मोदी राज में बेरोज़गारी चरम पर पहुँची

रणवीर

इस वर्ष जनवरी में राष्ट्रीय आँकड़ा आयोग के दो सदस्यों ने इस्तीफ़ा दे दिया। इस्तीफ़ा देने वालों में आयोग के चेयरमैन भी शामिल थे। उनका दोष था कि राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण दफ़्तर के आवर्ती श्रम शक्ति (PERIODIC LABOUR FORCE) सर्वेक्षण को आयोग द्वारा मंज़ूरी दिये जाने के बावजूद मोदी सरकार उसे जारी नहीं कर रही है। इस सर्वेक्षण के मुताबिक़ वर्ष 2017-18 के दौरान भारत में बेरोज़गारी दर पिछले 45 वर्षों के मुक़ाबले सबसे ज़्यादा दर्ज की गयी है। रिपोर्ट के तथ्य लीक होने के बाद “नीति आयोग” की तरफ़ से मोदी सरकार का बचाव यह बयान देकर किया गया कि ये अभी अन्तिम नहीं है, कि आँकड़ों की अभी और पड़ताल करनी होगी। पर सच्चाई यह है कि मोदी सरकार अपनी बदनामी के डर से लोक सभा चुनाव के पहले इस रिपोर्ट को जारी नहीं करना चाहती थी। 

(राजेन्द्र धोड़पकर का कार्टून satyagrah.com से साभार)

रिपोर्ट के अनुसार 2017-18 के वित्तीय वर्ष में भारत में बेरोज़गारी दर 6.1 प्रतिशत तक पहुँच चुकी है। यह दर पिछले 45 वर्षों में सबसे ज़्यादा है। शहरी क्षेत्र में बेरोज़गारी दर ग्रामीण क्षेत्र से ज़्यादा है। शहरी क्षेत्र में यह दर 7.8 प्रतिशत और ग्रामीण क्षेत्र में 5.3 है।

युवाओं को कहीं बड़े स्तर पर बेरोज़गारी का सामना करना पड़ रहा है। वित्तीय वर्ष 2017-18 में 15 से 29 वर्षीय युवाओं में शहरी क्षेत्र में बेरोज़गारी दर 22.95 प्रतिशत और ग्रामीण क्षेत्र में 15.5 प्रतिशत थी। शहरी क्षेत्र के पुरुष युवाओं में यह दर 18.7 प्रतिशत और महिला युवाओं में 27.2 प्रतिशत थी। ग्रामीण क्षेत्र में पुरुष युवा 17.4 प्रतिशत और महिला युवा 13.6 प्रतिशत की दर से बेरोज़गारी का सामना कर रहे थे।

सन 2014 से पहले जब भारत के लोगों को बड़े स्तर पर गम्भीर आर्थिक मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा था तब मोदी की नेतृत्व में भाजपा ने इस हालत का फ़ायदा उठाते हुए लोगों से विकास के नाम पर बड़े-बड़े झूठे वादे करके ख़ूब वोटें हासिल की थीं। हर वर्ष 2 करोड़ नौकरियाँ पैदा करने का वादा किया गया। लोगों के हालात सुधारने की मोदी सरकार की न तो कोई नियत थी और ना ही ऐसा करना सम्भव था। विश्व स्तर पर आर्थिक संकट लगातार गहरा होता जा रहा है। ऐसे समय में, पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर नये रोज़गार पैदा करने की बातें लोगों को मूर्ख बनाने की कोशिश करने के सिवा और कुछ नहीं है। पूँजीपतियों के कम होते मुनाफ़े के संकट को हल करना ही इसका मक़सद था। हैरानी की बात नहीं कि पहले की सरकारों की जन-विरोधी पूँजीवाद-पक्षीय वैश्वीकरण, निजीकरण, उदारीकरण की नीतियों को ही और ज़्यादा सख्ती से लागू किया गया जिसके चलते लोगों की आर्थिक हालत और बिगड़ गयी। भाजपा के नेतृत्व वाला गठबन्धन अब फिर सरकार बनाने में सफल हो गया है। बेशक इस बार चुनाव-प्रचार में पिछली बार के मुक़ाबले हिन्दुत्वी साम्प्रदायिक प्रचार के ऊपर ज़्यादा ज़ोर दिया गया पर इस बार भी विकास के बड़े-बड़े वादे किये गये हैं। ये वादे कितने हवा-हवाई हैं बेरोज़गारी के ये आँकड़े इनकी पोल खोल रहे हैं।

