बेरोज़गारी क्यों पैदा होती है और इसके विरुद्ध संघर्ष की दिशा क्या हो

 सत्यम

भारत में बेरोज़गारी तेजी से बढ़ रही है। करोड़ों मज़दूर और पढ़े-लिखे नौजवान, जो शरीर और मन से दुरुस्त हैं और काम करने के लिए तैयार हैं, उन्हें काम के अवसर से वंचित कर दिया गया है और मरने, भीख माँगने या अपराधी बन जाने के लिए सड़कों पर धकेल दिया गया है। आर्थिक संकट के गहराने के साथ हर दिन बेरोज़गारों की तादाद में बढ़ोत्तरी होती जा रही है। बहुत बड़ी आबादी ऐसे लोगों की है जिन्हें बेरोज़गारी के आँकड़ों में गिना ही नहीं जाता लेकिन वास्तव में उनके पास साल में कुछ दिन ही रोज़गार रहता है या फिर कई तरह के छोटे-मोटे काम करके भी वे मुश्किल से जीने लायक कमा पाते हैं। हमारे देश में काम करने वालों की कमी नहीं है, प्राकृतिक संसाधनों की कोई कमी नहीं है, जीवन के हर क्षेत्र में बुनियादी सुविधाओं के विकास और रोज़गार के अवसर पैदा करने की अनन्त सम्भावनाएँ मौजूद हैं, फिर भी इस क़दर बेरोज़गारी क्यों मौजूद है?

क्यों है इतनी बेरोज़गारी

बेहिसाब तकलीफ़ें, बदहाली और मौत लेकर आने वाली इस भयंकर समस्या से मज़दूर वर्ग कैसे लड़ सकता है? इस सवाल के जवाब से पहले यह ज़रूरी है कि समस्या को अच्छी तरह समझ लिया जाये, और उन शक्तियों को जान लिया जाये जो यह संकट पैदा करती हैं।

बेरोज़गारी पूँजीवादी समाज की एक ”सामान्य” घटना है। इसके कारणों को समझने के लिए पहले इस तथ्य को जान लेना ज़रूरी है। ऐसे मज़दूरों की एक तादाद हमेशा मौजूद रहती है जिनके पास जीने के लिए अपनी श्रमशक्ति बेचने के अलावा और कोई साधन नहीं होता, मगर उन्हें अपनी श्रमशक्ति का कोई ख़रीदार नहीं मिलता, उन्हें कोई काम नहीं मिलता, वे ”बेरोज़गार” होते हैं। ये मज़दूर खाली पड़ी श्रमशक्ति के भंडार में शामिल हो जाते हैं। पूँजीवादी व्यवस्था मज़दूरों के शोषण के एक तरीके के रूप में इस ”औद्योगिक रिज़र्व सेना” को खड़ी करती है।

”औद्योगिक रिज़र्व सेना” पूँजीवादी व्यवस्था का बिल्कुल ”सामान्य” हिस्सा होती है। यह पूँजीवादी उत्पादन प्रक्रिया की शुरुआत से ही मौजूद रहती है और पूँजीवाद के एक अनिवार्य अंग के रूप में निरन्तर बनी रहती है। इस ”सेना” में शामिल अलग-अलग मज़दूर बदलते रहते हैं, कुछ मज़दूरों को कुछ समय के लिए काम मिलता है और वे इससे बाहर होते हैं तो दूसरे मज़दूर इसमें शामिल हो जाते हैं, लेकिन यह सेना लगातार मौजूद रहती है। इस रूप में बेरोज़गारी हर समय मौजूद रहती है, मज़दूर वर्ग पर दबाव बनाये रखती है, बेहतर मज़दूरी और हालात की माँग करने वाले मज़दूरों के विरुद्ध लगातार बनी रहने वाली धमकी का काम करती है, और हड़ताल या आन्दोलनों के समय हड़ताल तोड़ने के लिए सस्ते मज़दूरों की सप्लाई का स्रोत बन जाती है। किसी भी औद्योगिक इलाक़े में जाकर देखें तो कारख़ानों के गेट पर ‘वर्कर चाहिए’ की तख़्ती लटकती दिख जायेगी। रोज़ सुबह गेट पर मज़दूरों की भीड़ इकट्ठा होती है जिसमें से ठेकेदार या मैनेजर कम से कम पर काम कराने के लिए कुछ लोगों को चुनकर बाकी को वापस भेज देते हैं। शहरों में ‘लेबर चौक’ पर मज़दूरों की मण्डियाँ लगती हैं जिसमें खड़े होने वाले मज़दूरों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है, और काम न मिलने पर निराश वापस जाने वालों की भी तादाद पहले से बहुत ज़्यादा है। बढ़ती बेरोज़गारी का आलम यह है कि इन मज़दूर मण्डियों में अच्छी-खासी डिग्रियाँ लिये हुए नौजवान भी खड़े मिल जाते हैं।

