावना बढ़ाने की प्रक्रिया को हमेशा की तरह न सिर्फ़ हिन्दू कट्टरपन्थी ताक़तें बल दे रही हैं, बल्कि मुस्लिम कट्टरपन्थी ताक़तें भी इसमें पूरी मदद कर रही हैं। क्योंकि वास्तव में जब भी साम्प्रदायिक फ़ासीवाद पनपता है, तो उससे केवल बहुसंख्यवादी हिन्दुत्व फ़ासीवाद को ही नहीं, बल्कि अल्पसंख्यवादी इस्लामी कट्टरपन्थी फ़ासीवाद को भी खाद-पानी मिलता है। पूँजीवादी व्यवस्था का संकट बढ़ने से एक ख़तरा इस्लामी कट्टरपन्थियों के सामने भी पैदा हो गया था। ये सारे कठमुल्ले जानते हैं कि अगर व्यवस्थागत संकट बढ़ेगा तो जनता वर्गीय गोलबन्दी की तरफ आगे बढ़ सकती है। अगर हिन्दू और मुसलमान ग़रीब जनता अपने आर्थिक और राजनीतिक मुद्दों पर एकजुट और गोलबन्द होने लगे तो हिन्दुत्वादी कट्टरपन्थियों के साथ-साथ मुस्लिम कट्टरपन्थियों की दुकानें भी तो बन्द हो जायेंगी। इसलिए इसी समय सारे मुस्लिम कट्टरपन्थी भी जाग उठे हैं। ओवैसी जैसे लोग बयान दे रहे हैं कि अगर अल्पसंख्यक मुसलमानों को एक घण्टे के लिए भी खुला हाथ दे दिया गया और अगर फौज और पुलिस बीच में न आयें, तो वे समूची हिन्दू आबादी का सफ़ाया कर सकते हैं। इसका जवाब देने में हिन्दू कट्टरपन्थी प्रवीण तोगड़िया ने देर नहीं लगायी और कहा कि अगर वह सत्ता में आया तो मुसलमानों के वोट देने का अधिकार छीन लिया जायेगा और मुसलमानों का हिन्दुस्तान से पूरा सफ़ाया ही एकमात्र और अन्तिम समाधान है। जाहिर है, न तो ओवैसी वह कर सकता है जो वह कह रहा है और न ही तोगड़िया वह कर पायेगा जो वह कह रहा है। और यह बात ओवैसी और तोगड़िया जैसे लोग अच्छी तरह जानते भी हैं। फिर वे ऐसे बयान क्यों दे रहे हैं? ताकि मज़दूरों, आम मेहनतकश जनता और विशेष तौर पर जो एक बड़ी टटपुँजिया वर्गों की आबादी इस देश में है, उसे धार्मिक और साम्प्रदायिक लाइन पर बाँटा जा सके। फिर से दंगे भड़कें, फिर लाशों से सड़कें पट जायें, फिर से महिलाओं के साथ बलात्कार हो, फिर से मेहनतकशों का क़त्ल और विस्थापन हो! और एक बार फिर से ‘ख़ून की बारिश से वोटों की फसल लहलहाए।’ हम मज़दूर साथियों और आम मेहनतकशों से पूछते हैं कि ऐसे भड़काऊ बयानों पर अपने ख़ून में उबाल लाने से पहले ख़ुद से पूछियेः क्या ऐसे दंगों में कभी तोगड़िया, ओवैसी, राज ठाकरे, आडवाणी या मोदी जैसे लोग मरते हैं? क्या कभी उनके घर की औरतों के साथ बलात्कार, उनके घर के बच्चों का क़त्ल होता है? नहीं साथियो! इसमें हम मरते हैं, हमारे लोगों की बेनाम लाशें सड़कों पर पड़ी धू-धू जलतीं हैं। सारे के सारे धार्मिक कट्टरपन्थी तो भड़काऊ बयान देकर अपनी ज़ेड श्रेणी की सुरक्षा, पुलिसवालों और गाड़ियों के रेले के साथ अपने महलों में वापस लौट जाते हैं! और हम? हम उनके झाँसे में आकर अपने ही वर्ग भाइयों से लड़ते हैं! और इसका फ़ायदा किसे मिलता है? इसका फ़ायदा मिलता है इस देश की सत्ता पर विराजमान हिन्दू और मुसलमान शासकों को, मन्त्रियों-नेताओं को, व्यापारियों-व्यवसायियों को, तरह-तरह के दलालों को, खाते-पीते ठेकेदारों को और पूँजीपति घरानों को! इसलिए हिन्दू और मुसलमान आम मेहनतकश आबादी को किसी भी कीमत पर इन प्रतिक्रियावादी फ़ासीवादी ताक़तों के झाँसे में नहीं आना चाहिए! कम-से-कम अब तो नहीं! और कभी नहीं! चाहे वे आपको राम मन्दिर का वास्ता दें या फिर क़ुरान की कसम खिलायें!
