वज़ीरपुर की फैक्ट्रियों में एक दिन में दो मज़दूरों की मौत!
हमारी लाशों पर मालिकों के आलीशान बंगले और गाड़ियां खड़ी हैं!
सुरक्षा के इंतज़ाम हासिल करने की लड़ाई मज़बूत करो! यूनियन के सुरक्षा इंतज़ाम अभियान को मजबूत करो!

मज़दूर बिगुल

2016-08-04-dli-wazirpur-union-meet-2-worker-death-15

घटना को लेकर यूनियन द्वारा जारी पर्चा

31 जुलाई को वज़ीरपुर की दो फैक्ट्रियों में दो मज़दूरों की मौत हो गयी। इन दोनों मौतों के बाद भी हर ओर मुर्दा शान्ति थी। ए 127 के मालिक ने अपनी फैक्ट्री में मज़दूर की लाश को आधे घंटे तक रखा जब तक कि वहां एम्बुलेंस नहीं आयी और वहां अपनी गाडी होने के बावजूद धर्मेंद्र को अस्पताल नहीं लेकर गया। क्योंकि उसकी गाडी खून से गन्दी हो सकती थी। फैक्ट्री के मज़दूर कुछ नहीं कर पाए। सुंदरलाल अस्पताल में उसे मुर्दा घोषित कर दिया गया। मालिक ने फैक्ट्री में फैले खून को अपने गार्डों से साफ़ करवाया और आराम से फैक्ट्री के बाहर घूमता रहा। दिल्ली इस्पात उद्योग मज़दूर यूनियन के कार्यकर्ता जब फैक्ट्री पर पहुंचे तब वहां फैक्ट्री गेट पर झगड़ा होने लगा तब मालिक वहां से नदारद हुआ और उसने फैक्ट्री से सभी मज़दूरों की छुट्टी करवा दी। कुछ मज़दूर यूनियन कार्यकर्ताओं से मिले तो भी तो डरते रहे। यूनियन कार्यकर्ता सनी ने पुलिस को फ़ोन कर फैक्टरी पर बुलवाया उसके बाद भी बमुश्किल ही पुलिस फैक्टरी आने को तैयार हुयी। पुलिस ने फैक्टरी मालिक के खिलाफ केस तो दर्ज कर लिया और धर्मेन्द्र के परिवार को 4 लाख रूपए देने का वायदा कर दिया पर मालिक को थाने से ही जमानत मिल गयी और मज़दूर परिवार को भी पुलिस ने चेता दिया कि केस लगवाकर क्या फायदा, पैसा लेकर घर चले जाओ और इस केस को रफा दफा कर दो। केस कोर्ट जाने से पहले ही ख़त्म हो चूका है। सिर्फ कुछ लाख रूपए कीमत है मज़दूर की ज़िन्दगी की। यह भी तब जब केस दर्ज हो जाये, वर्ना यह बात भी दबा दी जाती है और कुछ हज़ार रूपए में इस मौत का सौदा हो जाता है। ए 85/3 फैक्टरी में मालिक और पुलिस यही करना चाहती थी जब प्राथमिकी में मज़दूर साथी की लाश को लावारिस घोषित कर दिया गया पर जब यूनियन के साथी और झुग्गी के लोग इकठ्ठा हुए तभी मालिक के खिलाफ पुलिस ने केस दर्ज किया। हालांकि दोनों घटनाओं में मज़दूर साथियों के परिवार को मुआवजा मिल चूका है। पर बात मुआवजे की नहीं है बल्कि सवाल यह है कि ये मौतें होती ही क्यों हैं? क्योंकि फैक्ट्रियों में सुरक्षा के इंतजाम नहीं है। मालिक अपने मुनाफे के लिए मज़दूरों को बिना हेलमेट, कलवार के खतरनाल रोलरों, प्रेस पर काम पर लगवा देता है। मालिक के लिए हमारी जान की कोई कीमत नहीं है। लेबर कोर्ट और पुलिस सरकार के लिए हमारी मौत से कोई फर्क नहीं पड़ता। सालों से बिना सुरक्षा इंतज़ामों के देश की राजधानी में मज़दूर मरते हुए, अपने शरीर के अंगों को कटवाकर मालिक की तिजोरी भरते रहते हैं। पर हम इस हालात को बदल सकते हैं। हमें पूरे इलाके में यूनियन द्वारा चलाये जा रहे सुरक्षा इंतजाम अभियान को मजबूत करना चाहिए। लेकिन इस अभियान पर बात करने से पहले कुछ और चीज़ें हैं जिनपर हमें बात करनी चाहिए। इन मौतों ने कुछ सवाल उठाये हैं जिनपर हमें सोचना होगा। ज़्यादातर मज़दूर सिर्फ मुआवजा मिलने को ही लडाई का अंत मानते हैं। फैक्टरी के अन्दर मौत होने के बाद आसपास मज़दूरों ने मालिक के खिलाफ आवाज़ नहीं उठाई। यूनियन के आने के बाद भी ज़्यादातर मज़दूर मालिक के सामने आने से डरते रहे। आज जब हमारे साथी फैक्टरी में मरते हैं तो हम चुप रहते हैं। हत्यारा फैक्टरी मालिक अपने साफ़ सफ़ेद कपड़ों में फैक्टरी के बहार चहलकदमी करता है और हम चुपचाप फैक्टरी में स्टील  के बर्तनों का उत्पादन करते हैं। पुलिस मालिक पर केस नहीं दर्ज करती है। हम चुप  रहते हैं। इन मौतों के उपर छाई हुयी ठंडी ख़ामोशी के कारण ही मालिक और पुलिस हमें हाई वे पर मरने वाला जानवर समझती है जिसकी मौत पर किसी को फर्क नहीं पड़ता है। इसका सबसे बड़ा कारण हमारी गुलाम बने रहने की आदत है। हम जब तक इस गुलामी की आदत से आज़ाद नहीं होते हैं हम यूँ ही मरते रहेंगे।

गुलाम बने रहने की आदत छोडो! मज़दूर जब भी जागा इतिहास ने करवट बदली है!

2016-08-04-dli-wazirpur-union-meet-2-worker-death-16रोम के गुलामों को राजा महाराजा अपने शौक के लिए युद्ध करवाते थे और जब तब उनमें से कोई मर न जाता वे लड़ते रहते। उन गुलामों ने विद्रोह किया और आज़ाद होने की लडाई लड़ी। फैक्टरी में हम जिस तरह से मर रहे हैं और उसके बाद जो मुर्दा शान्ति पुरे इलाके में छाई है उससे रोमन साम्राज्य के युग की गुलामी की याद आती है। लेकिन हम २१वीं सदी के मज़दूर हैं जिनके बनाये माल आज देश भर में बिकते हैं फिर हमारी ज़िन्दगी की हालात ऐसी क्यों बन रही है? हम जिस समाज में जी रहे हैं यह वर्ग समाज में इस से कभी फर्क नहीं पड़ता की आजादी के बाद कितने साल बीते हैं और मालिक मुनाफे की अंधी हवस में लगातार हमें बुरी से बुरी हालत में धकेलता जायेगा जब तक कि हम इनका विरोध नहीं करते हैं। स्टील उद्योग या चप्पल उद्योग अपने आप में नरक नहीं है बल्कि वो फैक्टरी इलाका नरक बनता है जहाँ मज़दूर मालिकों के खिलाफ संघर्ष नहीं करते हैं। पीरागढ़ी से लेकर गुडगाँव मानेसर या दार्जीलिंग के चाय बागानों में यह बात साबित हुयी है कि जहाँ मज़दूर चुप रहते हैं यूनियन के तहत लड़ते नहीं है मालिको की छटनी और सरकार की मालिक परस्त नीतियों के खिलाफ आवाज नहीं उठाते हैं, वहां मज़दूर बेहद बुरी हालात में काम करने को मजबूर होते हैं। वजीरपुर के मज़दूरों ने २०१४ की हड़ताल से यह सिद्ध किया था कि हम लड़ते हैं तो मालिक भी थर्रा जाता है और इन्हें झुकाया जा सकता है। परन्तु इन मौतों के बाद छाई खामोशी हमें तोडनी होगी और इलाके में क्रान्तिकारी यूनियन द्वारा चलाये जा रहे वजीरपुर सुरक्षा अभियान के साथ जुड़ना होगा। इस लड़ाई में अपनी चुनौतियों का सामन करना होगा।

सरकार, मालिक, श्रम विभाग, पुलिस, दलाल ट्रेड यूनियन सब  हमारी लाशों को नोचने वाले गिद्ध हैं

घटना को लेकर यूनियन की मीटिंग

घटना को लेकर यूनियन की मीटिंग

कारख़ाने में मज़दूर की मौत होने पर मालिक पर 304 ए के तहत मुकदमा दर्ज होता है और उसे थाने से ही ज़मानत मिल जाती है। अधिकतर केसों में तो मज़दूर मालिक पर दायर किये मुक़दमे को कोर्ट में नहीं लड़ते हैं और कोर्ट में केस बंद हो जाता है और यदि मज़दूर केस लड़ना भी चाहे तो कोर्ट में ये मुक़दमे 15-16 साल खींचते रहते हैं जिसमें कोर्ट का ज़ोर मज़दूर और मालिक का समझौता कराने पर ही रहता है। पुलिस इस तरह के मुक़दमे को बस कमाई का एक साधन समझती है जिसमें मालिक से पैसे खाने का मौका मिलता है। लेबर कोर्ट इस बीच गांधारी की तरह अन्धा बना रहता है और ऐसी मौतों के बारे में कभी भी कोई बात नहीं की जाती है, फैक्ट्री में सुरक्षा के इन्तज़ाम को लेकर कभी लेबर इन्स्पेक्टर आकर फैक्ट्री का मुआयना नहीं करते हैं। इलाके की दलाल ट्रेड यूनियनें इन मुकदमों में अक्सर मामले को रफ़ा-दफ़ा करवाकर कुछ मुआवज़े की लड़ाई लड़ती हैं और अपना कमीशन भी मार लेती हैं। दिल्‍ली सरकार के विधायक की खुद वज़ीरपुर में फैक्ट्रियां हैं जहाँ मज़दूरों के हाथ काटते हैं। तब समझा जा सकता है कि इनकी भूमिका क्या रहती है? वज़ीरपुर में इन मौतों के बाद इसी फार्मूला के तहत मज़दूर की मौत होने पर हर पक्ष ने अपनी यही भूमिका निभाई। पुलिस ने पहले केस रफ दफा करने की कोशिश की फिर 304 ए के तहत मुकदमा दर्ज किया, इलाके के मशहूर दलाल रघुराज और छोटे-मोटे दलालों ने इस मुआवजे की राशि तय करवाने में पुलिस और मालिक के बीच बिचौलिए की भूमिका अदा की। और हमारी मौत पर सौदे करने वाले ये लोग मज़दूरों की छंटनी, उँगली काटने से लेकर किसी भी घटना पर मज़दूर तक इन्साफ नहीं पहुँचने देते हैं। इनका यह लोहे का चक्र हर मज़दूर को अपने बीच खींच लेता है और अकेले मज़दूर या परिवार या एक फैक्ट्री के मज़दूरों को आखिरकार इनके आगे झुकना ही पड़ता है।

इस लौह चक्र को इलाकाई और सेक्टर आधार पर बनी दिल्ली इस्पात उद्योग मज़दूर यूनियन तोड़ सकती है!

अगर एक फैक्ट्री के मज़दूर चाहें भी तो मिलकर मालिक-पुलिस-दलाल-लेबरकोर्ट-सरकार की शक्ति से नहीं लड़ सकते हैं। वज़ीरपुर की एक फैक्ट्री में काम करने वाले मज़दूरों की संख्या औसतन 30 होती है और मालिक किसी भी बात पर पूरी फैक्ट्री के मज़दूरों की जगह दूसरे मज़दूरों को ला सकता है लेकिन अगर स्टील का पूरा सेक्टर जाम हो जाये या पूरे इलाके में हड़ताल हो जाये तो मालिक हमारी बात सुनाने को मजबूर होगा। यह ताकत ही इस लोहचक्र को तोड़ सकती है। यह कारनामा मज़दूरों ने 2014 में हुयी हड़ताल के समय किया था और पूरे इलाके के मालिकों, पुलिस, दलालों को घुटने पर झुकने पर मजबूर कर दिया था। आज हमें पहले तो यह करना होगी कि अपनी गुलाम बने रहने की आदत को त्यागना होगा और दूसरा लड़ने की शुरुआत करनी होगी। इस लड़ाई की शुरआत हो चुकी है पर इस लड़ाई को तब्दील करने में वज़ीरपुर के मज़दूरों को आगे आना होगा।

 

मज़दूर बिगुल, अगस्‍त-सितम्‍बर 2016


 

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मज़दूरों के महान नेता लेनिन

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