पूँजीवादी संसदीय विपक्ष समेत हर प्रकार के राजनीतिक विरोध को ख़ामोश करने की मोदी-शाह सत्ता की कोशिशें फ़ासीवादियों की बढ़ते डर और बौख़लाहट का प्रतीक है
जनवादी अधिकारों पर होने वाले हर हमले का पुरज़ोर विरोध क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग का कर्तव्य है
एक व्यापक फ़ासीवाद–विरोधी क्रान्तिकारी जनान्दोलन खड़ा करना आज का सबसे अहम कार्यभार है
सम्पादकीय अग्रलेख
इतिहास हमें सिखाता है कि मज़दूर वर्ग का सबसे ख़तरनाक दुश्मन फ़ासीवाद है। फ़ासीवाद आर्थिक मन्दी के दौर में पैदा होने वाली पूँजीपति वर्ग की प्रतिक्रिया का एक स्वरूप होता है। मन्दी के दौर में मुनाफ़े की गिरती औसत दर से निपटने के लिए पूँजीपति वर्ग मज़दूर वर्ग की औसत मज़दूरी को घटाने, श्रम सघनता को बढ़ाने व कार्यदिवस की लम्बाई को बढ़ाने आदि जैसे प्रयास करता है। ज़ाहिर है, मज़दूर वर्ग द्वारा संगठित या स्वत:स्फूर्त रूप में इसके विरोध किये जाने की सम्भावना होती है, जो पूँजीपति वर्ग को परेशान करती है। इसी प्रकार, मन्दी के दौर में वेतनभोगी निम्न व मध्यम मध्यवर्ग को मिलने वाली तमाम सहूलियतों को भी सरकार एक-एक करके ख़त्म करती है, ताकि पूँजीपतियों को टैक्स से छूट, क़र्ज़ा माफ़ी आदि के रूप में तमाम राहतें दी जा सकें और इसकी वजह से पैदा होने वाले सरकारी घाटे को कम किया जा सके। शिक्षा, चिकित्सा से लेकर आवास व सामाजिक सुरक्षा से सरकार अपना पल्ला झाड़ती है और इन क्षेत्रों को भी धन्नासेठों की लूट के लिए खोलने का काम विशेष तौर पर आर्थिक मन्दी के दौर में करती है।
ऐसे में, व्यापक आम जनता में भी असन्तोष बढ़ता है और जनता के असन्तोष से शोषक-शासक वर्ग की सरकारें व राज्यसत्ताएँ हमेशा ही घबराती हैं। लिहाज़ा, पूँजीपति वर्ग को एक दमनकारी और तानाशाहाना सत्ता की ज़रूरत महसूस होती है। अलग-अलग देशों की विशिष्ट ऐतिहासिक परिस्थितियों के अनुसार पूँजीपति वर्ग कहीं सैन्य तख़्तापलट करवाता है, किसी वैयक्तिक तानाशाह की सत्ता को स्थापित करवाता है, या फिर फ़ासीवादी तानाशाही को सत्ता में पहुँचाता है। इसी को हुक्मरान “मज़बूत नेता”, “मज़बूत नेतृत्व” आदि का नाम देते हैं और समूची जनता को अपने टुकड़ों पर पलने वाले मीडिया के ज़रिये यह यक़ीन दिलाने की कोशिश करते हैं कि यह “मज़बूती” जनता के लिए भी काम आने वाली है! जनता को बाद में समझ में आता है कि इस “मज़बूती” का इस्तेमाल उसके ख़िलाफ़ और उसे दबाने के लिए होने वाला है।
बहरहाल, इन सारी धुर जनविरोधी सत्ताओं में से फ़ासीवादी तानाशाही पूँजीपति वर्ग के लिए सबसे उपयुक्त होती है। क्यों? क्योंकि यह टुटपुँजिया वर्गों में, विशेष तौर पर निम्न मध्यवर्ग और मध्यम मध्यवर्ग में उसकी सामाजिक-आर्थिक असुरक्षा व अनिश्चितता का लाभ उठाकर एक झूठा डर पैदा करता है (मसलन, ‘मुसलमान अपनी आबादी बढ़ाकर अपना शासन क़ायम कर लेंगे’, आदि जैसी बेहूदा बकवास)। फ़ासीवादी शक्तियाँ उनके सामने एक नक़ली दुश्मन (जैसे यहूदी, मुसलमान, प्रवासी, इत्यादि) को खड़ा करके, उनकी अन्धी प्रतिक्रिया को एक ठोस रूप देती हैं और इस प्रकार उनका एक प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन खड़ा करती हैं। आज आपको बजरंग दल, विहिप, इत्यादि संघ परिवार की गुण्डा-वाहिनियों में जो पीले चेहरे वाले युवा दिखायी पड़ते हैं वे आम तौर पर इसी टुटपुँजिया वर्ग से आते हैं या फिर लम्पट सर्वहारा वर्ग से आते हैं, जो सामाजिक तौर पर मज़दूर वर्ग से आता है लेकिन राजनीतिक तौर पर सर्वहारा वर्ग चेतना से रिक्त होता है। यह लक्ष्यहीन, हताश-निराश लोगों की एक भीड़ होती है, जिसकी सामाजिक-आर्थिक असुरक्षा से जन्मी प्रतिक्रिया को फ़ासीवादी संगठन व नेतृत्व द्वारा धर्म, नस्ल, भाषा या क्षेत्र के नाम पर एक सुगठित प्रतिक्रियावादी आन्दोलन का स्वरूप दिया जाता है और उसे पूँजीपति वर्ग की सेवा में संलग्न कर दिया जाता है। फ़ासीवादी उभार का असली निशाना और कोई नहीं बल्कि स्वयं मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश आबादी होती है। यही फ़ासीवादी आन्दोलन की प्रमुख विशिष्टता होती है। यह कोई भी साधारण पूँजीवादी जनविरोधी आन्दोलन या सत्ता नहीं है, बल्कि इसके पीछे एक प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन खड़ा है, इसके नेतृत्व में फ़ासीवादी विचारधारा से लैस एक काडर-आधारित फ़ासीवादी संगठन खड़ा है।
अब उपरोक्त पहचान के पैमानों के आधार पर आप सोचें कि क्या हमारे देश में भी ठीक यही काम संघ परिवार व भाजपा के साम्प्रदायिक फ़ासीवादी दशकों से नहीं करते रहे हैं।
फ़ासीवादी जब सत्ता में पहुँचते हैं तो वे क्या करते हैं?
