खेतिहर मज़दूरों की बढ़ती आत्महत्याओं के लिए कौन ज़िम्मेदार है?
हर साल हज़ारों खेत मज़दूर अपनी जान लेने पर मजबूर, लेकिन कहीं चर्चा तक नहीं!
2011 की जनगणना के अनुसार देश में खेती में लगे हुए कुल 26.3 करोड़ लोगों में से 45% यानी 11.8 करोड़ किसान थे और शेष लगभग 55% यानी 14.5 करोड़ खेतिहर मज़दूर थे। पिछले 10 वर्षों में यदि किसानों के मज़दूर बनने की दर वही रही हो, जो कि 2000 से 2010 के बीच थी, तो माना जा सकता है कि खेतिहर मज़दूरों की संख्या 15 करोड़ से काफ़ी ऊपर जा चुकी होगी, जबकि किसानों की संख्या 11 करोड़ से और कम रह गयी होगी। मगर ग्रामीण क्षेत्र की सबसे बड़ी आबादी होने के बावजूद खेतिहर मज़दूरों की बदहाली और काम व जीवन के ख़राब हालात की बहुत कम चर्चा होती है।
पिछले दो दशकों के दौरान, भारत में 3.50 लाख से अधिक किसानों ने आत्महत्या की। इनमें भी सबसे बड़ी संख्या ग़रीब और निम्न-मँझोले किसानों की थी। किसानों की आत्महत्या के सवाल पर संसद से लेकर सड़क तक चर्चा हुई है, लेकिन खेतिहर मज़दूरों की दुर्दशा को लगातार नज़रअन्दाज़ किया गया है। इस तबक़े के आत्महत्या के आँकड़े ही 2013 तक प्रकाशित और उपलब्ध नहीं थे। जबसे इनके अलग से आँकड़े उपलब्ध हैं, तब से देखें तो 2014 में 6,750 खेतिहर मज़दूरों ने आत्महत्या की, 2015 में 4,595, 2016 में 5,019 और 2019 में 4,324 खेतिहर मज़दूरों ने आत्महत्या कर ली।
आज जो लोग इस तरह की बातें कर रहे हैं कि धनी किसानों की कमाई ज़्यादा होगी तो मज़दूरों की हालत भी सुधरेगी, उनसे पूछा जाना चाहिए कि अगर ऐसा है तो खेतिहर मज़दूरों की सबसे अधिक आत्महत्याएँ उन्हीं इलाक़ों में क्यों होती हैं जहाँ खेती अधिक विकसित है और जहाँ धनी किसानों-फ़ार्मरों की बड़ी संख्या है? तथाकथित हरित क्रान्ति का फ़ायदा उठाने वाले आन्ध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक और पंजाब जैसे विकसित खेती वाले राज्यों में सबसे ज़्यादा खेतिहर मज़दूर क्यों अपनी जान लेने पर मजबूर हो जाते हैं? इन्हीं राज्यों में खेतिहर मज़दूरों की सामाजिक-आर्थिक दुर्दशा भयंकर क्यों है?
पंजाब में, कुल 99 लाख कार्यबल में से, एक-तिहाई से अधिक लोग किसान या खेतिहर मज़दूर के रूप में खेती में लगे हुए हैं। राज्य में खेती से जुड़े 35 लाख लोगों में से 15 लाख (43%) खेतिहर मज़दूर हैं। यहाँ कुल कृषि कार्यबल में मज़दूरों का अनुपात कम होने का एक बड़ा कारण यह है कि बहुत बड़ी संख्या में प्रवासी खेतिहर मज़दूर भी पंजाब आकर काम करते हैं। पंजाब के खेतिहर मज़दूरों में से लगभग दो-तिहाई दलित हैं जबकि राज्य में उनकी कुल आबादी लगभग 28 प्रतिशत है। इनके शोषण को अति शोषण में तब्दील करने में इनकी जातिगत स्थिति का भी एक योगदान है।
आज धनी किसान आन्दोलन के समर्थक कह रहे हैं कि खेती में बड़ी पूँजी के आने से मशीनीकरण बढ़ेगा जिससे बेरोज़गारी बढ़ेगी। मगर हक़ीक़त यह है कि पिछले तीन-चार दशकों के दौरान खेती का मशीनीकरण लगातार बढ़ता ही रहा है और इससे जहाँ खेतों की उत्पादकता और किसानों के मुनाफ़े में इज़ाफ़ा हुआ, वहीं खेतिहर मज़दूरों के हिस्से में बेरोज़गारी और ग़रीबी ही आयी है।