पूँजीवादी व्यवस्था में बार-बार आने वाले आर्थिक संकटों के दौर में बेरोज़गारों की रिज़र्व सेना में भारी बढ़ोत्तरी होती है। कारख़ानों, मिलों, खदानों के बन्द होने, निर्माण की गतिविधियों में ठहराव आने, व्यापार मन्दा पड़ने के साथ ही बड़े पैमाने पर मज़दूरों-कर्मचारियों को अपने रोज़गार से हाथ धोना पड़ता है। पूँजीवाद लगातार समृद्धि–अतिउत्पादन–संकट –पुन:समायोजन–समृद्धि के चक्र से होकर गुज़रता है। संकट के दौरों में मज़दूरों पर बेरोज़गारी की मार और भी बुरी तरह पड़ती है। दुनियाभर के अर्थशास्त्री यह बता चुके हैं कि पूँजीवाद अब जिस मंज़िल में है, वहाँ संकट और मन्दी अब एक स्थायी चीज़ बन चुके हैं। बीच-बीच में संकट अति गम्भीर रूप धारण कर लेता है, लेकिन संकट से उबरकर समृद्धि और उछाल के दौर अब नहीं आते। इसी का नतीजा है कि बेरोज़गारी अब लगातार एक भीषण संकट के रूप में बनी हुई है और बीच-बीच में इससे राहत के कुछ दौर भी नहीं आने वाले। बल्कि यह संकट बीच-बीच में विस्फोटक स्थिति अख्तियार करता रहेगा, जैसाकि इस समय दिख रहा है।

पूँजीवाद का सामान्य चक्र और बेरोज़गारी

उत्पादन के साधनों से वंचित मज़दूरों की विशाल आबादी और मुट्ठीभर पूँजीपतियों के हाथों में उत्पादन के साधनों का केन्द्रीकरण पूँजीवादी व्यवस्था का आधार होता है। पूँजीपति अपने कारख़ाने में उत्पादन कराने के लिए मज़दूर की श्रम शक्ति आठ या दस घण्टे के लिए ख़रीदता है। मज़दूर को मिलने वाले श्रमशक्ति के मूल्य के बराबर उत्पादन तो मज़दूर दो या तीन घण्टे में ही कर देता है, शेष मूल्य जो वह पैदा करता है उसमें से कच्चे माल की क़ीमत, मरम्मत-मेन्टेनेंस आदि का ख़र्च निकालने के बाद बची रकम पूँजीपति का मुनाफ़ा होता है जिसका निवेश करके वह नये कारख़ाने खोलता है, नयी मशीनें लाता है। अपनी श्रमशक्ति के मूल्य से ऊपर मज़दूर जो भी पैदा करता है, जिसे पूँजीपति हड़प लेता है, उसको ‘अतिरिक्त मूल्य’ कहते हैं। इस अतिरिक्त मूल्य के एक हिस्से को पूँजीपति अपने अय्याशी भरे जीवन पर ख़र्च करता है, और बाक़ी को पूँजी में बदलकर उससे अपने कारोबार को और बढ़ाता है। इसे ‘पूँजी संचय’ कहते हैं। मज़दूर जो पैदा करता है, उस पर उसका कोई नियन्त्रण नहीं होता। पूँजीपति उसे उतना ही देता है जितने में वह ज़िन्दा रहकर, न्यूनतम ज़रूरतें पूरी करके काम करता रह सके, और मज़दूरों की नयी पीढ़ियाँ पैदा करता रह सके। पूँजीवादमें उत्पादन सामाजिक उपभोग के हिसाब से नहीं बल्कि मुनाफ़े के हिसाब से होता है। पूँजीपति कई होते हैं। उनके बीच मुनाफ़े के लिए गलाकाटू होड़ चलती रहती है। बड़ी पूँजी छोटी पूँजी को बाज़ार से उजाड़ने और हड़पने में लगातार लगी रहती है। मुनाफ़ा बढ़ाने की होड़ में पूँजीपति मज़दूरों से ज़्यादा से ज़्यादा काम कराने की तरक़ीबें निकालते हैं। मुनाफ़े की रफ़्तार बढ़ाने के लिए पूँजीपति फिर उन्नत मशीनें और नयी तकनीकें लाते हैं, कम मज़दूरों से ज़्यादा काम कराता है, बाक़ी मज़दूरों को निकाल देता है। मज़दूरों की बेरोज़गारी बढ़ने से उनकी मोल-तोल की ताक़त घट जाती है और वे पहले से भी कम मज़दूरी पर काम करने के लिए तैयार हो जाते हैं।

