आने वाले चुनाव और ज़ोर पकड़ती साम्प्रदायिक लहर
कविता
इस बार दंगा बहुत बड़ा था
ख़ूब हुई थी
ख़ून की बारिश
अगले साल अच्छी होगी
फसल मतदान की।
– गोरख पाण्डे
देश में 2014 में आम चुनाव होने हैं। हिमाचल विधान सभा के चुनाव हो चुके हैं (नतीजे 20 दिसम्बर को आयेंगे) और गुजरात में भी जल्दी ही होंगे। चुनावी पार्टियों के पास कोई मुद्दा नहीं है। भ्रष्टाचार को कांग्रेस ही नहीं, भाजपा, सपा, बसपा, तेदेपा, अकाली, रालोद, लोजपा, बीजद, द्रमुक, अन्ना द्रमुक… कोई भी छोटी बड़ी पार्टी मुद्दा नहीं बना सकती। जनता जानती है, जिसको जितना मौक़ा मिला, सबने लूटा है। कांग्रेसी सत्तासीन हैं, पुराने अनुभवी खिलाड़ी हैं, इसलिए उन्होंने ज़्यादा लूटा है। लेकिन भाजपाई भी कहाँ पीछे हैं। लालू, मायावती, मुलायम, जयललिता, करुणानिधि, बादल आदि क्षेत्रीय क्षेत्रपों के अकूत सम्पदा-संचय के बारे में भला कौन नहीं जानता।
महँगाई, बेरोज़गारी, बदहाली, भूख-कुपोषण, धनी-ग़रीब की बढ़ती खाई – यह सब कुछ चरम पर है। पर कोई पार्टी इन मुद्दों को हवा दे पाने की स्थिति में नहीं है। पिछले बाईस वर्षों के अनुभव ने यह साफ़ कर दिया है कि नवउदारवाद की नीतियों की जिस वैश्विक लहर ने भारत जैसे देशों के आम लोगों की ज़िन्दगी पर कहर बरपा किया है, उन नीतियों पर सभी चुनावी दलों की आम सहमति है। केन्द्र और राज्य में, जब भी और जितना भी मौक़ा मिला है, इन सभी दलों ने उदारीकरण- निजीकरण की नीतियों को ही लागू किया है। चुनावी वाम दलों के जोकर भी पीछे नहीं है। उनका “समाजवाद” बाज़ार के साथ ‘लिव इन रिलेशनशिप’ में रहता है, अपने को अब “बाज़ार समाजवाद” कहता है और कीन्सियाई नुस्खों से नवउदारवादी पूँजीवाद को थोड़ा “मानवीय” चेहरा देने के लिए सत्ताधारियों को नुस्खे सुझाता है।
अब ज़रा भ्रष्टाचार प्रसंग की भागवत कथा भी सुन लें। नैतिकता-शुचिता के सारे ध्वजाधारी (अन्ना, केजरीवाल, रामदेव आदि) पूँजीवादी शोषण की व्यवस्था का कोई विकल्प नहीं दे रहे थे। वे भ्रष्टाचार-मुक्त पूँजीवाद चाह रहे थे। दोषी वे व्यवस्था को नहीं बल्कि व्यक्तियों को बता रहे थे। इनमें से कुछ साम्राज्यवादी वित्तपोषण से एन.जी.ओ. चलाते हैं और किसी का धर्म के नाम पर खरबों का व्यापार साम्राज्य है। इनका असली मक़सद था पूँजीवादी व्यवस्था के दामन पर लगे दाग़-धब्बों को छुड़ाकर लोगों में बढ़ते मोहभंग को रोकना। अपने मक़सद में काफी हद तक ये सफल भी रहे, पर बात ज़रा दूर तक चली गयी। समय लगते ब्रेक नहीं लग पाया। पूँजीवादी व्यवस्था जिन तमाम अन्दरूनी अन्तरविरोधों के साथ काम करती है उसमें प्रायः ऐसा होता है। दरअसल वहाँ नाटक की थीम भर तय होती है, स्क्रिप्ट और संवाद पहले से लिखे हुए नहीं होते। भ्रष्टाचार-विरोध के ध्वजवाहकों को एक (भ्रष्टाचार-मुक्त पूँजीवाद का) यूटोपिया देना था, पर उन्होंने इतनी धमा-चौकड़ी मचाई कि पूँजीवादी संसदीय राजनीति की सारी गन्द (सुअरबाड़े की गन्द) सड़क पर बिखर गयी। अब पूँजीवाद को काम तो इसी संसदीय राजनीति के ज़रिये करना है। अतः ‘ड्रैमेज कण्ट्रोल’ का काम शुरू हो गया है। केजरीवाद ऐण्ड कम्पनी सामाजिक आन्दोलन से राजनीतिक पार्टी बनने की दिशा में चल पड़े हैं। अन्ना अपनी पूर्व भूमिका में हैं, ताकि फिर व्यवस्था के काम आ सकें। रामदेव इधर अपने व्यावसायिक हितों की हिफ़ाज़त में व्यस्त हैं। वैसे भी भ्रष्टाचार-विरोध, धर्म और अन्धराष्ट्रवाद की खिचड़ी परोसकर भाजपा को जितना लाभ वे पहुँचा सकते थे, उतना अब सम्भव नहीं, क्योंकि गडकरी-प्रसंग तक आते-आते भाजपा का भ्रष्ट चेहरा भी नंगा हो चुका है और रामदेव के व्यापार-धन्धे भी सबके सामने हैं।
