फ़र्ज़ी मुठभेड़ों, पुलिस हिरासत में प्रतिदिन 4 बेकसूर मारे जाते हैं
दमनकारी, शोषक, जनविरोधी सरकार को ऐसी ही सेना, ऐसी पुलिस चाहिए!!

जयपुष्प

गुजरात पुलिस के हाथों फ़र्ज़ी मुठभेड़ में इशरत जहां और तीन अन्य नौजवानों की हत्या की सच्चाई जाँच कमेटी ने तो अब बतायी है लेकिन देश की आदमख़ोर पुलिस और नरेन्द्र मोदी की ख़ूनी सरकार को जानने वाले लोग शुरू से ही इसे एक नृशंस हत्या ही मानते रहे हैं। पुलिस को फ़र्ज़ी मुठभेड़ों में बेकसूरों की हत्याएँ करने का लाइसेंस मिला हुआ है। चाहे देहरादून में उत्तराखण्ड पुलिस के हाथों 22 वर्षीय छात्र रणवीर की हत्या हो, बाटला हाउस में कथित मुठभेड़ में आतंकवादियों के नाम पर चार नौजवानों की हत्या का मामला हो या कश्मीर के शोपियां में दो युवतियों की बलात्कार के बाद हत्या की घटना हो – हर जगह पुलिस और सेना की घिनौनी करतूतें सामने आते ही सरकारें फ़ौरन उनके बचाव में उतर आती हैं।

custodial_death_01_fपूरे देश के पैमाने पर पुलिस, सेना और अन्य सशस्त्र बलों द्वारा अधिकतर अवैध और कभी-कभी वैध तरीक़े से लोगों को हिरासत में लेना और टॉर्चर करके उन्हें मार डालना एक आम प्रवृत्ति बन गयी है, जो साल दर साल बढ़ती जा रही है। एक तरफ़ तो इस जघन्य अपराध की घटनाएँ लगातार बढ़ती जा रही हैं, वहीं दूसरी तरफ़ सरकार, प्रशासन या न्यायपालिका की तरफ़ से इसके ख़िलाफ़ कोई प्रभावी क़दम उठाने की पहल होती नज़र नहीं आ रही है। निश्चित तौर पर इस उदासीनता का एक प्रमुख कारण यह है कि वर्दीधारियों की अमानवीयता का शिकार होने वालों में सबसे बड़ी संख्या ग़रीब और निम्नमध्यवर्गीय लोगों की होती है, और सम्पत्ति को ही अन्तिम पैमाना मानने वाली इस व्यवस्था में जिनके जान की क़ीमत कुछ ख़ास नहीं समझी जाती।

ये तथ्य एशियन सेण्टर फ़ॉर ह्यूमन राइट्स (एसीएचआर) की हाल ही में प्रकाशित रिपोर्ट – टॉर्चर इन इण्डिया 2009 (भारत में टॉर्चर 2009) में उजागर हुए हैं। इस रिपोर्ट के मुताबिक़ 1 अप्रैल 2001 से 31 मार्च 2009 तक भारतभर से 1184 लोगों के पुलिस हिरासत में मरने की सूचना राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को मिली। इसमें बहुत बड़ी संख्या उन लोगों की है, जिनकी मौत पुलिस हिरासत में बर्बर टॉर्चर के कारण हुई। ज़्यादातर मौतें पुलिस हिरासत में लिये जाने के 48 घण्टे के भीतर हुईं। वर्ष 2007 में पुलिस हिरासत में 118 लोगों की मौत हुई जबकि 2006 में यह संख्या 89 थी। यानी कि एक साल में 32.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई। इसी के बरक्स रिपोर्ट बताती है कि 2007 में पुलिस हिरासत में हुई मौतों के 118 मामलों में सिर्फ़ 61 मामलों में मजिस्ट्रेट द्वारा जाँच के आदेश दिये गये या जाँच की गयी। 12 मामलों में क़ानूनी जाँच हुई। 57 मामलों में पुलिसकर्मियों के ख़िलाफ़ मामले दर्ज किये गये और 35 पुलिसकर्मियों के ख़िलाफ़ चार्जशीट दाख़िल की गयी। ग़ौरतलब है कि वर्ष 2007 में हिरासत में हुई मौत के मामलों में एक भी पुलिसकर्मी को सज़ा नहीं हुई। ध्यान देने वाली बात यह भी है कि ये आँकड़े सिर्फ़ उन मामलों के हैं जिनकी सूचना सम्बन्धित राज्यों की पुलिस ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को दी है। एसीएचआर की रिपोर्ट कई ऐसे मामलों का ज़िक्र करती है जिनमें हिरासत में हुई मौत की सूचना पुलिस ने मानवाधिकार आयोग को नहीं दी। इसके अलावा सेना, अर्द्धसैनिक बलों, सीमा सुरक्षा बल और अन्य सशस्त्र बलों की हिरासत मे होने वाली मौतों का ज़िक्र इस रिपोर्ट में नहीं है, क्योंकि ये बल केन्द्र सरकार के नियन्त्रण में हैं।

