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बंग्लादेश की हत्यारी गारमेंट फैक्टरियां

खुद को महान देशभक्त कहने वाले पूंजीपतियों को अपने देश के मज़दूरों का अमानवीय शोषण करने में कोई हिचक नहीं महसूस होती। उन्होंने तो पहले ही अपने देश की जनता के लिए ‘‘मानवीय संपदा’’ जैसा शब्द गढ़ लिया है जो उनके हर अनैतिक-अत्याचारी बर्ताव पर मुलम्मा चढ़ा देता है। इस काम में स्थानीय राजनेता उनका पूरा साथ देते हैं। बल्कि इससे भी आगे बढ़कर वे इन देशी-विदेशी कंपनियों के मुनाफ़े की हवस को पूरा करने के लिए उदारीकरण की नीतियां लागू करते हैं श्रम कानूनों को और भी निष्प्रभावी बनाते जाते हैं और मज़दूर वर्ग के हित के प्रति एकदम आंख मूंदे रहते हैं। उनके इस काम में संशोधानवादी वामपन्थी पार्टियां भी पूरा साथ देती हैं जिन्होंने मज़दूर आन्दोलन को आज अपने रसातल में पहुंचा दिया है। यूं ही नहीं उन्हें बुर्जुआ जनवाद की दूसरी सुरक्षा पंक्ति कहा जाता है।

रिकॉर्ड अनाज उत्पादन के बावजूद देश का हर चौथा आदमी भूखा क्यों है?

बड़ी अजीब स्थिति है कि एक तरफ देश में खाद्यान्न का उत्पादन रिकॉर्ड स्तरों को छू रहा है वहीं दूसरी तरफ देश की एक चौथाई आबादी को पेट भर भोजन नहीं मिल पा रहा है और लगभग आधी आबादी कुपोषण का शिकार है, हर तीसरी औरत में ख़ून की कमी है और हर दूसरे बच्चे का वज़न सामान्य से कम है। पर इससे भी अधिक हैरत की बात यह है कि बिल्कुल उसी दौरान (1990 से 2012 तक) जबकि देश में खाद्यान्न का उत्पादन बढ़ता गया है, देश के नागरिकों को खाद्यान्न की उपलब्धता घटती गयी है। कहने को आज हर शहर के गली-चौराहे में पिज्ज़ा-बर्गर-मोमो की दूकानें खुल गयी हैं लेकिन 20 साल पहले की तुलना में आज देश के एक औसत नागरिक की थाली छोटी हो गयी है। 1990 में जहाँ देश के एक औसत नागरिक को 480.3 ग्राम भोजन मिलता था वहीं 2010 में उसे सिर्फ़ 440.4 ग्राम भोजन नसीब हो पा रहा है।

न्यूनतम मजदूरी और बुनियादी अधिकारों के लिए बंगलादेश के टेक्सटाइल मजदूरों का आन्दोलन

सस्ते श्रम के दोहन के लिए पूरी दुनिया की ख़ाक छानने वाले पूँजीपतियों के लिए बंगलोदश वैसी ही मनमुआफिक जगह है जैसे कि भारत और तीसरी दुनिया के अन्य देश। भारत के पूँजीपतियों की तरह ही बंगलादेश के पूँजीपति साम्राज्यवादी लुटेरों के जूनियर पार्टनर बनकर अपने देश की जनता की हाड़-तोड़ मेहनत के बूते अपनी और विदेशी लुटेरों की तिजोरियाँ भरते हैं। यह जरूर है कि यहाँ के पूँजीपति वर्ग की हैसियत भारत के पूँजीपति वर्ग जितनी नहीं है, जो एक पर्याप्त भारी-भरकम जूनियर पार्टनर है और अपने विशालकाय घरेलू बाजार के बूते पर साम्राज्यवादी देशों के तमाम शिविरों से कई बार अपनी शर्तों पर लेन-देन करता है। बंगलादेशी पूँजीपति वर्ग इसकी तुलना में काफी निर्भर है और इसकी कई मामलों में भारतीय पूँजीपति वर्ग पर भी काफी निर्भरता है।

फ़र्ज़ी मुठभेड़ों, पुलिस हिरासत में प्रतिदिन 4 बेकसूर मारे जाते हैं

पूरे देश के पैमाने पर पुलिस, सेना और अन्य सशस्त्र बलों द्वारा अधिकतर अवैध और कभी-कभी वैध तरीक़े से लोगों को हिरासत में लेना और टॉर्चर करके उन्हें मार डालना एक आम प्रवृत्ति बन गयी है, जो साल दर साल बढ़ती जा रही है। एक तरफ़ तो इस जघन्य अपराध की घटनाएँ लगातार बढ़ती जा रही हैं, वहीं दूसरी तरफ़ सरकार, प्रशासन या न्यायपालिका की तरफ़ से इसके ख़िलाफ़ कोई प्रभावी क़दम उठाने की पहल होती नज़र नहीं आ रही है। निश्चित तौर पर इस उदासीनता का एक प्रमुख कारण यह है कि वर्दीधारियों की अमानवीयता का शिकार होने वालों में सबसे बड़ी संख्या ग़रीब और निम्नमध्यवर्गीय लोगों की होती है, और सम्पत्ति को ही अन्तिम पैमाना मानने वाली इस व्यवस्था में जिनके जान की क़ीमत कुछ ख़ास नहीं समझी जाती।

”अतुलनीय भारत” – जहाँ हर चौथा आदमी भूखा है!

आज दुनिया में सबसे ज्यादा भूखे लोग भारत में रहते हैं। देश में लगभग साढ़े इक्कीस करोड़ लोगों को भरपेट भोजन नसीब नहीं हो रहा है। इसके अलावा नीचे की एक भारी आबादी ऐसी है जिसका पेट तो किसी न किसी प्रकार भर जाता है मगर उनके भोजन से पर्याप्त पोषण नहीं मिल पाता। यही वह आबादी है जो फैक्टरियों-कारखानों और खेतों में सबसे खराब परिस्थितियों में सबसे मेहनत वाले काम करती है और झुग्गी-बस्तियों में और कूड़े के ढेर और सड़कों-नालों के किनारे जिन्दगी बसर करती है। कहने की जरूरत नहीं कि भूख, कुपोषण, संक्रामक रोगों, अन्य बीमारियों और काम की अमानवीय स्थितियों के कारण और साथ ही दवा-इलाज के अभाव के कारण इस वर्ग के अधिकतर लोग समय से ही पहले ही दम तोड़ देते हैं। पर्याप्त पोषण की कमी के कारण भारत के लगभग 6 करोड़ बच्चों का वज़न सामान्य से कम है। सुनकर सदमा लग सकता है कि अफ्रीका के कई पिछड़े देशों की हालत भी यहाँ से बेहतर है! दुनिया के कुल कुपोषित बच्चों की एक तिहाई संख्या भारतीय बच्चों की है। देश की 50 प्रतिशत महिलाओं और 80 प्रतिशत बच्चों में खून की कमी है।

आतंकवाद के बहाने जनता के अधिकारों पर हमला

टाडा और पोटा जैसे क़ानूनों का कहर झेल चुकी देश की जनता के सिर पर अब एक ऐसा क़ानून मढ़ दिया गया है जो कई मामलों में उनसे भी ज़्यादा ख़तरनाक़ है। उल्लेखनीय बात यह है कि इस भयानक क़ानून को अमली जामा पहनाने वाली पार्टी वही कांग्रेस पार्टी है जिसने दुरुपयोग का आरोप लगाकर पोटा को वापस लिया था। संसदीय वामपन्थियों, तथाकथित समाजवादियों और दूसरी क्षेत्रीय पार्टियों को भी इस पर कोई ऐतराज नहीं है।