फ़ासीवादी जब सत्ता में पहुँचते हैं, तो सबसे पहले किसी बहुसंख्यक समुदाय मसलन धार्मिक या नस्ली बहुसंख्यक समुदाय के बीच किसी दूसरे अल्पसंख्यक धार्मिक या नस्ली समुदाय के प्रति डर और नफ़रत पैदा करते हैं। हिटलर ने यहूदियों को जर्मनी की नस्ली बहुसंख्या के समक्ष एक ख़तरे और दुश्मन के तौर पर पेश किया था। भारत में संघ परिवार और आज की मोदी-शाह सत्ता विशेष तौर पर मुसलमानों को “राष्ट्र” के सामने ख़तरे के तौर पर पेश करते हैं। इसके लिए तरह-तरह के झूठ फैलाये जाते हैं और इन झूठों को इतनी बार दुहराया जाता है कि वे सच लगने लगते हैं। मसलन, ‘उक्त समुदाय के लोग बच्चे ज़्यादा पैदा करते हैं’, ‘उक्त समुदाय के लोग गन्दे रहते हैं’, ‘उक्त समुदाय के लोग देश के प्रति वफ़ादार नहीं हैं’, ‘उक्त समुदाय के लोग ‘लव जिहाद’ करके आपकी बीवियों-बेटियों को भगा ले जायेंगे’, आदि। पहले से महँगाई, बेरोज़गारी, असुरक्षा और अनिश्चितता से श्रान्त-क्लान्त बहुसंख्यक समुदाय की टुटपुँजिया आबादी का एक हिस्सा इस झूठे प्रतिक्रियावादी प्रचार में बह भी जाता है। लेकिन अगर आप ठोस तथ्यों की पड़ताल करते हैं, तो आप पाते हैं कि ये सारा प्रचार झूठा और बकवास है।
लेकिन व्यापक आम जनता ठोस तथ्यों की तार्किक पड़ताल नहीं कर पाती और अक्सर इसकी चेतना व साधन उसके पास नहीं होते। यदि व्हाट्सऐप के ज़रिये सुबह-शाम लगातार उसपर इस झूठे प्रचार की बमबारी की जाती है, तो अन्तत: वह इससे प्रभावित हो ही जाता है। ऐसे में, वह फ़ासीवाद नेतृत्व व संगठन को अपने बहुसंख्यक धार्मिक/नस्ली समुदाय (मसलन, हिटलर की ‘जर्मन आर्य नस्ल’ और संघ परिवार का ‘हिन्दू राष्ट्र’) का इकलौता नुमाइन्दा मानने लगते हैं। फ़ासीवादी नेता व संगठन जब बहुसंख्यक धार्मिक या नस्ली समुदाय के इकलौते नुमाइन्दे या प्रवक्ता के तौर पर अपने आपको स्थापित कर लेते हैं, तो फ़ासीवादी संगठन व नेतृत्व के विरोध में बोलने वाले हर किसी व्यक्ति, संगठन या समूह को “राष्ट्रविरोधी”, “देशद्रोही” आदि घोषित कर दिया जाता है। यानी, जो मोदी जी की आलोचना करेगा, संघ परिवार और उसके अनुषंगी संगठनों का विरोध करेगा, वह देशद्रोही व राष्ट्रद्रोही घोषित कर दिया जायेगा, हिन्दू-विरोधी घोषित कर दिया जायेगा। यह एक ख़तरनाक चाल है, जिसे हमें समझने की ज़रूरत है। बहुत से आम मेहनतकश लोग अब इस बात को समझ भी रहे हैं। लेकिन वे बिखरे हुए और असंगठित हैं और उन्हें संगठित करना आज का एक प्रमुख काम बनता है।
इस प्रकार किसी अल्पसंख्यक समुदाय (जैसे कि मुसलमान) के तौर पर एक नक़ली दुश्मन की जिस छवि का फ़ासीवादी ताक़तें निर्माण करती हैं, उस छवि को विस्तारित कर जल्द ही उसमें हर प्रकार के राजनीतिक विरोध को समेट लेने का काम फ़ासीवादी संगठन व सत्ता करते हैं। नतीजतन, ट्रेडयूनियनकर्मी, जनवादी अधिकार कार्यकर्ता, ईमानदार व जनपक्षधर पत्रकार, कलाकार, साहित्यकार, शिक्षा के अधिकार की माँग उठा रहे छात्र-युवा आदि सभी दुश्मन घोषित कर दिये जाते हैं, सब पर “राष्ट्रद्रोही”, “देशद्रोही” आदि का ठप्पा लगा दिया जाता है। अब ज़रा सोचिये कि क्या हमारे देश में ठीक यही नहीं हो रहा है? जो भी नरेन्द्र मोदी की आलोचना करता है, उनकी फ़र्ज़ी डिग्री पर सवाल उठाता है, मोदी सरकार को हटाने की बात करता है, किसी भाजपाई नेता से कोई असुविधाजनक सवाल कर देता है, उसे देशद्रोह से लेकर आतंकवाद-रोधी कानूनों तक में जेल में ठूँस दिया जाता है।
यह भी समझने की ज़रूरत है कि पूँजीवादी राजनीतिक दायरे के भीतर तमाम पूँजीवादी दलों के बीच जारी प्रतिस्पर्द्धा में यदि पूँजीवादी विपक्षी पार्टी व उनके नेता भी स्वयं सत्ता में पहुँचने और पूँजीपति वर्ग की मैनेजिंग कमेटी, यानी सरकार की भूमिका हथियाने के मंसूबे से फ़ासीवादी तानाशाह पर, यानी हमारे देश में नरेन्द्र मोदी पर, सवाल खड़ा करते हैं और यदि वे सवाल असुविधाजनक होते हैं, तो दमन के दायरे में पूँजीवादी विपक्षी पार्टियों के नेता भी कदम-दर-कदम आते जाते हैं। यह फ़ासीवाद की एक ख़ासियत होती है। इनमें से कुछ पूँजीवादी विपक्षी नेता भयाक्रान्त होकर समझौते कर लेते हैं और फ़ासीवादी पार्टी के चाकर बन जाते हैं (जैसे कि मायावती और बसपा), कुछ फ़ासीवादी दमन से बचने के लिए कभी छिपे हुए समझौते तो कभी विरोध की मौकापरस्त रणनीति अपनाते हैं (जैसे सपा और तृणमूल कांग्रेस) और कुछ पूँजीवादी विपक्षी