इस रोशनी में देखें तो हिरासत में होने वाली कुल मौतों की संख्या इससे बहुत अधिक होने की सम्भावना है। पिछले साल प्रकाशित एक ख़बर के अनुसार भारतभर में हर रोज़ पुलिस हिरासत या क़ानूनी हिरासत में औसतन चार लोगों की मौत होती है। अगर आतंकवादी गतिविधियों में औसतन रोज़ दो लोगों के मरने के आँकड़े से इसकी तुलना की जाये तो यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि भारत के लोगों की जान को आतंकवादियों के मुकाबले पुलिस वालों से ज़्यादा ख़तरा है।

एसीएचआर की रिपोर्ट में दिये गये तथ्य आतंक और दहशत की उस पूरी भावना को व्यक्त नहीं करते जो पुलिस और सेना तथा सशस्त्र बलों की मौजूदगी में जनता में व्याप्त होती है। देश और देश की सुरक्षा के नाम पर आज़ादी के बाद से भारतीय सेना और पुलिस ने जितने लोगों का ख़ून बहाया है, उतना अपने दो सौ वर्षों के शासन में अंग्रेज़ों ने भी नहीं बहाया था। तमाम तरह के जनान्दोलनों को कुचलने में पुलिस और फ़ौज की निर्ममता किसी विदेशी सेना से कम नहीं होती। यह अनायास नहीं है कि देश के एक प्रतिष्ठित न्यायाधीश ने पुलिस को सबसे बड़ा संगठित गुण्डा गिरोह क़रार दिया था। पुलिस की बर्बरता, अमानवीयता और जनविरोधी रवैया कोई गुप्त चीज़ नहीं हैं, इसके साथ ही पुलिस विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार और उसका वर्ग-पूर्वाग्रह (धनिकों का पक्ष लेना और ग़रीबों का उत्पीड़न करना) भी सभी जानते हैं।

एसीएचआर की रिपोर्ट भी मानती है कि पुलिस-प्रताड़ना का शिकार सबसे अधिक समाज का ग़रीब और वंचित तबक़ा ही होता है। हमारे समाज में जहाँ मध्यवर्ग तक के लोग पुलिसिया दुर्व्यवहार और अपमान से भय खाते हैं, वहाँ ग़रीब लोगों के लिए पुलिस गाली-गलौच, मार-पिटाई और जिल्लत-अपमान का पर्याय है। एक ग़रीब आदमी के लिए संविधान द्वारा दिये गये सभी अधिकार और कोर्ट-कचहरी के न्याय का मतलब तभी समाप्त हो जाता है, जब सरेआम माँ-बहन करता हुआ पुलिसवाला उसका गिरेबान पकड़कर उसकी औकात बता देता है। पैसे और पहुँच के अभाव में ग़रीब आदमी चौराहे से लेकर थाने तक अपमान और अत्याचार सहन करता है और जटिल और महँगी न्याय-व्यवस्था की शरण में जाने के बाद तो वह एक दुश्चक्र में फँसकर रह जाता है। पहले से ही मुक़दमों के अम्बार के तले दबी न्यायपालिका की शरण में ग़रीब आदमी ठगा-सा ही महसूस करता है। इस दौरान पुलिस का डण्डा अपना न्याय करता रहता है और सज़ा मुकर्रर करता रहता है। भारतीय अदालतों में लगभग 3 करोड़ मुकदमे लम्बित हैं, जिनका वर्तमान रफ्तार से निपटारा करने में सैकड़ों साल लग जायेंगे और वह भी तब जब कोई नया मामला दर्ज न हो। एसीएचआर की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2006 के अन्त तक भारत की जेलों में कुल 3,73,271 क़ैदी थे जिनमें 65.7 प्रतिशत विचाराधीन क़ैदी थे। इनमें भी 1,569 विचाराधीन क़ैदी ऐसे थे, जो पाँच साल या उससे भी अधिक समय जेल में बिता चुके थे और अभी तक उनका गुनाह तक सिद्ध नहीं हुआ था। इनमें से ज़्यादातर लोगों का सबसे बड़ा गुनाह यही है कि ये लोग ग़रीब तबक़े के हैं और पुलिस-प्रशासन को रिश्वत देकर अपना गुनाह कम नहीं करवा सकते।

