‘लव-जिहाद’ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का जनसंख्या विज्ञान

नवगीत

एक धार्मिक समुदाय के बीच किसी दूसरे धार्मिक समुदाय के बारे में झूठा प्रचार करना फ़ासीवादियों तथा धार्मिक-दक्षिणपंथी शक्तियों का पुराना हथकण्डा रहा है। फिर यह कैसे हो सकता था कि इस मामले में भारत के संघी-मार्का फ़ासीवादी पीछे रह जायेँ। भाजपा के 2014 के लोकसभा चुनावों के लिए पीएम उमीद्वार नरेन्द्र मोदी ने 2002 के गुजरात दंगों के बाद वहाँ हुए चुनाव के दौरान कहा था – “हम (मतलब हिन्दू) दो हमारे दो, वो (मतलब मुस्लिम) पाँच उनके पचीस।” इसके बाद 2004 में विश्व हिन्दू परिष्द के अशोक सिंघल ने हिन्दुओं के आगे परिवार नियोजन छोड़ने का ढोल पीटा। अशोक सिंघल यह तुर्रा बहुत पहले से छोड़ते आ रहे हैं, और भाजपाई सरकार वाले राज्यों में तो वह सरकारी मंच से यह मसला उछालते रहते हैं। पिछले 3-4 सालों में संघियों ने अपने इसी जनसंख्या विज्ञान को फिर से दोहराना शुरू कर दिया है, लेकिन अब वे इसे नए रंग में लपेट कर लाए हैं। पहले संघी संगठन मुसलमानों द्वारा अपनी जनसंख्या बढ़ाने का हौवा ही खड़ा करते थे, अब उन्होंने ने इसमें “लव-जिहाद” का डर भी जोड़ दिया है। संघियों के अनुसार मुसलमानों ने (यहाँ संघी मुस्लिम कट्ट्टरपंथी संगठन कहना भी वाजिब नहीं मानते क्योंकि संघियों के लिए सभी मुस्लिम लोग मुस्लिम कट्ट्टरपंथी संगठनों के सदस्य हैं) हिन्दू नवयुवतियों को प्यार के जाल में फँसाकर अपनी आबादी बढ़ाने के लिए मशीनों की तरह इस्तेमाल करने के लिए “लव-जिहाद” नामक “गुप्त” संगठित अभियान छेड़ा हुआ है।

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विश्व हिन्दू परिषद के नेता इस साल सितम्बर महीने में हुए मुज्जफरनगर दंगों के पीछे “लव-जिहाद” का हाथ होने की रट लगा रहे हैं। इससे पहले, “लव-जिहाद” का प्रयोग केरल तथा कर्नाटक में चल ही रहा था। इस साल महाराष्ट्र में भी संघ से जुड़े संगठनों ने “लव-जिहाद” का “मुकाबला” करना शुरू किया है। 2010 में दक्षिण कर्नाटक में सरगर्म तथा संघ से जुड़े संगठन हिन्दू जनजागृति समिति ने प्रचार शुरू किया कि प्रान्त में 30,000 हिन्दू नवयुवतियों को “लव-जिहाद” वालों ने अपने प्यार-चक्कर में फाँसकर मुस्लिम बना लिया है। ऐसा ही प्रचार केरल में भी शुरू किया जा चुका था। केरल की उच्च अदालत ने इसकी जाँच के आदेश दिए, मगर पुलिस को ऐसे किसी भी जिहाद का कोई एक सबूत भी नहीं मिला, नतीजतन उच्च अदालत ने जाँच को बंद करा दिया। मगर न्यायपलिका में भी संघी प्रचार की घुसपैठ है, जिसका सबूत कर्नाटक उच्च अदालत ने दिया। 2010 में यहाँ एक 23 वर्षीय हिन्दू लड़की के मामले में, जिसने एक मुस्लिम लड़के से शादी करके धर्मपरिवर्तन कर लिया था, फैसला सुनाया कि लड़की को उसके माता-पिता के हवाले किया जाये और साथ में यह भी कहा कि उस लड़की का मुस्लिम लड़के से शादी करना तथा धर्मपरिवर्तन करना औरतों की सुरक्षा के मामले में देशस्तरीय महत्ता वाला मसला है, साथ ही औरतों के व्यापार का मामला भी है। बाद में कर्नाटक पुलिस की जाँच से पता चला कि जिस संघ के फ़ासीवादी गिरोह हिन्दू जनजागृति समिति ने जिस समय-अवधि के दौरान 30,000 हिन्दू लड़कियों के गुम होने का प्रचार किया है, उस समय-अवधि में ऐसी सिर्फ़ 404 लड़कियाँ गुम हुई और उनमें से 332 को पुलिस ने ढूँढ़ निकाला। पुलिस की जाँच से यह भी सामने आया कि इनमें से ज़्यादातर मामलों में हिन्दू लड़कियाँ हिन्दू लड़कों से शादी करने के लिए घर से गयी थीं। मगर संघी फ़ासीवादी तो हिटलर के प्रचार मन्त्री गोयेबल्स परमभक्त हैं, इसलिए उन्होंने अपना झूठा प्रचार न सिर्फ कर्नाटक में जारी रखा, बल्कि इसे और राज्यों में फैलाया भी है।