पूँजी संचय से हर हाल में मजदूरों की बेरोज़गारी पैदा होती है। पूँजी के जिस हिस्से को उत्पादन के साधन ख़रीदने के लिए इस्तेमाल किया जाता है उसे ‘स्थिर पूँजी’ कहते हैं और पूँजी के जिस हिस्से से मज़दूर की श्रमशक्ति ख़रीदी जाती है उसे ‘परिवर्तनशील पूँजी’ कहते हैं। पूँजीपति लगातार परिवर्तनशील पूँजी को कम करके अपना मुनाफ़ा बढ़ाने की कोशिश करता है। स्थिर पूँजी की तुलना में परिवर्तनशील पूँजी को कम करने का नतीजा होता है मशीनों द्वारा मज़दूरों को धकिया कर बाहर कर देना।

पूँजी संचय की प्रक्रिया पूँजी की कुल मात्रा बढ़ाने की प्रक्रिया भर नहीं है। इस प्रक्रिया में पूँजी के अवयवी संघटन (यानी स्थिर और परिवर्तनशील पूँजी के अनुपात) में भी बदलाव होता है और इसका मज़दूर वर्ग पर बुरा प्रभाव पड़ता है। पूँजी का संघटन उत्पादन के साधनों (कारख़ाना, मशीनें, उपकरण, कच्चा माल आदि) और श्रमशक्ति के अनुपात के रूप में दिखायी देता है। ख़रीदे गये उत्पादन के साधनों और काम पर लगाये गये मज़दूरों की संख्या के बीच एक निश्चित सम्बन्ध होता है। उदाहरण के लिए, किसी कॉटन मिल में एक मज़दूर एक दिन में एक निश्चित मात्रा में रुई का इस्तेमाल करते हुए तकलियों की एक निश्चित संख्या ही सँभाल सकता है। इस अनुपात का स्तर समाज में उत्पादन के तकनीकी स्तर, विभिन्न उत्पादन क्षेत्रों की विशेषताओं और मशीनीकरण की मात्रा पर निर्भर करता है। पूँजीवाद के विकास के दौर में पूँजी का अवयवी संघटन स्थिर नहीं रहता है। और अधिक अतिरिक्त मूल्य निचोड़ने तथा प्रतियोगिता में आगे बढ़ने के लिए पूँजीपति को हाथ से किये जाने वाले काम के लिए मशीनें लगाकर या पुरानी मशीनों की जगह नयी मशीनें लगाकर अपने कारख़ाने का तकनीकी स्तर बढ़ाना होता है। इसके लिए, पूँजीपति मशीन उपकरणों में पूँजी निवेश बढ़ाता है। नयी मशीनें लगाये जाने से मज़दूर एक निश्चित समय में ज़्यादा कच्चे माल का इस्तेमाल करके ज़्यादा उत्पादन कर सकता है, लेकिन पूँजीपति को उतनी ही मज़दूरी देनी पड़ती है। पूँजीपति को और कच्चा माल खरीदने के लिए अपनी पूँजी बढ़ानी पड़ेगी। इस तरह निरन्तर पूँजी संचय के साथ कुल पूँजी में स्थिर पूँजी का अनुपात लगातार बढ़ता रहता है जबकि परिवर्तनशील पूँजी (जिससे मज़दूर की श्रमशक्ति ख़रीदी जाती है) का अनुपात लगातार घटता जाता है।

