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कैसा है यह लोकतंत्र और यह संविधान किसकी सेवा करता है (बाइसवीं क़िस्त)
भारतीय राज्यसत्ता: पूँजीपति वर्ग की तानाशाही को मूर्त रूप देता एक दमनकारी तन्त्र
आनन्द सिंह
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पिछली क़िस्त में हमने भारतीय राज्यसत्ता के एक स्तम्भ विधायिका की विस्तृत चर्चा की थी। इस क़िस्त में हम इसके दूसरे प्रमुख स्तम्भ कार्यपालिका के स्वरूप की चर्चा करेंगे। लोकसभा चुनाव (राज्यों में विधानसभा चुनाव) के बाद जब यह तय हो जाता है कि लुटेरों के किस गिरोह को अगले पाँच साल के लिए जनता को लूटने का ठेका मिला है, तो फ़िर मीडिया में अगली सरकार, अगले मन्त्रिमण्डल और अगले प्रधानमन्त्री के बारे में कयास लगने शुरू हो जाते हैं। नीरा राडिया टेपकाण्ड के बाद अब यह दिन के उजाले की तरह साफ़ हो गया है कि मन्त्रिमण्डल बनाने की समूची प्रक्रिया में टाटा और अम्बानी से लेकर क्षेत्रीय पूँजीपतियों तक का सक्रिय हस्तक्षेप रहता है। पूँजीपतियों के तमाम गुटों के बीच खींच-तान और मोल-तोल के बाद ही मन्त्रिमण्डल का अन्तिम स्वरूप तय हो पाता है। इस मामले में भारतीय कार्यपालिका मार्क्स और एंगेल्स की इस प्रस्थापना को शब्दशः लागू करती प्रतीत होती है कि पूँजीवादी लोकतन्त्र में सरकार पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी का काम करती है। यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि सरकार किसी एक पूँजीपति के हित में नहीं बल्कि समूचे पूँजीपति वर्ग के हित में काम करती है। पूँजीपति वर्ग को सरकार की ज़रूरत इसलिए पड़ती है क्योंकि अपनी स्वतःस्फूर्त गति से आपसी गलाकाटू प्रतिस्पर्धा में अंधे होकर जब पूँजीपति एक दूसरे के विनाश की हद तक जा पहुँचें तो ऐसे में सरकार उनके दूरगामी हित को ध्यान में रखते हुए इस प्रतिस्पर्धा का विनियमन करे और इस समूचे लूट तन्त्र के खि़लाफ़ नियमित रूप से उभरने वाले जनता के प्रतिरोध का दमन करे।
सरकार का नेतृत्व प्रधानमन्त्री (राज्यों में मुख्यमन्त्री) करता है। आम तौर पर प्रधानमन्त्री ऐसे व्यक्ति को बनाया जाता है जिसकी जनता के बीच बेदाग़ और ईमानदार नेता जैसी छवि हो ताकि उसकी छवि की आड़ में समूची व्यवस्था के लूट-तन्त्र पर पर्दा डाला जा सके। मिसाल के तौर पर संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन की मौजूदा सरकार को ही लें। इस सरकार का नेतृत्व एक ऐसे व्यक्ति के हाथों में हैं जिसकी आम जनता के बीच एक सभ्य, सुसंस्कृत और ईमानदार व्यक्ति की छवि है। परन्तु इस सरकार की गिनती निर्विवाद रूप से आज़ादी के बाद की सबसे भ्रष्ट और लुटेरी सरकारों में की जायेगी। यह बात दीगर है कि तमाम घोटालों में नाम आने की वजह से ‘ईमानदार’ और ‘बेदाग़’ प्रधानमन्त्री महोदय की छवि को भी बट्टा लग गया है। हालाँकि अभी भी इस व्यवस्था की मुख्य लूट यानी कि श्रम की लूट को बढ़ावा देने में इन महोदय के योगदान के बारे में आम जनता कम ही जानती है क्योंकि अभी भी ये महानुभाव एक बड़े अर्थशास्त्री के रूप में प्रसिद्ध हैं। ऐसे महानुभावों के शीर्ष पर होने से इस व्यवस्था के पैरोकारों के लिए जनता के बीच यह भ्रम फैलाना आसान हो जाता है कि इस व्यवस्था में प्रतिभा की कद्र होती है और अगर ऐसे ‘प्रतिभावान’ लोगों की संख्या बढ़ेगी तो इस व्यवस्था की कमियाँ खुद-ब-खुद दूर हो जायेंगी।
