भूख से दम तोड़ते असम के चाय बागान मज़दूर
नमिता
दुनियाभर में मशहूर असम की चाय तैयार करने वाले असम के चाय बागान मज़दूरों के भयंकर शोषण और संघर्ष की ख़बरें बीच-बीच में आती रही हैं, लेकिन पिछले छह महीने से वहाँ के एक चाय बागान में मज़दूरों के साथ जो हो रहा है वह असम राज्य और देश की शासन-व्यवस्था के लिए बेहद शर्मनाक है। असम के 3000 चाय मज़दूर और उनके परिवार, बागान प्रबन्धन के भयंकर शोषण-उत्पीड़न और सरकारी तन्त्र की घनघोर उपेक्षा की वजह से लगातार भुखमरी की हालत में जी रहे हैं। अभी तक कम से कम 14 मज़दूरों की मौत भूख, कुपोषण और ज़रूरी दवा-इलाज के अभाव में हो चुकी है। यह बागान असम के कछार ज़िले में भुवन वैली चाय बागान नाम से जाना जाता है जिस पर कोलकाता की एक निजी कम्पनी का मालिकाना है।
बराक मानवाधिकार समिति की रिपोर्ट के अनुसार बागान प्रबन्धन ने 8 अक्टूबर 2011 को अचानक बागान बन्द कर दिया और मज़दूरों की सवा दो महीने की मज़दूरी भी ज़ब्त कर ली। आजीविका का कोई दूसरा इन्तज़ाम किये बिना मज़दूरों को भूखा मरने के लिए छोड़ दिया गया। इस रिपोर्ट के तथ्य एक बार फिर साबित करते हैं कि पूँजीपतियों की नज़र में मज़दूरों की ज़िन्दगी का कोई मोल नहीं। चाय बागान के सभी वर्तमान और निकाले गये मज़दूर आजीविका के लिए चाय बागान पर ही आश्रित हैं। चाय की पत्तिायों को तोड़ने के लिए उन्हें लगातार घण्टों खड़े होकर काम करना पड़ता है, जिससे ज्यादातर मज़दूरों के पैरों में भयंकर सूजन आ जाती है। सही इलाज न मिलने से अक्सर एक समय के बाद उनके पैर बिल्कुल ख़राब हो जाते हैं और वे कोई काम करने लायक नहीं रह जाते।
एक मज़दूर, जिसका पैर काफ़ी समय से सूजा हुआ था और भयंकर तकलीफ़ में भी किसी तरह काम करता था, अब पैर बेकार होने की वजह से बिस्तर से भी नहीं उठ पाता। उसने बताया कि अभी तक उसे प्रॉविडेण्ट फण्ड, ग्रेच्युटी और बकाया मज़दूरी भी नहीं मिली। उसकी देखभाल करने वाला कोई नहीं है और ना ही वह किसी को अपनी देखभाल के लिए रख सकता है। सरकार और प्रशासन के उपेक्षापूर्ण रवैये के कारण अब वह बस मौत का इन्तज़ार कर रहा है।
अस्सी साल का एक बूढ़ा मज़दूर बताता है कि वह और उसकी बहू, दोनों के पैरों में भयंकर सूजन है। उनकी नौकरी, पिछला बकाया और डाक्टरी उपचार तक उनसे छीन लिया गया है। तीन बेटियों और तीन पोतियों सहित उसका पूरा परिवार काफ़ी दिनों से आधे पेट भोजन पर गुज़ारा कर रहे हैं। 75 साल की एक महिला मज़दूर बेहद कमज़ोर और जर्जर हो चुकी है। हालाँकि उसका बेटा बागान में स्थायी मज़दूर के तौर पर काम करता था फिर भी पिछले छह महीने से उसे किसी प्रकार का राशन, दवा या मज़दूरी नहीं मिली। और अमानवीयता की हद देखिये कि उसके परिवार को ग़रीबी रेखा से ऊपर मानकर उसे किसी सरकारी योजना का लाभ तक नहीं दिया जाता। एक 50 वर्षीय मज़दूर अपनी तकलीफ़ बयान करते-करते रोने लगा था। उसने बताया कि उसका पैर बिल्कुल बेकार हो चुका है। वह किसी काम के योग्य नहीं रहा और अब उसके पास भीख माँगने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा। वहाँ 45 से अधिक ऐसे मज़दूर हैं जो भूख और बीमारी के कारण गम्भीर स्थिति में हैं फिर भी उन्हें कोई मदद नहीं मिल रही है।