संघीयों द्वारा चलाये जा रहे अभियान का एक पोस्‍टर

संघीयों द्वारा चलाये जा रहे अभियान का एक पोस्‍टर

महाराष्ट्र के नासिक तथा धुले के इलाकों में संघ से जुड़े बजरंग दल तथा अन्य संगठनों का दावा है कि पिछले एक साल में उन्होंने 4000 “भटक” गयी हिन्दू लड़कियों को “लव-जिहाद” के चुंगल से आज़ाद कराया है। इन संगठनों के कार्यकर्ता जगह-जगह फैले रहते हैं और अपने-अपने इलाके में होने वाली किसी भी अन्तर-धार्मिक शादी, विशेष तौर पर मुस्लिम लड़के तथा हिन्दू लड़की के बीच होने वाली शादियों पर नज़र रखते हैं। ऐसा होने पर वे लड़की के माँ-बाप से संपर्क करते हैं और उनको शादी रोकने के लिए मनाते हैं, ये गुण्डा गिरोह लड़की के माँ-बाप को शादी रुकवाने के लिए कैसे मनाते होंगे, यह समझा ही जा सकता है। ये लोग कॉलजों तथा अन्य जगहों पर हिन्दू लड़कियों पर नजर रखते हैं और किसी लड़की का मुस्लिम लड़के से प्रेम का मामला सामने आने पर उस लड़की को “समझाते” हैं और उस लड़की के घर जाकर परिवार को लड़की को रोकने के लिए कहते हैं। ये गिरोह उन मोटरसाइकिल पर भी नज़र रखते हैं जिनपर लड़के के पीछे लड़की बैठी हो। ये लोग मोटरसाइकिल का नंबर लेके स्थानीय ट्रांसपोर्ट दफ्तर से यह पता करते हैं कि मोटरसाइकिल हिन्दू की है या मुस्लिम की, और अगर मोटरसाइकिल मुस्लिम की है तो उसके पीछे बैठी लड़की हिन्दू ही होगी! इनका यह भी कहना है कि ट्रांसपोर्ट दफ्तर के लोग बहुत “मदद” करते हैं। सरकारी तन्त्र में संघियों की घुसपैठ कहाँ तक है, यह इसकी एक और मिसाल है। यह बिलकुल आश्चर्यजनक नहीं कि गुजरात दंगों के वक्त दंगाइयों के पास मुसलमानों की दुकानों तथा घरों की पूरी लिस्ट मौजूद थी।