पार्टिंयाँ ऐसी होती हैं जो अपने विशिष्ट राजनीतिक इतिहास के कारण फ़ासीवाद से खुले तौर पर कोई समझौता नहीं कर सकतीं क्योंकि पूँजीवादी राजनीति से उनका अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा (जैसे प्रमुख विपक्षी दल के तौर पर कांग्रेस व अन्य कारणों से राजद)। पूँजीवादी दलों की फ़ासीवादी पूँजीवादी सत्ता व संगठन से चलने वाली रस्साकशीं बहुत-सी उथल-पुथल से होकर गुज़रती है और यह पूरी प्रक्रिया बहुत से अन्तरविरोधों से भरी होती है। इसे हम आज भी घटित होता हुआ देख रहे हैं। ऐसा भी होता है कि कई बार फ़ासीवादी शक्तियाँ ही अपने मंसूबों को पूरा करने के लिए कोई मोहरा खड़ा करती हैं लेकिन वह अपनी स्वतन्त्र राजनीतिक गति के कारण उनके लिए भस्मासुर बन जाता है या कम-से-कम उनके नियन्त्रण से बाहर जाने लगता है, मसलन ‘इण्डिया अगेंस्ट करप्शन’ नामक संघ परिवार द्वारा खड़े किये गये आन्दोलन से जन्मी ‘आम आदमी पार्टी’। आज पूँजीवादी राजनीतिक आन्तरिक गति के कारण ‘आम आदमी पार्टी’ और भाजपा के अन्तरविरोध तीखे हो गये हैं। राहुल गाँधी की संसद सदस्यता रद्द होने पर ‘आप’ के केजरीवाल ने भी भाजपा पर हमला बोला है और मोदी की फर्जी डिग्री के सवाल को भी ‘आप’ लगातार उठाकर भाजपा सरकार को घेरने का प्रयास कर रही है। हम इन मसलों पर क्यों ध्यान आकर्षित कर रहे हैं? लेनिन ने बताया था कि सर्वहारा वर्ग व्यापक मेहनतकश जनता को नेतृत्व देने और एक राजनीतिक वर्ग के रूप में अपने आपको संघटित करने में तभी कामयाब होता है जब वह समाज के सभी वर्गों की सापेक्षिक स्थिति, उनकी शक्ति, उनके आपसी सम्बन्धों व संघर्ष का एक वस्तुपरक मूल्यांकन करता है। वह शत्रु के खेमे में मौजूद अन्तरविरोधों के तीखे होने व नर्म पड़ने के द्वन्द्व पर भी लगातार निगाह रखता है। इसके बिना वह अपने आम और विशिष्ट रणकौशलों का निर्माण नहीं कर सकता है।
हमें मौजूदा समूचे घटनाक्रम के एक और आयाम पर ध्यान देना होगा। कुछ लोग यह मुग़ालता पाल बैठते हैं कि फ़ासीवादियों के पास हर समस्या के जवाब में रणनीति तैयार होती है, और हर चीज़ उनके नियन्त्रण में होती है। ऐसा नहीं होता है। आर्थिक संकट के कारण पैदा बेरोज़गारी, ग़रीबी, महँगाई पूँजीवादी अर्थशास्त्र की गति के नियम से पैदा होने वाली चीज़ें हैं। फ़ासीवादी सत्ता मन्दी से पूँजीपति वर्ग को राहत देने के लिए चाहे मज़दूर वर्ग की औसत मज़दूरी को गिराने व उसके श्रम व जनवादी अधिकारों को छीनने का कितना भी काम करे, इस बात की कोई गारण्टी नहीं होती कि मुनाफ़े की गिरती औसत दर के कारण पैदा हुई मन्दी से वह उसे तात्कालिक तौर पर भी निजात दिला ही पायेगी। यह बहुत-से अन्य कारकों पर निर्भर करता है: मसलन, विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की स्थिति और उसमें भारतीय अर्थव्यवस्था की पोज़ीशन, मुनाफ़े की औसत दर में गिरावट और औसत मज़दूरी की गिरावट का अनुपात, सट्टेबाज़ी के कारण पैदा होने वाला वित्तीय बुलबुला, आदि। ये सारे कारक फ़ासीवादी सत्ता के नियन्त्रण में नहीं होते। पूँजीपति वर्ग को मन्दी से राहत देने के ही कदमों के तौर पर मोदी सरकार ने तमाम करों से छूट, क़र्ज़ा माफ़ी, रियायती दरों पर बिजली, ज़मीन, आदि देने, औने-पौने दामों पर सार्वजनिक उद्यमों को बेचने, जनता की साझी सम्पत्ति यानी साझा जल, जंगल, ज़मीन को पूँजीपतियों के हवाले करने का काम भी किया है, जिससे सरकार को भारी राजस्व घाटा हो रहा है। वह घाटा सरकार बुनियादी आवश्यक खाद्य पदार्थों तक पर जीएसटी लगाकर, पेट्रोलियम उत्पादों पर करों को भयंकर तरीके से बढ़ाकर पूरा कर रही है, जिसके कारण अभूतपूर्व रूप से बढ़ी महँगाई ने जनता की कमर तोड़ दी है। मौजूदा दौर में, भारत में महँगाई का एक प्रमुख कारण मोदी सरकार द्वारा लादा गया करों का बोझ है, जिसकी वजह यह है कि पूँजीपतियों को दी गयी छूटों के कारण होने वाले सरकारी घाटे की भरपाई मोदी सरकार जनता पर करों के बोझ को बढ़ाकर कर रही है। ऐसे में, व्यापक जनता में भी मोदी सरकार के विरुद्ध असन्तोष और गुस्सा स्पष्ट तौर पर बढ़ा है जो अलग-अलग रूपों में प्रकट हो रहा है और साथ ही फ़ासीवादी प्रचार की पहले की अपेक्षा घटती प्रभाविता में भी अपने आपको प्रकट कर रहा है।
