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चीले के महाकवि पाब्लो नेरूदा की कविता – मैं दण्ड की माँग करता हूँ
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अपने शहीदों के नाम पर
उन लोगों के लिए
मैं दण्ड की माँग करता हूँ
जिन्होंने हमारी पितृभूमि को
रक्तप्लावित कर दिया है
उन लोगों के लिए
मैं दण्ड की माँग करता हूँ
जिनके निर्देश पर
यह अन्याय, यह ख़ून हुआ
उस विश्वासघाती के लिए
मैं दण्ड की माँग करता हूँ
जो इन शवों पर खड़े होने की हिम्मत रखता है
उसके लिए मेरी माँग है
उसे दण्ड दो, उसे दण्ड दो
जिन लोगों ने हत्यारों को माफ़ कर दिया है
उनके लिए मैं दण्ड की माँग करता हूँ
मैं चारों ओर हाथ मलते
घूमता नहीं रह सकता
मैं उन्हें भूल नहीं सकता
मैं उनके ख़ून से सने हाथों को
छू नहीं सकता
मैं उनके लिए दण्ड चाहता हूँ
मैं नहीं चाहता कि उन्हें यहाँ-वहाँ
राजदूत बनाकर भेज दिया जाये
मैं यह भी नहीं चाहता
कि वे लोग यहीं छुपे रहें
मैं चाहता हूँ
उन पर मुक़दमा चले
यहीं, इस खुले आसमान के नीचे
ठीक यहीं
मैं उन्हें दण्डित होते देखना चाहता हूँ
♦
मैं उन शहीदों से बात करना चाहता हूँ
लगता है वे लोग यहीं हैं
मेरे भाइयो! संघर्ष जारी रहेगा
अपनी लड़ाई हम जारी रखेंगे
कल-कारख़ानों में, खेत-खलिहानों में
गली-गली में यह लड़ाई जारी रहेगी
नमक/शोरा की खदानों में
यह लड़ाई जारी रहेगी
यह लड़ाई जारी रहेगी
वृक्षहीन समतल भूमि पर
ताँबें की भट्ठियों में धधक उठेगी
लाल-हरी लपटें
सुबह-सुबह कोयले का काला धुआँ
भरता जा रहा है जिन कोठरियों में
वहीं खींची जायेगी
युद्ध की रेखा
और हमारे हृदयों में
ये झण्डे जो तुम्हारे ख़ून के गवाह हैं
जब तक इनकी संख्या
कई गुना बढ़ नहीं जाती
सिर्फ़ लहराते ही नहीं रहें
और तेजी से फड़फड़ाने लगें
अक्षय वसन्त के इन्तज़ार में
लाखों-हज़ार पत्तों की तरह
♦
हज़ारों साल तक
इस सड़क पर बिछे पत्थरों से
तुम्हारे कदमों की आवाज़
और आहटें आती रहेंगी
पत्थरों पर पड़े तुम्हारे ख़ून के दाग
अब किसी तरह मिटाये नहीं जा सकेंगे
हज़ारों कण्ठों की अजस्र ध्वनि
इस सहमे हुए मौन को तोड़ देगी
तुम्हारी मौत को भूला नहीं जा सकेगा कभी भी
घण्टे की गूँजती हुई आवाज़
उसकी याद दिलाती रहेगी
बरसात में दीवारों की तरह नोनी पकड़ लेगी
नोनी लगी टूटी-फूटी दीवारों के
काँप उठने के बावजूद
शहीदों तुम्हारे नामों की ज्वाला
कोई बुझा नहीं पायेगा
अत्याचारियों के हज़ारों हाथ
जीवन्त आशाओं का गला नहीं दबा सकते
वह दिन आ रहा है
हम सारी दुनिया के लोग एकजुट हैं
हम अनेक लोग
आगे बढ़ते जा रहे हैं
सहने के ये आख़िरी दिन हैं
बहुत भारी लड़ाई लड़कर
फ़ैसले का वह एक दिन छीन लिया गया है
और तुम
ओ मेरे वंचित भाइयो!
ख़ामोशी से निकलकर तुम्हारी आवाज़ उठेगी
आज़ादी की असंख्य आवाज़ों से मिलने
मनुष्य की आशाएँ और आकांक्षाएँ
दिग्विजयी विद्युत्-छटाओं से मिलने
निकल पड़ी हैं
(‘सड़कों, चौराहों पर मौत और लाशें’ कविता का एक अंश)
I Demand Punishment
Pablo Neruda (Translated by Robert Brittain)
In the name of these our dead
I demand punishment.
For those who spattered our fatherland with blood
I demand punishment.
For him by whose command this crime was done
I demand punishment.
For the traitor who clambered to power over these bodies
I demand punishment.
For those forgiving ones who excused this crime
I demand punishment.
I do not want to shake hands all around and forget;
I do not want to touch their blood-stained hands;
I want punishment.
I do not want them sent off somewhere as ambassadors
nor covered up here at home until it blows over.
I want to see them judged,
here, in the open air, in this very spot.
I want to see them punished.
♦
I must speak to those dead now as if they were here.
Brothers: it will go on,
our fight will go on in the land,
in the factories, in the farms,
in the streets the fight will go on,
in the nitre-pits, in the pampas.
In the craters of copper, glowing with green and red,
in the dank caves where coal-seams gleam through the dusk,
the battle-lines will be drawn.
And in our hearts these banners,
the witnesses of your death,
will multiply themselves until they flutter
thick as the thrusting leaves of inexhaustible spring.
♦
Footsteps shuffling a thousand years in this Square
will not rub off the trace of your blood from these stones;
though the babble of countless voices cross this quietness
that bell will echo, tolling the hour of your death;
though rain may rot these walls to their foundations
it will not quench the blaze of your martyred names
nor the dead hand of a thousand nights of oppression
stifle your living hope for that destined day
that we throughout the world, so many of us,
are yearning toward; the final day of suffering,
the day of justice won through bitter struggle;
and you, O fallen brothers, out of the silence
your voices will rise in the mighty shout of freedom
when the hope of the people flames into paeans of joy.
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