तब फिर सभी चुनावी मदारियों के सामने यक्षप्रश्न एक ही है। आगामी लोकसभा चुनावों में उछालने के लिए किसी के पास कोई लोक-लुभावन नारा नहीं है। वैसे, रुटीनी तौर पर सभी पार्टियाँ चुनाव घोषणापत्र में कुछ वायदे करेंगी ही, पर असली खेल एक बार फिर जाति और धर्म के आधार पर जनता को बाँटकर ही खेला जा सकेगा।
यही वजह है कि साम्प्रदायिकता की राजनीति को योजनाबद्ध तरीके से हवा देने का काम शुरू हो गया है। उत्तर प्रदेश में सपा सरकार के आठ महीने के शासनकाल के दौरान मुस्लिम आबादी पर बड़े स्तर पर सुनियोजित हमले की नौ घटनाएँ घट चुकी हैं। फ़ैज़ाबाद में सुनियोजित ढंग से मुस्लिमों के घरों-दुकानों पर हमले हुए। चन्द घण्टों के भीतर रुदौली और अन्य कस्बों में तोड़-फोड़ और आगज़नी शुरू हो गयी। यानी सबकुछ पहले से तय था इसके पहले बरेली में दंगों और कफ्रर्यू के बाद महीनों तनाव बना रहा। मथुरा, प्रतापगढ़, ग़ाज़ियाबाद, लखनऊ, कानपुर और इलाहाबाद की स्थिति को भी प्रशासन अतिसंवेदनशील मानता है। उधर, पूर्वी उत्तर प्रदेश के ज़िलों में योगी आदित्यनाथ की हिन्दू युवा वाहिनी की उन्मादी, भड़काऊ गतिविधियाँ और तेज़ हो गयी हैं। बाबरी मस्जिद ध्वंस काण्ड के दो चर्चित चेहरे उमा भारती और कल्याण सिंह को फिर उत्तर प्रदेश में सक्रिय कर दिया गया है। इस बार गुजरात में नरेन्द्र मोदी यदि भाजपा की नैया पार लगा देंगे, तो आर.एस.एस. उन्हें प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में प्रोजेक्ट करने के लिए तैयार बैठा है।
भाजपा के कट्टरपंथी हिन्दुत्व की राजनीति जितनी परवान चढ़ेगी, अल्पसंख्यकों का मसीहा बनने का मुलायम सिंह को भी उतना ही मौक़ा मिलेगा। मायावती अपना दलित वोट बैंक लिये भाजपा और कांग्रेस से मोलभाव के लिए तैयार रहेंगी। कांग्रेस भी सेक्युलरिज़्म के नाम पर कुछ कमाई करना चाहेगी और राहुल गांधी को आगे करके विकास के कुछ दावे प्रस्तुत करेगी।
निचोड़ यह कि नागनाथ आयें चाहें साँपनाथ, नीतियाँ वही रहेंगी, जनता की दुर्दशा जारी रहेगी। तब फिर वोट बैंक की राजनीति धर्म और जाति के आधार पर जनता को बाँटकर ही खेली जायेगी। यह सिलसिला तबतक जारी रहेगा, जबतक जाति-धर्म-इलाके के आधार पर बाँटे जाने की साज़िश को जनता नहीं समझेगी। ग़रीब मेहनतकशों को वर्गीय आधार पर संग्रामी एकजुटता बनानी ही होगी। उनकी मुक्ति का दूसरा कोई भी रास्ता नहीं है।
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“अपनी राजनीतिक समस्याओं का हल धर्मों में खोजना भारी गलती है। धार्मिक विचारों के लिए स्वतंत्रता भले ही रहे, लेकिन राजनीति में धर्म का दखल बहुत ही हानिकारक बात है।”
राहुल सांकृत्यायन
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मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2012
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