आश्चर्य की बात भी यह है कि कर्नाटक और केरल में “लव जिहाद” के विरोध में ईसाई धर्म के पादरी भी संघियों के सुर में सुर मिला रहे हैं, हालाँकि कर्नाटक उन राज्यों में से है यहाँ संघी फ़ासीवादियों के गिरोहों ने ईसाई लोगों के खिलाफ़ सब से ज़्यादा हिंसा फैलाई है। केरल में तो कुछ साल पहले केरल के तब के मुख्यमंत्री अच्युतानन्दन भी संघियों की सुर में सुर मिलाने लगे थे। “लव जिहाद” का मामला सिर्फ मुसलमानों के खिलाफ प्रचार का ही मामला नहीं है, असल में पूरे समाज में औरत-विरोधी सामन्ती सोच को बढ़ावा देने का भी मामला है। इसलिए “लव जिहाद” के मामले पर वे शक्तियाँ एक ही जगह आ खड़ी हुई हैं जो औरतों के द्वारा अपनी जिंदगी के फैसले खुद लेने के जनवादी अधिकार को किसी सूरत में न मानने पर तुले हुए हैं। हैरानी की बात तो यह है कि कर्नाटक की अदालत तक दो युवाओं के विवाह करने के फैसले को मान्यता नहीं देती है जो कि उनका संवैधानिक तथा जनवादी अधिकार है और साथ ही इस अदालत ने किसी भारतीय नागरिक के किसी भी धर्म को मानने या न मानने के अधिकार की सरेआम धज्जियाँ उड़ाई हैं। जिस अदालत को संविधान की रक्षा करनी चाहिए, वही क़ानून के ख़िलाफ़ फ़ैसले सुना रही है। इससे पता चलता है कि सामन्ती मूल्य-मान्यताएँ भारतीय समाज में कितने गहरे तक पैठ हुई हैं और फ़ासीवादी-धार्मिक-पुरुष वर्चस्ववादी शक्तियों का सामाजिक आधार कितना बड़ा है। ये शक्तियाँ ना सिर्फ़ बालिग युवक-युवतियों द्वारा अपनी जिंदगी के फैसले खुद करने के अधिकार को मानने के लिए तैयार नहीं, बल्कि ये औरतों के बच्चा पैदा करने सम्बन्धी अधिकार को भी नहीं मानना चाहते। इनकी सोच औरत को बच्चा पैदा करने वाली मशीन समझने की ही है जो पूरी तरह से पुरुष के अनुसार पुरुष की मर्जी से बच्चे पैदा करे। असल में इन लोगों के लिए औरत या तो पुरुष, परिवार या धर्म की इज्जत से जुड़ी कोई ‘चीज़’ है, या फिर भोगने की, मर्द की यौन-ऐयाशी की चीज़ है, और या फिर बच्चे पैदा करने की मशीन। इससे ज़्यादा फ़ासीवादी, धार्मिक कट्ट्टरपंथी तथा पुरुष-वर्चस्ववादी सोच ही क्या सकते हैं, चाहे वे किसी भी धर्म, देश, इलाके के हों। हिटलर के नाजी भी यही सोचते थे, उनके लिए औरतें सिर्फ ऊँची आर्य जाति की संख्या बढ़ाने का एक जरिया थीं और अपनी इस सोच को लागू करने के लिए नाजियों ने औरतों पर क्या-क्या जुल्म किए, यह एक अलग कहानी है।

अब थोड़ा संघी ब्रिगेड के जनसंख्या विज्ञान पर भी नज़र डालते हैं। यह पिछले एक-दो दशक में सामने आया “भगवा” विज्ञान नहीं है। एक सदी पहले 1909 में पंजाब हिन्दू महासभा के सह-संस्थापक य.न. मुखर्जी ने एक किताब लिख कर संघ के जनसंख्या विज्ञान का सिद्धान्त पेश किया था, जिसके अनुसार देश में मुस्लिम लोग ज़्यादा बच्चे पैदा करके हिन्दुओं से अपनी जनसंख्या अधिक करने वाले हैं और इस तरह बहुत जल्दी ही मुसलमान भारत पर कब्जा कर लेंगे। मुखर्जी का “विज्ञान” तो समय के साथ औन्धे मुँह गिर चुका है मगर उसके पैरोकारों ने इस विज्ञान का प्रचार नहीं छोड़ा है। संघ के ताजा “लव-जिहाद” वाले झूठे प्रचार की असलियत तो हम देख ही चुके हैं। अब इनके दूसरे तर्कों की बात करते हैं जिनका भारत के अच्छे-खासे हिस्से पर असर है जिसमें आम मज़दूर-गरीब लोगों के अलावा मध्यवर्गीय तथा बुद्धिजीवी तबके के बहुतेरे लोग भी शामिल हैं।