पंजाब में खेती में पूँजीवादी विकास से न केवल रोज़गार में कमी आयी है, बल्कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था में मज़दूरी की दरें भी कम हुई हैं। इस प्रक्रिया ने लाखों खेतिहर मज़दूरों की आमदनी कम करके उन्हें ख़राब जीवनस्थितियों में धकेल दिया है। मज़दूरों के प्रति धनी किसानों के रवैये का अनुमान पिछले वर्ष की घटनाओं से लगाया जा सकता है। जब लॉकडाउन के दौरान पंजाब और हरियाणा में प्रवासी मज़दूरों का आना रुक गया था, तो मज़दूरी बढ़ने लगी थी क्योंकि श्रम की माँग बढ़ रही थी। ऐसे में, पंजाब और हरियाणा के धनी किसानों-कुलकों ने अपनी पंचायतें बुलाकर खेतिहर मज़दूरी पर सीलिंग तय कर दी थी। किसी भी मज़दूर को उससे ज़्यादा मज़दूरी नहीं दी जा सकती थी। यदि कोई माँगता तो उसका सामाजिक बहिष्कार किया जाता। इन मज़दूरों को अपने गाँव से बाहर जाकर मज़दूरी करने की भी इजाज़त नहीं थी। बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, झारखण्ड आदि से पंजाब और हरियाणा में जाने वाले प्रवासी मज़दूरों की बात करें, तो उनके शोषण और उत्पीड़न में भी धनी किसानों-कुलकों का वर्ग कोई कसर नहीं छोड़ता है।
घटती आमदनी के कारण हज़ारों खेतिहर मज़दूर क़र्ज़ के जाल में फँसे हुए हैं और आर्थिक बदहाली, क़र्ज़ का बोझ और निराशा बड़े पैमाने पर उन्हें अपनी जान लेने जैसा क़दम उठाने पर मजबूर कर रहे हैं। राज्य में किसानों की आत्महत्याओं पर काफ़ी चर्चा हुई है लेकिन न केवल खेतिहर मज़दूरों की आत्महत्याओं पर ध्यान नहीं दिया गया है बल्कि उन्हें मामूली और सामान्य घटनाएँ बताने की भी कोशिश होती रही है।
लेकिन बड़े पैमाने पर खेतिहर मज़दूरों की आत्महत्याओं के मद्देनज़र पंजाब सरकार को इस पर एक अध्ययन कराना पड़ा जिसकी रिपोर्ट ‘इकोनॉमिक एण्ड पोलिटिकल वीकली’ के 27 मार्च के अंक में प्रकाशित हुई है। इस अध्ययन के तहत पंजाब के छह ज़िलों, बरनाला, बठिण्डा, लुधियाना, मानसा, मोगा और संगरूर के 2400 गाँवों में 2000 से 2018 के बीच खेतिहर मज़दूरों की आत्महत्या के सभी मामलों की जाँच की गयी।
1980 के दशक के मध्य से, और ख़ासकर 1990 के बाद से खेती के सभी कामों में, और ख़ासकर पंजाब की सबसे बड़ी फ़सलों, यानी गेहूँ और धान में बड़े पैमाने पर मशीनीकरण हुआ और खरपतवारनाशक व कीटनाशक रसायनों का भारी पैमाने पर इस्तेमाल होने लगा। नतीजतन, खेती में काम की उपलब्धता कम होने लगी। उत्तर प्रदेश, बिहार आदि से आने वाले प्रवासी मज़दूरों से कम मज़दूरी पर काम कराने के कारण भी स्थानीय मज़दूरों के काम के अवसर कम होने लगे और ग्रामीण अर्थव्यवस्था में मज़दूरी की दरें और कम हो गयीं।
पंजाब में क़रीब 10 लाख किसान परिवार थे जिनमें से 5 लाख छोटे किसान थे जिनके पास 2 हेक्टेयर (करीब पाँच एकड़) से कम ज़मीन थी। इनमें से लगभग दो लाख किसानों ने 1991 से 2000 के बीच खेती छोड़ दी। इनमें से 28 प्रतिशत से ज़्यादा दिहाड़ी मज़दूर बन गये। इनमें से बहुतों को खेती में काम नहीं मिलता और वे राज्य के औद्योगिक केन्द्रों में भटकती बेरोज़गारों की रिज़र्व सेना में शामिल हो गये।
मज़दूरों को मौत के मुँह में धकेलने के लिए ज़िम्मेदार कौन हैं?