इस स्थिति के मज़दूर वर्ग के लिए गम्भीर दुष्परिणाम सामने आते हैं। यदि पूँजी का अवयवी संघटन स्थिर रहे तो पूँजी संचय के साथ-साथ श्रमशक्ति की माँग बढ़ती है। यानी मज़दूर के लिए रोज़गार के अवसर बढ़ते हैं। पर पूँजी का अवयवी संघटन बढ़ जाने (यानी उसमें स्थिर पूँजी का हिस्सा बढ़ जाने) के बाद पूँजी संचय का परिणाम वही नहीं रह जाता है। इससे श्रमशक्ति की कुल माँग में वृद्धि हो सकती है, पर यह वृद्धि स्थिर पूँजी में वृद्धि के मुक़ाबले काफ़ी कम होगी। कुछ परिस्थितियों में श्रमशक्ति की कुल माँग पहले से कम भी हो जा सकती है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि श्रमशक्ति की माँग कुल पूँजी की मात्रा पर नहीं बल्कि परिवर्तनशील पूँजी की मात्रा पर निर्भर करती है। उदाहरण के लिए, यदि पूँजी का अवयवी संघटन 4: 1 है तो इसका मतलब यह हुआ कि कुल पूँजी के हर 1000 रुपये में से 200 रुपये मज़दूरों पर खर्च किये जा सकते हैं। लेकिन यदि पूँजी का अवयवी संघटन बढ़कर 9: 1 हो जाये तो हर 1000 रुपये में से सिर्फ़ 100 रुपये ही मजदूरों के लिए उपलब्ध होंगे। इस तरह यदि कुल पूँजी 1,00,000 से बढ़कर 1,50,000 रुपये भी हो जाये, तो भी परिवर्तनशील पूँजी का हिस्सा 20,000 से घटकर 15,000 रुपये हो जायेगा। इससे पता चलता है कि पूँजी के अवयवी संघटन में वृद्धि मजदूरों के लिए रोज़गार के अवसर कम कर देती है। पूँजीवादी समाज में, मज़दूर वर्ग मशीनें बनाता है। पर जब ये मशीनें पूँजीपति द्वारा इस्तेमाल की जाती हैं तो बड़ी संख्या में मज़दूर बेरोज़गार हो जाते हैं। पूँजीपति द्वारा आधुनिक सिलाई मशीनें अपनाये जाने से बहुत से सिलाई मजदूर बेरोज़गार हो गये। पैकिंग मशीनें अपनाये जाने से बहुत से पैकिंग मज़दूर सड़क पर आ गये। कंप्यूटरों ने बहुत से लोगों को बेरोज़गार कर दिया। पहले जिन कामों में 5 या 10 मज़दूर लगते थे, आधुनिक कारख़ानों में अब वही काम एक मज़दूर अकेले करता है। पूँजीवाद की विकास प्रक्रिया के दौरान तकनीकों में सुधार और पूँजी के अवयवी संघटन में वृद्धि के साथ-साथ मज़दूरों के लिए रोज़गार के अवसर कम होते जाते हैं और बेरोज़गारी बढ़ती है। इसको मशीनों द्वारा मजदूरों का निष्कासन कहते हैं। इसी का नतीजा है कि ”विकास” तो होता रहता है लेकिन आम मेहनतकश आबादी के जीवन में बदहाली कम होने के बजाय बढ़ती जाती है। इसी को विश्व बैंक जैसी पूँजीवादी संस्थाएँ ”रोज़गार विहीन विकास” का नाम देती हैं।