एक तरफ जहाँ भाजपा जैसी साम्प्रदायिक फ़ासीवादी ताक़तें एक बार फिर से धार्मिक कट्टरपन्थी फ़ासीवादी उन्माद भड़काकर, दंगे फैलाकर, और जनता की लाशों पर रोटी सेंकते हुए सत्ता में आने की तैयारी में लगी हुई हैं, वहीं कांग्रेस ने भी अपने पत्ते खोलने शुरू कर दिये हैं। एक तो उसने आनन-फानन में संसद हमले में गिरफ़्तार अफज़ल गुरू को फाँसी देकर अपने आपको भाजपा से बड़ा “देशभक्त” घोषित कर दिया, और वहीं दूसरी तरफ मुसलमानों को लुभाने के लिए भी तरह-तरह की बयानबाज़ी शुरू कर दी। कांग्रेस हमेशा से ही जो खेल खेलती आ रही थी, वही खेल उसने अभी भी जारी रखा है। एक ओर तो भाजपा के हिन्दुत्ववादी मुद्दे पर आक्रामक होते ही वह स्वयं भी एक नरम हिन्दू कार्ड खेलना शुरू कर देती है, और दूसरी तरफ ज़मीनी स्तर पर मुसलमानों को भरमाने के उपक्रम भी शुरू कर देती है। सबसे अच्छी नीति उसके लिए यही है कि सेक्युलरिज़्म की बातें करते हुए, जब ज़रूरत हो तो हिन्दुओं को रिझाने के लिए कुछ कदम उठा दो, और जब ज़रूरत पड़े तो अपने आपको साम्प्रदायिक फ़ासीवाद का एकमात्र विकल्प साबित कर दो। और अभी तक कांग्रेस की यह रणनीति काम भी आयी है। इस रणनीति को कांग्रेस ने दो और रणनीतियों के साथ मिलाया है। एक तरफ तो कांग्रेस ने अब राहुल गाँधी को स्पष्ट रूप से अपने प्रधानमन्त्री पद के उम्मीदवार के तौर आगे करना शुरू कर दिया है, तो वहीं दूसरी तरफ उसने सोनिया गाँधी की राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की तरफ से कुछ लोकलुभावन नीतियों की बात करनी भी शुरू कर दी है। लेकिन कांग्रेस ने अपने सारे पत्ते खोलने की बेवक़ूफ़ी नहीं की है। अभी लोकसभा चुनावों में एक वर्ष बाकी है और कांग्रेस जानती है कि इस एक वर्ष में वह फिर से समीकरण अपने पक्ष में झुका सकती है। इसलिए एक ओर उसने राहुल गाँधी को राष्ट्रीय सचिव बनाकर मध्यवर्गीय शहरी युवाओं के वोट को खींचने और कांग्रेस के अन्दरूनी संगठन को मज़बूत करने का काम किया है, तो वहीं दूसरी ओर उसने मनरेगा योजना में रोज़गार गारण्टी के दिनों को 100 से बढ़ाकर 200 दिन करने की बात भी कर दी है। इसी योजना का हल्ला मचाकर पहली बार संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन सरकार सत्ता में आयी थी, और अब उसी योजना का नये तरीक़े से हल्ला मचाकर फिर से सत्ता में आना चाहती है। छह-सात वर्षों में ग्रामीण सर्वहारा वर्ग इस बात को समझने लगा है कि मनरेगा की योजना का असली मकसद क्या है? इसका असली मकसद है गाँवों से शहरों में हो रहे मज़दूर पलायन को रोकना, या कम-से-कम उसकी रफ़्तार को घटाना क्योंकि शहरी मज़दूरों के असन्तोष से शासक वर्ग