आधिकारिक तौर पर इस व्यवस्था में कार्यपालिका का कार्यभार मन्त्रिमण्डल के ज़िम्मे होता है। परन्तु असलियत में शासन-प्रशासन की समूची व्यवस्था का संचालन केन्द्रीय सचिवालय से लेकर राज्यों के सचिवालयों से होता हुआ ज़िलों तक और गाँवों की तहसीलों और ब्लॉकों तक फैला नौकरशाही का विराट तन्त्र करता है जिसको स्थायी कार्यपालिका भी कहते हैं क्योंकि सरकारें तो आती-जाती रहती हैं, परन्तु नौकरशाही स्थायी रूप से शासन-प्रशासन की बागडोर सँभालती है। यह नौकरशाही ही है जो वास्तव में राज्यसत्ता की आँख, कान और नाक का काम करती है। रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में आम जनता इसी नौकरशाही के ज़रिये राज्यसत्ता के सम्पर्क में आती है। लेकिन यह महज़ नाम के लिए नौकरशाही है, यदि जनता के प्रति इसके आचरण को नामकरण का आधार बनाया जाये तो वास्तव में इसका नाम मालिकशाही होना चाहिए क्योंकि इस विराट तन्त्र पर इसके औपनिवेशिक अतीत की प्रेतछाया आज तक मौजूद है। इसका समूचा ढाँचा, इसके काम करने का तौर-तरीका और सबसे महत्वपूर्ण रूप से इसका जनता के प्रति रुख हमें आज भी औपनिवेशिक ग़ुलामी की याद दिलाता है।
नौकरशाही के शीर्ष पर आईएएस और आईपीएस जैसी ऑल इण्डिया सर्विसेज़ के अधिकारी विराजमान रहते हैं जिनकी ख़ासियत यह होती है कि वे केन्द्र और राज्य दोनों सरकारों के तहत काम करते हैं। सरकारों के नीतिगत फैसले लेने और उनको लागू करवाने में इनकी प्रमुख भूमिका होती है। कुलीन अधिकारियों की ये ऑल इण्डिया सर्विसेज़ भी औपनिवेशिक अतीत की काली विरासत है जिसको अंग्रेजों के शासन का ‘स्टील फ्रेम’ कहा जाता था क्योंकि समूची औपनिवेशिक सत्ता इन्हीं के बूते क़ायम थी। आज भी ये कुलीन सर्विसेज़ पूँजीवादी सत्ता के आधार-स्तम्भ का काम करती हैं। इन सर्विसेज़ से आने वाले अधिकारी कहने को तो जनता के सेवक माने जाते हैं परन्तु वास्तव में ये जनता की ज़िन्दगी से कटे हुए होते हैं और शासक वर्गों जैसी विलासिता भरी ज़िन्दगी बिताते हैं। जनता के प्रति आज भी ये ‘माई-बाप’ जैसा बर्ताव करते हैं। इन कुलीन अधिकारियों को तमाम विशेषाधिकार मिले रहते हैं और शायद दुनिया में यह अकेली ऐसी सर्विसेज़ होंगी जिसको संवैधानिक संरक्षण भी प्राप्त है।
कुछ वर्षों पहले सिविल सर्विसेज़ में सुधार लाने के लिए गठित वाई.के. अलग कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में इस बात पर आश्चर्य व्यक्त किया था कि सिविल सर्विसेज़ के अधिकारी औपनिवेशिक और शासक मानसिकता से ग्रस्त होते हैं न कि जनता के प्रति सेवाभाव की मानसिकता से। यदि वाई.के. अलग महोदय इन सर्विसेज़ की किताबी परिभाषा की बजाय इनके वास्तविक चरित्र और इनके इतिहास पर ग़ौर फ़रमाते तो शायद इनके अधिकारियों की मानसिकता को लेकर इतने व्यथित और अचम्भित नहीं होते। इन सर्विसेज़ का जन्म ही शासक वर्गों की शोषणकारी सत्ता को चाक-चौबन्द करने के लिए हुआ है। ऐसे में यदि लुटेरे वर्गों की खि़दमत करने वाले अधिकारीगण भी जनता के प्रति शासकों जैसा व्यवहार करें तो भला इसमें इतने आश्चर्य की क्या बात है!
नौकरशाही को नियन्त्रित करने वाले तमाम क़ायदे-कानून – सिविल प्रोसीज़र कोड, क्रिमिनल प्रोसीज़र कोड, इन्डियन एविडेंस एक्ट, जेल मैनुअल आदि औपनिवेशिक जमाने में बनाये गये हैं और ये सत्ता को सुचारु रूप से चलाने में इतने क़ारगर साबित हुए कि आज भी महज़ चन्द बदलावों के साथ ये लागू हैं। कहने को तो आज़ादी के बाद कानून और व्यवस्था बनाये रखने के बजाय नौकरशाही की मुख्य ज़िम्मेदारी विकास और कल्याणकारी प्रशासन की हो गयी है, परन्तु इस विकास और कल्याणकारी प्रशासन का हास्यास्पद पहलू यह है कि इसमें जनता की कोई भागीदारी नहीं होती है और वास्तव में यह जनता पर हुकूमत गाँठने का ही एक दूसरा नाम है। इन दिनों जनता की भागीदारी के नाम पर कुछ स्वयं सेवी गैर सरकारी संस्थाओं (एन.जी.ओ.) के ज़रिये कुछ कल्याणकारी स्कीमें लागू की जाती हैं और उनसे सोशल ऑडिट आदि कराने का अनुष्ठान कराया जाता है। इस एन.जी.ओ. राजनीति का साम्राज्यवादी और जनविरोधी चरित्र अब जगजाहिर हो चुका है।
राज्यसत्ता का असली स्वरूप तब सामने आता है जब जनता अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करती है और कोई आन्दोलन संगठित होता है। ऐसे में विकास प्रशासन और कल्याणकारी प्रशासन का लबादा खूँटी पर टाँग दिया जाता है और दमन का चाबुक हाथ में लेकर राज्यसत्ता अपने असली खूनी पंजे और दाँत यानी पुलिस, अर्द्ध-सुरक्षा बल और फ़ौज सहित जनता पर टूट पड़ती है। पुलिस से तो वैसे भी जनता का सामना रोज़-मर्रे की जिन्दगी में होता रहता है। पुलिस रक्षक कम और भक्षक ज़्यादा नज़र आती है। आज़ादी के छह दशक बीतने के बाद भी आलम यह है कि ग़रीबों और अनपढ़ों की तो बात दूर, पढ़े लिखे और जागरूक लोग भी पुलिस का नाम सुनकर ही ख़ौफ़ खाते हैं। ग़रीबों के प्रति तो पुलिस का पशुवत रवैया गली-मुहल्लों और नुक्कड़-चौराहों पर हर रोज़ ही देखा जा सकता है। भारतीय पुलिस टॉर्चर, फ़र्जी मुठभेड़, हिरासत में मौत, हिरासत में बलात्कार आदि जैसे मानवाधिकारों के हनन के मामले में पूरी दुनिया में कुख़्यात है। महिलाओं के प्रति भी पुलिस का दृष्टिकोण मर्दवादी और संवेदनहीन ही होता है जिसकी बानगी आये दिन होने वाली बलात्कार की घटनाओं पर आला पुलिस अधिकारियों की टिप्पणियों में ही दिख जाती है जो इन घटनाओं के लिए महिलाओं को ही ज़िम्मेदार ठहराते हैं। भारतीय पुलिस के चरित्र को लेकर कुछ वर्षों पहले इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जस्टिस आनन्द नारायण मुल्ला ने एक बेहद सटीक टिप्पणी की थी कि भारतीय पुलिस जैसा संगठित अपराधियों का गिरोह देश में दूसरा कोई नहीं है।
जब पुलिस के डण्डे से राज्यसत्ता जनता को क़ाबू में नहीं कर पाती तो उसका अगला अगला मोहरा होता है आरए एफ, सीआरपीएफ, बीएसएफ जैसे अर्द्ध-सुरक्षा बल जो अत्याधुनिक हथियारों से लैस होते हैं और लोगों का बर्बर दमन करने के लिए विशेष रूप से प्रशिक्षण प्राप्त होते है। आज़ादी के बाद भारतीय बुर्जुआ राज्यसत्ता ने अपनी ताकत सुदृढ़ करने के लिए कई नए अर्द्ध-सुरक्षा बलों की स्थापना की और इनमें जवानों की संख्या में बेतहाशा बढ़ोत्तरी की है। इनकी उपस्थिति मात्र से एक दहशत भरा माहौल पैदा हो जाता है। इस दहशत भरे माहौल का इस्तेमाल राज्यसत्ता जनान्दोलनों को डराने-धमकाने के लिए बखूबी इस्तेमाल करती है। किसी भी जन-प्रदर्शन और जुलूस के दौरान ये अर्द्ध-सुरक्षा बल अपनी लाठियों और हथियारों सहित इसीलिए तैनात किये जाते हैं कि जनता एक सीमा से आगे अपने अधिकारों का सवाल उठाने के पहले ही दहशत में आ जाये। इसके अतिरिक्त इन अर्द्ध-सुरक्षा बलों का इस्तेमाल अलगाववादी आन्दोलनों और जनविद्रोहों को भी बर्बरता से कुचलने में किया जाता है।
