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पूँजीपतियों के लिए “अच्छे दिनों” और मेहनतकशों के लिए “बुरे दिनों” की शुरुआत!
मोदी सरकार का मज़दूरों के अधिकारों पर ख़तरनाक हमला
मोदी सरकार के आते ही जिन “अच्छे दिनों” का शोर मचाया गया था, उसकी पोल अब जनता के सामने खुल रही है। पूँजीपति घरानों ने मोदी के चुनाव प्रचार पर जो हज़ारों करोड़ रुपये पानी की तरह बहाये थे, उसे पूँजीपतियों के वफ़ादार मोदी को ब्याज़ समेत मालिकों की तिजोरियों में पहुँचाना ही है। मोदी सरकार ने आते जो सबसे पहला कदम उठाया है वह है मज़दूर वर्ग के कानूनी हक़ों पर हमला! मोदी ने एलान किया है कि मज़दूरों के अधिकारों की बात करने वाले कानूनों में बदलाव किया जायेगा! अब मज़दूरों को इन कानूनों में कम-से-कम कागज़ी तौर पर जो हक़ हासिल थे, वे भी छीन लिये जायेंगे।
यूँ तो हर मज़दूर जानता है कि मौजूदा श्रम कानून ज़्यादातर सरकारी कागज़ों की ही शोभा बढ़ाते हैं; देश के 93 प्रतिशत असंगठित मज़दूरों को न तो न्यूनतम मज़दूरी मिलती है, न आठ घण्टे का कार्यदिवस, न डबल रेट से ओवरटाइम और न ही ईएसआई व पीएफ का अधिकार; पहले से ही लचर श्रम कानूनों को लागू करने की ज़िम्मेदारी रखने वाले श्रम विभाग के फैक्टरी इंस्पेक्टरों/लेबर इंस्पेक्टरों को मालिक और ठेकेदार अपनी जेब में लेकर घूमते हैं; लेकिन फिर भी जहाँ कहीं मज़दूर संगठित होकर इन श्रम कानूनों को लागू करवाने की लड़ाई लड़ते हैं, वहाँ मालिकों और प्रबन्धन को कुछ दिक्कतें पेश आती हैं। इसीलिए मोदी ने आते ही पूँजीपतियों की लूट के रास्ते में कुछ बाधा पैदा करने वाले श्रम कानूनों को ख़त्म करने का काम शुरू कर दिया है।
मोदी सरकार का श्रम कानूनों पर हमला
मोदी सरकार ने अपने पहले 100 दिन के एजेण्डे में श्रम कानूनों में बदलाव को पहली प्राथमिकताओं में से एक बताया था। इसके बाद पूँजीपतियों की संस्था एसोचैम, फिक्की से लेकर सीआईआई ने उछल-उछलकर अपने वफादार प्यादे को बधाई दी थी। मोदी सरकार ने भी बिना देर किये 31 जुलाई को फैक्ट्री एक्ट 1948, ट्रेड यूनियन एक्ट 1926, औद्योगिक विवाद अधिनियम 1948, ठेका मज़दूरी कानून 1971, एपरेंटिस एक्ट 1961 से लेकर तमाम श्रम कानूनों को कमज़ोर और ढीला करने की कवायद शुरू कर दी। जहाँ पहले फैक्ट्री एक्ट 10 या ज़्यादा मज़दूरों (जहाँ बिजली का इस्तेमाल होता हो) तथा 20 या ज़्यादा मज़दूरों (जहां बिजली का इस्तेमाल न होता हो) वाली फैक्टरियों पर लागू होता था, अब इसे क्रमशः 20 और 40 मज़दूर कर दिया गया है। इस तरह अब मज़दूरों की बहुसंख्या को कानूनी तौर पर मालिक हर अधिकार से वंचित कर सकता है। इसके अलावा सरकार एक माह में ओवरटाइम की सीमा को 50 घण्टे से बढ़ाकर 100 घण्टे करने की तैयारी में है। वहीं दूसरी तरफ मज़दूरों के लिए यूनियन बनाना और भी मुश्किल कर दिया गया है। पहले किसी भी कारखाने या कम्पनी में 10 प्रतिशत या 100 मज़दूर मिलकर यूनियन पंजीकृत करवा सकते थे पर अब ये संख्या बढ़कर 30 प्रतिशत कर दी गई है। ठेका मज़दूरों के लिए बनाया गया ठेका मज़दूरी कानून-1971 भी अब सिर्फ 50 या इससे ज्यादा मज़दूरों वाली फैक्टरी पर लागू होगा। मतलब अब कानूनी तौर पर भी ठेका मज़दूरों की बर्बर लूट पर कोई रोक नहीं होगी। औद्योगिक विवाद अधिनियम में बदलाव करके यह प्रावधान किया जा रहा है कि अब 300 से कम मज़दूरों वाली फैक्टरी को मालिक कभी-भी बन्द कर सकता है और इस मनमानी बन्दी के लिए मालिक को सरकार या कोर्ट से पूछने की कोई ज़रूरत नहीं है! साथ ही फैक्टरी से जुड़े किसी विवाद को श्रम अदालत में ले जाने के लिए पहले कोई समय-सीमा नहीं थी, अब इसके लिए भी तीन साल की सीमा तय कर दी गयी है। एपरेन्टिस एक्ट में संशोधन कर सरकार ने बड़ी संख्या में स्थायी मज़दूरों की जगह ट्रेनी मज़दूरों को भर्ती करने का कदम उठाया है। साथ ही किसी भी विवाद में अब मालिकों के ऊपर किसी भी किस्म की कानूनी कार्रवाई का प्रावधान हटा दिया गया है।