बुरी तरह से भयभीत रहता है। और ऐसा करते हुए ग्रामीण मज़दूरों को गाँव में कोई ऐसा रोज़गार देना सरकार का मकसद नहीं है, जो उन्हें इज़्ज़त-आसूदगी की ज़िन्दगी दे। इसका असली मकसद है गाँव के मज़दूरों को भुखमरी के स्तर पर ज़िन्दा रखो, उससे बेहतर का सपना दिखाओ और अन्ततः उनका शहरों की ओर बड़े पैमाने पर पलायन रोक दो। हालाँकि इस पूरी योजना में भ्रष्टाचार के कारण सरकार अपने इस लक्ष्य में उतना कामयाब नहीं हो पा रही है, जितना कि वह होना चाहती है, लेकिन फिर भी इसके प्रचार से वोटों के बँटवारे पर तो असर पड़ता ही है। और संप्रग सरकार निश्चित तौर पर चुनाव के ठीक पहले इस योजना के तहत 100 की बजाय 200 दिनों रोज़गार की गारण्टी करने का प्रावधान कर ही देगी। वहीं दूसरी ओर कांग्रेस को हिन्दुत्ववादी एजेण्डे को भाजपा द्वारा फिर से उछाले जाने से कोई विशेष नुकसान नहीं है क्योंकि कांग्रेस का नेतृत्व जानता है कि इसके ज़रिये जिन-जिन प्रदेशों में कांग्रेस का मुसलमान वोट बैंक खिसका है और क्षेत्रीय पार्टियों की तरफ गया है, वह वापस उसकी तरफ आ सकता है क्योंकि लोकसभा चुनावों और विधानसभा चुनावों के बीच फ़र्क है। मिसाल के तौर पर, उत्तर प्रदेश में ही मुसलमानों की अच्छी-ख़ासी आबादी को विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को वोट डालने की कोई आवश्यकता नहीं है, और वह सपा को चुन सकती है। लेकिन केन्द्र की बात करें तो मुसलमानों की यह आबादी जानती है कि सपा किसी सूरत में केन्द्र में सरकार नहीं बना सकती है, और भाजपा को केन्द्र में आने से रोकने के लिए कांग्रेस को वोट करना ज़्यादा बेहतर होगा। इसलिए भाजपा अगर हिन्दुत्व के मुद्दे पर खुलकर वापस लौटती है, तो कांग्रेस इसका भी लाभ उठाने की कोशिश करेगी। कुल मिलाकर साम्प्रदायिक फ़ासीवाद और दंगों का फ़ायदा अगर भाजपा को मिलेगा तो कांग्रेस को भी मिलेगा।
लेकिन इसका फ़ायदा न सिर्फ़ कांग्रेस को मिलेगा बल्कि संसदीय वामपन्थियों को भी मिलेगा। माकपा, भाकपा और भाकपा (माले) के पास आजकल वैसे भी कोई ख़ास मुद्दा नहीं है और उन्हें ऐसे किसी मुद्दे की ज़रूरत है जो कि राष्ट्रीय राजनीति में उनके सितारे को कुछ बुलन्द करे। हाल के जितने भी विधानसभा चुनाव हुए हैं, उसमें त्रिपुरा (जिसके नतीजे अभी सामने नहीं आये हैं, लेकिन ज़्यादा सम्भावना वामपन्थी गठबन्धन की सरकार के बनने की ही है) के अपवाद को छोड़ दें तो हर जगह संसदीय वामपन्थी ताक़तें पिट गयी हैं। पिछले लोकसभा चुनावों में भी संसदीय वामपन्थ का प्रदर्शन पहले के मुकाबले ख़राब था। लेकिन जब भी आर्थिक संकट और राजनीतिक संकट गहराता है तो संशोधनवादियों की