आम जनता का यह बढ़ता गुस्सा ही है जिसके कारण राहुल गाँधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ को जनता के एक हिस्से से भी स्वत:स्फूर्त रूप से समर्थन मिला। इस यात्रा में शामिल होने वाले तमाम आम लोग ऐसे थे, जो कांग्रेसी नहीं थे और न ही राहुल गाँधी के राजनीतिक समर्थक थे। वे मोदी सरकार की जनविरोधी नीतियों के फलस्वरूप बढ़ती महँगाई, बेरोज़गारी और ग़रीबी के ख़िलाफ़ अपने गुस्से का इज़हार करने के लिए इस यात्रा में शामिल हुए थे। इस यात्रा में जनता की ओर से एक हद तक हुई भागीदारी ने निश्चित ही मोदी सरकार को चिन्तित किया था। नतीजतन, हताशा में मोदी सरकार और उसके मन्त्रियों ने राहुल गाँधी पर हर प्रकार के हमले किये, चाहे वे व्यक्तिगत हों, या राजनीतिक हों, या झूठे प्रचार हों। लेकिन इस प्रक्रिया में भाजपा का नेतृत्व ठीक वही कर बैठा जो वह नहीं करना चाहता था। साल-दर-साल उसने हज़ारों करोड़ रुपये इसीलिए ख़र्च किये थे कि एक परिपक्व पूँजीवादी विपक्षी नेता के तौर पर राहुल गाँधी की छवि कभी निर्मित ही न होने दें। कभी ‘पप्पू’ कहकर, कभी एक अधिकारसम्पन्न राजकुमार की छवि को पेश कर एक ऐसी स्थिति बनाये रखें कि लोग राहुल गाँधी को कभी गम्भीरता से न लें। लेकिन देश में आर्थिक संकट, बेरोज़गारी, महँगाई और फासीवादी मोदी सरकार द्वारा किये गये कुप्रबन्धन और भ्रष्टाचार के कारण ऐसी स्थिति पैदा हो गयी है जिसमें जनता में व्यापक असन्तोष है और उसे फिलहाल अपने सामने इस असन्तोष को अभिव्यक्त करने का जो भी रास्ता दिख रहा है, उसमें वह इसे अभिव्यक्त कर रही है, चाहे वह रास्ता कांग्रेस जैसे किसी पूँजीपति वर्ग की नुमाइन्दगी करने वाली पार्टी द्वारा ही मुहैया क्यों न कराया जा रहा हो। इसलिए राहुल गाँधी ने अपने छवि को नये रूप में निर्मित करने में जो आंशिक सफलता हासिल की है, उसमें राहुल गाँधी द्वारा की जा रही मेहनत (जिसे देखकर तमाम उदारपंथियों, उदार वामियों, आदि के गले रुंधे हुए हैं और गाहे-बगाहे सिसकियों की भी आवाज़ें आ रही हैं!) की भूमिका गौण है। दूसरे शब्दों में, ‘नये’ राहुल गाँधी ने मौजूदा स्थितियों को स्थापित नहीं किया है, बल्कि मौजूदा स्थितियों ने ‘नये’ राहुल गाँधी को स्थापित किया है।
ज़ाहिरा तौर पर, कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों की पूँजीपति वर्ग के राजनीतिक नेताओं की यह कोई बुनियादी राजनीतिक आलोचना नहीं होती कि वे आलसी होते हैं! वास्तव में, आम तौर पर ऐसी कोई बात कही भी नहीं जा सकती है। ये बातें आत्मउद्वेलन के लिए बोली जाती हैं कि सारे पूँजीवादी नेता निखट्टू, नाखादा और निठल्ले हैं! यदि ऐसा होता तो क्रान्ति करना बेहद आसान काम होता और अब तक क्रान्ति हो जानी चाहिए थी! या फिर ऐसे आत्मउद्वेलनवादी “वामपंथियों” को यह मानना पड़ेगा कि वे इन पूँजीवादी नेताओं से भी ज़्यादा निखट्टू, नाखादा और निठल्ले हैं! क्रान्तिकारी मार्क्सवाद पूँजीवाद, पूँजीपति वर्ग और उसकी सत्ता की वैज्ञानिक आलोचना पेश करता है, नैतिक आलोचना नहीं कि वह आलसी या नाकारा है! वैसे भी ऐसा है नहीं! पूँजीपति वर्ग के अलग-अलग राजनीतिक प्रतिनिधि बड़े श्रमसाध्य तरीके से पूँजीपति वर्ग की सेवा में संलग्न हैं और आपस में उनकी मैनेजिंग कमेटी को चलाने के अवसर के लिए प्रतिस्पर्द्धा भी कर रहे हैं। इसलिए राहुल गाँधी ने यात्रा में 3000 किमी चलकर मेहनत अवश्य की होगी लेकिन हमारे लिए सिर्फ़ यह मेहनत ही समर्थन या विरोध का आधार नहीं हो सकता है। हर ऐसे प्रयास का वर्ग चरित्र होता है। अपने आप में मेहनत करना कोई चीज़ नहीं होती है, जब तक यह न स्पष्ट हो कि मेहनत किसके द्वारा और किसके हितों को ध्यान में रखकर की जा रही है।
राहुल गाँधी देश की जनता के सामने आर्थिक व राजनीतिक कार्यक्रम क्या पेश कर रहे हैं, इसके आधार पर हम मज़दूरों-मेहनतकशों को यह तय करना चाहिए कि उनकी राजनीति का चरित्र क्या है। राहुल गाँधी ने ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के दौरान उदार पूँजीपति वर्ग के चहेते अर्थशास्त्री रघुराम राजन और अभिनेता कमल हसन को साक्षात्कार दिया। इसमें राहुल गाँधी ने स्पष्ट शब्दों में बताया कि वह पूँजीवाद के ख़िलाफ़ नहीं हैं, न ही वह नवउदारवादी नीतियों के ख़िलाफ़ हैं। उनकी राज्य सरकार तो राजस्थान में खुद ही अडानी को ठेके दे रही है। वह बस ‘क्रोनी पूँजीवाद’ यानी ‘भ्रष्ट पक्षपातपूर्ण पूँजीवाद’ के ख़िलाफ़ हैं, जिसमें केवल मोदी जी के कुछ दोस्तों को धन्धा करने की (‘मज़दूरों के शोषण की’ पढि़ये!) आज़ादी और मौके मिलते हैं। समूचे पूँजीपति वर्ग को शोषण करने के बराबर अवसर मुहैया कराये जाने चाहिए! इसी प्रक्रिया में राहुल गाँधी छोटे व मँझोले औद्योगिक व वाणिज्यिक पूँजीपतियों, खेतिहर पूँजीपति वर्ग यानी धनी पूँजीवादी किसान व भूस्वामियों को भी भरोसा दिलाते हैं कि बड़ी पूँजी की मार से उजड़ने के जोखिम से उन्हें राहत दी जायेगी, सब्सिडियाँ दी जायेंगी, कर-छूट व क़र्ज़ा माफ़ी दी जायेगी, लाभकारी मूल्य बढ़ाकर खेतिहर बुर्जुआज़ी को पहले से ज़्यादा बेशी मुनाफ़ा दिया जायेगा, इत्यादि। ज़ाहिर है कि नवउदारवादी नीतियों को लागू करते हुए इन वायदों को आंशिक तौर पर ही कांग्रेस पूरा कर सकती है, यदि वह सरकार बनाती है। राहुल गाँधी ने कहने के लिए तो जनता से भी कई कल्याणकारी नीतियों के वायदे किये, जनवादी अधिकारों व बोलने की आज़ादी को पुनर्स्थापित करने का वायदा किया। लेकिन इन वायदों को नवउदारवादी नीतियों के साथ पूरा करना तो बिल्कुल ही असम्भव है। राहुल गाँधी अपने इन वार्तालापों में स्पष्ट करते हैं कि उन्हें इस बात पर गर्व है कि कांग्रेस पार्टी की सरकार ने ही 1991 में नवउदारवादी नीतियों की शुरुआत की! वह यह भी साफ़ कर देते हैं कि निजीकरण व भूमण्डलीकरण के ज़रिये देशी-विदेशी पूँजी को भारत की मेहनत और कुदरत की लूट की आज़ादी देने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी जायेगी! बस लूट का यह मौका सारे पूँजीपतियों को बराबरी से मुहैया कराया जायेगा, केवल मोदी जी के चन्द दोस्तों को नहीं। राहुल गाँधी के लिए आर्थिक मॉडल कौन-सा देश है? चीन! क्या राहुल गाँधी को मालूम है कि चीन में मज़दूरों पर किस तरह की तानाशाही लागू है? क्या उन्हें मालूम है कि सामाजिक फ़ासीवादी चीनी सत्ता ने आम चीनी जनता को अधिकांश जनवादी अधिकारों से वंचित कर रखा है? क्या उन्हें मालूम में कि चीन दुनिया का मैन्युफैक्चरिंग हब केवल इसीलिए बन सका है क्योंकि वहाँ पर श्रम अधिकार नहीं के बराबर हैं और देशी-विदेशी पूँजी की पुलिसिया तानाशाही स्थापित है? अगर राहुल गाँधी भारत को ऐसा ही बनाना चाहते हैं, तो सत्ता परिवर्तन की ज़हमत उठाने की क्या ज़रूरत है? नरेन्द्र मोदी की साम्प्रदायिक फ़ासीवादी सत्ता ये सारे कुकर्म अपने तरीके से कर ही रही है!
इसलिए यह स्पष्ट है कि जहाँ तक आर्थिक नीतियों का सवाल है, राहुल गाँधी की कांग्रेस या कोई भी पूँजीवादी पार्टी नवउदारवादी नीतियों, यानी निजीकरण, उदारीकरण, भूमण्डलीकरण, श्रम अधिकारों को सीमित करने और “धन्धा करने की सहूलियत” देने की नीतियों पर ही कम या ज़्यादा ज़ोर के साथ अमल करेगी। इसके लिए उसकी सरकार को जितना दमनकारी होना होगा, वह होगी। क्या अतीत में मज़दूरों के दमन में कांग्रेस की तमाम सरकारों या तीसरे मोर्चे की सरकारों ने कोई कमी बरती है? नहीं।
यह सच है कि ग़ैर-फ़ासीवादी पूँजीवादी पार्टियों व फ़ासीवादी पूँजीवादी पार्टी में फर्क होता है। वह फ़र्क़ आज हमारे सामने किन रूपों में सामने आ सकता है? ज़्यादा से ज़्यादा यह फ़र्क़ हो सकता है कि जिस प्रकार भाजपा के सत्ता में होने पर स्वयं सरकार और उसकी मशीनरी साम्प्रदायिक राजनीति व दंगे की राजनीति में संलग्न है, उस प्रकार किसी अन्य पूँजीवादी पार्टी की सरकार न रहे। यह सम्भव है कि भाजपा सरकार जिस प्रकार जनवादी स्पेस को पूर्णत: समाप्त कर रही है, एक सोशल मीडिया के पोस्ट या टिप्पणी पर पत्रकारों, कलाकारों आदि को जेल हो रही है, बाक़ायदा सज़ायाफ्ता दंगाइयों को जेल से छोड़कर धार्मिक भावनाओं को भड़काया जा रहा है, वह एक हद तक बन्द हो जाये; कुछ दिखावटी कल्याणवाद भी हो सकता है, जैसा कि मनरेगा व सूचना अधिकार के ज़रिये कांग्रेस की अगुवाई वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन सरकार ने 2004 से 2009 के बीच किया था। इससे ज़्यादा अन्तर की उम्मीद मज़दूर वर्ग नहीं कर सकता और न ही उसे करनी चाहिए।
साथ ही, हमें यह भी समझ लेना चाहिए कि जब भी मज़दूर वर्ग संगठित होकर पूँजीपति वर्ग का विरोध करेगा, कोई हड़ताल करेगा, कोई आन्दोलन करेगा तो आज के दौर में कोई भी पूँजीवादी सरकार बर्बरता से उसका दमन करेगी क्योंकि यह पूँजीपति वर्ग के लिए मन्दी के दौर में विशेष तौर पर आवश्यक होता है। फ़ासीवादी पूँजीवादी सत्ता किसी भी अन्य पूँजीवादी सत्ता के मुक़ाबले इस काम को और भी ज़्यादा कारगर तरीके से करती है और इसीलिए मन्दी के दौर में भाजपा जैसी फ़ासीवादी पार्टी की सरकार और मोदी-शाह जैसे फ़ासीवादी नेतृत्व को सत्ता में पहुँचाना पूँजीपति वर्ग की पहली प्राथमिकता और पसन्द होती है।