पिछली सदी के आख़िरी दो दशकों के दौरान भी खेतिहर मज़दूरों की आत्महत्याएँ बढ़ने लगी थीं लेकिन पिछले दो दशकों के दौरान इसमें तेज़ी से बढ़ोत्तरी हुई है। अध्ययन वाले इलाक़ों में 2000-18 के बीच खेतिहर मज़दूरों की आत्महत्या के 7303 मामले दर्ज हुए। इनमें 79 प्रतिशत का कारण था उनके ऊपर क़र्ज़ का भारी दबाव जबकि 21 प्रतिशत आत्महत्याएँ दूसरे सामाजिक-आर्थिक कारणों से हुईं। इन मज़दूरों को अपनी जान लेने की हालत में धकेलने वाले कौन थे, इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि पीड़ित परिवारों पर क़र्ज़ की कुल राशि का 93 प्रतिशत हिस्सा ग़ैर-संस्थागत स्रोतों, यानी गाँव के धनी किसानों और सूदख़ोरों से लिया गया था। ज़्यादातर मामलों में ये दोनों एक ही होते हैं। ये धनी किसान और सूदख़ोर बैंक आदि से कई गुना ऊँची ब्याज़ दरों पर क़र्ज़ देते हैं और क़र्ज़ वसूली की कठोर शर्तें लागू करते हैं। उन पर ऋण बाज़ार का कोई नियम-क़ानून लागू नहीं होता और वे मज़दूरों की लाचारी और नाजानकारी का भी भरपूर फ़ायदा उठाते हैं। ऐसे में ग़रीब मज़दूरों के लिए उनके क़र्ज़ों के जाल में बुरी तरह फँसने की सम्भावना बहुत ज़्यादा होती है।
उदारीकरण के साथ ही स्वास्थ्य, शिक्षा, परिवहन जैसी सेवाओं पर सरकारी सब्सिडी में भारी कटौती और उन्हें बाज़ार के हवाले कर देने के साथ ही ये सेवाएँ मज़दूरों की पहुँच से बाहर हो गयी हैं और उनकी मामूली आमदनी पर बोझ बढ़ गया है। बच्चों की पढ़ाई या परिवार में किसी की बीमारी या मृत्यु के लिए या शादी आदि के लिए उन्हें क़र्ज़ लेना पड़ता है और फिर उसके जाल से निकलना बहुत मुश्किल हो जाता है।
कहने को तो पंजाब सरकार ने किसानों और खेतिहर मज़दूरों, दोनों के लिए क़र्ज़ के कारण आत्महत्या करने पर परिवार को 3 लाख रुपये मुआवज़ा देने की योजना चला रखी है। लेकिन मज़दूर और ग़रीब किसान को इसका फ़ायदा कम ही मिल पाता है। आम तौर पर, खेतिहर मज़दूर ग़ैर-संस्थागत स्रोतों, ख़ासकर बड़े किसानों से क़र्ज़ लेते हैं। ये धनी किसान सूदख़ोरी से जमकर कमाई करते हैं लेकिन वे क़र्ज़दारों को कभी कोई लिखित काग़ज़ात नहीं देते। ऐसे में, आत्महत्या करने वाले क़र्ज़दारों के परिवार मुआवज़ा लेने के लिए क़र्ज़ का कोई सबूत पेश नहीं कर पाते। बैंक और दूसरी वित्तीय संस्थाएँ क़र्ज़ देने के लिए जो गारण्टियाँ और सिक्योरिटी माँगती हैं, उसे खेतिहर मज़दूर नहीं दे सकते। इसलिए संस्थागत स्रोतों से उन्हें क़र्ज़ मिलना लगभग असम्भव ही होता है। उनके लिए पोस्टमार्टम की रिपोर्ट, मृत्यु प्रमाणपत्र आदि जुटाना भी अक्सर मुश्किल होता है। खेतिहर मज़दूरों में आज भी बड़ी संख्या में लोग पढ़े-लिखे नहीं हैं। अध्ययन में पाया गया कि आत्महत्या करने वाले मज़दूरों में से 62 प्रतिशत अनपढ़ थे।
क़र्ज़ के कारण आत्महत्या करने पर मजबूर होने वालों की संख्या बढ़ती ही रही है। 2014 में इस वजह से ख़ुदकशी करने वालों का प्रतिशत 94 था। 2016 में इसमें कमी आयी थी जिसका कारण सम्भवत: यह था कि चुनाव जीतकर सत्ता में आयी कांग्रेस ने खेतिहर मज़दूरों के क़र्ज़े माफ़ करने का वादा किया था। लेकिन यह घोषणा सिर्फ़ वादा ही रह गयी और आत्महत्याओं की संख्या फिर तेज़ी से बढ़ने लगी। कई परिवारों में एक से ज़्यादा मज़दूरों ने आत्महत्या का रास्ता चुना।