पूँजी के अवयवी संघटन में वृद्धि श्रमशक्ति की माँग में सापेक्षिक कमी ला देती है। लेकिन पूँजी संचय बढ़ने के साथ श्रमशक्ति की आपूर्ति बहुत अधिक बढ़ जाती है। पूँजीवादी उत्पादन तकनीकों के विकास और मशीनों के व्यापक तौर पर अपनाये जाने से कई श्रम कार्य इतने आसान बन गये कि बहुत-सी औरतें और बच्चे भी भाड़े के मजदूरों की जमात में शामिल हो सकते थे। पूँजीपति उन्हें काम पर रखना पसन्द करते थे क्योंकि उनसे कम मज़दूरी पर काम कराया जा सकता था। इसके साथ ही पूँजीवादी उत्पादन के फैलाव के साथ बड़ी संख्या में छोटे माल उत्पादक और छोटे पूँजीपति दिवालिया हो जाते हैं और अपनी श्रमशक्ति बेचने के लिए मजबूर हो जाते हैं। छोटे व्यापारी, छोटे दुकानदार आदि को पूँजी लगातार उजाड़ती रहती है। ग्रामीण क्षेत्रों में पूँजीवाद का विकास बड़ी संख्या में किसानों को भी कंगाल बना देता है जो आजीविका कमाने के लिए शहरों में उमड़ पड़ते हैं। इन सब कारणों से श्रमशक्ति की आपूर्ति बहुत अधिक बढ़ जाती है।

पूँजीवादी समाज मेंअतिरिक्तयाफालतूआबादी

इस प्रकार, एक ओर श्रमशक्ति की माँग में सापेक्षिक रूप से कमी आती है, दूसरी ओर श्रमशक्ति की आपूर्ति बहुत अधिक बढ़ जाती है। नतीजा यह होता है कि पूँजीवादी समाज में हर समय बेरोज़गारों की एक बड़ी जमात मौजूद रहती है जो ”सापेक्षिक अतिरिक्त आबादी” होती है। यह तथाकथित सापेक्षिक अतिरिक्त आबादी केवल पूँजीवादी माँग के सन्दर्भ में ”अतिरिक्त” या ”फालतू” होती है। इसका यह मतलब नहीं होता कि आबादी इतनी ज़्यादा हो गयी है कि समाज द्वारा पैदा किये जा रहे आजीविका के साधन उसके लिए पर्याप्त नहीं हैं। वास्तव में निरपेक्ष अतिरिक्त आबादी जैसी कोई चीज़ हो ही नहीं सकती क्योंकि व्यक्ति के पास सिर्फ़ खाने के लिए मुँह ही नहीं होता, उसके पास दो हाथ भी होते हैं जिनसे वह भौतिक सम्पदा उत्पन्न कर सकता है। जब मेहनतकश जनता के हाथों में समाज की बागडोर होगी, तो वह आजीविका के और अधिक साधन पैदा करने के लिए उत्पादन को इस तरह से उन्नत और विस्तारित करेगी जिससे आम आबादी का जीवनस्तर ऊपर उठेगा। दुनिया के कई देशों में अतीत में ऐसा हो भी चुका है। केवल पूँजीवादी समाज में, जहाँ मज़दूरों की किस्मत उनके अपने हाथों में नहीं होती और मशीनों को पूँजी के रूप में इस्तेमाल किया जाता है, मज़दूरों को सापेक्षिक अतिरिक्त आबादी के रूप में विस्थापित कर दिया जाता है।

पूँजीवादी समाज में अतिरिक्त आबादी के तीन मूल रूप होते हैं। पहला, सचल अतिरिक्त आबादी। यह वह बेरोज़गार आबादी होती है जो उत्पादन प्रक्रिया में अस्थायी तौर पर विस्थापित कर दी गयी है। इस प्रकार की बेरोज़गार आबादी औद्योगिक केन्द्रों में सबसे ज़्यादा होती है। आर्थिक संकटों के दौर में या नयी मशीनें और नयी तकनीकें अपनाये जाने पर कुछ मज़दूर विस्थापित हो जाते हैं। कारख़ानों में माँग बढ़ने पर बहुत से मज़दूरों को काम पर रखा जाता है और माँग घटते ही उन्हें निकालकर बाहर कर दिया जाता है। ज़्यादातर लोग कभी रोज़गार पाते हैं तो कभी सड़क पर आ जाते हैं। पिछले 25-30 वर्षों में निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों में सबसे ज़्यादा ज़ोर इसी बात पर रहा है कि मालिकों को मनचाहे ढंग से मज़दूरों को काम पर रखने और निकालने का अधिकार होना चाहिए। आजकल कारख़ानों में ही नहीं, रेलवे, डाक-तार जैसे सरकारी विभागों से लेकर बैंकों तक में करोड़ों मज़दूर और कर्मचारी पूरी तरह नियोक्ताओं के रहमो-करम पर होते हैं, जिन्हें कभी भी निकालकर सड़क पर धकेला जा सकता है।

दूसरा है, छिपी हुई अतिरिक्त आबादी, यानी ग्रामीण क्षेत्रों में अतिरिक्त आबादी। कृषि उत्पादन के पूँजीवादीकरण और पूँजी के अवयवी संघटन में वृद्धि के बाद कृषि मजदूरों की माँग भी घटती जाती है। इससे भी बढ़कर यह कि कृषि में श्रमशक्ति का यह विस्थापन निरपेक्ष होता है। जब तक और नयी ज़मीन कृषियोग्य न बनायी जाये तबतक और श्रमशक्ति नहीं खप सकती। पूँजीवादी कृषि द्वारा विस्थापित मज़दूरों में से बहुत से मज़दूर शहरों में चले जाते हैं। दूसरे ज़मीन के छोटे-से टुकड़े से चिपके रहते हैं और साथ में इधर-उधर के काम करके पेट पालते हैं। वे स्वरूप में बेरोजगार भले न हों पर कृषि उत्पादन के लिए तो वे ”फालतू” बना दिये गये होते हैं। इसे छिपी हुई अतिरिक्त आबादी कहते हैं।

तीसरा है, स्थिर अतिरिक्त आबादी। ये लोग अस्थायी क़िस्म के कामकाज या इधर-उधर के छोटे-मोटे काम करते हैं। उपलब्ध श्रमशक्ति का एक हिस्सा होते भी उनका कोई स्थायी पेशा नहीं होता। आमतौर पर उनके काम के घण्टे बहुत ज़्यादा और मज़दूरी बहुत कम होती है। उनका जीवनस्तर मज़दूर वर्ग के औसत जीवन स्तर से काफ़ी नीचे होता है। आज हमारे देश में ऐसे ”अर्द्ध-बेरोज़गारों” की तादाद करोड़ों में है और बढ़ती जा रही है।

पूँजीवादी समाज में, ”फालतू” आबादी के इन तीन रूपों के अलावा बेहद ग़रीब लोगों की एक बहुत बड़ी संख्या होती है जो दूसरों की दया पर निर्भर रहते हैं और भीख माँगकर गुज़ारा करते हैं। इनमें बूढ़े, कमज़ोर, विकलांग, अनाथ और बेघर लोग शामिल होते हैं जो विभिन्न कारणों से श्रम करने की क्षमता खो चुके होते हैं। ये सापेक्षिक अतिरिक्त आबादी की सबसे निचली पायदान पर होते हैं और इनकी दशा सबसे ख़राब होती है।

सापेक्षिक अतिरिक्त आबादी पूँजी संचय का अपरिहार्य परिणाम है। लेकिन, साथ ही, ये लोग पूँजी संचय में एक औज़ार, यहाँ तक कि पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली के बने रहने और इसके विकास की एक शर्त भी बन जाते हैं। पूँजीपति बेरोज़गार मज़दूरों की मौजूदगी को काम पर लगे हुए मज़दूरों का शोषण-उत्पीड़न बढ़ाने के लिए ‘ट्रम्प कार्ड’ के रूप में इस्तेमाल करता है। पूँजीपतियों और उनके चाकरों के मुँह से ऐसी बातें अक्सर सुनी जा सकती हैं : ”सौ मज़दूरों का इंतज़ाम करने से ज़्यादा मुश्किल है सौ कुत्ते ढूँढ़ना।” या, ”इतने पर काम नहीं करना है, तो भाग जाओ, बाहर एक के बदले दस खड़े हैं लाइन में।” पूँजीपति इतना आक्रामक क्यों है? क्योंकि कारख़ाने के गेट के बाहर हज़ारों हज़ार बेरोज़गार मज़दूर मौजूद हैं। पूँजीपति कारख़ाने के अन्दर के मजदूरों को धमकाने और उनकी मज़दूरी कम करने के लिए इन बेरोज़गारों का इस्तेमाल करता है। इसके साथ ही पूँजीवाद होड़ और अराजकता के बीच ही विकसित होता है और अचानक सिकुड़ने या फैलने के दौर इसकी ख़ासियत होते हैं। जब उत्पादन अचानक बढ़ता है तो पूँजीपति की श्रम की माँग श्रमशक्ति में स्वाभाविक रूप से होने वाली वृद्धि से पूरी नहीं हो पाती। तब पूँजीपति को श्रमशक्ति के ”सुरक्षित भंडार” की ज़रूरत होती है। सापेक्षिक अतिरिक्त आबादी ऐसे ”सुरक्षित भंडार” का काम करती है। इसी अर्थ में पूँजीवादी समाज में बेरोज़गारों की विशाल फौज को औद्योगिक रिज़र्व सेना कहा जाता है। पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली का अस्तित्व और विकास इसके बिना नहीं हो सकता।

