महिला एवं बाल विकास मन्त्रालय को आवण्टन बजट में दिखावटी वृद्धि : हाथी के दाँत खाने के और, दिखाने के और!

वृषाली

मोदी सरकार 3.0 का पहला केन्द्रीय बजट पेश किया जा चुका है। वित्त मन्त्री निर्मला सीतारमण ने “ग़रीब, युवा, अन्नदाता और नारी” पर केन्द्रित बजट पेश करने का दावा किया। “जेण्डर बजट” के लिए 4.49 लाख करोड़ रुपये आवण्टन के भी शिगूफ़े उछाले गये। लेकिन सुप्रीम कोर्ट समेत गुजरात हाई कोर्ट के निर्देशों के बावजूद आँगनवाड़ीकर्मियों के ग्रेच्युटी और मानदेय के बदले ग्रेड 3 व 4 कर्मचारियों के बराबर वेतन देने के बारे में कोई योजना नहीं ली गयी।

वर्ष 2025-26 के लिए ‘महिला एवं बाल विकास विभाग’ के लिए बजट अनुमान 26,889.69 करोड़ रुपये तय किया गया है। इसमें 9 फ़ीसदी इज़ाफ़े का दावा किया गया है, इसके बावजूद यह राशि कुल बजट का महज़ 0.53 फ़ीसदी है (मोदी सरकार के तहत हमेशा ही महिला एवं बाल विकास विभाग के लिए बजट का 1 फ़ीसदी से कम राशि आबण्टित की गयी है।) इसका बड़ा हिस्सा सक्षम आँगनवाड़ी और पोषण 2.0 को आबण्टित किया गया है – 21,960 करोड़ रुपये। वर्ष 2024-25 के मुक़ाबले अगर देखा जाये; जब बजट अनुमान में सक्षम आँगनवाड़ी और पोषण 2.0 के लिए 21,200 करोड़ रुपये की अनुमान राशि तय की गयी थी और संशोधित अनुमान 20,071 करोड़ रुपये की राशि थी; तो यह निश्चित तौर पर ज़्यादा लगेगा। लेकिन अगर हम एक वर्ष पीछे जाएँ, तो वर्ष 2023-24 में इन दोनों स्कीमों के ऊपर वास्तविक राशि 21,810 करोड़ रुपये ख़र्च हुए। इस हिसाब से तो वर्ष 2025-26 के लिए मात्र 510 करोड़ रुपये ज़्यादा हुए। तिस पर भी वित्त मन्त्री यह कह रही हैं कि “इन पोषण सम्बन्धी सहायता (कार्यक्रमों) के लिए लागत मानदण्डों को तदनुसार बढ़ाया जाएगा।” अर्थात, जूतों के हिसाब से पैर काटा जाएगा – लाभार्थियों की ज़रूरत के हिसाब से बजट बनाने के बदले बजट के हिसाब से लाभार्थियों पर ख़र्च तय किया जाएगा! आख़िरी बार यह लागत मानदण्ड वर्ष 2017 में बढ़ाये गये थे – सामान्य बच्चों के लिए 8 रुपये, गर्भवती/स्तनपान करने वाली महिलाओं व किशोरियों के लिए 9.50 रुपये व गम्भीर रूप से कुपोषित बच्चों के लिए 12.50 रुपये।

यह हाल है उस स्कीम का जिसका मुख्य लक्ष्य यह था कि बेहद सस्ती दरों पर बच्चों, गर्भवती महिलाओं आदि को देखरेख व पोषण तथा बुनियादी शिक्षा मुहैया की जाए ताकि श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन पर पूँजीपति वर्ग का ख़र्च कम किया जा सके। ‘समेकित बाल विकास विभाग’ को इस वर्ष 50 साल पूरे हो गये हैं। इन 50 सालों की “उपलब्धि” पिछले साल अक्टूबर में जारी ‘विश्व भूख सूचकांक’ से साफ़ हो जाती है। इस सूचकांक में 127 देशों की सूची में भारत 105वें स्थान पर ‘गम्भीर’ श्रेणी में है। 2024 की इस रिपोर्ट के अनुसार देश में 13.7 प्रतिशत जनसंख्या कुपोषित है, पाँच वर्ष से कम आयु के 35.5 प्रतिशत बच्चे अविकसित हैं, 18.7 प्रतिशत बच्चे दुर्बलता से ग्रस्त हैं और 5 वर्ष तक की उम्र के लिए शिशु मृत्यु दर  2.9 प्रतिशत है। ज़मीनी स्तर पर यह स्थिति और बदतर ही होगी। ‘समेकित बाल विकास परियोजना’ के बुनियादी ढाँचे की असलियत यह है कि जून 2024 तक 36 प्रतिशत आँगनवाड़ी केन्द्रों पर पीने का साफ़ पानी उपलब्ध नहीं, 35 प्रतिशत केन्द्रों में शौचालय की समुचित व्यवस्था नहीं। कुल आँगनवाड़ी केन्द्रों में से केवल आधे ऐसे हैं जो ख़ुद की इमारत में चलते हैं। एक तरफ़ मोदी सरकार सक्षम आँगनवाड़ी के तहत आँगनवाड़ी केन्द्रों पर वाईफ़ाई, एलईडी स्क्रीन, वॉटर प्यूरिफ़ायर इत्यादि लगाने की योजना बना रही है जबकि असलियत में इन केन्द्रों पर बुनियादी सुविधाएँ भी मौजूद नहीं! मोदी जी का “गुजरात मॉडल” यही है! कहाँ दिल्ली के विधानसभा चुनावों के मद्देनज़र भाजपा ने दिल्लीवासियों को 500 रुपये में गैस सिलिण्डर और होली और दिवाली में मुफ़्त सिलिण्डर की रेवड़ी देने के जुमले फेंक रही थी, और कहाँ वित्त मन्त्री महोदया एलपीजी सब्सिडी के आबण्टन में 17.7 प्रतिशत की कटौती कर रही थीं!