भारतीय राज्यसत्ता की हिफ़ाजत में तैनात सुरक्षा बलों के शीर्ष पर फ़ौज होती है जो न सिर्फ़ बाहरी आक्रमण का मुकाबला करने के लिए प्रशिक्षित होती है बल्कि देश के भीतर भी जन-बग़ावतों पर क़ाबू पाने के लिए भी विशेष रूप से प्रशिक्षित प्राप्त होती है। जम्मू-कश्मीर और उत्तर-पूर्व जैसे इलाकों में, जहाँ जनता अपने आत्मनिर्णय के अधिकार को लेकर आन्दोलित है, फौज का दबदबा इतना ज़्यादा है कि यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि वहाँ सैनिक शासन जैसी स्थिति है। इन इलाकों में कुख़्यात सुरक्षा बल विशेषाधिकार कानून (ए.एफ.एस.पी.ए;) लागू है जो वस्तुतः सेना को किसी भी प्रकार की जवाबदेही से मुक्त करता है। पिछले कुछ वर्षों से नक्सलवाद से प्रभावित इलाकों में भी सेना को भेजने की बातें चल रही हैं।
हालाँकि पिछले कई दशकों से भारत का किसी भी देश के साथ प्रत्यक्ष युद्ध नहीं हुआ है, फिर भी भारतीय सेना की गिनती दुनिया की सबसे भारी भरकम सेनाओं में होती है। आज़ादी के बाद से ही साल-दर-साल भारतीय राज्यसत्ता अपनी सेना को चुस्त-दुरुस्त और अत्याधुनिक हथियारों से लैस करती आयी है। हथियारों के आयात के मामले में भारत आज विश्व में अव्वल नम्बर पर है। जिस देश में दुनिया के सबसे अधिक बच्चे भूख और कुपोषण के शिकार हों और दुनिया की सबसे ज़्यादा महिलायें एनीमिया की शिकार हों, वह देश अगर दुनिया का सबसे बड़ा हथियारों का आयातक है तो इसी से इस राज्यसत्ता का बर्बर जनविरोधी चरित्र उजागर हो जाता है। जब सरकार को भूख, कुपोषण और ग़रीबी से निज़ात दिलाने की उसकी ज़िम्मेदारी के प्रति आगाह किया जाता है तो उसके नुमाइंदे और शासक वर्गों के टुकड़ों पर पलने वाले तमाम बुद्धिजीवी सब्सिडी का अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले बुरे असर के बारे में अख़बारों के पन्ने भर डालते हैं और टीवी स्टूडियों में लम्बी-लम्बी बहसें करते हैं, परन्तु इनमें से कोई भी यह सवाल नहीं उठाता कि भला ऐसा क्यों है कि इस ‘शान्तिप्रिय’ देश में हथियारों की प्राथमिकता भोजन और दवाओं से ज़्यादा है! भारत में श्रम की अनुत्पादकता पर हाय-तौबा मचाने वाले ये कलमघसीट सेना के रूप में इतनी विराट अनुत्पादक संस्था की मौजूदगी पर कभी कोई प्रश्नचिन्ह नहीं लगाते। सच्चाई तो यह है कि भारत का शासक वर्ग अपनी शान्तिप्रियता का चोंगा कब का उतार कर फेंक चुका है। आज भारतीय सेना दुनिया की साम्राज्यवादी सेनाओं के साथ कंधे से कंधा मिला कर युद्धाभ्यास करती है और यहाँ का शासक वर्ग खुद के साम्राज्य के बारे में ख़्वाब देखता है, भले ही यहाँ पर भूख, कुपोषण और बीमारी से दम तोड़ने वालों की संख्या में लगातार वृद्धि होती जा रही है।
(अगले अंक में जारी)
मज़दूर बिगुल, सितम्बर 2013
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