जनसंख्या के कारण बेरोज़गारी का फ़र्ज़ी सिद्धान्त

पूँजीवादी समाज में बेरोज़गारों की फ़ौज पूँजीपति के लिए एक ‘अच्छी’ चीज़ है क्योंकि यह शोषण में मदद करती है। पर यह उसके लिए शर्मिन्दगी का विषय भी है क्योंकि इसके कारण उसका तथाकथित सभ्य देश असभ्य दिखायी पड़ता है। साथ ही, जनता सबको रोज़गार देने की माँग उठाकर सरकार को मुश्किल में भी डाल सकती है। इस स्थिति से उबरने के लिए बुर्जुआ वर्ग की सेवा में लगे कुछ बुद्धिजीवियों ने पूँजीवादी व्यवस्था को सही ठहराने के लिए कई फ़र्ज़ी सिद्धान्त गढ़े। उन्नीसवीं शताब्दी के शुरू में एक अंग्रेज़ अर्थशास्त्री माल्थस द्वारा दिया गया ”जनसंख्या का सिद्धान्त” भी ऐसा ही एक फ़र्ज़ी सिद्धान्त था।

माल्थस ने एक धूर्ततापूर्ण तर्क प्रस्तुत किया। उसने कहा कि जनसंख्या ज्यामितीय क्रम में (1, 2, 4, 8…) बढ़ती है जबकि आजीविका के साधन अंकगणितीय क्रम में (1, 2, 3, 4…) बढ़ते हैं। उसने तर्क दिया कि ”फालतू” आबादी, बेरोज़गारी और जनता की ग़रीबी का मूलभूत कारण यही है। इस तर्क का मकसद यह समझाना था कि बेरोज़गारी और ग़रीबी पूँजीवादी व्यवस्था की बुराइयाँ नहीं बल्कि प्रकृति के नियम का परिणाम है। माल्थस के अनुसार युद्ध और महामारियाँ मानव समाज के लिए वरदान हैं। युद्धों और महामारियों में बड़ी संख्या में लोग मरते हैं जिससे फालतू आबादी के नकारात्मक प्रभाव कम होते हैं और जनसंख्या में वृद्धि आजीविका के साधनों में वृद्धि के अधिक अनुकूल हो जाती है।