मोदी सरकार की तरफ़ से की गयी जीएसटी और नोटबन्दी के बाद पहली बार बेरोज़गारी के आँकड़े एकत्र किये गये हैं। सरकार की तरफ़ से जीएसटी और नोटबन्दी के जिस तरह फ़ायदे गिनाये जा रहे थे, उनकी पोल तो पहले ही खुल चुकी है। सरकार के इन फ़ैसलों ने छोटे-स्तर के कारोबार को बड़े स्तर पर नुक़सान पहुँचाया है। इससे सम्बन्धित लाखों लोगों को बेरोज़गार किया है। पहले से ही आर्थिक बदहाली का सामना कर रहे मज़दूरों, ग़रीब किसानों और तरह-तरह के छोटे-मोटे काम करने वाले मेहनतकश लोगों की हालत सरकार के इन क़दमों ने और बिगाड़ दी है। बेरोज़गारी दर के ये आँकड़े मोदी सरकार की नीतियों के जन-विरोधी चरित्र को ही एक बार फिर सामने ला रहे हैं।

वर्ष 2017-18 के मुक़ाबले बाद में अब तक हालात सुधरने की बजाय और ख़राब हुए हैं। वित्तीय वर्ष 2017-18 में कुल घरेलू उत्पादन की विकास दर 6.8 प्रतिशत थी। पर जनवरी से मार्च 2019 के बीच कुल घरेलू उत्पादन दर 5.8 प्रतिशत ही रह गयी। इसके और भी गिरने के संकेत मिल रहे हैं। सिकुड़ते मुनाफ़ों के चलते निजी पूँजीपतियों की तरफ़ से निवेश घटा दिया गया है। वर्ष 2014 में यह निवेश कुल निवेश का दो-तिहाई था। वर्ष 2018-19 में यह घटकर 47 प्रतिशत रह गया। आमदनी के मुक़ाबले ख़र्च को कम करने के मक़सद से सरकारी निवेश में भी कटौती की गयी है। जब निवेश ही घट रहा है तो नौकरियाँ कहाँ से पैदा होंगी? लोगों की खपत शक्ति भी पहले के मुक़ाबले घटी है। निर्यात कम हो रहा है और आयात बढ़ रहा है। यह सब भारत की पूँजीवादी व्यवस्था में फैली मन्दी को दर्शाता है। इस सारी स्थिति से यह अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि आने वाले समय में बेरोज़गारी और भी ज़्यादा भयानक रूप लेने जा रही है।

मोदी सरकार अपने पिछले कार्यकाल में आर्थिकता के लगातार गहरे संकट में धँसते जाने के तथ्य को नकारने की कोशिश करती रही है। पर अब जिस स्तर पर हालात पहुँच चुके हैं, उनको स्वीकार करने के सिवा दूसरा कोई विकल्प नहीं है। मई की शुरुआत में प्रधानमन्त्री मोदी की आर्थिक सलाहकार परिषद के सदस्य रथिन राय ने एनडीटीवी को दिये एक बयान में कहा कि भारत की आर्थिकता गम्भीर आर्थिक संकट की तरफ़ बढ़ रही है। हाल ही में 22 जून को प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने 45 अर्थशास्त्रियों के साथ मुलाक़ात की है। इस मुलाक़ात में आर्थिकता की बिगड़ती हालत को सुधारने, बेरोज़गारी को क़ाबू करने जैसे मुद्दों पर विचार-चर्चा की गयी है।

मोदी सरकार अपने दूसरे कार्यकाल में भी वैश्वीकरण-उदारीकरण-निजीकरण की जन-विरोधी नीतियों को और सख्ती और तेज़ी से आगे बढ़ायेगी। पूँजीपति वर्ग ने केन्द्र में फिर से मोदी/भाजपा को इसीलिए मौक़ा दिया है। दूसरी बार मोदी सरकार के बनने के एक हफ़्ते के बाद ‘नीति आयोग’ के उप-मुखी राजीव कुमार ने राइटर्ज़ समाचार एजेंसी को दिये एक बयान में सरकार के पहले 100 दिनों के एजेण्डे के बारे में बताते हुए कहा कि सरकार श्रम क़ानूनों में बदलाव, सरकारी संस्थाओं के निजीकरण और पूँजीपतियों के लिए भूमि बैंक बनाने के एजेण्डे को लागू करेगी। श्रम क़ानूनों में बदलाव के चलते श्रमिकों के रोज़गार की असुरक्षा और बढ़ेगी। पूँजीपतियों को मज़दूरों को अपनी मर्ज़ी से काम से निकालने और बड़े स्तर पर छँटनी का क़ानूनी हक़ मिल जायेगा। सरकारी संस्थाओं के निजीकरण का नतीजा हमेशा से इन संस्थाओं में काम करते श्रमिकों की बड़े स्तर पर छँटनी में निकलता रहा है। मोदी सरकार का इस नीति को आगे बढ़ाने का अर्थ होगा बेरोज़गारी का और बढ़ना।

पूँजीवादी व्यवस्था के अन्दर लगातार बड़ी पूँजी छोटी पूँजी को निगलती रहती है। इस कारण शहरी क्षेत्र में छोटे-मोटे काम-धन्धे करने वाले लोग और खेती में बड़े स्तर पर छोटे किसान और छोटे धन्धे वाले लोग कंगाल होते रहते हैं और मज़दूरों की क़तारों में शामिल होते रहते हैं। औद्योगिक और खेती क्षेत्र में मशीनीकरण के चलते बड़ी संख्या में मज़दूर बेरोज़गार होते रहते हैं। जितनी तेज़ी के साथ रोज़गार हासिल करने वाले लोगों की संख्या बढ़ती है, औद्योगिक विकास उतनी तेज़ी से रोज़गार पैदा नहीं करता। इसलिए पूँजीवादी व्यवस्था के अन्दर लोगों का एक हिस्सा हमेशा बेरोज़गार ही रहता है। बेरोज़गारी की यह स्थिति पूँजीपतियों के लिए फ़ायदेमन्द साबित होती है क्यूँकि जितने ज़्यादा मज़दूर रोज़गार के लिए क़तारों में खड़े होंगे, पूँजीपति उजरतों को तय करने की सौदेबाजी में अपना पक्ष उतना ही मज़बूत करने में सफल होते हैं। पूँजीवादी आर्थिकता के तेज़ विकास के दौरान लोगों को अपेक्षाकृत कम बेरोज़गारी का सामना करना पड़ता है। पर लगातार मुनाफ़े की दर के सिकुड़ने के चलते पैदा हुए अतिरिक्त उत्पादन के आर्थिक संकट के दौर में बेरोज़गार लोगों की संख्या बड़े स्तर पर बढ़ती है। बड़े-बड़े कारोबार औंधे मुँह गिर पड़ते हैं। कारख़ाने बन्द होते हैं या चल रहे कारख़ानों में भी बड़े स्तर पर मज़दूरों की छँटनी होती है। छोटा-मोटा काम-धन्धा करने वालों, ग़रीब किसानों, छोटे दुकानदारों आदि का उजाड़ा और तेज़ हो जाता है। पूँजी और अधिक मुट्ठी भर हाथों में केन्द्रित हो जाती है जिसके चलते आने वाले समय में और बड़े आर्थिक संकट का आधार तैयार होता है। कोई भी सरकार पूँजीवादी ढाँचे को इस संकट से मुक्ति नहीं दिला सकती। पूँजीवादी व्यवस्था के अन्दर आर्थिक संकट अटल होते हैं और बेरोज़गारी, ग़रीबी का बढ़ना भी अटल होता है। इस आर्थिक व्यवस्था का ख़ात्मा और समाजवादी आर्थिक ढाँचे का निर्माण ही समाज को इस आर्थिक संकट से मुक्त करा सकता है। आर्थिक मन्दी से निपटने के लिए सरकारों की तरफ़ से भी लोगों के लिए किये जाते ख़र्च में कटौती की जाती है। आम जनता के ऊपर करों का बोझ और अधिक बढ़ाया जाता है। पूँजीपतियों के और बड़े स्तर पर क़र्ज़ माफ़ किये जाते हैं और उन्हें सरकारी ख़ज़ाने में से और बड़े तोहफ़े दिये जाते हैं, करों पर बड़ी छूटें दी जाती हैं। इस सबके चलते लोगों में पूँजीपति वर्ग और सरकारी प्रबन्ध के ि‍ख़‍लाफ़ असन्तोष बढ़ता है, बदलाव की इच्छा मज़बूत होती है, क्रान्तिकारी शक्तियों के तेज़ विकास का आधार तैयार होता है। एेसी स्थिति में पूँजीपति वर्ग को यह ज़रूरत महसूस होती है कि लोगों के ऊपर ज़ुल्म को तेज़ किया जाये। सत्ता फ़ासिस्टों के हाथ सौंप देने की कोशिश होती है।