संघियों द्वारा सबसे ज़्यादा पेश किया जाने वाला तर्क यह है कि मुसलमान पुरुष 3-3, 4-4 औरतों से शादी करते हैं, इसलिए मुस्लिम ज़्यादा बच्चे पैदा करते हैं। यह एकदम मूर्खतापूर्ण बात है। प्रकृति में लड़का और लड़की के पैदा होने का अनुपात 51 लड़कियों के पीछे 49 लड़के है, मतलब लगभग 50-50 प्रतिशत। इसलिए किसी समुदाय में बच्चे पैदा होने की दर मोटे तौर पर उस समुदाय में बच्चा पैदा करने की उम्र वाली औरतों की संख्या पर निर्भर करती है। दूसरा, अगर किसी समुदाय में एक आदमी चार औरतों से शादी करता है तो तीन आदमियों को शादी के बिना रहना होगा। इस तरह बच्चा पैदा करने के लिए बनने वाले जोड़ों की संख्या उतनी ही रहेगी। उल्टा अगर एक आदमी चार-चार औरतों से शादी करता है तो बच्चा पैदा होने की दर एक आदमी-एक औरत वाली शादियों से कम होगी। अब देखें तथ्य क्या कहते हैं? भारत में एक से ज़्यादा औरतों से शादी करने का प्रतिशत हिन्दुओं में 5.8 प्रतिशत है, जबकि मुसलमानों में 5.73 प्रतिशत है। वैसे भी आँख का अंधा और कान से बहरा आदमी भी यह आराम से समझ सकता है कि आज के महँगाई तथा बेरोजगारी के समय में 4-4 पत्नियाँ और 25-25 बच्चे पालना कितना संभव है। असल में संघी फ़ासीवादी इस्लाम धर्म में एक से ज़्यादा औरतों से शादी की अनुमति होने वाली बात को आधार बनाकर यह सारा झूठा प्रचार करते हैं और तर्क तथा तथ्य की बात बिलकुल नहीं करते क्योंकि यही वो चीजें हैं जो संघियों को नंगा करती है। सभी धर्मों में अनेकों ऐसी बातें हैं जो किसी समय में हालात के कारण समाज में प्रचलित हुईं मगर अब प्रासंगिकता खो चुकी हैं और अब या तो कर्मकाण्ड बन चुकी हैं, या फिर उस धर्म के अमीरों तथा पुरुषवर्चस्वकारी सोच के लिए गरीबों तथा औरतों के दमन का हथियार बन चुकी हैं। इस्लाम में एक से ज़्यादा औरतों से शादी वाली बात भी ऐसी ही है। इसका प्रचलन संभवतः तब हुआ जब इस्लाम मुख्य रूप से उन कबीलों का धर्म था जो दूसरे कबीलों से लगातार लड़ते रहते थे जिसके चलते कबीलों में मर्दों की संख्या औरतों की संख्या से कम रहती थी। इसलिए कबीले की जनसंख्या बनाए रखने के लिए ऐसा प्रचलन शुरू हुआ, मगर समय के साथ यह अमीरों के लिए ऐश उड़ाने के लिए औरतों का इस्तेमाल करने के लिए धर्म से मान्यता प्राप्त तरीका बन गया और गरीबों की औरतों को अपने कब्जे में करने का तरीका भी। साथ में यह समाज में पुरुषवर्चस्वकारी सोच का माध्यम भी बना। किसी भी और धर्म के पुजारियों की तरह, इस्लाम धर्म के मुल्ले भी अमीरपरस्त तथा पुरुषवर्चस्ववादी होने के कारण अभी भी इस धार्मिक सिद्धान्त को बनाए हुए हैं जिसका फ़ायदा संघी फ़ासीवादी गिरोह मुस्लिम समुदाय के खिलाफ़ नफ़रत फैलाने के लिए करते हैं। यह एक और उदाहरण है जिससे यह पता चलता है कि किस तरह सभी धर्मों के चौधरी आम लोगों को लड़ाने के लिए एक-दूसरे को बहाना देते हैं।

दूसरा संघी-मार्का “तर्क” यह है कि भारत में मुसलमानों की आबादी हिन्दुओं के मुकाबले बहुत ज़्यादा तेजी से बढ़ रही है, जिसके कारण जल्दी ही मुसलमानों की संख्या हिन्दुओं से बढ़ जायेगी। संघी जनसंख्या “वैज्ञानिक” मुसलमानों की आबादी के ज़्यादा तेजी से बढ़ने के पीछे उनका मुस्लिम होना बताते हैं। लेकिन इसमें विज्ञान और इतिहास की समझ का रत्तीभर अंश भी नहीं है। संघ के लोग इस तथ्य को अपनी दलील बनाते हैं कि 1947 में भारत की कुल जनसंख्या में मुसलमानों का प्रतिशत 10% था जो अब 14% हो गया है। संघी प्रचार-मशीनरी पूरे मामले के एक छोटे से अंश को पेश करके लोगों की आँखों में धूल झोंकना चाहती है लेकिन पूरा सच इनको नंगा कर देता है। सबसे पहले यह देखें कि मानवता के इतिहास में जनसंख्या कब-कब बढ़ी है? जब भी मानवता ने अपनी उत्पादन की शक्तियों में गुणात्मक विकास किया है, तब-तब जनसंख्या में इकदम से वृद्धि हुई है। प्राचीन समय में, जब आदमी ने खेती करना सीख लिया और वह एक जगह टिक कर रहने लगा तो जनसंख्या में एकदम वृद्धि हुई। इसी तरह अगर हम निकट अतीत की बात करें, तो जब मानवता ने पूँजीवादी दौर में कदम रखा तथा औद्योगिक क्रान्ति के चलते उत्पादन की शक्तियों में अभूतपूर्व विकास हुआ, तब यूरोप की आबादी में तीव्र बढ़ोतरी हुई। उदाहरण के लिए, 1700-1900 के बीच ब्रिटेन की आबादी चार गुणा से भी ज़्यादा बढ़ गयी थी और बिल्कुल यही औद्योगिक क्रान्ति का समय था। इसके बाद जैसे समाज आर्थिक तौर पर पहले से समृद्ध हुआ, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं का विकास हुआ, महामारियों एवं अकालों का ख़तरा मिट गया, आदमी का जीवन अधिक निश्चित हो गया और समाज का सांस्कृतिक स्तर ऊपर उठा तो जनसंख्या में बढ़ोतरी होनी रुक गयी। आजकल यूरोप की आबादी स्थिर है और कुछ देशों में तो आबादी कम हो रही है। यूरोप में पहले भी ईसाई धर्म मुख्य था और आज भी है, लेकिन जनसंख्या पहले तेज़ी से बढ़ी और फिर धीरे-धीरे स्थिर हो गयी। भारत में कई प्रान्तों जैसे पंजाब, तमिलनाडु, केरल, जम्मू-कश्मीर आदि में भी जनसंख्या स्थिर हो चुकी है जहाँ पहले तेजी से जनसंख्या बढ़ी थी, मगर इन प्रान्तों में मुख्य धर्म आज भी वही हैं जो पहले थे। खैर, ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है। यह पूरी तरह साफ है कि जनसंख्या के बढ़ने का धर्म से कोई लेना-देना नहीं है। जनसंख्या में बढ़ोतरी तथा स्थिरता या कम होना मुख्य रूप से किसी समाज के आर्थिक विकास पर निर्भर करता है।

कुछ और आँकड़े देखते हैं। जम्मू-कश्मीर में मुख्य धर्म इस्लाम हैं, लेकिन यहाँ जनसंख्या अब लगभग स्थिर है। केरल में मुसलमानों की जनसंख्या दूसरे लोगों की जनसंख्या की तरह ही स्थिर है। वहीं अगर हम बिहार और उत्तर प्रदेश की तरफ देखें, तो वहाँ जनसंख्या अभी भी तेज़ी से बढ़ रही है, हालाँकि बढ़ोतरी की दर में कमी आयी है। पूरे देश में जनसंख्या बढ़ोतरी में कमी की दर देखें, तो हिन्दुओं के मुकाबले मुसलमानों में यह दर ज़्यादा है। बच्चा पैदा करने योग्य हर औरत अपने जीवन में औसतन कितने बच्चों को जन्म देगी, इसको कुल प्रजनन दर (टी.एफ.आर.) कहा जाता है। राष्ट्रीय परिवार एवं स्वास्थ्य सर्वेक्षण की रिपोर्ट के अनुसार 1993-94 से 1998-99 के बीच, मुसलमानों में कुल प्रजनन दर रेट 4.41 से घटकर 3.59 हो गयी, मतलब 0.82 की कमी, जबकि इसी समय में हिन्दुओं में यही दर 3.2 से घटकर 2.78 हो गयी, मतलब 0.52 की कमी। 2001 की जनगणना के अनुसार, कुल प्रजनन दर मुसलमानों में 3.06 (देहात में 3.52, शहर में 2.29) है, जबकि हिन्दुओं में 2.47 (देहात में 2.77, शहर में 1.72) है। यह एक और दिलचस्प बात है कि शहरों के मुसलमानों में कुल प्रजनन दर (टी.एफ.आर.) गाँव के हिन्दुओं से कम है! इसका कारण यही है कि शहरों में देहातों के मुकाबले आर्थिक विकास उच्चतर होता है, शिक्षा तथा स्वास्थ्य सुविधा बेहतर होती है, गर्भनिरोधक तरीकों की उपलब्धता तथा जानकारी अधिक होती है और साँस्कृतिक स्तर ऊँचा होता है। यही बात अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी लागू होती है। इंडोनेशिया, ईरान, बांग्लादेश तथा पाकिस्तान सभी मुस्लिम देश हैं लेकिन इंडोनेशिया में कुल प्रजनन दर 2001 से पहले ही 2.5 से नीचे आ गयी थी और ईरान में यह दर अब 1.8 है, जबकि बांग्लादेश तथा पाकिस्तान में यह दर अभी भी 3 के आसपास है। स्पष्ट है कि जनसंख्या बढ़ने में धर्म की कोई भूमिका नहीं है, लेकिन जो काम भारत में संघ करता है, वही काम अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ईसाई कट्टरपन्थी तथा साम्राज्यवादी मीडिया करता है।

अक्सर लोगों में यह भ्रम रहता है कि जनसंख्या सिर्फ ज़्यादा बच्चे पैदा होने से बढ़ती है। यह ऊपरी और सतही बात है, असल में ऐसा नहीं है। अगर जन्म तथा मृत्यु दर एक जैसी हो तो जनसंख्या स्थिर रहती है। अगर, मृत्यु दर जन्म दर के मुकाबले ज़्यादा तेजी से कम हो जाये, तो जनसंख्या तेजी से बढ़ती है। भारत में भी जनसंख्या बढ़ने के पीछे यही कारण है। जन्म दर में काफ़ी कमी हो जाने के बाद भी भारत में जनसंख्या बढ़ रही है (वैसे यह बढ़ोत्तरी भी काफी घट गयी है) क्योंकि मृत्यु दर, खास तौर पर पाँच तथा एक साल से कम उम्र में बच्चों की मृत्यु दर में कमी आयी है। भारत में मुसलमानों में जन्म दर चाहे हिन्दुओं के मुकाबले अभी भी कुछ ज़्यादा है, लेकिन मुसलमानों की जनसंख्या हिन्दुओं से ज़्यादा तेजी (वैसे यह “ज्‍़यादा तेजी” बहुत ज़्यादा नहीं है जैसा कि संघ के “वैज्ञानिकों” को लगता है) से बढ़ने के पीछे यही एक कारण नहीं है। भारत में मुसलमानों में एक साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर 59 है (राष्ट्रीय परिवार एवं स्वास्थ्य सर्वेक्षण-2, 1998-99), जबकि हिन्दुओं में यही दर 77 है। इसी तरह, पांच साल से कम उम्र में बच्चों की मृत्यु दर मुसलमानों में 83 (राष्ट्रीय परिवार एवं स्वास्थ्य सर्वेक्षण, 1998-99) है जबकि हिन्दुओं में यही दर 107 है। मुसलमानों में बच्चों की मृत्यु दर कम होने के पीछे संभवतः मुसलमानों में माँसाहारी भोजन का प्रचलन होना है। मुसलमानों में कुल मृत्यु दर भी कम है, हिन्दुओं में यह दर 8.1 (1991-2001) थी, जबकि इसी समय मुसलमानों में यह दर 7.1 थी। एक और बात, मुसलमानों में लिंग अनुपात (प्रति एक हजार आदमियों की तुलना में औरतों की संख्या) हिन्दुओं से बेहतर है। इसका कारण हिन्दुओं में लड़कियों को जन्म से पहले ही या जन्म के तुरंत बाद मारने की परम्परा भी है। अब इन बातों में कि मुस्लिम लोगों के बच्चे कम मरते हैं, उनमें लडकियों को गर्भ में ही या जन्मते ही मार देने की घटनाएँ कम हैं, उनका भोजन अधिक पौष्टिक है, किसी को मुसलमानों का कसूर दिखता है तो वह सिर्फ मूर्ख हो सकता है या फिर संघ का सदस्य। जनसंख्या में मनुष्यों के मरने की दर कम होने से बुजुर्ग लोगों की संख्या भी बढ़ने लगती है, यह भी जनसंख्या बढ़ोतरी का एक कारण होता है। अब क्योंकि मुसलमानों में मृत्यु दर कम है, इसलिए उनमें बुजुर्ग आबादी भी ज़्यादा ही होगी।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा इससे जुड़े अन्य संगठन, और साथ ही बहुत सारे अन्य हिन्दूवादी संगठन जैसे शिवसेना आदि अक्सर यह प्रचार करते हैं कि मुस्लिम लोग जानबूझ कर बच्चे पैदा करना नहीं रोकते। इस बात में भी कितनी सच्चाई है, आइये देखते हैं। भारत में मुस्लिम लोगों में गर्भनिरोध का इस्तेमाल करने वालों का प्रतिशत हिन्दुओं के मुकाबले फिलहाल कुछ कम है, लेकिन सिर्फ 2% भारतीय ऐसे हैं जो किसी धर्म में आस्था होने के चलते गर्भनिरोधक इस्तेमाल नहीं करते (राष्ट्रीय परिवार एवं स्वास्थ्य सर्वेक्षण – 2), और इसमें भी सभी सिर्फ मुस्लिम नहीं बल्कि अन्य धर्मों को मानने वाले भी हैं। मुस्लिम औरतों में ऐसी औरतों की गिनती 22% है जो गर्भनिरोधक इस्तेमाल करना चाहती हैं, लेकिन उनको इनके बारे में पूरी जानकारी नहीं है या फिर उनको उपलब्ध नहीं है। हिन्दुओं में ऐसी औरतों का अनुपात 15% है। मुसलमानों में जो विवाहित जोड़े आरजी गर्भनिरोधक तरीके इस्तेमाल कर रहे हैं, उनमें से लगभग आधे प्राइवेट दुकानों से खरीद कर और आधे सरकारी सप्लाई से लेकर इस्तेमाल कर रहे हैं, जबकि हिन्दुओं में 35% ही जोड़े ऐसे हैं जो प्राइवेट दुकानों से आरजी गर्भनिरोधक खरीदते हैं (इण्टरनेशनल इंस्टीट्यूट फ़ॉर पॉपुलेशन साइंसेज़ एंड मैक्रो इण्टरनेशनल 2000:159)। गर्भनिरोध के स्थायी तरीके जैसे नसबंदी आदि के मामले में भी ऐसा ही है। इसका साफ़ मतलब है कि मुसलमानों में परिवार नियोजन अपनाने के लिए कोई भी धार्मिक पूर्वग्रह नहीं है, उल्टा मुस्लिम विवाहित जोड़े इसके लिए तैयार हैं लेकिन उनतक सरकारी स्वास्थ्य प्रोग्रामों की पहुँच कम है। दूसरा, मुसलमानों में साक्षरता कम है और पिछड़ापन भी ज़्यादा है। नतीजतन, वे जानकारी हासिल करने में पिछड़ जाते हैं। राष्ट्रीय परिवार एवं स्वास्थ्य सर्वेक्षण 1 और 2 के अनुसार वर्ष 1992-93 से 1998-99 के बीच गर्भनिरोधक इस्तेमाल करने वाली औरतों की संख्या मुसलमानों में 9.6% से बढ़ी, जबकि हिन्दुओं में इस बढ़ोतरी की दर 7.6% रही।

कुल-मिलाकर, यही है संघियों के जनसंख्या “विज्ञान” की असलियत, जिसको आधार बनाकर इन गुण्डा गिरोहों ने “लव-जिहाद” की फ़ि‍ल्मी कहानी गढ़ रखी है और देश के आम लोगों में एक-दूसरे के ख़िलाफ़ नफ़रत भरने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। फ़ासीवादियों से और उम्मीद भी क्या हो सकती है सिवाय झूठ, झूठ और झूठ के!

 

मज़दूर बिगुलनवम्‍बर  2013

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