लेकिन तथ्य तर्कों से ज़्यादा ताक़तवर होते हैं। माल्थस के प्रतिक्रियावादी ”जनसंख्या के सिद्धान्त” में ज़्यादा दम नहीं है। जनसंख्या में ज्यामितीय वृद्धि और आजीविका के साधनों में अंकगणितीय वृद्धि दिखाने वाला यह फ़र्ज़ी विज्ञान अस्तित्व में कैसे आया? दरअसल हुआ यह था कि माल्थस ने एक ख़ास दौर में अमेरिका की जनसंख्या में हुई वृद्धि को जनसंख्या वृद्धि की दर का आधार बनाया। उसने एक ख़ास दौर में फ्रांस में खाद्यान्न उत्पादन में हुई वृद्धि को आजीविका के साधनों में वृद्धि की दर का आधार बनाया। उस समय अमेरिका की जनसंख्या में तेजी से हुई वृद्धि का कारण जनसंख्या की स्वाभाविक बढ़त नहीं था बल्कि बड़ी संख्या में आप्रवासियों के आने जैसे कारण इसके लिए ज़िम्मेदार थे। जहां तक फ्रांस के खाद्यान्न उत्पादन का सवाल है, यदि इसकी तुलना फ्रांस की जनसंख्या में हुई वृद्धि से की जाये, न कि अमेरिका की जनसंख्या वृद्धि से, तो यह जनसंख्या वृद्धि से कम नहीं, बल्कि ज़्यादा ही थी। 1760 में फ्रांस की जनसंख्या 21 लाख थी। प्रति व्यक्ति औसत खाद्यान्न उत्पादन 450 लीटर था। अस्सी वर्ष बाद 1840 में फ्रांस की जनसंख्या बढ़कर 34 लाख हो गयी, यानी इसमें 62 प्रतिशत की वृद्धि हुई। पर खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि उससे भी तेज़ गति से हुई। 1840 में फ्रांस  में प्रति व्यक्ति औसत खाद्यान्न उत्पादन 832 लीटर था यानी इसमें 85 प्रतिशत की वृद्धि हुई। कई अन्य पूँजीवादी देशों के आँकड़ों से स्पष्ट है कि जनसंख्या में वृद्धि आजीविका के साधनों में वृद्धि से ज़्यादा नहीं थी। इसके विपरीत, आजीविका के साधनों में वृद्धि जनसंख्या वृद्धि से कहीं ज़्यादा थी। फिर भी मेहनतकश जनता बेहद ग़रीब थी और उसकी दशा शोचनीय थी। तथाकथित निरपेक्ष अतिरिक्त आबादी के तर्क से पूँजीवादी व्यवस्था की बुराइयों को ढँकने की माल्थस की कोशिश एक निष्फल प्रयास था। लेकिन अशिक्षा और नाजानकारी के कारण हमारे देश में अब भी बहुत बड़ी आबादी इस तर्क से प्रभावित है और मानती है कि बेरोज़गारी तथा ग़रीबी का कारण यह पूँजीवादी व्यवस्था नहीं, बल्कि देश की बढ़ती आबादी है।

बेरोज़गारी के विरुद्ध संघर्ष

कोई भी पूँजीवादी सरकार रोज़गार को मौलिक अधिकार का दर्जा नहीं देती है। आप रोज़गार की माँग पर सरकार को अदालत में नहीं घसीट सकते हैं। लेकिन पूँजीवादी लोकतंत्र के बुनियादी उसूलों के अनुसार भी हर नागरिक के लिए रोज़ी-रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ्य और शिक्षा का इन्तज़ाम सरकार की ज़िम्मेदारी है। हालाँकि पूँजीवाद के संकटग्रस्त होने और मेहनतकशों के आन्दोलन के कमज़ोर होते जाने के साथ ही सरकारों ने अपनी इस ज़िम्मेदारी से पीछा छुड़ाना शुरू कर दिया है। इसलिए बेरोज़गारी के सवाल पर एक सशक्त और व्यापक आन्दोलन खड़ा करना ज़रूरी है जो हर नागरिक के लिए रोज़गार की व्यवस्था करने की सरकार की ज़िम्मेदारी पर ज़ोर दे।

ज़ाहिर है, रोज़गार का मतलब सबके लिए सरकारी नौकरी नहीं होता, जैसाकि कुछ लोग इसे पेश करते हैं। हमारे देश जैसी स्थिति में तो लाखों-लाख की संख्या में खाली पड़े पदों पर भरती करने, बन्द पड़े कारख़ानों, खदानों आदि को शुरू कराने, सार्वजनिक निर्माण के जनोपयोगी कामों को शुरू कराने, ठेकेदारी व्यवस्था को ख़त्म करके नियमित रोज़गार देने, बाल श्रम को खत्म करने, हर क्षेत्र में उचित न्यूनतम मज़दूरी को सख़्ती से लागू कराने, बेरोज़गारों को जीवनयापन लायक बेरोज़गारी भत्ता देने जैसी माँगों को पुरज़ोर ढंग से उठाने की ज़रूरत है। साथ ही, इस संघर्ष को पूरी पूँजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध व्यापक संघर्ष से जोड़ने के लिए निरन्तर राजनीतिक प्रचार और शिक्षा के काम को चलाने की भी ज़रूरत है।

मज़दूर बिगुल, फ़रवरी 2018


 

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