बहरहाल, समेकित बाल विकास परियोजना पर लौटते हैं। इस स्कीम में ज़मीनी स्तर पर कार्यरत महिलकर्मियों के लिए मोदी जी ने पिछले 11सालों में सिवाए घोषणा के कुछ भी जारी नहीं किया है! हालत यह हैं कि कुछ राज्यों में तो आँगनवाड़ी वर्कर और हेल्पर को क्रमशः मात्र 5,500 रुपये व 2,850 रुपये “मानदेय” के नाम पर थमा दिये जाते हैं। यही नहीं, आँगनवाड़ी केन्द्रों में होने वाले ख़र्चे (जैसे कि रजिस्टर, खिलौने, चटाई इत्यादि), अन्नप्राशन और गोदभराई जैसे कार्यक्रमों के ख़र्चे भी आँगनवाड़ीकर्मियों के भरोसे ही छोड़ दिये जाते हैं। देश की राजधानी दिल्ली के आँगनवाड़ी केन्द्रों में हालात ऐसे हैं कि सर्दियों में छोटे बच्चों के बैठने तक का भी समुचित इन्तज़ाम सरकार की तरफ़ से नहीं होता। पोषाहार पर होने वाले ख़र्च की राशि तो हम पहले ही बता चुके हैं। पोषाहार की गुणवत्ता और मात्रा, दोनों ही असन्तोषजनक और अपर्याप्त है। सरकार प्राथमिक शिक्षा को भी नयी शिक्षा नीति 2020 के तहत आँगनवाड़ी वर्करों के ज़िम्मे सौंप कर उनके “स्वयंसेवा” का “लाभ” उठाना चाहती है और लेकिन आँगनवाड़ी केन्द्रों पर पोषाहार तक की समुचित पूर्ति नहीं कर रही है। देशभर में आँगनवाड़ी वर्करों के 5 प्रतिशत और हेल्परों के 10 प्रतिशत पद खाली पड़े हैं वहीं बाल विकास परियोजना अधिकारी (सीडीपीओ) के 31 प्रतिशत पद खाली पड़े हैं।

इसके बावजूद आँगनवाड़ी केन्द्रों में बच्चों के दाख़िले में बढ़ोत्तरी हुई है। अनुएल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट’ 2024 के अनुसार 2018 में आँगनवाड़ी केन्द्रों में 3 वर्ष तक के 57.1 प्रतिशत बच्चों का नामांकन था और 2024 तक यह संख्या बढ़कर 66.8 प्रतिशत हो चुकी है। वहीं 4 वर्ष तक की आयु के 57.7 प्रतिशत और 5 वर्ष की आयु तक के 37 प्रतिशत बच्चों का आँगनवाड़ी केन्द्रों में नामांकन है। बड़े बच्चों की कम भागीदारी का कारण यह है कि आँगनवाड़ी केन्द्रों में मिलने वाली शिक्षा अभिभावकों को असन्तोषजनक लगती है। कुल मिलाकर बात यह है कि आँगनवाड़ी केन्द्रों में मिलने वाली सुविधाओं में सुधार की ज़रूरत है, इस स्कीम के तहत काम करने वाली महिलाकर्मियों की स्थिति में सुधार की ज़रूरत है। आबादी के अनुसार भी देखा जाये तो आँगनवाड़ी केन्द्रों की संख्या कम ही है।

मोदी सरकार तो विश्व भूख सूचकांक के आँकड़े और मानकों को ही झूठा साबित करने पर अड़ी हुई थी। लेकिन आए दिन देशभर में आँगनवाड़ी केन्द्रों समेत मिड-डे-मील स्कीम के तहत मिलने वाले पोषाहार की “गुणवत्ता” की ख़बरें बाहर आ ही जाती हैं! आँगनवाड़ी जैसी तथाकथित “सामाजिक स्कीमों” का असल मक़सद इस व्यवस्था में पूँजीपतियों के हक़ में श्रमशक्ति का सस्ते से सस्ते दाम में पुनरुत्पादन करना है। सरकार इस कामचलाऊ “समाजसेवा” को भी इस तौर पर ही निभा रही है की समेकित बाल विकास परियोजना के 50 साल होने के बाद तक भारत का विश्व भूख सूचकांक स्कोर गोते ही लगा रहा है!

 

मज़दूर बिगुल, फरवरी 2025


 

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