मोदी सरकार द्वारा श्रम कानूनों में बदलाव के पीछे वही घिसे-पिटे तर्क दिये जा रहे हैं जो 1990 के दौर में उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों को लागू करते समय दिये गये थे जैसे कि इन “सुधारों” से निवेश बढ़ेगा और रोज़गार बढ़ेंगे। लेकिन अगर ऐसे सुधारों से रोज़गार बढ़ने होते, तो 1991 से लेकर अभी तक मज़दूरों की बेरोज़गारी और शोषण में इतनी बढ़ोत्तरी नहीं हुई होती। ज़ाहिर है कि मोदी सरकार द्वारा उठाये जा रहे मज़दूर-विरोधी कदमों से मज़दूरों की लूट और बेकारी में और इज़ाफ़ा होगा। असल में श्रम कानूनों की धज्जियाँ उड़ाने का मकसद रोजगार बढ़ाना नहीं बल्कि पूँजीपतियों को मज़दूरों को लूटने के लिए और ज़्यादा छूट देने की है। तभी तो इस बजट में पूँजीपति घरानों को 5.32 लाख करोड़ रुपये की भारी छूट दी गयी है।
चुनावी पार्टियों की ट्रेड यूनियनों की ग़द्दारी
इन मज़दूर-विरोधी नीतियों पर सीटू, एटक, इंटक, बीएमएस, एचएमएस आदि जैसी चुनावी पार्टियों की ट्रेड यूनियनें चुप हैं या महज़ यह शिकायत कर रही हैं कि उनसे पहले सलाह नहीं ली गयी। यानी उन्हें इन संशोधनों पर कोई एतराज़ नहीं है बल्कि इस बात पर एतराज़ है कि ये संशोधन करने से पहले उनकी राय क्यों नहीं ली गयी! वैसे इसमें कोई ताज्जुब की बात नहीं है। संसदीय वामपंथियों समेत सभी चुनावी पार्टियों की आज मज़दूरों को लूटने वाली और पूँजीपतियों के मुनाफ़े को बढ़ाने वाली नीतियों पर पूर्ण सहमति है। इसलिए उनके टुकड़ों पर पलने वाली ट्रेडयूनियनें भला मज़दूरों के हितों की हिफ़ाज़त क्यों करने लगीं? पहले भी 93 प्रतिशत ठेका व दिहाड़ी मज़दूरों की माँगों को ये यूनियनें उठाना छोड़ चुकी थीं। इसलिए मोदी सरकार द्वारा मज़दूरों पर इन ख़तरनाक हमलों पर ये ट्रेड यूनियनें चुप हैं या दिखावटी स्यापा कर रही हैं।
मोदी सरकार के मज़दूर-विरोधी कदमों के विरुद्धः चलो जन्तर-मन्तर!
मज़दूर हितों पर यह फासीवादी हमला करने के लिए ही मोदी को पूँजीपतियों ने सत्ता में पहुँचाया था और अब उनके वफ़ादार के तौर पर मोदी सरकार यह काम कर भी रही है। मौजूदा संकट में पूँजीपतियों की मुनाफ़े की दरें ख़तरनाक हदों तक नीचे गिर गयी हैं और इसीलिए पूँजीपति वर्ग अब मज़दूरों की लूट में थोड़ी-बहुत कानूनी बाधा पैदा करने वाले कानूनों को ख़त्म करवा रहा है। अगर देश का मज़दूर अपने ऊपर किये जा रहे इन हमलों का पुरज़ोर विरोध नहीं करता तो आने वाले समय में मज़दूरों से बंधुआ गुलामी करवाने के लिए मालिक वर्ग पूरी तरह आज़ाद हो जायेगा। श्रम कानूनों पर इन हमलों के ख़िलाफ़ हम चुनावी पार्टियों की ट्रेड यूनियनों पर भरोसा नहीं कर सकते जो मोदी सरकार के तलवे चाटने का तैयार बैठी हैं। हमें स्वयं अपनी क्रान्तिकारी ट्रेड यूनियनों व मज़दूर संगठनों के ज़रिये इन हमलों का जवाब देना होगा। इसीलिए हम सभी मज़दूर भाइयों और बहनों को ललकारते हैं कि 20 अगस्त को मोदी सरकार के मज़दूर-विरोधी कदमों का मुँहतोड़ जवाब देने के लिए बड़ी से बड़ी संख्या में जन्तर-मन्तर पहुँचे।
अगर हम लड़ते नहीं/अगर हम लड़ते नहीं जाते
तो दुश्मन हमें अपनी संगीनों से चीर देगा
और कहेगा कि देखो! ये गुलामों की हड्डियाँ हैं!
मज़दूर अधिकार रैली
20 अगस्त, बुधवार, सुबह-11 बजे, जन्तर-मन्तर, दिल्ली
बिगुल मज़दूर दस्ता
सम्पर्कः शिवानी-9711736435 नवीन-8750045975 सनी-9873358124 योगेश-9289498250
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन