गोर्की के जन्मदिवस (28 मार्च) के अवसर पर
एक सच्चा सर्वहारा लेखक -मक्सिम गोर्की
नमिता
दुनिया में ऐसे लेखकों की कमी नहीं, जिन्हें पढ़ाई-लिखाई का मौक़ा मिला, पुस्तकालय मिला, शान्त वातावरण मिला, जिसमें उन्होंने अपनी लेखनी की धार तेज़ की। लेकिन बिरले ही ऐसे लोग होंगे जो समाज के रसातल से उठकर आम-जन के सच्चे लेखक बने। मक्सिम गोर्की ऐसे ही लेखक थे।
28 मार्च 1868 को रूस के वोल्गा नदी के किनारे एक बस्ती में मक्सिम गोर्की का जन्म हुआ। सात वर्ष की उम्र में ही अनाथ हो जाने वाले गोर्की को बहुत जल्दी ही इस सच्चाई का साक्षात्कार हुआ कि ज़िन्दगी एक जद्दोजहद का नाम है। समाज के सबसे ग़रीब लोगों की गन्दी बस्तियों में पल-बढ़कर वह सयाने हुए। बचपन से ही पेट भरने के लिए उन्होंने पावरोटी बनाने के कारख़ाने, नमक बनाने के कारख़ाने (नमकसार) में काम करने से लेकर गोदी मज़दूर, रसोइया, अर्दली, कुली, माली, सड़क कूटने वाले मज़दूर तक का काम किया। समाज के मेहनत करने वाले लोगों, ग़रीब आवारा लोगों, गन्दी बस्तियों के निवासियों के बीच जीते हुए उन्होंने दुनिया की सबसे बड़ी किताब – ज़िन्दगी की किताब से तालीम हासिल की। उन्होंने स्कूल का मुँह तक नहीं देखा था, लेकिन पन्द्रह-पन्द्रह घण्टे कमरतोड़ मेहनत के बाद भी उन्होंने किसी न किसी को अपना गुरु बनाकर ज्ञान प्राप्त किया। कुछ समय तक उन्होंने महान रूसी लेखक व्लादीमिर कोरोलेंको से लेखन कला सीखी और बहुत जल्दी ही रूस के एक बड़े लेखक बन गये।
पुराने रूसी समाज की कूपमण्डूकता, निरंकुशता और सम्पत्ति सम्बन्धों की निर्ममता ने युवा लेखक अलेक्सेई मक्सिमोविच को इतनी तल्ख़ी से भर दिया था कि उन्होंने अपना नाम “गोर्की” रख लिया, जिसका अर्थ है तल्ख़ या कड़वाहट से भरा। लेकिन उनकी तल्ख़ी दिशाहीन नहीं थी। प्रसिद्ध रूसी उपन्यासकार मिखाईल शोलोखोव ने उनके बारे में लिखा है – “गोर्की उन लोगों को प्यार करते थे, जो मानव जाति के उज्ज्वल भविष्य के लिए संघर्ष करते थे और अपनी प्रचण्ड प्रकृति की पूरी शक्ति से शोषकों, दुकानदारों और निम्न पूँजीपतियों से नफ़रत करते थे, जो प्रान्तीय रूस के निश्चल दलदल में ऊँघते रहते थे…उनकी पुस्तकों ने रूसी सर्वहारा को ज़ारशाही के ख़िलाफ़ लड़ना सिखाया।”
गोर्की के शुरुआती उपन्यासों ‘फ़ोमा गोर्देयेव’ और ‘वे तीन’ के केन्द्रीय चरित्र फ़ोमा और इल्या लुनेव ऐसे व्यक्ति हैं, जो निजी सम्पत्ति पर आधारित समाज के तौर-तरीक़ों को स्वीकारने से इंकार कर देते हैं। लेकिन उनके वास्तविक नायक बीसवीं सदी के आरम्भ में सामने आते हैं, जब रूसी समाज करवट बदल रहा था। ‘माँ’ उपन्यास ने क्रान्तिकारी सर्वहारा के रूप में साहित्य को एक नया नायक दिया।
गोर्की की बहुत-सी कृतियों में क्रान्तिकारी गतिविधियों का प्रत्यक्ष वर्णन नहीं है लेकिन आबादी के सबसे निचले तलों में भी गोर्की विचारों के उफान को, छिपी हुई मानवीय शक्तियों को खोज निकालते हैं। उनके आत्मकथात्मक उपन्यासत्रयी का केन्द्रीय पात्र अपने असंख्य अनुभवों के दौरान इन्हीं उफनते विचारों और छिपी हुई शक्तियों का संचय करता है। उसका चरित्र रूसी यथार्थ में जड़ जमायी हुई बुराइयों तथा सोचने के आम तौर पर व्याप्त ढर्रे के विरुद्ध बग़ावती तेवर अपनाकर विकसित होता है।
गोर्की के समकालीन तोलस्तोय, चेख़व, शोलोख़ोव, सभी उनकी प्रतिभा के उत्कट प्रशंसक थे। रोम्याँ रोलाँ और एच. जी. वेल्स ने भी उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। यूरोप और अमेरिका के उन लेखकों ने भी उनकी प्रतिभा का लोहा माना था और उनकी प्रशंसा की थी, जो मार्क्सवादी नहीं थे। रोम्याँ रोलाँ ने स्वीकार किया था कि गोर्की मानवता की अमूल्य धरोहर हैं।
गोर्की ने अपने जीवन और लेखन से सिद्ध कर दिया कि दर्शन और साहित्य विश्वविद्यालयों, कॉलेजों में पढ़े-लिखे विद्वानों की बपौती नहीं है बल्कि सच्चा साहित्य आम जनता के जीवन और लड़ाई में शामिल होकर ही लिखा जा सकता है। उन्होंने अपने अनुभव से यह जाना कि अपढ़, अज्ञानी कहे जाने वाले लोग ही पूरी दुनिया के वैभव के असली हक़दार हैं। आज एक बार फिर साहित्य आम जन से दूर होकर महफ़िलों, गोष्ठियों यहाँ तक कि सिर्फ़ लिखने वालों तक सीमित होकर रह गया है। आज लेखक एक बार फिर समाज से विमुख होकर साहित्य को आम लोगों की ज़िन्दगी की चौहद्दी से बाहर कर रहा है।
पिछले लगभग 15 वर्षों के भीतर जो पीढ़ी समझदार होकर विश्व साहित्य में दिलचस्पी लेने लायक हुई है वह गोर्की के कृतित्व की क्लासिकी गहराई और उनकी महानता से लगभग अपरिचित है। मक्सिम गोर्की का विराट रचना संसार था, लेकिन पूरी दुनिया के साहित्य प्रेमियों का एक बड़ा हिस्सा आज भी उससे अनजान है। उनके कई महान उपन्यास, कहानियाँ, विचारोत्तेजक निबन्ध तो अंग्रेज़ी में भी उपलब्ध नहीं हैं। इस मायने में हिन्दी के पाठक गोर्की के साहित्य से और भी अधिक वंचित रहे हैं। हिन्दी में तो गोर्की के साहित्य का बहुत छोटा हिस्सा ही लोगों के सामने आ सका है। उनके प्रसिद्ध उपन्यास ‘एक फ़ालतू आदमी का जीवन’ और ‘मत्वेई कोझेम्याकिन का जीवन’ आज तक हिन्दी में अनूदित नहीं हुए हैं। उनका बहुश्रुत चार खण्डों वाला अन्तिम विराट उपन्यास ‘क्लिम सामगिन की ज़िन्दगी’ का तो अंग्रेज़ी में भी अनुवाद नहीं हुआ है।
इधर आम तौर पर साहित्य में जिन चीज़ों का बाज़ार निर्मित हुआ है उसमें गोर्की, शोलोख़ोव जैसे लेखकों का साहित्य वैसे भी समाज-बहिष्कृत है। उनकी महत्त्वपूर्ण रचनाओं से अनभिज्ञता और वैचारिक पूर्वाग्रहों के चलते गोर्की की कालजयी महानता से आज नये पाठक लगभग अपरिचित हैं। इस अनमोल विरासत को पाठकों को उपलब्ध कराने की चुनौती को स्वीकारना होगा। यह हमारे साहित्य और समाज दोनों को नयी ऊष्मा से भर देगा।
बिगुल, मार्च 2009
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