सत्ता की बर्बरता की तस्वीर पेश करती हैं हिरासत में होने वाली मौतें
भारत में आज भी पुलिसिया ढाँचा अंग्रेज़ों के ज़माने की तरह काम करता है और जनता के बुनियादी जनवादी अधिकारों का कोई मतलब नहीं है। जनता द्वारा चुनी हुई तथाकथित लोकतांत्रिक सरकार भी कोई कम नहीं है। भारत सरकार अभी भी यातना को न सिर्फ जंग के दौरान बल्कि साधारण हालात में भी, मानवता के ख़िलाफ़ अपराध नहीं मानती। हालाँकि बहुत से पश्चिमी देश कम से कम कागज़ों पर तो ऐसा मानते हैं। भारत सरकार ने बरसों से लटके हुए यातना विरोधी क़ानून को पारित नहीं किया है। आख़िर सरकार को ऐसा करने की ज़रूरत भी क्या है? इस शोषक व्यवस्था के हितों के लिए तो ऐसा ही ढाँचा चाहिए। भारतीय समाज में अमीरी-ग़रीबी की खाई जैसे-जैसे गहरी होती जा रही है और बेरोज़गारी, महँगाई, भुखमरी बढ़ रही है वैसे-वैसे ग़रीबों का दमन-उत्पीड़न भी बढ़ता जा रहा है। दूसरी ओर, भारतीय समाज में गहरे जड़ जमाये गैर-जनवादी मूल्य-मान्यताएँ मसले को और भी गम्भीर बना देती हैं क्योंकि बहुत-से लोग पुलिसिया यातना के तौर-तरीक़ों को ग़लत नहीं मानते या फिर चुपचाप सह लेते हैं। हालाँकि पुलिसिया दमन के ख़िलाफ़ समय-समय पर देश के विभिन्न हिस्सों में जनता के ग़ुस्से का लावा फूटता भी रहता है और मानवीय अधिकारों और नागरिक आज़ादी के लिए लड़ने वाले विभिन्न संगठन भी इसके ख़िलाफ़ संघर्ष करते रहते हैं लेकिन अभी तक इसके ख़िलाफ़ कोई व्यापक जनविरोध संगठित नहीं हो पाया है।