मज़दूरों ने बताया कि उनकी यह हालत एक दिन में नहीं हुई बल्कि दशकों से वे प्रबन्धन की अन्यायी और निरंकुश नीतियों को झेल रहे हैं। उन्होंने बताया कि पूरे असम में औसत मज़दूरी बहुत कम है, अक्सर मज़दूरी का भुगतान नहीं किया जाता, ग्रेच्युटी जैसी अन्य सुविधाएँ नहीं दी जातीं, बिना भुगतान के ओवरटाइम कराया जाता है। मगर इस बागान में तो बहुत बुरी हालत है। कुछ परमानेण्ट मज़दूरों की दिन भर की मज़दूर सिर्फ़ 50 रुपये है, जो परमानेण्ट नहीं हैं उन्हें रोज़ के 41 रुपये मिलते हैं। अस्थायी मज़दूरों को रहने के लिए घर नहीं मिलता और जब वे प्रबन्धन की नीतियों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाते हैं तो यूनियन में काबिज़ गद्दार, अवसरवादी और समझौतापरस्त नेता उनकी आवाज़ को दबाने की ही कोशिश करते हैं। लखीपुर का विधायक और पूर्व मंत्री दिनेश प्रसाद गोवला ही इण्टक से जुड़ी बराक चा श्रमिक यूनियन का महासचिव भी है और मज़दूरों को झूठे आश्वासन देने के सिवा उसने कुछ नहीं किया है।
चार महीने की जबरन बन्दी के बाद फरवरी में बागान खुला भी तो मज़दूरों को 2011 की सिर्फ़ आधी मज़दूरी और आधा बोनस दिया गया। 2009 और 2010 का बोनस अब भी बकाया है। चाय फैक्ट्री तो अब भी चालू नहीं हुई है। वहाँ का प्रबन्धक, आन्दोलन को दबाने के लिए अपने सहायक प्रबन्धक को तैनात करके ख़ुद भाग गया है। असम की तरुण गोगोई सरकार चार महीने तक मज़दूरों की मौत का तमाशा देखती रही और मार्च में उसने अपने एक मंत्री और एक सदस्यीय जाँच कमेटी को हालात का जायज़ा लेने के लिए भेजा। लेकिन उसके बाद भी मज़दूरों को कुछ भी ठोस हासिल नहीं हुआ है। उल्टे केन्द्र और राज्य सरकार द्वारा चल रही कल्याणकारी योजनाओं से भी मज़दूर बेदखल कर दिये गये हैं। केन्द्र सरकार की ‘बाल विकास योजना’ बच्चों, किशोरों और गर्भवती स्त्रियों को आहार और स्वास्थ्य सुरक्षा के लिए बनायी गयी है, लेकिन उसका कोई लाभ मज़दूर नहीं उठा पाते। ‘इन्दिरा आवास योजना’ के तहत केवल उन्हीं मज़दूरों को घर मिले हैं है जो प्रबन्धन या सत्ताधारी पार्टियों से जुड़ी यूनियन से मिले हुए हैं।
रिपोर्ट में चेतावनी दी गयी है कि अगर प्रशासन ने तत्काल कदम नहीं उठाये तो बराक घाटी के सात और चाय बागानों चारगोला वैली, दुर्गानगर, मदनमोहन, श्रीबेहुटा, सेगला चेरा, चिनकूड़ी और सरस्वती चाय बागान में भी मज़दूरों की हालत ऐसी ही हो सकती है। बागान मज़दूरों के दर्द को समझना और मालिकों तथा सरकार की असली फ़ितरत को पहचानना भारत के किसी भी इलाके के मज़दूरों के लिए कठिन नहीं है, क्योंकि अलग-अलग तरीक़े से हर जगह उन्हें ऐसे ही हालात का सामना करना पड़ता है।
मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2012
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