पुलिस और सेना द्वारा मानवाधिकारों का खुलेआम और बड़े पैमाने पर हनन के विरोध में मीडिया और सभ्य समाज में किसी सार्थक पहल का पूरी तरह अभाव है। पुलिसिया मुठभेड़ में बेकसूर लोगों की हत्या की घटनाएँ मीडिया में सनसनी के तौर पर परोसी जाती हैं। एनकाउण्टर अपने आप में एक ग्लैमरस शब्द बना दिया गया है। एनकाउण्टरों में ज़्यादातर निर्दोष लोग मारे जाते हैं और जो गुनहगार मारे भी जाते हैं, उन्हें कभी पुलिस-प्रशासन का प्रश्रय मिल चुका रहता है, लेकिन वर्तमान स्थिति में उन्हें निपटा देना ही तन्त्र के हित में होता है। यह देखते हुए कहा जा सकता है कि आम भाषा में जिन्हें हत्यारा कहा जाना चाहिए उन्हें हमारे “सभ्य” समाज में एनकाउण्टर किंग कहा जाता है – तमगे, पुरस्कार, प्रोमोशन और इज़्ज़त से नवाज़ा जाता है। वहीं दूसरी तरफ़ आतंकवाद का हौवा खड़ाकर मीडिया पुलिस और सेना के प्रति लोगों के मन में एक सहानुभूति का भाव पैदा करता है और ऐसी मानसिकता बनाता है जिसमें पुलिस और सेना की ज़्यादतियों को क्षम्य मान लिया जाता है। आम सामाजिक जीवन में रोज़-ब-रोज़ होने वाले मानवाधिकार हनन के बारे में मीडिया ख़ामोश रहता है। अपने घर, नौकरी, बीमा, शेयर में फँसे सभ्य मध्यवर्गीय नागरिक के पास मानवाधिकार की फ़िक्र करने की फ़ुर्सत भी नहीं होती और वह समझता है कि यह उसका नहीं बल्कि मानवाधिकार कार्यकर्ता नामक ख़ास नस्ल के लोगों का काम है।

सरकार ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और राज्यों में मानवाधिकार आयोग जैसे नुस्ख़े बनाये हैं लेकिन इन आयोगों के पास कोई ख़ास अधिकार ही नहीं होते। ये सिर्फ़ जवाब-तलब कर सकते हैं और सूचनाएँ इकट्ठा कर सकते हैं। सरकारी अधिकारी बहुत बाध्य हो जाने पर ही और काफ़ी टालमटोल के बाद इनकी बात मानते हैं। इन आयोगों की शिकायतें और संस्तुतियाँ कार्रवाई के इन्तज़ार में पड़ी धूल फाँकती रहती हैं। हिरासत में मौत होने के ज़्यादातर मामलों में पीड़ित के स्वास्थ्य सम्बन्धी रिपोर्टों और मौजूदा साक्ष्यों के बजाय राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग पुलिस के बयान को तरजीह देता है। यही कारण है कि वर्ष 2007 में हिरासत में हुई मौतों के सिलसिले में एक भी पुलिसकर्मी को सज़ा नहीं हो पायी। अन्य सरकारी विभागों की तरह ही राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग भी आम जनता को जितनी राहत देता है, उससे कहीं अधिक का भ्रम बनाये रखता है।

जिस समाज का ढाँचा 90-95 करोड़ ग़रीब लोगों की बर्बर लूट के दम पर मुट्ठी भर अमीरों और सुविधाभोगी तबकों को ऐशो-आराम दिलाने पर टिका हुआ है, वहाँ एक ऐसे तन्त्र का होना ज़रूरी है जो ताक़त के दम पर बहुमत को क़ाबू में रखे और थोड़े से विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के हितों की रक्षा करे। आज के पूँजीवादी समाज में पुलिस-सेना-न्यायालय-अफ़सरशाही का तन्त्र इसी ज़रूरत को पूरा करता है। चाहे कितने भी सरकारी विभाग या आयोग बना दिये जायें, वे पुलिस और सेना के दमन और अत्याचार से जनता को राहत नहीं दिला सकते। असल बात तो यह है कि न्यायपालिका, विधायिका आदि पूँजीपतियों की तानाशाही के दिखाने के दाँत हैं, सेना, पुलिस और तरह-तरह के अर्द्धसैनिक बल ही उसके खाने के दाँत हैं। तमाम पुलिसिया दमन-उत्पीड़न के बावजूद सरकार दोषी पुलिसकर्मियों पर न तो कोई कार्रवाई करती है और न ही ब्रिटिशकालीन पुलिस सम्बन्धी क़ानूनों में संशोधन करती है। तरह-तरह के रंग-बिरंगे झण्डों वाली कोई भी चुनावबाज़ पार्टी इसके बारे में कुछ नहीं बोलती। अपना शासन आने पर सभी राजनीतिक पार्टियाँ इसी तन्त्र की बदौलत लूट का अपना राज चलाती हैं। मज़दूरों और आम जनता द्वारा अपनी जायज़ माँगों के लिए चलाये जाने वाले आन्दोलनों का दमन करने में सेना- पुलिस खुले तौर पर कम्पनी मालिकों-पूँजीपतियों के लठैत और दलाल की भूमिका निभाती हैं।

 

बिगुल, सितम्‍बर 2009


 

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