प्रासंगिकता फिर से पैदा हो जाती है। इसका कारण यह है कि वे दूसरों के मुकाबले राष्ट्रीय पूँजीवादी राजनीति में कम भ्रष्ट नज़र आते हैं। इसका एक कारण यह भी है कि राष्ट्रीय स्तर पर इन बेचारों की कभी सरकार नहीं बनती इसलिए भ्रष्टाचार करने के ज़्यादा मौके मिलते ही नहीं हैं। लेकिन पश्चिम बंगाल और केरल में जहाँ इनकी सरकारें लम्बे समय तक रहीं वहाँ भ्रष्टाचार के आरोप इन पर भी लगे हैं। किसी साम्प्रदायिक फ़ासीवादी उभार का फ़ायदा इन्हें भी मिलता है, हालाँकि माकपा के भीतर एक हिस्सा ख़ुद ऐसा है जो कि मुसलमान-विरोधी है, जैसा कि नन्दीग्राम में लोगों के क़त्लेआम के दौरान सामने भी आया था। लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में इन संसदीय वामपन्थियों ने अपनी छवि एक साम्प्रदायिकता-विरोधी ताक़त की बना रखी है। लेकिन आप करीब से नज़र डालें तो साफ़ हो जाता है कि इनकी धर्मनिरपेक्षता और नेहरू की धर्मनिरपेक्षता में ज़्यादा अन्तर नहीं है: यानी यह ‘मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर करना’ वाली धर्मनिरपेक्षता है, जो कहीं भी साम्प्रदायिक फ़ासीवादियों के खि़लाफ़ सड़क पर नहीं लड़ती, बस आपसी सद्भाव के उपदेश और भाषणबाज़ी करती है। जब गुजरात के दंगे हुए थे, तब भी अगर माकपा चाहती तो अपनी ट्रेड यूनियन की ताक़त का इस्तेमाल दंगों पर फ़ासीवादियों का डटकर मुकाबला करने और मुसलमान जनता की हिफ़ाज़त करने के लिए कर सकती थी। ऐसा दुनिया भर में कम्युनिस्टों ने फ़ासीवादियों के ख़िलाफ़ किया है, और जो भी सच्ची कम्युनिस्ट ताक़त होगी, वह ऐसा ही करेगी। लेकिन भाकपा, माकपा और भाकपा (माले) सारी लड़ाई संसद की बयानबाज़ियों के ज़रिये लड़ते हैं, और जहाँ वे संसद के बाहर कुछ करते भी हैं, तो उसका मकसद भी वोट पाना ही होता है। ऐसे में, साम्प्रदायिक दंगों के भड़कने और धर्म के आधार पर जनता के ध्रुवीकरण का फ़ायदा इन संसदीय वामपन्थियों को भी मिलना ही है।
और क्षेत्रीय पूँजीवादी दल तो इस समय पूरे देश की पूँजीवादी राजनीति में सबसे घटिया, सिद्धान्तहीन, अवसरवादी और नीचता के धरातल पर खड़े हैं। चाहे वह क्षेत्रवादी राजनीति करने वाले हों (राज ठाकरे, उद्धव ठाकरे), दलित राजनीति करने वाले हों (अठावले, मायावती) या फिर अन्य कोई मुद्दा उछालने वाले क्षेत्रीय दल हों। यह कभी भी किसी भी गोद में बैठने को तैयार हैं, जो कि इन्हें सत्ता में हिस्सेदारी देने का वायदा करे। इन क्षेत्रीय दलों की बात करना ही बेकार है और यह जनता की चेतना को सबसे ज़्यादा कुन्द करने का काम करते हैं। कुछ ऐसे दल भी हैं जो राष्ट्रीय बनने की तमन्ना पाले हुए हैं, लेकिन उनके राष्ट्रीय दल बनने की बहुत ज़्यादा सम्भावनाएँ नहीं हैं। इन सभी दलों को देश भर में जनता के धर्म, जाति और क्षेत्र के नाम पर बँटने का फ़ायदा ही मिलेगा। और इस समय में समूचे पूँजीपति वर्ग की यही ज़रूरत भी है।