क़र्ज़ के अलावा कई ऐसे भी मामले हैं जिनमें काश्तकार से खेतिहर मज़दूर बने लोगों ने अपनी आमदनी बढ़ाने के लिए धनी किसानों से ज़मीन लीज़ पर लेकर खेती करने की कोशिश की। लेकिन फ़सल ख़राब होने या संसाधनों की कमी के कारण कम पैदावार होने पर उनके लिए ज़मीन का किराया या दूसरे ख़र्चे निकालना भी मुश्किल हो गया। ऐसे में भी कई मज़दूर अपनी जान लेने पर मजबूर हो गये। क़रीब 20 प्रतिशत पीड़ित ऐसे थे जिन्होंने क़र्ज़ देने वालों द्वारा वसूली के लिए किये जाने वाले उत्पीड़न और अपमान से तंग आकर यह क़दम उठा लिया।
हालत की गम्भीरता का अनुमान इस बात से लगाइए कि पंजाब में पीड़ित खेतिहर मज़दूर परिवार की औसत आय 62,188 रुपये है। इन परिवारों की आय का क़रीब 92 प्रतिशत खेती और खेती से इतर मज़दूरी के कामों से आता है। मगर इन परिवारों पर औसतन 99,579 रुपये क़र्ज़ का बोझ है। क़र्ज़ की यह राशि राज्य में किसान परिवारों पर औसत क़र्ज़ 76,017 से बहुत ज़्यादा है।
अध्ययन टीम ने पाया कि आत्महत्या के बाद लगभग 44% पीड़ित परिवारों का कोई सदस्य अवसाद (डिप्रेशन) की हालत में पहुँच गया। लगभग एक-तिहाई परिवारों को परिवार के सदस्यों की गम्भीर बीमारी का सामना करना पड़ा जिसने उनकी बदहाली को और भी बढ़ा दिया। परिवार के बुज़ुर्गों और स्त्रियों पर इन हालात का सबसे बुरा असर पड़ा। लगभग 12% पीड़ित परिवारों में बच्चों की पढ़ाई छुड़ा देनी पड़ी। आत्महत्या के बाद पीड़ित परिवारों में से अधिकांश (52%) गम्भीर आर्थिक संकट में फँस गये। केवल 15% पीड़ित परिवार ऐसे थे जो आत्महत्या के बाद सामान्य जीवन जीने में सक्षम थे। कुल मिलाकर, 85% पीड़ित परिवार गम्भीर आर्थिक कठिनाई से गुज़र रहे हैं।
सीधी बात यह है कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था में मौजूदा न्यूनतम मज़दूरी की दरें जीवन की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए भी काफ़ी नहीं हैं। अपने लिए लाभकारी मूल्य की माँग करने वाले धनी किसान मज़दूरों को जीने लायक़ मज़दूरी भी देने के लिए तैयार नहीं हैं जिनकी मेहनत के दम पर उनके खेत लहलहाते हैं।
पूरे देश के पैमान पर अभी भी असंगठित मज़दूरों का सबसे बड़ा हिस्सा ग्रामीण क्षेत्र में रहता है और कृषि, कृषि-आधारित उद्योगों व सहायक या सम्बद्ध (एलायड) उद्योगों में, ग्रामीण क्षेत्रों में होने वाले सार्वजनिक कार्यों एवं ‘मनरेगा’ जैसी योजनाओं में काम करता है। इस विशाल मेहनतकश आबादी के लिए पूरे देश में एक जैसे श्रम क़ानून नहीं हैं। न्यूनतम मज़दूरी, काम के घण्टे और सामाजिक सुरक्षा के कुछ क़ानून यदि काग़ज़ पर मौजूद भी हैं तो उनका कोई पालन नहीं होता। ‘खेतिहर मज़दूरों और ग्रामीण श्रमिकों पर राष्ट्रीय आयोग’ (नेशनल कमीशन ऑन एग्रीकल्चरल वर्कर्स एण्ड रूरल लेबर) की रिपोर्ट की सिफ़ारिशें वर्षों से फ़ाइलों में दबी पड़ी हैं।
खेत मज़दूरों से एकता की अपील करने वाले किसानों के संगठन यह माँग क्यों नहीं उठाते कि खेत मज़दूरों और सभी ग्रामीण मज़दूरों के लिए व्यापक, सांगोपांग क़ानून बनाने का वर्षों पुराना वायदा केन्द्र सरकार जल्द से जल्द पूरा करे। इस क़ानून के द्वारा गाँव के सभी मज़दूरों को वेतन, काम के घण्टे, काम की परिस्थितियों और सामाजिक सुरक्षा विषयक वे सभी अधिकार एवं सुविधाएँ प्रदान की जायें जो शहरी असंगठित मज़दूरों के विभिन्न हिस्सों को हासिल हों।
दरअसल, कई राज्य सरकारें धनी किसानों-फ़ार्मरों और ग्रामीण अभिजात वर्ग के दबाव के चलते ऐसे किसी भी क़ानून का विरोध करती रही हैं। कुछ इसे अव्यावहारिक बताती रही हैं जबकि केरल में पहले से ही ऐसा एक क़ानून लागू है (हालाँकि वह नाकाफ़ी है और उसके अमल में भी काफ़ी कमियाँ हैं)।
खेत मज़दूरों और सभी तरह के ग्रामीण मज़दूरों के पंजीकरण, न्यूनतम मज़दूरी, पेंशन, पी.एफ., ई.एस.आई., सहित हर प्रकार की सामाजिक सुरक्षा, काम के निर्धारित घण्टे, आवास आदि सुविधाएँ सुनिश्चित करने के लिए श्रम विभाग में केन्द्र और राज्यों के स्तर पर अलग से, ऊपर से नीचे तक प्रकोष्ठ बनाये जाने चाहिए या फिर ग्रामीण मज़दूरों से सम्बन्धित श्रम क़ानूनों के अमल की निगरानी और विवादों के निपटारे के लिए अलग से विभाग बनाया जाना चाहिए।
ग्रामीण मज़दूरों के लिए विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं के लिए ज़िला स्तर पर ‘ग्रामीण मज़दूर कल्याण कोष’ की स्थापना की जानी चाहिए जिसके लिए धन मुख्यत: भूस्वामियों और विभिन्न ग्रामीण उद्योगों के मालिकों और कॉण्ट्रैक्टरों के योगदान से जुटाया जाना चाहिए। इस मद में धन का एक भाग सरकार को देना चाहिए तथा एक छोटा हिस्सा ग्रामीण मज़दूरों के योगदान से जुटाया जाना चाहिए। भूस्वामियों से प्रति एकड़ भूमि पर या प्रति कुन्तल उत्पादन पर सेस या विशेष लेवी लगाकर तथा उद्योग स्वामियों पर उत्पादकता की दृष्टि से सेस या विशेष लेवी लगाकर कल्याण कोष के लिए धन जुटाया जाना चाहिएा।
2001 में कृषि मज़दूरों की सामाजिक सुरक्षा के लिए ‘कृषि श्रमिक सामाजिक सुरक्षा योजना’ शुरू की गयी थी लेकिन यह महज़ काग़ज़ी शिगूफ़ा बनकर रह गयी है। इसे प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए आवश्यक धन का इन्तज़ाम, अमल में लाने वाली एजेंसी की ज़िम्मेदारी-जवाबदेही तय करना और कृषि मज़दूरों की पहचान करके उनका पंजीकरण करना ज़रूरी है। इस योजना का विस्तार करके इसमें सभी ग्रामीण मज़दूरों को शामिल किया जाना चाहिए और इस पर अमल के लिए ग्रामीण मज़दूर कल्याण बोर्ड राज्य स्तर पर होना चाहिए जिसकी शाखाएँ नीचे ब्लॉक स्तर तक हों।
लेकिन ये माँगें कौन उठायेगा? अभी तो खेत मज़दूरों के तमाम संगठनों के नेता भी अपने वर्ग हितों को भूलकर धनी किसानों-कुलकों-फ़ार्मरों के आन्दोलन के पिछलग्गू बने हुए हैं।
(इकोनॉमिक एण्ड पोलिटिकल वीकली, 27 मार्च 2021 में प्रकाशित सुखपाल सिंह, मनजीत कौर और एच.एस. किंगरा की रिपोर्ट ‘पंजाब में कृषि संकट और खेतिहर मज़दूरों की आत्महत्याएँ’ पर आधारित)
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