‘द केरला स्टोरी’: संघी प्रचार तन्त्र की झूठ-फ़ैक्ट्री से निकली एक और फ़िल्म
केशव आनन्द
“एक झूठ को अगर कई बार दोहराया जाये तो वह सच बन जाता है”, जर्मनी के तानाशाह एडोल्फ़ हिटलर के मुख्य सलाहकारों में से एक गोएबल्स के इस कथन को आज भारत में फ़ासीवादी ताक़तें धड़ल्ले से लागू कर रही हैं। जिस तरीक़े से जर्मनी में यहूदियों को बदनाम करने के लिए किताबों, अख़बारों और फ़िल्मों के ज़रिए तमाम अफ़वाहें फ़ैलायी जाती थीं, आज उससे भी दोगुनी रफ़्तार से हिन्दुत्व फ़ासीवाद मुसलमानों के ख़िलाफ़ ज़हर उगल रहा है। ‘द केरला स्टोरी’ भारत के हिन्दुत्व फ़ासीवाद के प्रचार तन्त्र में से ही एक है।
यह अपने आप में ही हास्यास्पद है कि जिस तथ्य को आधार बनाकर इस फ़िल्म का प्रचार किया गया, वह तथ्य ही एक झूठ निकला। निर्देशक सुदीप्तो सेन के मुताबिक़ ‘द केरला स्टोरी’ केरल में “लव जिहाद” के ज़रिए “मुस्लिम आतंकवादियों” द्वारा “भोली-भाली हिन्दू लड़कियों” को बहलाकर आतंकी संगठन आईएसआईएस में शामिल करवाने के ऊपर बनी है। इस फ़िल्म की मुख्य किरदार अदा शर्मा फ़िल्म के टीज़र के दौरान कहती हैं, “मेरे जैसी 32,000 लड़कियाँ सीरिया और अफ़गानिस्तान के रेगिस्तान में दफ़्न हैं।” लेकिन जब तथ्यों पर सवाल उठने शुरू हुए और यह मामला न्यायालय तक पहुँचा, तो फ़िल्म निर्देशक बड़ी ही चालाकी से यू ट्यूब के इस वीडियो में 32,000 के आँकड़े को 3 पर ले आते हैं! यूएस डिपार्टमेण्ट ऑफ़ स्टेट्स कण्ट्री रिपोर्ट ऑन टेररिज़्म 2020 के मुताबिक़ उस वक्त भारत में केवल 66 की संख्या में आईएसआईएस के लोग सक्रिय थे। साथ ही इस फ़िल्म में जिस “बेचारी” लड़की को लव जिहाद का शिकार होते हुए दिखाया गया है, असल में उस लड़की की वास्तविक वीडियो और तथ्य कुछ और ही बताते हैं।
यह फिल्म मुख्यतः तीन प्रकार के आधारों पर खड़ी है। पहला, हिन्दू महिलाओं को मन्दबुद्धि दिखाना और हिन्दुत्ववादी पितृसत्तात्मक मूल्यों को सही ठहराना, दूसरा देश के हर मुसलमान व्यक्ति को आतंकवादी और देशद्रोही बताना (हालाँकि इस दायरे में कम्युनिस्टों को भी लाने की भरपूर कोशिश की जाती है) और तीसरा पहले दो आधारों को विकसित करने के लिए तीसरे आधार यानी सफ़ेद झूठों का सहारा लिया जाता है।
इस फ़िल्म के पहले आधार से शुरुआत करते हैं। इसकी शुरुआत में ही मुख्य किरदार शालिनी कॉलेज में जाने की तैयारी कर रही होती है, जहाँ उसे कॉलेज की ओर से रहने के लिए हॉस्टल दिया जाता है। तब उसकी नानी कहती हैं, “अकेली लड़की को बाहर भेजना ठीक नहीं।” चूँकि वह लड़की अन्ततः तथाकथित “लव जिहाद” की वजह से फँस जाती है, इसलिए यह कथन अपने आप में पितृसत्तात्मक मूल्य मान्यताओं को सही ठहराने का काम करता है। फ़िल्म के वे दृश्य जिनमें शालिनी के इस्लाम को मानने की प्रक्रिया दिखायी गयी है, वह भी काफ़ी बचकाना है। जिस प्रकार 90 के दशक की फ़िल्मों में नायक अपनी प्रेमिका को हासिल करने के लिए ख़ुद ही गुण्डों को भेजता था, और ख़ुद ही मौक़े पर पहुँचकर उन्हें भगाता था, ठीक उसी प्रकार निर्देशक ने यहाँ शालिनी और उसकी दोस्त को इस्लाम कुबूल करवाने के लिए गुण्डे भेजे और उसके बाद वे इस तर्क पर हिज़ाब पहनने को राज़ी हो गयीं कि हिज़ाब पहनने के बाद उन्हें कोई नहीं छेड़ेगा! सभी जानते हैं कि ऐसे तर्कों के आधार पर कोई धर्मान्तरण नहीं करता है। लेकिन हाफ़-पैण्टी प्रोपगैण्डा के लिए बनी फिल्मों से सामान्य बोध की उम्मीद करना कुछ ज़्यादा ही हो जायेगा। इस फ़िल्म में इस तरह के तमाम बचकाने तर्क मिल जायेंगे, जिसे सुनकर कोई संघ के गोबरधारी प्रचारों से भरा दिमाग ही आगबबूला होकर मुसलमानों के ख़िलाफ़ अपने जीवन की कुण्ठाएँ निकाल सकता है। अन्यथा आप इस बचकानेपन पर केवल हँस ही सकते हैं। फ़िल्म के कई दृश्यों में इन लड़कियों को दोज़ख़ का डर दिखाकर उनसे इस्लाम के कई कर्मकाण्डों को कराया जाता है। यानी इस फ़िल्म में यह दिखाया गया है कि हिन्दू लड़कियाँ इतनी मूर्ख होती हैं कि उन्हें बहुत ही ढीला तर्क देकर भी बहकाया जा सकता है। असल में यह फ़िल्म पितृसत्तात्मक मूल्य मान्यताओं को स्थापित करने का काम करती है और बड़े झूठों को दिखाकर सच को छिपाने का काम करती है। यानी इस फ़िल्म में “लव जिहाद” के ज़रिए धर्मान्तरण कर दी जाने वाली लड़कियों की “तक़लीफ़” की आड़ में हिन्दुत्ववादी पितृसत्ता को सही ठहराने का काम किया गया है।
अब इस फ़िल्म के दूसरे आधार पर आते हैं। इस फ़िल्म के ज़रिए जो चीज़ दर्शक के दिमाग में बिठाने की कोशिश की जाती है, वह है मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत। यह फ़िल्म चन्द झूठे उदाहरणों को दिखाकर यह खुलेआम घोषित करती है कि सारे मुसलमान आतंकवादी होते हैं। अगर हम इस फ़िल्म के कुछ दृश्यों का उदाहरण लें तो इसे हम और बेहतर समझ पायेंगे। फ़िल्म की नायिका जैसे ही कॉलेज में प्रवेश करती है, वैसे ही उसे दीवार पर कश्मीर के समर्थन में कई नारे दिखते हैं और फिर ओसामा बिन लादेन की तस्वीर भी दिखती है। यह दृश्य अपने आप में कश्मीरी जनता के संघर्ष को सीधे तौर पर आतंकवादी क़रार दे देती है। साथ ही इस फ़िल्म में यह दिखाया गया है कि किस प्रकार आईएसआईएस के आतंकवादी योजनाबद्ध तरीके से हिन्दू महिलाओं को अपने प्यार के जाल में फँसाते हैं और ये लड़कियाँ जब अपने घरों से बग़ावत कर उनके साथ चली जाती हैं, तो उन्हें आतंकवादी बनने के आलावा और कोई चारा नज़र नहीं आता। फ़िल्म के एक दृश्य में एक लड़की, जो तथाकथित लव जिहाद के जाल में “फँस” चुकी होती है, कहती है, “हम लोगों को मुस्लिम लड़के से प्यार हुआ तो कोई गुनाह हुआ क्या? … प्यार के लिए अपना धर्म परिवर्तन तो कर ही सकते हैं। …” यह कथन फ़िल्म में जिस रूप में पेश किया गया है उससे दर्शक को यही सम्प्रेषित होता है कि हिन्दू लड़कियों को मुस्लिम लड़कों से सम्बन्ध नहीं बनाने चाहिए, क्योंकि वे “लव जिहाद” का खेल खेलते हैं। ज़ाहिरा तौर पर यहाँ निशाना आम मुस्लिम आबादी है, न कि कोई ख़ास तरह के मुस्लिम। दूसरा, 32,000 के जिस आँकड़े के आधार पर फ़िल्म का ये नाट्य दृश्य रचा गया है, वह ख़ुद ही आधारविहीन है, जिसका ज़िक्र हमने ऊपर ही कर दिया है।
इस फ़िल्म में जो सबसे बड़े हथियार के रूप में इस्तेमाल किया गया है, वह है झूठ। जो आँकड़े इस फ़िल्म में इस्तेमाल किये गये हैं, वे तो सफ़ेद झूठ है, केरल के पूर्व मुख्यमन्त्री का जो भाषण इसमें दिखाया गया है, उसे भी तोड़ मरोड़कर पेश किया गया है। वास्तविक भाषण में शब्दों का हेरफेर कर उसे मुस्लिम विरोधी बना दिया गया। साथ ही इस फ़िल्म में नंगे रूप से भारत की आम मुस्लिम आबादी और अपने कौमी हक़ों के लिए लड़ रहे कश्मीर के लोगों को आतंकवादी क़रार दे दिया गया है।
ज़ाहिरा तौर पर एक फ़ासीवादी प्रचार होने के तौर पर इस फि़ल्म में कम्युनिस्टों को भी हिन्दू धर्म के बरक्स बुरी विचारधारा वाले लोगों के तौर पर पेश किया गया है। इस फ़िल्म के एक दृश्य में दूसरी किरदार “लव जिहाद” का “सच” उजागर होने के बाद अपने कम्युनिस्ट पिता से कहती है, “ये विदेशी आइडियोलॉजी कम्युनिज़्म के बारे में आप मुझे सिखाते गये, लेकिन कभी हमारा रिलीजन, हमारे ट्रेडिशन के बारे में तो बताया ही नहीं।” इस दृश्य के ज़रिए निर्देशक महोदय हिन्दू धर्म को श्रेष्ठ धर्म के तौर पर दिखाने को कोशिश की है और क्रान्ति के विज्ञान यानी कम्युनिज़्म को महज़ एक विदेशी विचारधारा क़रार देकर ख़ारिज करने की कोशिश की है। और ऐसी कोशिशें बीच-बीच में कई जगहों पर निर्देशक महोदय कर बैठते हैं। फ़िल्म के अन्त की ओर बढ़ते ही निर्देशक महोदय फ़ासीवादी राजनीति का वैधीकरण ढूँढने निकल जाते हैं। और अन्त के दृश्य में जहाँ तीसरी किरदार पुलिस के सामने गुस्से से बेबुनियाद और फर्जी आँकड़ों को रखकर “लव जिहाद” पर लगाम लगाने की बात करती है, और पुलिस अफ़सर बड़े भोलेपन से जवाब देता है, “आपकी बात ठीक है, पर बिना एविडेंस के हम दो एडल्ट्स की लाइफ़ में कैसे इण्टरफ़ेयर कर सकते हैं?” इस वाक्य में ही इसका जवाब छिपा है। जिस परिदृश्य में इस दृश्य को रचा गया है, वह दर्शक से यह अपील करवाती है कि राज्यसत्ता को “लव जिहाद” के ख़िलाफ़ सख़्त क़ानून बनाना चाहिए, जो इन घटनाओं पर रोक लगाये। इस रूप में फ़ासीवादी सरकार के दमनकारी क़ानून को यह फ़िल्म वैधता प्रदान करने का काम करती है।
कुल मिलाकर बात कहें तो इस फ़िल्म के ज़रिए फ़ासीवाद अपने प्रचार तंत्र के जाल फ़ैला रहा है। इस फ़िल्म की तमाम घटिया, बेबुनियादी तर्कों के बावजूद यह एक झूठ, जिसे पहले कई बार बोला जा चुका है, को स्थापित करने का काम करती है, और उसे लोगों में कॉमन सेंस के रूप में बिठाने का काम करती है। उसके बाद लोग इन झूठों की पड़ताल किये बग़ैर इसे सच मान बैठते हैं और फ़ासीवादी राजनीति के जाल में जा फँसते हैं। यह कोई पहली फ़िल्म नहीं है जो मुसलमानों के ख़िलाफ़ प्रचार तंत्र के रूप में बनी हो। अभी लगातार ही उन फ़िल्मों को सचेतन तौर पर बढ़ावा दिया जा रहा है, जो मुस्लिम-विरोधी हों, उन्हें किसी न किसी रूप में जनता का दुश्मन साबित करती हों, चाहे वह इतिहास का मिथकीकरण करके किया जाये या फिर झूठे प्रचारों के ज़रिए किया जाये। ‘कश्मीर फ़ाइल्स’ समेत अभी कई ऐसी फ़िल्में इस फ़ेहरिस्त का हिस्सा हैं। यह समझने की ज़रूरत है कि हर दौर में फ़ासीवाद को एक ‘अन्य’ या एक ‘पराये’ समुदाय की छवि स्थपित करने की ज़रूरत होती है, जिसके ऊपर जनता की तमाम समस्याओं का ठीकरा फोड़ा जा सके और उसे दुश्मन बनाकर पेश किया जा सके ताकि बेरोज़गारी, महँगाई से परेशान जनता का ध्यान इन तकलीफ़ों के लिए ज़िम्मेदार मुनाफ़ाखोर व्यवस्था पर न जाये और वह अन्य समुदायों या धर्मों के अपने ही भाइयों-बहनों को दुश्मन मान बैठे। जर्मनी में यह ‘अन्य’ यहूदी थे, भारत में ‘मुसलमान›। आज हमें इनकी इस साज़िश को समझना होगा। यह “लव जिहाद” और इस प्रकार के तमाम मुद्दे केवल जनता को बाँटने की साज़िश होते हैं। इनका सच तो तभी नंगा हो जाता है, जब भाजपा के नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी की बेटी एक मुस्लिम लड़के से शादी करती है, भाजपा का एक मुस्लिम नेता मुख्तार अब्बास नक़वी को एक हिन्दू महिला से शादी करता है। क्या भाजपा के नेताओं के लिए “लव जिहाद” मान्य नहीं है? क्या यह सिर्फ़ आम जनता के बेटे-बेटियों के लिए है? हमें यह समझना होगा इस तरह की फ़िल्में असल में मज़दूर वर्ग को बाँटने की साज़िश हैं। ताकि हम आपस में लड़कर एक-दूसरे का सिर-फुटौव्वल करें और यह सरकार पूँजीपतियों की सेवा के लिए हमारे ख़ून का आख़िरी क़तरा तक चूस ले। अगर हमें यह नामंज़ूर है तो इस प्रकार की वाहियात और झूठे प्रचार के लिए बनी फ़ासीवादी फिल्मों के प्रभाव में हमें ग़लती से भी नहीं आना चाहिए और इनका बहिष्कार करना चाहिए।
मज़दूर बिगुल, जून 2023
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