बहरहाल, इतना तय है कि इस समय पूरे देश में मोदी सरकार के ख़िलाफ़ एक माहौल तैयार हो रहा है। अडानी-हिण्डनबर्ग प्रकरण के द्वारा मोदी व अडानी के घपले का सामने आना भी भाजपा के लिए गले में फँसी हड्डी बन गया है। भाजपा और मोदी किसी भी तरह से इस मसले से बचकर निकलना चाहते हैं, लेकिन संसद में विपक्ष इस पर उसे बचकर निकलने नहीं देना चाहता। पूँजीवादी संसदीय विपक्ष, विशेष तौर पर, कांग्रेस और राहुल गाँधी उसके ख़िलाफ़ हमलावर रुख़ अपना रहे हैं। निश्चित तौर पर, इसके पीछे पूँजीवादी चुनावी दलों की आपसी प्रतिस्पर्द्धा है कि भारत के पूँजीपति वर्ग के लिए उसकी सरकार को चलाने का काम कौन-सी पार्टी करेगी। लेकिन फिर भी ऐसे माहौल में मोदी सरकार की दिक्कतें बढ़ रही हैं।
इसी सन्दर्भ में फ़ासीवादी सत्ता की एक महत्वपूर्ण विशिष्टता हमारे सामने लगातार स्पष्टतर रूपों में प्रकट हो रही है: संसदीय पूँजीवादी विपक्ष का भी दमन। कहने की ज़रूरत नहीं है कि इस दमन में और मज़दूरों-मेहनतकशों के बर्बर दमन में काफ़ी अन्तर होता है। यह भी कहने की आवश्यकता नहीं है कि पूँजीवादी जनवाद के बचे-खुचे स्पेस को फ़ासीवादी सत्ता द्वारा ख़त्म किये जाने का जवाब क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग किसी उदारवादी ज़मीन पर खड़े होकर नहीं देगा। मसलन, वह ‘संविधान बचाओ’ जैसे नारों के साथ पूँजीवादी लोकतन्त्र का महिमामण्डन कर व्यापक मेहनतकश आबादी को गुमराह करने का कुकर्म नहीं करता। उल्टे वह व्यापक मेहनतकश जनता को बतायेगा कि मौजूदा लोकतन्त्र वास्तव में पूँजीपति वर्ग का लोकतन्त्र है और इसमें जैसे-जैसे हम सामाजिक पदानुक्रम में नीचे जाते हैं, वैसे-वैसे व्यापक मेहनतकश जनता के लिए जनवादी अधिकार अधिक से अधिक औपचारिक और काग़ज़ी होते जाते हैं। इसलिए फ़ासीवाद के विरुद्ध हमारे जनसंघर्ष का लक्ष्य किसी उदार व ‘अच्छे’ पूँजीवादी जनवाद की पुनर्स्थापना नहीं है। फ़ासीवाद के विरुद्ध हमारे क्रान्तिकारी जनसंघर्ष का लक्ष्य उस पूँजीवादी व्यवस्था का ही ध्वंस है, जो अपनी नैसर्गिक गति से संकटग्रस्त होने पर फ़ासीवाद समेत तमाम प्रकार की पूँजीवादी प्रतिक्रिया को जन्म देती है। इसलिए क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग का काम राहुल गाँधी या किसी अन्य पूँजीवादी नेता या पार्टी की पालकी का कहार बनना नहीं है। वैसे भी इतिहास इस बात का गवाह है कि फ़ासीवादी उभार को निर्णायक रूप में शिकस्त देने का काम सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में व्यापक मेहनतकश जनता ही कर सकती है। इसलिए फ़ासीवाद-विरोधी मुहिम में क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग को अपनी राजनीतिक स्वतन्त्रता को बनाये रखना चाहिए, यानी किसी भी ग़ैर-फ़ासीवादी पूँजीवादी पार्टी या गठबन्धन का पिछलग्गू नहीं बनना चाहिए।
साथ ही, पूँजीवादी जनवाद को प्रच्छन्न या खुले तौर पर ख़त्म करने, पूँजीवादी जनवादी अधिकारों को ख़त्म करने, जनवादी स्पेस को ख़त्म करने की फ़ासीवादी सत्ता के हर क़दम का हमें पुरज़ोर तरीके से विरोध करना चाहिए। मिसाल के तौर पर, इसमें कोई दो राय नहीं है कि राहुल गाँधी को सूरत कोर्ट द्वारा दी गयी सज़ा और उसके बाद आनन-फ़ानन में भाजपा सरकार द्वारा उनकी सदस्यता को रद्द किया जाना आम तौर पर पूँजीवादी जनवादी अधिकार पर एक हमला है। क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग को इसका विरोध करना चाहिए। यह अवैध तरीके से हुई कार्रवाई है। सवाल यह है कि जब उदार पूँजीवादी जनवाद की पुनर्स्थापना हमारा लक्ष्य नहीं है, तो फिर हमें राहुल गाँधी की बर्खास्तगी के कदम का विरोध करने की क्या ज़रूरत है? ज़रूरत है। ज़रूरत इसलिए है क्योंकि पूँजीवादी जनवादी अधिकारों पर होने वाले हर हमले की कीमत अन्त में व्यापक मेहनतकश जनता ही चुकाती है, चाहे यह फ़ासीवादी हमला किसी ग़ैर-फ़ासीवादी पूँजीवादी नेता या पार्टी के जनवादी अधिकारों पर ही क्यों न हुआ हो। इसे यूँ समझिये। क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग यह जानता है और मानता है कि पूँजीवादी चुनावों के रास्ते कभी भी समाजवादी व्यवस्था और मज़दूर सत्ता की स्थापना नहीं हो सकती है। तो क्या इसका यह अर्थ है कि वह पूँजीवादी चुनावों को किसी तानाशाहाना सत्ता द्वारा भंग कर दिये जाने का समर्थन करेगा? नहीं। वह जानता है कि पूँजीवादी व्यवस्था में महज़ अभिव्यक्ति के अधिकार, संगठन बनाने के अधिकार, आदि से ही उसकी राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक समस्याओं का हल नहीं होने वाला है। तो क्या वह इन अधिकारों के भंग कर दिये जाने का समर्थन करेगा? कतई नहीं।