अब जब भारत समेत सारे विश्व में आर्थिक संकट के बादल छाये हुए हैं, एेसी स्थिति में हिन्दुत्ववादी साम्प्रदायिक फ़ासीवादी पार्टी भाजपा को आगे लेकर आना भारत के अन्दर पूँजीपति वर्ग की अटल ज़रूरत है। मोदी/भाजपा/संघ परिवार को संकटमोचक मानते हुए पूँजीपति वर्ग ने एक बार फिर उन्हें सत्ता सौंप दी है। बेरोज़गारी और लोगों की और आर्थिक समस्याओं को दूर करना ना तो इस सरकार का मक़सद था और ना ही ये उनके लिए सम्भव था। पाँच सालों के पिछले कार्यकाल के दौरान फ़ासीवादी हुकूमत ने जनता के ऊपर आर्थिक संकट का बोझ बड़े स्तर पर डाला है और साथ ही लोगों के ग़ुस्से से निपटने के लिए ज़ुल्म तेज़ किया है। संघ परिवार ने समाज में बड़े स्तर पर साम्प्रदायिकता फैलाकर लोगों की ताक़त को कमज़ोर करके पूँजीपतियों की सेवा की है।

ये कारण हैं जिनके चलते बेरोज़गारी इतने बड़े स्तर तक फैल चुकी है और मोदी सरकार के तमाम दावों-वादों के बावज़ूद घटने की बजाय लगातार बढ़ती ही जा रही है। यह भी स्पष्ट है कि आने वाले समय में बेरोज़गारी की समस्या और भी गम्भीर रूप धारण करने वाली है। एेसी स्थिति में सरकार की बेरोज़गारी पैदा करने वाली जन-विरोधी नीतियों के ि‍ख़लाफ़ बेरोज़गारों समेत युवाओं, श्रमिकों को ज़ोरदार संगठित अधिकारपूर्ण संघर्ष की राह पर चलना होगा, हर हाथ को रोज़गार की माँग के तहत बड़ा जनान्दोलन संगठित करना होगा, जनता की एकता को कमज़ोर करने वाली साम्प्रदायिक आँधी का विरोध करना होगा, जनता के आपसी भाईचारे को मज़बूत बनाना होगा।

 

 

 

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2019


 

‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!

 

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये

पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये

आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

   
ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020 बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

आर्थिक सहयोग भी करें!

 
प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गए बटन पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।
   
 

Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन

Related Images:

Comments

comments