आज पूँजीवादी राजनीति के सामने जो संकट खड़ा है, वह दरअसल समूची पूँजीवादी व्यवस्था के संकट की ही एक अभिव्यक्ति है। फिलहाली तौर पर, संसद और विधानसभा में बैठने वाले पूँजी के दलालों के पास कोई मुद्दा नहीं रह गया है; जनता में असन्तोष बढ़ रहा है; दुनिया के कई अन्य देशों में जनविद्रोहों के बाद शासकों की नियति भारत के पूँजीवादी शासकों के भी सामने है; इससे पहले कि जनता का असन्तोष किसी विद्रोह की दिशा में आगे बढ़े, उनको धार्मिक, जातिगत, क्षेत्रगत या भाषागत तौर पर बाँट दिया जाना ज़रूरी है। और इसीलिए अचानक आरक्षण का मुद्दा, राम-मन्दिर का मुद्दा, मुसलमानों की स्थिति का मुद्दा फिर से राष्ट्रीय पूँजीवादी राजनीति में गर्माया जा रहा है। तेलंगाना से लेकर बोडोलैण्ड और गोरखालैण्ड के मसले को भी केन्द्र में बैठे पूँजीवादी घाघ हवा दे रहे हैं। जो संकट आज देश के सामने खड़ा है, उसके समक्ष दोनों ही सम्भावनाएँ देश के सामने मौजूद हैं। एक सम्भावना तो यह है कि सभी प्रतिक्रियावादी ताक़तें देश की आम मेहनतकश जनता को बाँटने और अपने संकट को हज़ारों बेगुनाहों की बलि देकर टालने की साज़िश में कामयाब हो जाये। और दूसरी सम्भावना यह है कि हम इस साज़िश के ख़िलाफ़ अभी से आवाज़ बुलन्द करें, अपने आपको जगायें, अपने आपको गोलबन्द और संगठित करें। देश का मज़दूर वर्ग ही वह वर्ग है जो कि फ़ासीवाद के उभार का मुकाबला कर सकता है, बशर्ते कि वह ख़ुद अपने आपको इन धार्मिक कट्टरपन्थियों के भरम से मुक्त करे और अपने आपको वर्ग चेतना के आधार पर संगठित करे। या तो हम इस रास्ते पर आगे बढ़ेंगे, या फिर हम एक बार फिर से चूक जाएँगे, एक बार फिर से हज़ारों की तादाद में अपने लोगों को खोएँगे और एक बार फिर से प्रतिक्रियावादी ताक़तें हमें इतिहास के मंच पर प्रवेश करने से पहले ही फिर से कई वर्षों के लिए उठाकर बाहर फेंक देंगी; एक बार फिर से पराजय और निराशा का दौर शुरू हो जायेगा। इस नियति से बचने का रास्ता यही है कि कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा, जद (यू), राजद, माकपा, भाकपा, भाकपा (माले) आदि समेत सभी चुनावी मदारियों के भरम तोड़कर हम अपना इंक़लाबी विकल्प खड़ा करें, अपनी इंक़लाबी पार्टी खड़ी करें और एक इंक़लाब के ज़रिये मेहनतकश का लोकस्वराज्य खड़ा करने के लिए आगे बढ़ें!
मज़दूर बिगुल, फरवरी 2013
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन