पूँजीवादी गणतन्त्र के जश्न में खो गयीं मुनाफ़े की हवस में मारे गये मज़दूरों की चीख़ें
26 जनवरी की पूर्व संध्या पर देश की राजधानी में 61वें गणतन्त्र की तैयारियाँ ज़ोर-शोर से चल रही थीं। ठीक उसी वक्त दिल्ली के तुगलकाबाद में चल रही अवैध फैक्ट्री में हुए विस्फोट में 12 मज़दूर मारे गये और 6 से ज्यादा घायल हो गए। बेकसूर मज़दूरों की मौत देश के शासक वर्ग के जश्न में कोई ख़लल न डाल सके, इसके लिए मज़दूरों की मौत की इस ख़बर को दबा दिया गया। कुछ दैनिक अख़बारों ने खानापूर्ति के लिए इस घटना की एक कॉलम की छोटी-सी ख़बर दे दी। वह भी न जाने ज़नता के सामने इस घटना को लाने के लिए दी थी, या कारख़ाना मालिक से अपना हिस्सा लेने के लिए।
इस फैक्ट्री का मालिक मास्टर मुन्ना नाम का एक आपराधिक शख्स है। यूँ तो फैक्ट्री मालिक मास्टर मुन्ना पर पुलिस ने कई मुकदमे दर्ज़ किये हैं, लेकिन घटना के दो हफ्ते बाद भी मास्टर मुन्ना ‘सक्षम’ दिल्ली पुलिस के हाथ नहीं आया है। ऐसा तब है जबकि घटना में मास्टर मुन्ना का बेटा शमीम ख़ान भी घायल हुआ है जिसके नाम से फैक्ट्री चल रही थी। श्रम विभाग ने अपनी नाक बचाने के लिए फैक्ट्री को सील कर, मुआवज़े के लिए नोटिस चिपका दिए। इस नोटिस में 12 मृतक मज़दूरों और 7 घायल मज़दूरों का ही नाम था जिसमें मृतक के परिवार को पाँच लाख तथा घायल को पचास हज़ार रुपये देने का आदेश था। लेकिन पीयूडीआर तथा बिगुल मज़दूर दस्ता की टीमें जब मृतकों तथा घायलों से मिलने के लिए गयीं तो मालूम हुआ कि परिवारों को मुआवजे क़े बारे में कुछ नहीं पता था। दुर्घटना में घायल रिज़वान के पिता कल्लू ने बताया कि मुआवज़े की रकम के बारे में उन्हें कोई जानकारी नहीं हैं तथा मालिक मास्टर मुन्ना ने शुरुआती दिनों में अपने दलाल के माध्यम से दुर्घटना को दबाने के लिए कुछ मज़दूरों पाँच-दस हज़ार रुपये दिऐ थे। लेकिन जब 4 फरवरी को फैक्ट्री सील हुई और मुआवज़े का नोटिस लगा तो उसने मज़दूरों को धमकियाँ देनी शुरू कर दीं। कुछ स्त्री मज़दूरों से हुई बातचीत में पता चला कि सभी मज़दूरों का वेतन बकाया है और हो सकता है कि वह भी न मिल पाये।
तुगलकाबाद एक्स. गली नं 8 के जिस इलाक़े में यह घटना हुई वह कोई औद्योगिक क्षेत्र नहीं बल्कि रिहायशी इलाक़ा था। यहाँ कई घरों में एक्सपोर्ट गारमेण्ट की फैक्ट्रियाँ लगी हुई हैं। इनमें से ज्यादातर में 10 से 100 मज़दूर तक काम करते है। मेसर्स अमेज़िंग क्रिएशंस फैक्ट्री भी इन्हीं में से एक थी जहाँ स्त्री मज़दूरों के अनुसार 100 से 150 स्त्री-पुरुष मज़दूर काम करते थे। इसमें स्त्री मज़दूरों को 130 रुपये दिहाड़ी तथा पुरुष मज़दूरों को 240 रुपये दिहाड़ी मिलती थी। ध्यान रहे कि यह 12 घण्टे काम की दिहाड़ी थी। कई बार मज़दूरों को लगातार रात की शिफ्ट में भी सिंगल रेट दिहाड़ी पर काम पर लगा दिया जाता था। मज़दूरों की कार्यदशा साफ बताती है कि मज़दूर किसी कारख़ाने में नहीं बल्कि एक कैदख़ाने में सज़ा काट रहे थे। वहीं अगर फैक्ट्री के नक्शे की बात की जाए तो ये सिर्फ 65 गज में खड़ी की गयी चार मंज़िला इमारत है जिसकी चौड़ाई केवल 10 फुट है। इसकी एक मंज़िल पर 17 ऑटोमेटिक सिलाई मशीन से काम किया जाता था, दूसरी मंज़िल पर कटिंग टेबल पर कटिंग मज़दूर काम करते थे। चौथी मंज़िल पर अड्डा लगा हुआ था जिसमें मज़दूर सितारे लगाते थे। इस मंज़िल पर कपड़ा साफ करनी वाली हाइड्रो एक्सट्रेक्टर मशीन रखी थी जो पेट्रोल से कपड़े की सफाई करती थी। यह मशीन फ्लेमप्रूफ नहीं थी इस कारण उसमें स्पार्क से एकाएक विस्फोट हुआ और चारों ओर आग फैल गयी। उस समय मशीन में क़रीब तीस से चालीस लीटर पेट्रोल था। अब आप ख़ुद समझ सकते हैं कि इतनी कम जगह पर इतने मज़दूर कैसे काम करते होंगे और आग लगने पर क्या हुआ होगा।
अब उद्योग विभाग, श्रम विभाग, दिल्ली प्रदूषण नियन्त्रण कमेटी, पुलिस प्रशासन सभी इस हादसे की ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ रहे हैं। श्रम विभाग का कहना है कि अवैध फैक्ट्रियों में मज़दूरों की कार्यस्थितियों, सुरक्षा उपकरणों की जाँच के लिए उनकी जवाबदेही नहीं है। ज़ाहिरा तौर पर, क़ानूनन अवैध फैक्ट्रियों को रोकने का काम पुलिस प्रशासन का है। लेकिन सवाल ये है कि क्या राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली के वैध औद्योगिक क्षेत्रों में मज़दूरों की कार्यस्थितियाँ और सुरक्षा उपकरण बेहतर हैं? हम सभी जानते हैं कि आये दिन औद्योगिक क्षेत्रों में मज़दूरों के साथ दुर्घटनाएँ तथा उनकी मौतें होती रहती हैं। पिछले ‘मज़दूर बिगुल’ में ही नोएडा के आई.ई.डी. कारख़ाने के मज़दूरों के साथ होने वाली दुर्घटनाओं के बारे में रिपोर्ट आयी थी। बादली में लोहे की पत्ती लगने से हुई मज़दूरों की मौतों पर भी हमने रिपोर्ट दी थी। ये रिपोर्टें तो महज़ सागर की बूँदों के समान हैं। वास्तव में ऐसी दुर्घटनाओं की कोई गिनती सम्भव नहीं है। श्रम विभाग अपना काम कितनी ”मुस्तैदी” से करता है, यह हर मज़दूर जानता है। ये भी सच है कि श्रम विभाग के पास इतने अधिकारी भी नहीं हैं जो हर माह फैक्ट्रियों की जाँच के लिए जा सकें। मौजूदा समय में दिल्ली में 29 बड़े औद्योगिक क्षेत्रों के लिए एक चीफ इंस्पेक्टर ऑफ फैक्ट्री समेत कुल 11 लोग तथा एक डाक्टर की टीम है, जो सही मायने में इतने सारे औद्योगिक क्षेत्रों के लिए नाकाफी हैं। लेकिन यहाँ सवाल सिर्फ स्टाफ की कमी या लापरवाही का नहीं बल्कि प्रशासन तन्त्र की मंशा का है। क्या पूँजीवादी प्रशासन तन्त्र मज़दूर को एक नागरिक का दर्जा देता है? आँकड़े बता रहे हैं कि आज देश की 93 फीसदी मज़दूर आबादी असंगठित/अनौपचारिक क्षेत्र में काम करती है जहाँ मज़दूरों की दशा बोलने वाले औज़ार से ज्यादा कुछ नहीं। उनके लिए ज़िन्दगी का मतलब 12-14 घण्टे सिंगल रेट पर काम करना है।
वैसे भी उदारीकरण-निजीकरण के दौर में न्यूनतम मज़दूरी क़ानून, फैक्ट्री एक्ट 1948, कर्मचारी राज्य बीमा क़ानून, ठेका मज़दूरी क़ानून 1971, कामगार मुआवज़ा क़ानून आदि जैसे 260 श्रम क़ानून सिर्फ काग़ज़ों की शोभा बढ़ाने के लिए रह गये हैं। जो हक़ मज़दूरों ने बड़ी कुर्बानी देकर हासिल किये थे आज उनको एक-एक करके छीना जा रहा है। बचे-खुचे क़ानून सिर्फ काग़ज़ों पर मौजूद हैं और वो भी मालिकों और ठेकेदारों की जेब में रहते हैं। श्रम विभाग में चपरासी से लेकर मन्त्री तक लूट की एक पूरी श्रृंखला है। बस आप पैसा फेंकिये, तमाशा देखिये! वैसे भी राजधानी में तुगलकाबाद अकेला ऐसा इलाक़ा नहीं हैं जहाँ अवैध फैक्ट्रियाँ चलती हों। गाँधी नगर, सीलमपुर, वेलकम, संगम विहार और गोविन्दपुरी में एक्सपोर्ट गारमेण्ट के हब हैं जहाँ हज़ारों मज़दूर ठेके, दिहाड़ी, पीस रेट पर काम करते हैं और ऐसा भी नहीं है कि इन उद्योगों के बारे में श्रम विभाग को मालूम न हो। असल में तो यह श्रम विभाग की ज़िम्मेदारी बनती है कि ऐसे सभी उद्योगों को वह फैक्ट्री एक्ट के दायरे में लाये जहाँ बिजली की सहायता से 10 मज़दूर किसी निर्माण/उत्पादन कार्य में लगे हुए हैं या फिर 20 मज़दूर बिना बिजली कनेक्शन के किसी निर्माण/उत्पादन कार्य में लगे हुए हैं। लेकिन सवाल ये है कि जब श्रम विभाग नियमित उद्योग में श्रम क़ानून लागू नहीं करवा रहा है तो अवैध फैक्ट्रियों की दशा की क्या सुध लेगा?
मज़दूरों की हो रही गुमनाम मौतें ये सवाल खड़ा कर देती हैं कि क्या हम मज़दूर यूँ ही ग़ुलामों की तरह मरते रहेंगे या अपने इन्सान होने का सबूत देंगे? जब हम दुनिया के लिए सारा ऐशो-आराम पैदा करते हैं तो हम ही क्यों रोज़-रोज़ मरें? 25 जनवरी को तुगलकाबाद में मज़दूरों की मौत देश के गणतन्त्र के जश्न पर सवाल खड़ा करती हैं। यदि 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ संविधान देश के मज़दूरों को बुनियादी हक़ भी नहीं दे सकता तो ये किसकी ख़ातिर है?
[stextbox id=”black” caption=”फैक्ट्री एक्ट (1948) क्या कहता है”]इसका उद्देश्य मुख्यत: श्रमिकों की औद्योगिक सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं कल्याण सुविधाओं, काम के घण्टों और वेतन सहित सालाना छुट्टियों के प्रावधान जैसे मुख्य मुद्दों को क़ानून के दायरे में लाना था। यह सभी मुद्दे मज़दूरों के काम के हालात के साथ बहुत गहरे तौर पर जुड़े हुए हैं। फैक्ट्री एक्ट, 1948 ऐसी निर्माण/उत्पादन प्रक्रिया में लागू होता है, जिसमें 10 या उससे अधिक मज़दूर लगे हों और जो बिजली से चलती हो, या ऐसी प्रक्रिया में लागू किया जा सकता है जिसमें बिजली की आवश्यकता नहीं हो लेकिन वहाँ 20 या उससे अधिक मज़दूर काम करते हों।[/stextbox]
मज़दूर बिगुल, फरवरी 2011
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