बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले पर फ़ैसला, सभी दंगेबाज़ साम्प्रदायिक फ़ासीवादी हुए बरी
सीबीआई स्पेशल कोर्ट का न्याय ‘अँधेर नगरी’ की न्याय व्यवस्था को भी लज्जित करने वाला है!

लखनऊ की सीबीआई की स्पेशल कोर्ट ने अपने फै़सले में बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में नामज़द सभी जीवित 32 आरोपियों को दोषमुक्त करके मुक़दमे से बरी कर दिया है। कोर्ट के फ़ैसले के बाद न्यायपसन्द लोगों के ज़ेहन में नये सवाल ये उभर रहे हैं कि यदि यह कुकर्म पूर्वनिर्धारित-पूर्वनियोजित नहीं था तो फिर आडवाणी के नेतृत्व में संघी गिरोह की रथयात्राएँ किस चीज़ के लिए निकाली जा रही थी? यदि बाबरी मस्जिद को गिराया जाना तय नहीं था तो हज़ारों की तादाद में गैन्ती, छैनी, हथौड़े, दुर्मच, रस्से, कस्सी, फावड़े और तसले इत्यादि घटनास्थल तक कैसे पहुँच गये? यदि मस्जिद गिराने वाली यह भीड़ इतनी ही अराजक थी तो संघी शिविरों में कार सेवा के नाम पर ढाँचे को गिराने की ट्रेनिंग किनकी हो रही थी? यदि मंचासीन भगवा गिरोह उन्मादी भीड़ को शान्त कर रहा था तो मस्जिद को टूटता देख “एक धक्का और दो” जैसे नारे लगाकर प्रफुल्लित हो मंच पर धमाचौकड़ी कौन कर रहा था? यदि ‘लिब्रहान आयोग’ की रिपोर्ट से लेकर ‘राम के नाम’ जैसी उत्कृष्ट दस्तावेज़ी फ़िल्म तक में शामिल तमाम ऑडियो-वीडियो सबूत दोषसिद्धि के लिए अपर्याप्त हैं तो फिर घुमाने-फिराने की बजाय सीधे यही क्यों नहीं कह दिया जाता कि संघी-साम्प्रदायिक हिंसा, हिंसा न भवति! यह भी विडम्बना ही है कि मस्जिद विध्वंस मामले में क्रिमिनल कोर्ट का फ़ैसला सिविल कोर्ट के भी बाद में आया है। दोनों ही फ़ैसलों के लिये 28 साल का लम्बा इन्तज़ार करना पड़ा जिस दौरान बहुत से अपराधी तो पहले ही दुनिया से रुख़सत हो चुके हैं। और दोनों ही फ़ैसलों ने सामाजिक ताने-बाने को मिले भयंकर ज़ख़्मों को कुरेदने का काम ही किया है।
28 साल पहले, 1528 में बाबर के एक सिपहसालार मीर बाक़ी द्वारा बनवायी गयी बाबरी मस्जिद को साम्प्रदायिक फ़ासीवादियों के नेतृत्व में तैयार हुई एक उन्मादी भीड़ ने गिरा दिया था। इस घटना के तुरन्त बाद पूरा भारतीय उपमहाद्वीप दंगों की आग में धू-धू कर जल उठा था। दंगों में हज़ारों बेगुनाह लोग मारे गये थे, लाखों लोग विस्थापित हुए थे और करोड़ों-अरबों रुपये की सम्पत्ति नष्ट हुई थी। बाबरी मस्जिद विध्वंस ने भारतीय समाज के पूरे ताने-बाने और मेहनतकश जनता की एकजुटता को भयंकर आघात पहुँचाया था। यह कुकृत्य भारत के तथाकथित लोकतंत्र के इतिहास का भयंकरतम अपराध था। उस समय सुप्रीम कोर्ट ने न केवल भाजपा की कल्याण सिंह की सरकार की भूमिका पर सवाल उठाये थे बल्कि तमाम इनपुट होने के बावजूद ऐसा होने देने के लिए ख़ुद की असंगत भूमिका को भी स्वीकार किया था। बाद में बाबरी मस्जिद विध्वंस पर बने लिब्रहान आयोग के द्वारा तो संघ, भाजपा, विश्व हिन्दू परिषद, शिवसेना, बजरंग दल समेत तमाम संघी समाजविरोधी ताक़तों और इनके सरगनाओं की भूमिका पर सवाल खड़े किये गये थे और मस्जिद को गिराये जाने को बहुत बड़ा षड्यंत्र स्वीकारा था। यह अलग बात है कि लिब्रहान आयोग की ख़ोजबीन इस मामले से जुड़े न्याय में रद्दी बराबर भी काम नहीं आयी।
बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में अलग-अलग एफ़आईआर दर्ज हुई थी। इस आपराधिक कुकृत्य को अंजाम देने के लिए संघी गिरोह के विभिन्न संगठनों-मंचों समेत शिवसेना के 49 लोगों के ख़िलाफ़ नामज़द एफ़आईआर दर्ज की गयी थी। और यह केस सीबीआई को सौंपा गया था। अब 28 साल पुरानी घटना और 28 साल पुराने केस में लखनऊ की स्पेशल सीबीआई कोर्ट ने फ़ैसला सुनाते हुए लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, कल्याण सिंह, नृत्यगोपाल दास, साध्वी ऋतम्भरा सहित सभी जीवित 32 आरोपियों को बरी कर दिया है। बाक़ी 17 लोग न्याय व्यवस्था की सुस्ती-पस्ती के चलते कुदरत के हाथों मौत का शिकार हो गये थे जैसा भविष्य में इन 32 के साथ भी होने का निश्चित ही है! 
स्पेशल कोर्ट का अपने फ़ैसले में कहना है कि बाबरी विध्वंस सुनियोजित नहीं था। कोर्ट ने कहा कि अराजक तत्वों ने ढाँचा गिराया था और आरोपी नेताओं ने इन लोगों को रोकने का प्रयास किया था। स्पेशल कोर्ट ने अपने फ़ैसले में यह भी कहा है कि आरोपियों के खिलाफ पर्याप्त सबूत नहीं हैं तथा सीबीआई की तरफ़ से जुटाये गये ऑडियो और वीडियो सबूतों की प्रमाणिकता को जाँचा नहीं जा सकता है तथा न ही वे स्पष्ट हैं। मतलब इस फ़ैसले में कोर्ट ने न केवल अपराधियों को अपराधमुक्त कर दिया बल्कि उन्हें सद्भाव स्थापित करने वाला शान्ति दूत भी करार दे दिया। और यह किया कैसे? वैदिक हिंसा, हिंसा न भवति की तर्ज पर! सीबीआई की स्पेशल कोर्ट ने ‘नीरक्षीर विवेक’ करते हुए दूध का दूध और पानी का पानी तो नहीं किया है किन्तु काले को सफ़ेद और सफ़ेद को काला ज़रूर कर दिया है। इस मामले में फ़ैसला सुनाने वाले सीबीआई कोर्ट के स्पेशल जज एसके यादव एक साल पहले ही रिटायर होने वाले थे अब वे और भी अधिक सुखद भविष्य की उम्मीद के साथ शान्ति से रिटायर हो जायेंगे!
बाबरी मस्जिद विध्वंस का कुकर्म फ़ासीवादी गिरोह हेतु चुनावी राजनीति में संजीवनी बूटी सिद्ध हुआ है। चन्द सीटों पर सिमटने वाली भाजपा के लिए साम्प्रदायिक हिंसा के इस नये चरण के बाद सीटों की बहार आती गयी और यह प्रक्रिया 2014 से लेकर 2019 तक दिखती है। बाबरी मस्जिद विध्वंस के मामले में आये बाक़ी तमाम फ़ैसले भी “बहुसंख्यक की तथाकथित भावनाओं” के पक्ष में ही आये हैं। यह एक लम्बे दौर में संघ परिवार द्वारा न्यायपालिका समेत सभी पूँजीवादी निकायों के व्यवस्थित ढंग से संस्थागत फ़ासीवादीकरण का ही नतीजा और परिणति है। भारत में 1980 के दशक में पब्लिक सेक्टर पूँजीवाद अपने सन्तृप्ति बिन्दु तक पहुँच गया था और व्यवस्था का संकट बेरोज़गारी, ग़रीबी और महँगाई के रूप में और भी तेज़ी के साथ फूटने लगा था। मेहनतकश जनता का ध्यान समस्याओं के असली कारणों से भटकाने की नये सिरे से शुरुआत भी तभी हो गयी थी। असल में साम्प्रदायिक फ़ासीवादी उभार का यह अभूतपूर्व रूप से नया चरण था। इसी समय मन्दिर आन्दोलन शुरू हुआ और व्यवस्था के प्रति उभरे लोगों के ग़ुस्से को आपसी नफ़रत में तब्दील करके जनता को भयंकर दंगों की आग में झोंक दिया गया। फ़ासीवादी सत्ता कमेरों के एक-एक हक़ को छीनकर उनके ख़ून-पसीने को पूँजीपतियों की तिजोरियों में भरने का ही काम करती है और यही काम आज भारत में भी हो रहा है। जाति-मज़हब से ऊपर उठकर मेहनतकश जनता की एकजुट ताक़त ही फ़ासीवाद को हरा सकती है और हरायेगी भी। 
निश्चित रूप से बाबरी मस्जिद विध्वंस के सरगनाओं को बरी करने वाला सीबीआई की स्पेशल कोर्ट का फ़ैसला न्यायबोध के मुँह पर करारा तमाचा जड़ता है और धर्मनिरपेक्ष की भावना का मज़ाक़ बनाता है। इतिहास इस बात को याद रखेगा और हम उम्मीद करते हैं कि भविष्य में दोषियों को नहीं तो उनके राजनीतिक-वैचारिक वंशजों को सजा ज़रूर मुक़र्रर होगी।

मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2020


 

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