क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग के महान शिक्षक लेनिन ने बताया था कि जनवाद के लिए सर्वहारा वर्ग ही सबसे क्रान्तिकारी तरीके से लड़ सकता है और इस लड़ाई को लड़कर ही वह समाजवाद के उद्देश्य के लिए भी सुसंगत तरीके से लड़ सकता है। लेनिन ने बताया कि पूँजीवादी जनवाद निश्चित तौर पर अन्तर्वस्तु में पूँजीपति वर्ग की तानाशाही ही होती है और व्यापक मेहनतकश जनता के लिए जनवादी अधिकारों का चरित्र मूलत: और मुख्यत: आंशिक और औपचारिक होता है। लेकिन इसके बावजूद जनवाद सर्वहारा वर्ग के लिए अपने वर्ग संघर्ष को पूँजीपति वर्ग के विरुद्ध आगे बढ़ाने के लिए सबसे उपजाऊ और उपयुक्त ज़मीन है। इसलिए सर्वहारा वर्ग उस ज़मीन को फ़ासीवादी सत्ता के बरक्स बचाने के लिए भी लड़ता है। जनवाद पर होने वाला हर हमला अन्तत: सर्वहारा वर्ग और व्यापक मेहनतकश जनता के सिर ही गिरता है, चाहे आज उसके निशाने पर राहुल गाँधी, तेजस्वी यादव आदि ही क्यों न नज़र आ रहे हों। इसलिए इस पर एक सही क्रान्तिकारी अवस्थिति अपनाना बेहद ज़रूरी है, अन्यथा “वामपंथी” लफ्फाज़ी के गड्ढे में गिरने से बचा नहीं जा सकता है। इसलिए आज राहुल गाँधी की संसद सदस्यता के रद्द होने का भी विरोध सर्वहारा ज़मीन से किया जाना चाहिए। इसके ठोस निहितार्थ क्या हैं?
इसका अर्थ यह नहीं है कि क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग कांग्रेस की पूँछ में कंघी करने लगे, जैसे कि तमाम उदार वामी और वामी उदार कर रहे हैं और ‘भारत जोड़ो यात्रा’ और कांग्रेस की रैलियों में जाकर फोटो सेशन कर रहे हैं। तो फिर इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ यह होगा कि क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग अपनी कतारों को ऐक्यबद्ध करके समूची जनता के बीच बड़े से बड़े पैमाने पर मोदी सरकार द्वारा जनवादी अधिकारों व स्पेस पर किये जा रहे हमले की सच्चाई को सघन और व्यापक अभियान के रूप में पहुँचाये। जनता को यह बताया जाना चाहिए कि जिन मानकों के आधार पर राहुल गाँधी पर कार्रवाई हुई है, उन मानकों पर तो नरेन्द्र मोदी अभी तक जेल में होने चाहिए थे! उनके कुछ कथनों पर ग़ौर करें। शशि थरूर के निजी सम्बन्धों पर टिप्पणी करते हुए मोदी ने “50 करोड़ की गर्लफ्रेण्ड” जैसी घटिया बात कही थी। क्या यह सभी स्त्रियों का अपमान नहीं है? मोदी ने मुसलमानों की तरफ़ इशारा करते हुए कहा था कि “दंगाइयों को उनकी पोशाक से पहचानो”। क्या यह समूचे अल्पसंख्यक समुदाय का अपमान नहीं है? मोदी ने सोनिया गाँधी को “जर्सी गाय” कहा; क्या यह किसी की मानहानि की श्रेणी में नहीं आता? भाजपा के अन्य नेताओं ने जैसी टिप्पणियाँ कही हैं, उनका ज़िक्र करके हम अपने अख़बार के पन्ने गन्दे नहीं कर सकते। लेकिन आप स्वयं देख सकते हैं कि फ़ासीवादी सत्ता किस तरह से काम कर रही है। इसके अलावा, सीबीआई और आईडी जैसी सरकारी संस्थाओं में संघ की घुसपैठ के बूते जैसे उनका इस्तेमाल राजनीतिक विपक्ष के विरुद्ध किया जा रहा है, वह किसी से छिपा नहीं है। यही सच्चाई व्यापक जनता के सामने उजागर की जानी चाहिए और उसे समझाया जाना चाहिए कि फ़ासीवाद द्वारा जनवादी अधिकारों पर हो रहे इन हमलों का निशाना अन्तत: स्वयं जनता बनेगी। फ़ासीवाद द्वारा जनवाद पर हमले और दमन को हमारी चुप्पी से वैधता प्राप्त होगी और अन्तत: हर जनवादी अधिकार के हनन की क़ीमत मेहनतकश जनता ही चुकायेगी, आज चाहे उसके निशाने पर कोई भी दिख रहा हो।
इक्कीसवीं सदी के फ़ासीवाद की एक ख़ासियत यह है कि वह हिटलर व मुसोलिनी के समान आपवादिक कानून लाकर संसद व चुनावों को भंग नहीं करता। लेकिन औपचारिक तौर पर संसद, चुनावों, आदि को बनाये रखते हुए भी फ़ासीवादी शक्तियाँ सत्ता में होने पर इनकी अन्तर्वस्तु को धीरे-धीरे समाप्त कर देती हैं। नतीजे के तौर पर पूँजीवादी जनवाद का खोल बचा रह जाता है, लेकिन अन्तर्वस्तु विसर्जित हो जाती है। आज मोदी-शाह की फ़ासीवादी सत्ता यही कर रही है। नतीजतन, एक अघोषित आपातकाल की स्थिति है, पूँजीवादी संसदीय विपक्ष को भी पूर्णत: बेकार बना दिये जाने की कोशिशें की जा रही हैं, पूँजीवादी जनवादी राज्यसत्ता की तमाम संस्थाओं व प्रक्रियाओं को बरबाद किया जा रहा है। पूँजीवादी जनवादी अधिकारों को बचाना या पूँजीवादी जनवाद के किसी काल्पनिक शुद्ध रूप की स्थापना करना अपने आप में सर्वहारा वर्ग का उद्देश्य नहीं है। लेकिन जनवादी अधिकारों पर होने वाले हर हमले की मुख़ालफ़त करना उसके लिए इसलिए ज़रूरी है क्योंकि वह उसे अपने वर्ग संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए सबसे उपयुक्त ज़मीन देता है। वैसे भी पूँजीवाद-साम्राज्यवाद के मौजूदा अभूतपूर्व रूप से पतनशील दौर में पूँजीवादी जनवाद पहले से ही जर्जर अवस्था में है। इसलिए भी फ़ासीवादी उभार के लिए उसकी अन्तर्वस्तु को नष्ट करना और उसके खोल को बनाये रखना पहले से कहीं ज़्यादा आसान है।
सर्वहारा वर्ग किसी भी रूप में और किसी के भी ख़िलाफ़ उठाये जाने वाले फ़ासीवादी कदम के ज़रिये जनवादी अधिकारों व स्पेस पर होने वाले हमलों का विरोध अपनी स्वतन्त्र राजनीतिक ज़मीन से करेगा। वह उसका विरोध इसलिए करेगा क्योंकि वह जानता है कि जनवाद के हर ह्रास, उस पर होने वाले हर हमले की कीमत अन्तत: सर्वहारा वर्ग ही चुकाता है और अगर वह चुप रहा तब वह इस कीमत को और भारी तरीके से चुकाता है। वह इसका विरोध करते हुए इस या उस पूँजीवादी दल की पूँछ नहीं पकड़ेगा। बल्कि वह अपनी स्वतन्त्र राजनीतिक कार्रवाइयों, अभियानों व आन्दोलनों के ज़रिये इन हमलों की सच्चाई के बारे में व्यापक जनसमुदायों में प्रचार करेगा और उन्हें बतायेगा कि फ़ासीवादियों की असलियत क्या है, उनका असली चाल-चेहरा-चरित्र क्या है। वह जनता के चेतना का स्तरोन्नयन करते हुए उन्हें हर जनवादी अधिकारों की हिफ़ाज़त के लिए अपने जुझारू जनान्दोलनों के ज़रिये लड़ने हेतु जागृत, गोलबन्द और संगठित करेगा। इसी प्रक्रिया में वह उन्हें इस सच्चाई से भी अवगत करायेगा कि कांग्रेस, सपा, राजद, जद (यू), तृणमूल, द्रमुक, आदि कोई भी पूँजीवादी दल फ़ासीवादी उभार का विकल्प नहीं बन सकता है। वास्तव में, फ़ासीवाद के उभार के लिए ये तमाम पूँजीवादी राजनीतिक दल और, सत्ता में होने पर, उनकी आर्थिक नीतियाँ ही ज़िम्मेदार हैं और पूँजीवादी दल होने के नाते उनसे और कोई उम्मीद की भी नहीं जा सकती थी।
संक्षेप में कहें तो हमारा यह क्रान्तिकारी कर्तव्य है और हमारे संघर्ष के भविष्य के उज्ज्वल होने की शर्त है कि हम जनवादी अधिकारों पर होने वाले हर फ़ासीवादी हमले का पुरज़ोर विरोध करें, चाहें वे ईमानदार व जनपक्षधर पत्रकारों के ख़िलाफ़ हो, कलाकारों-साहित्यकारों के ख़िलाफ़ हो, ट्रेडयूनियनकर्मियों के ख़िलाफ़ हो, अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ हो, दलितों व स्त्रियों के ख़िलाफ़ हो, या फिर वह ग़ैर-फ़ासीवादी पूँजीवादी चुनावी दलों व नेताओं के ख़िलाफ़ ही क्यों न हो। वजह यह कि जनवाद पर होने वाला हर हमला अन्तत: और दूरगामी तौर पर सर्वहारा वर्ग के हितों के विपरीत जाता है और सर्वहारा वर्ग व आम मेहनतकश जनता ही उसकी सबसे ज़्यादा क़ीमत चुकाती है। जब भी हम जनवाद पर होने वाले फ़ासीवादी हमले पर चुप रहते हैं तो हम फ़ासीवादी सत्ता के “दमन के अधिकार” का आम तौर पर वैधता प्रदान कर रहे होते हैं, चाहे हमारा ऐसा इरादा हो या न हो। इसलिए राहुल गाँधी की सदस्यता रद्द होने का प्रश्न हो या फिर जनपक्षधर पत्रकारों, जाति-उन्मूलन कार्यकर्ताओं, कलाकारों-साहित्यकारों के फ़ासीवादी मोदी-शाह सत्ता द्वारा उत्पीड़न का प्रश्न हो, सर्वहारा वर्ग को उसका पुरज़ोर तरीके से विरोध करना चाहिए। लेनिन ने बताया था कि जनवादी अधिकारों पर होने वाले हर हमले का विरोध किये बग़ैर, शोषक-शासक वर्गों व उनकी सत्ता द्वारा दमन-उत्पीड़न की हर घटना पर आवाज़ उठाये बग़ैर, और हर जगह दमित व शोषित लोगों के साथ खड़े हुए बग़ैर, सर्वहारा वर्ग समूची मेहनतकश जनता की अगुवाई करने और उसका हिरावल बनने की क्षमता अर्जित नहीं कर सकता है।
मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2023
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन