क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षणमाला – 23 : मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के सिद्धान्त : खण्ड-2

अभिनव

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सम्पादकीय टिप्पणी

साथियो,

सितम्बर 2024 में ‘क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षण माला’ के तहत श्रृंखला में प्रकाशित हो रही पुस्तक ‘मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के सिद्धान्त’ का पहला खण्ड ‘मज़दूर बिगुल’ में पूरा हो चुका था। इस बार से हम इस पुस्तक के दूसरे खण्ड का प्रकाशन शुरू कर रहे हैं। यह पुस्तक निकटता से मार्क्स की ‘पूँजी’ के खण्डों का अनुसरण करती है, उसमें पेश पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के आम नियमों की व्याख्या को अधिकतम सम्भव सरलीकृत कर मज़दूर साथियों, छात्र-युवा साथियों और कम्युनिस्ट राजनीतिक कार्यकर्ताओं के अध्ययन हेतु प्रस्तुत करती है, मार्क्स के क्रान्तिकारी वैज्ञानिक राजनीतिक अर्थशास्त्र के सिद्धान्तों के कुछ तत्वों को आज के पूँजीवाद के अनुसार विस्तारित और विकसित करती है। इस पुस्तक के पहले खण्ड के अब तक ‘मज़दूर बिगुल’ में प्रकाशित अध्यायों ने मार्क्स की ‘पूँजी’ के पहले खण्ड की बुनियादी शिक्षाओं को आपके सामने पेश किया है। पुस्तक का पहला खण्ड जल्द ही एक जिल्द में प्रकाशित होकर आपके हाथों में होगा।

इस अंक से हम इस पुस्तक के दूसरे खण्ड के अध्यायों को श्रृंखला रूप में प्रकाशित करने की शुरुआत कर रहे हैं। हम एक बार फिर से पाठकों को याद दिलाना चाहेंगे कि मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र एक विज्ञान है – सामाजिक उत्पादन के नियमों को उद्घाटित करने वाला विज्ञान। किसी भी विज्ञान के समान इसके सरलीकरण की एक सीमा होती है, जिसके बाद सरलीकरण करना वैज्ञानिक शिक्षाओं की सटीकता के साथ समझौते की ओर ले जाता है। नतीजतन, विज्ञान को समझने के लिए श्रमसाध्य प्रयासों, धैर्य और हठ की आवश्यकता होती है। मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के बारे में भी यह बात लागू होती है। हमारा सुझाव होगा कि इसे ‘बिगुल मज़दूर अध्ययन मण्डल’ में सामूहिक तौर पर पढ़ें, व्यक्तिगत तौर पर भी पढ़ें और मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र की जानकारी रखने वाले सर्वहारा राजनीतिक कार्यकर्ताओं के साथ पढ़ें, इस पर कक्षाओं को आयोजन करें। इस प्रक्रिया के ज़रिये इस विज्ञान को हम बेहतर तरीक़े से समझ सकते हैं।

साथ ही इस बात की याददिहानी भी इस पुस्तक के दूसरे खण्ड के श्रृंखलाबद्ध प्रकाशन की शुरुआत के साथ प्रासंगिक होगी कि हमारे लिए मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के विज्ञान का अध्ययन कोई किताबी क़वायद नहीं है। यह सर्वहारा वर्ग के क्रान्तिकारी राजनीतिक शिक्षण का एक अंग है। हम जिस व्यवस्था के विरुद्ध लड़ रहे हैं, उसे समझे बग़ैर, अपने शोषण के रहस्य को समझे बग़ैर हम पूँजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध प्रभावी संघर्ष संगठित नहीं कर सकते हैं। साथ ही, मार्क्स के आर्थिक सिद्धान्त हमें केवल पूँजीपति वर्ग और सर्वहारा वर्ग के बीच के सम्बन्धों की ही गहरी समझदारी नहीं देते हैं, बल्कि पूँजीपति वर्ग के आपसी सम्बन्धों, पूँजीपति वर्ग और मध्यवर्ती वर्गों (मसलन, शहरी व ग्रामीण टुटपुँजिया वर्ग) के बीच के सम्बन्धों और सर्वहारा वर्ग और इन मध्यवर्ती वर्गों के बीच के सम्बन्धों की भी सुसंगत समझदारी देते हैं। संक्षेप में, वे पूँजीवादी समाज में मौजूद सभी वर्गों के बीच मौजूद सम्बन्धों व उनके आपसी आन्तरिक सम्बन्धों के बारे में एक वैज्ञानिक समझदारी देते हैं। जैसा कि लेनिन ने कहा था, यदि मज़दूर वर्ग को एक सामाजिक वर्ग (अपने आप में अस्तित्वमान वर्ग) एक राजनीतिक वर्ग (अपने ऐतिहासिक उद्देश्यों के लिए सचेतन रूप से सक्रिय वर्ग, यानी अपनी राजनीतिक सत्ता स्थापित करने के लिए सक्रिय वर्ग) में, यानी सर्वहारा वर्ग में तब्दील होना है, तो उसे केवल अपने और पूँजीपति वर्ग के बीच के सम्बन्धों को ही नहीं, बल्कि समाज में मौजूद सभी वर्गों के बीच और उनके आपसी सम्बन्धों को समझना होगा। केवल तभी वह जनता के विभिन्न वर्गों (जो पूँजीवादी व्यवस्था में किसी न किसी रूप में शोषित, दमित व उत्पीड़ित हैं) को अपने क्रान्तिकारी नेतृत्व में साथ लेकर एक पूँजीवाद-विरोधी क्रान्तिकारी कैम्प या वर्गों के संयुक्त मोर्चे को निर्मित कर सकता है, केवल तभी वह जनता के तमाम वर्गों के बीच प्रभुत्वशाली पूँजीवादी विचारधारा के वर्चस्व को तोड़कर अपने विचारधारात्मक व राजनीतिक वर्चस्व को निर्मित कर सकता है और केवल तभी वह पूँजीवादी राज्यसत्ता के ध्वंस और सर्वहारा सत्ता के मातहत एक समाजवादी व्यवस्था को खड़ा कर सकता है और कम्युनिस्ट समाज की ओर आगे बढ़ने के क्रान्तिकारी संघर्ष को संगठित कर सकता है। इन वर्गों के बीच और इनके आपसी सम्बन्धों का सारतत्व हम मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र की सघन और व्यापक पढ़ाई के साथ ही समझ सकते हैं। इस पुस्तक का लक्ष्य यही है कि ऐसी समझदारी को निर्मित करने में मज़दूर साथियों, छात्र-युवा साथियों और सर्वहारा क्रान्तिकारी कार्यकर्ताओं को सक्षम बनाया जाय।

जिस प्रकार पुस्तक के पहले खण्ड में मार्क्स की ‘पूँजी’ के पहले खण्ड में पेश बुनियादी शिक्षाओं को अधिकतम सम्भव सरलीकृत करके और उसके कुछ तत्वों को समकालीन पूँजीवाद में मार्क्स के समय से आज के दौर तक आये कुछ परिवर्तनों की रोशनी में विस्तारित और विकसित करते हुए पेश किया था, उसी प्रकार पुस्तक का दूसरा खण्ड मार्क्स की ‘पूँजी’ के दूसरे खण्ड की बुनियादी खोजों को आपके सम्मुख प्रस्तुत करेगा। हम उम्मीद करते हैं कि श्रृ़ंखलाबद्ध रूप में प्रकाशित हो रही इस पुस्तक के पहले खण्ड को ‘मज़दूर बिगुल’ के पाठकों ने जैसी उत्साहवर्द्धक प्रतिक्रिया दी है, वह दूसरे खण्ड के श्रृंखलाबद्ध प्रकाशन के दौरान भी जारी रहेगी।

सम्पादक

प्रस्तावना

इस पुस्तक के पहले खण्ड में हमने मूलत: पूँजीवादी समाज में उत्पादन की प्रक्रिया को समझा था। इस दूसरे खण्ड में, जो आपके हाथों में है, हम पूँजी के संचरण की प्रक्रिया को विस्तार से और गहराई से समझेंगे। यह क्रम एकदम तार्किक है। क्योंकि पूँजी के रूप में माल किस प्रकार संचरित बाज़ार में होते हैं, यानी उनकी ख़रीद-बिकवाली की प्रक्रिया किस प्रकार चलती है, यह निर्धारित स्वयं उत्पादन की प्रक्रिया से ही होता है। वजह यह कि हर प्रकार की आय का स्रोत वास्तव में उत्पादन में होता है। इसलिए मार्क्स भी ‘पूँजी’ के पहले खण्ड में पूँजीवादी उत्पादन की प्रक्रिया को तार-तार करके समझाते हैं, माल को पूँजीवादी समाज की कोशिका के रूप में सामने लाते हैं, उसकी प्रकृति को अनावृत्त करते हैं, मूल्य और बेशी मूल्य की श्रेणियों, बेशी मूल्य के पूँजी रूपान्तरण, विस्तारित पूँजीवादी उत्पादन और पूँजी संचय के आम नियमों को स्पष्ट करते हैं। इस विश्लेषण के केन्द्र में उत्पादन का स्थान, यानी कारखाना या वर्कशॉप है, जहाँ मज़दूर सामूहिक तौर पर उत्पादन करते हैं। इस पहले खण्ड में मार्क्स, मूलत: और मुख्यत:, मज़दूर और पूँजीपति के बीच के रिश्ते का विश्लेषण करते हैं, पूँजीपति के मुनाफ़े के असली स्रोत को उजागर करते हैं, पूँजीवादी उत्पादन की आम प्रवृत्ति यानी पूँजी के संचय और विस्तारित पुनरुत्पादन तथा पूँजी के संघनन और संकेन्द्रण के सामान्य नियम को प्रदर्शित करते हैं।

लेकिन ‘पूँजी’ के दूसरे खण्ड में मार्क्स उत्पादन के स्थान नहीं, बल्कि संचरण के स्थान, यानी बाज़ार पर ध्यान केन्द्रित करते हैं। इस खण्ड में वह पूँजी के स्वामी के रूप में पूँजीपति और प्रत्यक्ष उत्पादक के रूप में मज़दूर के बीच के रिश्ते पर नहीं, बल्कि पूँजीपतियों के आपसी रिश्तों पर ध्यान केन्द्रित करते हैं, जिसमें मज़दूर प्रकट भी होता है, तो उपभोग की वस्तुओं, यानी मज़दूरी-उत्पादों, के ख़रीदार के रूप में। यहाँ वह मूल्य के उत्पादन पर नहीं बल्कि मूल्य के वास्तवीकरण पर ध्यान केन्द्रित करते हैं। चूँकि हम मार्क्स के आर्थिक चिन्तन के तार्किक क्रम का ही निकटता के साथ अनुसरण कर रहे हैं, इसलिए इस पुस्तक के दूसरे खण्ड में हम भी पूँजी के संचरण की प्रक्रिया पर ही ध्यान केन्द्रित करेंगे और समझने का प्रयास करेंगे कि पूँजीवादी व्यवस्था जैसी अराजक व्यवस्था के पुनरुत्पादन की क्या स्थितियाँ और शर्तें होती हैं।

इसी क्रम में यह बात भी स्पष्ट करने की आवश्यकता है कि ‘पूँजी’ के दूसरे खण्ड के एक छोटे हिस्से को ही मार्क्स अन्तिम रूप दे पाये थे और उसे भी मार्क्स की बाद की खोजों के अनुसार एंगेल्स को सम्पादित करना पड़ा था। इस दूसरे खण्ड में मौजूद मार्क्स का शेष लेखन असम्पादित और बिखरी हुई पाण्डुलिपियों के रूप में मौजूद था, जिसे एंगेल्स ने एक तार्किक क्रम में सँजोया और सम्पादित किया। इसका यह अर्थ नहीं है कि एंगेल्स ने इस लेखन में कुछ जोड़ा या घटाया। एंगेल्स ने उसे एक सम्पूर्ण पुस्तक का रूप दिया और मार्क्स के साथ हमेशा उनके सहचिन्तक की भूमिका निभाने के कारण उनके पास ही यह क्षमता थी कि वह यह जटिल काम कर सकते थे। एंगेल्स स्वयं इसके बारे लिखते हैं:

“प्रकाशन के लिए ‘पूँजी’ के दूसरे खण्ड को तैयार करना कोई आसान काम नहीं था, और विशेष तौर पर एक ऐसे रूप में कि वह न सिर्फ़ अधिकतम सम्भव पूर्णता के साथ एक समेकित रचना प्रतीत हो, बल्कि अपने लेखक की विशिष्ट रचना भी प्रतीत हो, न कि उसके सम्पादक की। पाण्डुलिपियों के संस्करणों की भारी संख्या के कारण, जिनका बड़ा हिस्सा अपूर्ण था, यह काम और भी मुश्किल हो गया था। इनमें से केवल एक पाण्डुलिपि, पाण्डुलिपि IV, ही प्रकाशन के लिए पूरी तरह तैयार थी, हालाँकि यहाँ भी बाद में तैयार मसौदों के कारण इनका बड़ा हिस्सा पुराना पड़ गया था। सामग्री का प्रमुख हिस्सा, मुख्य रूप से, अगर अन्तर्वस्तु के मामले में पूरी तरह तैयार था भी तो यह भाषा के मामले में तैयार नहीं था। यह उन मुहावरों में लिखा गया था जिनका मार्क्स अपने सारांशों में करते थे : एक बेपरवाह शैली, बोल-चाल में इस्तेमाल होने वाले और अक्सर अशिष्ट मज़ाकिया अभिव्यक्तियाँ और प्रचलित उक्तियाँ, अंग्रेज़ी और फ्रांसीसी तकनीकी शब्द, कई बार पूरे के पूरे वाक्य और अक्सर कई पन्ने अंग्रेज़ी में। यह विचारों की उस तात्कालिक रूप में अभिव्यक्ति थी जिस रूप में वे लेखक के मस्तिष्क में जन्मे थे। विस्तार में विकसित किये गये भागों के साथ-साथ, उतने ही महत्वपूर्ण अन्य भाग भी थे, जिनकी केवल एक रूपरेखा ही विकसित की गयी थी। तथ्यात्मक चित्रण के लिए सामग्री एकत्र तो की गयी थी, लेकिन उन्हें विकसित करना तो दूर, मुश्किल से ही व्यवस्थित किया गया था। किसी अध्याय के अन्त में, अगले अध्याय पर जाने की जल्दबाज़ी में, मार्क्स ने अक्सर कुछ असम्बद्ध वाक्य छोड़ दिये हैं, जो अभी अपूर्ण विश्लेषण के लिए एक मार्ग-निर्देशक के रूप में काम कर रहे हैं। और अन्तत:, वह कुख्यात लिखावट जिसे कई बार स्वयं उसका लेखक भी पढ़ पाने में असफल रहता था।” (मार्क्स, कार्ल. 1992. पूँजी, खण्ड-2, एंगेल्स द्वारा लिखित ‘प्रस्तावना’, अंग्रेज़ी संस्करण, पेंगुइन, पृ. 83, अनुवाद हमारा)

लेकिन इसके ठीक बाद एंगेल्स विनम्रतापूर्वक बताते हैं कि ये सारी मुश्किलें वस्तुत: केवल सम्पादन से जुड़ी थीं, लेखन से नहीं और दूसरे खण्ड में प्रस्तुत सामग्री पूर्णत: मार्क्स द्वारा चिन्तित और लिखित है:

“मैंने अधिकतम सम्भव शाब्दिक अर्थ में पाण्डुलिपियों को ही प्रस्तुत करने, शैली में वे बदलाव करने जो मार्क्स ने स्वयं किये होते, और उन जगहों पर कोष्ठकों में कुछ व्याख्याएँ पेश करने और लेखांशों को जोड़ने तक अपने आपको सीमित रखा है, जिन जगहों पर यह एकदम अपरिहार्य था और अर्थ को स्पष्ट करने के लिए ज़रूरी था। जहाँ कहीं भी किसी वाक्य के अर्थ को लेकर कोई हल्का सा भी सन्देह था, वहाँ मैंने उन्हें शब्दश: प्रकाशित करने का चुनाव किया है। मेरी ओर से जो भी पुनर्रचना और प्रक्षेप किये गये हैं वे कुल मिलाकर छपे हुए दस पन्नों से ज़्यादा नहीं है, पूर्ण रूप से औपचारिक चरित्र रखते हैं।” (वही, पृ. 83, अनुवाद हमारा)

बाद में हुए शोध ने बिना शक़ इस बात को साबित किया है कि ‘पूँजी’ के खण्ड 2 और खण्ड 3 के सम्पादन में एंगेल्स ने शानदार काम किया था और अद्भुत प्रतिभा का परिचय दिया था। एंगेल्स ने 1883 में मार्क्स की मृत्यु के बाद अपने बचे जीवन का बड़ा हिस्सा इसी काम को समर्पित किया और मार्क्स के निकटतम कॉमरेड और महान सहचिन्तक की भूमिका सराहनीय ढंग से निभायी। यह भूलना नहीं चाहिए कि एंगेल्स स्वयं एक महान प्रतिभाशाली चिन्तक थे और यदि ‘पूँजी’ की असम्पादित पाण्डुलिपियों के सम्पादन और प्रकाशन का महान ऐतिहासिक कार्यभार उनके कन्धों पर न आ पड़ा होता, तो वे स्वयं कई और महान रचनाओं का लेखन करते। लेकिन मार्क्स की इन पाण्डुलिपियों के सम्पादन व प्रकाशन के अलावा बचने वाले समय में भी उन्होंने अधिक हिस्सा सर्वहारा वर्ग के क्रान्ति के विज्ञान यानी मार्क्सवाद के उसूलों पर बुर्जुआ और पेटी-बुर्जुआ चिन्तकों की ओर से होने वाले हमलों का जवाब देने और मज़दूर वर्ग के समक्ष वैज्ञानिक समाजवाद, द्वन्द्वात्मक और ऐतिहासिक भौतिकवाद के उसूलों को अधिकतम सम्भव सरल रूप में पेश करने में ख़र्च किया।

 

पूँजी’ के दूसरे खण्ड के बारे में कुछ बुनियादी बातें

चूँकि मौजूदा पुस्तक का दूसरा खण्ड मार्क्स की ‘पूँजी’ के दूसरे खण्ड में पेश बुनियादी खोजों व शिक्षाओं को ही अधिकतम सम्भव सरलीकृत रूप में आपके सामने पेश करेगा, इसलिए ‘पूँजी’ के दूसरे खण्ड के विषय में कुछ बातें पहले ही जान लेना उपयोगी होगा।

सबसे पहली बात, जिसका हमने ऊपर भी ज़िक्र किया है, वह यह है कि ‘पूँजी’ का दूसरा खण्ड कई मामलों में ‘पूँजी’ के पहले खण्ड से भिन्न है। इसे शुद्ध रूप से वैज्ञानिक महत्व रखने वाला खण्ड का जा सकता है। पहला खण्ड का भी पूर्णत: वैज्ञानिक महत्व ही रखता है। लेकिन दूसरे खण्ड का कोई उद्वेलनात्मक मूल्य सीधे तौर पर नहीं है। इसलिए एंगेल्स ने ही इसे शुद्ध रूप से वैज्ञानिक मूल्य रखने वाला खण्ड कहा था। यह मज़दूरों और पूँजीपतियों के बीच उत्पादन के सम्बन्धों का विश्लेषण नहीं करता। यह विश्लेषण मार्क्स पहले खण्ड में पेश कर चुके हैं। यह, मूलत: और मुख्यत:, पूँजीपतियों के आपसी सम्बन्धों की बात करता है। मज़दूर इस पूरी चर्चा में मज़दूरी-उत्पादों के ख़रीदार और श्रमशक्ति के विक्रेता के रूप में प्रकट होते हैं। यह मूल्यों और उपयोग-मूल्यों के संचरण की जटिल प्रक्रिया का गहरा विश्लेषण करता है और इसके ज़रिये इस बात की पड़ताल करता है कि वैयक्तिक और साथ ही सामाजिक स्तर पर पूँजी का संचरण और उसका पुनरुत्पादन किस प्रकार होता है। यानी, मुद्रा-पूँजी किस तरीक़े से निवेशित होती है, पहले वह माल-पूँजी में कैसे तब्दील होती है, फिर यह माल-पूँजी किस प्रकार से उत्पादन में लगकर उत्पादक-पूँजी में तब्दील होती है और उत्पादक-पूँजी के प्रकार्य के फलस्वरूप किस तरीके से उत्पादन के बाद वह फिर से नये रूप में माल-पूँजी में तब्दील होती है। सामाजिक स्तर पर किस प्रकार यह प्रकिया सम्पन्न होती है, मार्क्स इसका विश्लेषण करने के लिए समूची पूँजीवादी अर्थव्यवस्था को दो मोटे हिस्सों में विभाजित करते हैं: पहला, उत्पादन के साधनों का उत्पादन करने वाला विभाग, या विभाग-1, और दूसरा, उपभोग के साधनों का उत्पादन करने वाला विभाग, या विभाग-2। विभाग-1 के भीतर, विभाग-2 के भीतर और विभाग-1 व विभाग-2 के बीच किस प्रकार पूँजी (निवेशित होने वाली मुद्रा, जो निवेश के साथ मुद्रा-पूँजी में तब्दील होती है) और आय (उपभोग पर ख़र्च होने वाली मुद्रा आमदनी) का प्रवाह होता है, किस प्रकार उनके पथ आपस में अन्तर्गुन्थित होते हैं, इसका मार्क्स विस्तार में विश्लेषण करते हैं और इसके ज़रिये उपयोग-मूल्य व मूल्य के संचरण की दोहरी व अन्तर्गुंन्थित गति को उजागर करते हैं। इस विश्लेषण के ज़रिये ही मार्क्स दिखला पाये कि पूँजीवाद जैसी अराजक व्यवस्था किन स्थितियों में अपने आपको सफलतापूर्वक (सुगमतापूर्वक नहीं!) पुनरुत्पादित कर पाती है और ठीक इसी के ज़रिये उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि किन स्थितियों में वह सफलतापूर्वक अपना पुनरुत्पादन नहीं पाती।

चूँकि इस दूसरे खण्ड में समूची पूँजीवादी व्यवस्था में पूँजी के संचरण की प्रक्रिया का विश्लेषण है और यह उत्पादन के स्थान, यानी कारखाना, नहीं, बल्कि विनिमय और संचरण के स्थान, यानी बाज़ार पर केन्द्रित है, इसलिए इस खण्ड का विशिष्ट तौर पर और प्रत्यक्ष रूप में कोई उद्वेलनात्मक मूल्य नहीं नज़र आता। यही कारण है कि अपने प्रकाशन के बाद लगभग डेढ़-दो दशकों तक यह पूर्णत: उपेक्षित ही रहा। लेकिन इस दूसरे खण्ड को समझना मार्क्स की ‘पूँजी’ के तीनों खण्डों को समझने के लिए अनिवार्य है। ‘पूँजी’ के तीसरे खण्ड में मार्क्स उत्पादन और संचरण की प्रक्रियाओं को सम्पूर्णता में विश्लेषित ठीक इसलिए ही कर पाते हैं क्योंकि उन्होंने दूसरे खण्ड में ही संचरण की प्रक्रिया की विशिष्टताओं का तार-तार कर गहरा अध्ययन किया। मार्क्स की ‘पूँजी’ की समूची परियोजना में इस दूसरे खण्ड के स्थान को समझने में दुनिया को समय लगा। एंगेल्स ही इसके कारणों को स्पष्ट कर देते हैं। प्योत्र लावरोव को 5 फ़रवरी 1884 को लिखे एक पत्र में वह लिखते हैं:

“यद्यपि जिस चीज़ पर तुरन्त चर्चा की जा सकती है, वह है रूस में इसका अनुवाद प्रकाशित करने की सम्भावना। क्या आपको ऐसा लगता है कि ऐसा किया जा सकता है? यह दूसरी किताब शुद्ध रूप से वैज्ञानिक है, और केवल पूँजीपति से पूँजीपति के सम्बन्धों पर विचार करती है, लेकिन तीसरी वाली में ऐसे अंश होंगे जो मुझमें इस बात को लेकर सन्देह पैदा करते हैं कि जर्मनी में समाजवाद-विरोधी कानून के तहत उनका प्रकाशन होने की कोई सम्भावना भी है या नहीं।” (एंगेल्स का पत्र प्योत्र लावरोव को, 5 फ़रवरी, 1884, मार्क्स-एंगेल्स. 2010. संग्रहीत रचनाएँ, खण्ड-47, लॉरेंस एण्ड विशार्ट, डिजिटल संस्करण, पृ. 93, अनुवाद और ज़ोर हमारा)

इसी प्रकार, 3 जून 1885 को एंगेल्स ने एडॉल्फ़ सोर्गे को लिखे पत्र में लिखा:

पूँजी का दूसरा खण्ड जल्द ही प्रकाशित हो जायेगा; बस मैं प्रस्तावना के प्रूफ-शीट के आखिरी हिस्से का इन्तज़ार कर रहा हूँ जिसमें रॉडबर्टस को एक और झिड़की मिलेगी। तीसरी किताब का काम भी खुशी-खुशी आगे बढ़ रहा है, लेकिन उसमें अभी लम्बा समय लगेगा। ऐसा नहीं कि उससे कोई फ़र्क पड़ता है क्योंकि पहले दूसरे खण्ड को अच्छी तरह से समझना होगा। दूसरा खण्ड लोगों में काफ़ी मायूसी पैदा करेगा क्योंकि यह शुद्ध रूप से वैज्ञानिक रचना है, जिसमें उद्वेदन की सामग्री कम ही मिलेगी। इसके विपरीत तीसरे खण्ड का असर एक बार फिर से बिजली गिरने जैसा होगा, क्योंकि सन्दर्भ के साथ समूचे पूँजीवादी उत्पादन का पहली बार ऐसा विश्लेषण पेश किया गया है और समूचे आधिकारिक बुर्जुआ अर्थशास्त्र को पूर्णत: ख़ारिज कर दिया गया है।” (एंगेल्स का पत्र एडोल्फ़ सोर्गे को, 3 जून, 1885, वही, पृ. 296-97, अनुवाद और ज़ोर हमारा)

13 नवम्बर 1885 को एंगेल्स निकोलाई डेनियलसन को लिखते हैं:

“मुझे इस बात में तनिक भी सन्देह नहीं था कि दूसरे खण्ड से तुम्हें भी उतना ही आनन्द मिलेगा, जितना कि मुझे मिला है। इसमें जो उन्नतियाँ निहित हैं वे वास्तव में इतनी उत्कृष्ट प्रकृति की हैं कि भोंड़ा पाठक उन्हें समझने और उनके नतीजों तक पहुँचने की ज़हमत नहीं उठायेगा। जर्मनी में वास्तव में यही स्थिति है, जिसमें कि राजनीतिक अर्थशास्त्र समेत समूचा ऐतिहासिक विज्ञान इतने निम्न स्तर पर गिर गया है, कि उससे नीचे गिरना मुश्किल है। हमारे कैथेडर-समाजवादी (जर्मनी में मौजूद कुर्सीतोड़ समाजवादियों की एक किस्म-ले.) कभी भी लोकोपकारी भोंड़े अर्थशास्त्रियों से ज़्यादा कुछ भी नहीं रहे हैं, और अब वे बिस्मार्क के राजकीय समाजवाद के साधारण क्षमाप्रार्थियों के स्तर पर जा गिरे हैं। उनके लिए, दूसरा खण्ड हमेशा एक सील-बन्द किताब ही रहेगी। यह उस चीज़ का एक उत्कृष्ट उदाहरण है जिसे हेगेल ‘दुनिया की आम विडम्बना’ कहते हैं, कि जर्मन ऐतिहासिक विज्ञान जर्मनी की प्रथम यूरोपीय शक्ति बन जाने के तथ्य से ही फिर से उस निकृष्ट अवस्था में पहुँच गया है जिसमें कि वह तीस वर्ष के युद्ध के बाद गहनतम राजनीतिक पतन के कारण पहुँच गया था। लेकिन सच्चाई यही है। और इस प्रकार, जर्मन ‘विज्ञान’ इस नये खण्ड की ओर ऐसे देखता है जैसे किसी ऐसी चीज़ की ओर देख रहा जिसे वह समझ नहीं सकता; केवल नतीजों का एक भारी भय उसे सार्वजनिक तौर पर इसकी आलोचना करने से रोक रहा है, और इसलिए, आधिकारिक आर्थिक साहित्य इसके बारे में एक सावधान चुप्पी बनाये हुए हैं। लेकिन तीसरा खण्ड उन्हें अपना मुँह खोलने के लिए मजबूर कर देगा।” (एंगेल्स का पत्र निकोलाई डेनियलसन के लिए, 13 नवम्बर 1885, वही, पृ. 348, अनुवाद और ज़ोर हमारा)

एंगेल्स की यह भविष्यवाणी सही साबित हुई थी। अर्थशास्त्र की दुनिया में हर प्रकार के भोंड़े लेखक, पाठक आदि के लिए आज भी ‘पूँजी’ का दूसरा खण्ड की ‘सीलबन्द किताब’ ही है।

अपने प्रकाशन के लगभग 10 साल बाद पहली बार इस पुस्तक की चर्चा हुई। कारण था दो रूसी मार्क्सवादियों तुगान-बरानोव्स्की तथा बुल्गाकोव द्वारा बाज़ार के प्रश्न पर पुस्तकों का प्रकाशन। 1894 में तुगान-बरानोव्स्की, जो बाद में मार्क्सवाद से विचलन कर गये, ने अपनी पुस्तक ‘इंग्लैण्ड में वाणिज्यिक संकटों का सिद्धान्त और इतिहास’ प्रकाशित की, जिसमें मार्क्स द्वारा ‘पूँजी’ के दूसरे खण्ड में पेश प्रसिद्ध पुनरुत्पादन स्कीमा (ख़ाका या ढाँचा) का उन्होंने इस्तेमाल किया। यह दीगर बात है कि मार्क्स द्वारा उन आपवादिक स्थितियों को बाद में उन्होंने सामान्यीकृत कर दिया, जिनमें पूँजीवादी व्यवस्था अपने आपको पुनरुत्पादित कर सकती है और इस नतीजे पर जा पहुँचे कि पूँजीवाद अनन्तकाल तक अपने आपको पुनरुत्पादित कर सकता है। उनके द्वारा शुरू की गयी इस धारा को बाद में सामंजस्यवादी धारा (harmonist school) की संज्ञा दी गयी क्योंकि वह मानती थी कि पूँजीवाद में विभिन्न विभागों के बीच समानुपात या सामंजस्य बना रह सकता है। ज़ाहिर है यह मार्क्स की पुनरुत्पादन के स्कीमा को समझने में इस धारा की अवधारणात्मक भूल थी। दूसरे छोर की भूल रोज़ा लक्ज़ेमबर्ग के अल्पउपभोगवादी स्कूल की ओर से हुई, जिसने मार्क्स के पुनरुत्पादन के स्कीमा को ही इस प्रकार के भ्रमों के जनक बताया और उसे ख़ारिज कर दिया। इस पुस्तक के मौजूदा दूसरे खण्ड में हम इन दोनों ही ग़लत व्याख्याओं की मार्क्सवादी नज़रिये से उचित स्थान पर आलोचना पेश करेंगे। अल्पउपभोगवादी स्कूल की ग़लती यह थी कि यह इस बुनियादी बात को नहीं समझता है कि पूँजीवादी व्यवस्था के संकटों का बुनियादी कारण उत्पादन के बुनियादी विभागों के बीच का अननुपात या फिर जनता का अल्पउपभोग नहीं है, क्योंकि पूँजीवादी व्यवस्था में पूर्ण विभागीय अनुपात सम्भव ही नहीं है और दूसरा उसमें उत्पादन मुनाफ़े के लिए होता है, उपभोग के लिए नहीं। विभागों के बीच अनुपात के अभाव में संकट का पैदा होना या बाज़ार में बिकवाली का संकट पैदा होना वास्तव में संकट का आधारभूत कारण नहीं है, बल्कि महज़ लक्षण हैं। ये लाभप्रदता के संकट के लक्षण हैं। बहरहाल, इन मसलों पर हम इस पुस्तक के तीसरे खण्ड में आयेंगे जिसमें हम मार्क्स की ‘पूँजी’ के तीसरे खण्ड की खोजों पर विस्तार से चर्चा करेंगे।

अभी हम बस इतना बताना चाहते हैं कि दूसरे खण्ड के बारे में बौद्धिक जगत में कुछ चर्चा तुगान-बरानोव्स्की की 1894 की पुस्तक के साथ शुरू हुई। 1897 में भी बुल्गाकोव की पुस्तक ‘पूँजीवादी उत्पादन के लिए बाज़ार के प्रश्न पर’ के प्रकाशन के साथ भी इस पर कुछ चर्चा हुई। वास्तव में, तुगान-बरानोव्स्की और बुल्गाकोव से पहले ही लेनिन ने अपनी शुरुआती रचना ‘तथाकथित बाज़ार प्रश्न पर’ में मार्क्स की ‘पूँजी’ के दूसरे खण्ड में पेश पुनरुत्पादन स्कीमा का व्यापक तौर पर इस्तेमाल किया था। यह एक लम्बा लेख था जिसे 1893 में लिखा गया था। इसे पढ़ते ही हमें लेनिन द्वारा ‘पूँजी’ के गहरे अध्ययन का अन्दाज़ा चल जाता है। लेकिन इस रचना की प्रतियों को रूस के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के मण्डलों में पढ़ा गया। 1930 तक यह रचना प्रकाशित नहीं हुई थी। यह लेख एक जी. क्रासिन द्वारा इसी विषय पर दिये गये व्याख्यान के जवाब में सेण्ट पीटर्सबर्ग के सामाजिक-जनवादी (कम्युनिस्ट) क्रान्तिकारियों के समक्ष पेश मौखिक रिपोर्ट पर आधारित था। लम्बे समय तक इस पाण्डुलिपि का पता नहीं चल पा रहा था। बाद में इसकी पाण्डुलिपि मिल गयी और 1930 में सोवियत यूनियन में इसे प्रकाशित किया गया।

‘पूँजी’ की समूची परियोजना में ‘पूँजी’ के दूसरे खण्ड के स्थान को समझना मार्क्स द्वारा पेश आर्थिक विज्ञान को समुचित तरीके से समझने के लिए अनिवार्य है। जो इस दूसरे खण्ड को लाँघकर सीधे तीसरे खण्ड पर पहुँच जाता है (जैसा कि मार्क्स के संकट के सिद्धान्त, लगान के सिद्धान्त और ब्याज के सिद्धान्त को समझने की जल्दबाज़ी में कई लोग करते हैं), उसके साथ इस बात का ख़तरा अनिवार्यत: रहता है कि वह माल में अन्तर्निहित बुनियादी अन्तरविरोध के खुलने और विकसित होने की प्रक्रिया की मार्क्स द्वारा की गयी गहरी पड़ताल को समझने से ही चूक जाता है।

माल-रूप में उपयोग-मूल्य और मूल्य के बीच का अन्तरविरोध सतत् मौजूद रहता है और पूँजीवादी माल उत्पादन के समस्त अन्तरविरोधों की जड़ में यही अन्तरविरोध होता है। माल बिकेगा या नहीं, यह कोई पूँजीपति पहले से नहीं जानता है। वह मुनाफ़े की अपेक्षाओं के आधार पर माल का उत्पादन करता है और अपनी उत्पादन शाखा के पूँजीपतियों के साथ सस्ते से सस्ता बेचने की प्रतिस्पर्द्धा में लगा रहता है। उसके पास पहले से यह जानने का कोई रास्ता नहीं होता है कि उसका माल बिकेगा या नहीं। पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में पैदा हो रहे समस्त भिन्न-भिन्न उपयोग-मूल्यों, यानी अलग-अलग मालों का आपस में सुगमता के साथ विनिमय हो जाये, इसे सुनिश्चित करने का कोई रास्ता नहीं होता। वस्तुत:, आम तौर पर ऐसा नहीं होता है। अलग-अलग मालों की माँग और आपूर्ति के समीकरणों में लगातार किसी न किसी प्रकार का असन्तुलन मौजूद रहता है। ऐसा ही हो भी सकता है। क्योंकि उत्पादन सामाजिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए किसी योजना पर आधारित नहीं होता। उत्पादन का विनियामक होता है निजी मुनाफ़ा, जिसके लिए अलग-अलग पूँजीपति आपस में प्रतिस्पर्द्धारत होते हैं। यह अराजकता उसी बुनियादी अन्तरविरोध से पैदा होती है जो माल-रूप में ही अन्तर्निहित होता है: यानी, एक उपयोग-मूल्य को उपयोग-मूल्य के रूप में वास्तवीकृत होने से पहले, यानी उपयोग में जाने से पहले, मूल्य के रूप में वास्तवीकृत होना होता है, यानी बिकना होता है। लेकिन यह बिकवाली पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में एक पक्की बात नहीं होती, बल्कि अनिश्चितताओं में घिरी होती है। मूल्यों व उपयोग-मूल्यों के संचरण में, पूँजी के विभिन्न रूपों व आय के विभिन्न रूपों के बीच, समानुपात होना पूँजीवाद में आपवादिक होता है। मार्क्स दूसरे खण्ड की पाण्डुलिपियों के लेखन के दौरान ही एंगेल्स को ही एक पत्र में लिखते हैं:

“जैसा कि तुम जानते हो, दूसरी किताब (खण्ड-2 – अनु.) में पहली किताब में निर्धारित आधारों पर पूँजी के संचरण की प्रक्रिया का वर्णन किया गया है। इसीलिए संचरण की प्रक्रिया से ही कुछ नयी औपचारिक श्रेणियाँ निकलकर आती हैं, जैसे कि चल और अचल पूँजी, पूँजी का टर्नओवर, आदि। अन्त में, पहली किताब में हमने इस मान्यता के साथ सन्तोष कर लिया था कि अगर आत्म-संवर्धन की प्रक्रिया में 100 पाउण्ड 110 पाउण्ड में तब्दील हो जाते हैं, तो इस 110 पाण्ड को बाज़ार में वे तत्व पहले से अस्तित्वमान मिलेंगे जिनमें एक बार फिर इन्हें बदलना होगा। लेकिन अब हम उन स्थितियों की जाँच-पड़ताल करेंगे जिनमें ये तत्व तैयार मिलते हैं, यानी विभिन्न पूँजियों के, पूँजी के विभिन्न अंगों और आय (यानी, बेशी मूल्य) के सामाजिक अन्तर्गुन्थन की।” (मार्क्स का पत्र एंगेल्स को, 30 अप्रैल 1868, मार्क्स-एंगेल्स. सेलेक्टेड करेस्पॉण्डेंस, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, मॉस्को, पृ. 101, अनुवाद और ज़ोर हमारा)

इस प्रकार मार्क्स दूसरे खण्ड में उन स्थितियों की जाँच करते हैं, जिनमें पूँजीवादी अर्थव्यवस्था अपने आपको पुनरुत्पादित कर सकती है और इसके साथ ही वे स्थितियाँ भी उजागर हो जाती हैं, जिनमें वह अपने आपको पुनरुत्पादित नहीं कर पाती। जैसा कि हमने ऊपर बताया, इसके लिए मार्क्स पूँजीवादी उत्पादन को दो बुनियादी विभागों में बाँटते हैं और उनके बीच उपयोग-मूल्य और मूल्य के विनिमय की समानुपातिकता की स्थितियों की जाँच करते हैं। हम अभी इस बात पर चर्चा नहीं करेंगे (जो इस पुस्तक के तीसरे खण्ड का एक विषय है) कि किस प्रकार विभागों के बीच समानुपात या उसका अभाव वास्तव में पूँजी की लाभप्रदता की गति का ही परिणाम होती है। दूसरे खण्ड में मार्क्स अपने उपरोक्त विश्लेषण के आधार पर दिखलाते हैं कि किस प्रकार लाभप्रदता के गति के कारण पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में माँग और आपूर्ति के बीच का असन्तुलन नियमित तौर पर एक ऐसी अवस्था में पहुँच जाता है, जहाँ वह मन्दी और संकट के भँवर में उलझ जाती है। इस बात को समझे बग़ैर अगर ‘पूँजी’ के तीसरे खण्ड के अध्ययन की शुरुआत कर दी जाय तो माल में मौजूद अन्तर्भूत अन्तरविरोध से पैदा होने वाले तमाम अन्तरविरोधों की समझ विकसित कर पाना असम्भव हो जाता है, मसलन, बाज़ार की समस्या, मूल्य और बेशी मूल्य के वास्तवीकरण के संकट का सवाल, आदि।

कहने की आवश्यकता नहीं कि इन सवालों पर संक्षेप में मार्क्स ‘पूँजी’ के पहले खण्ड में ही चर्चा करते हैं। लेकिन इन समस्याओं को उनके सम्पूर्ण रूप में मार्क्स ‘पूँजी’ के दूसरे खण्ड में ही समझाते हैं। मार्क्स यहाँ अलग-अलग पूँजियों की गति, मूल्य और उपयोग-मूल्य की अन्तर्गुन्थित दोहरी गति, माँग और आपूर्ति के समतुलन की अभाव की समस्या के विश्लेषण के आधार पर अपने पुनरुत्पादन के स्कीमा को विकसित करते हैं।

मार्क्स दिखलाते हैं कि पूँजीवादी माल उत्पादन की बुनियादी गति विस्तारित पुनरुत्पादन और पूँजी का संचय है। विस्तारित पुनरुत्पादन और पूँजी संचय के आम नियम के कारण, पूँजी के बढ़ते आवयविक संघटन और मुनाफ़े की औसत दर में गिरने की प्रवृत्ति, पूँजी के संघनन और संकेन्द्रण, इजारेदारीकरण और नये स्तर पर प्रतिस्पर्द्धा के पैदा होने के कारण ही मूल्य व बेशी मूल्य के वास्तवीकरण की पूर्वशर्तें आम तौर पर पूरी नहीं हो पाती हैं।

मार्क्स अपने विश्लेषण की शुरुआत स्मिथ व रिकार्डो के पहले एक राजनीतिक अर्थशास्त्र के स्कूल फ़िज़ियोक्रैट्स से करते हैं। इस स्कूल के फ्रांस्वा केन्ने (Quesney) की पुस्तक ‘टाब्लो इकोनोमीक’ में पहली बार पुनरुत्पादन की प्रक्रिया का व्यापक अध्ययन किया। इस पुस्तक में केन्ने ने एक बुनियादी सच्चाई की पहचान की : हर प्रकार की आय, चाहे वह पूँजीपति की आय हो, मज़दूर की आय हो, भूस्वामी की आय हो, सूदखोर की आय हो, या किसी टुटपुँजिया वर्ग की आय हो, वह बिना अपवाद उत्पादन के क्षेत्र में जन्म लेती है। मार्क्स ने इस रचना का आलोचनात्मक विवेचन करते हुए पुनरुत्पादन की प्रक्रिया के अपने अध्ययन की शुरुआत की। इस प्रक्रिया में वह स्मिथ व रिकार्डो की इस विषय में समझदारी की भी बात करते हैं और बताते हैं कि इस विशिष्ट विषय पर केन्ने की खोजें कहीं अधिक श्रेष्ठ स्तर की हैं। लेकिन मार्क्स वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने पुनरुत्पादन की समूची प्रक्रिया का सम्पूर्णता में अध्ययन किया, उसमें मूल्य व उपयोग-मूल्य के बीच के अन्तरविरोध के कारण जन्म लेने वाले अन्तरविरोधों की सटीक पहचान की और उन स्थितियों को दिखलाया में जिसमें पुनरुत्पादन उतार-चढ़ाव के साथ या सुगमता के साथ हो सकता है, या नहीं हो सकता है। बाद में भी इस प्रश्न पर वॉलरा, कींस, लियोन्तियेव जैसे अर्थशास्त्रियों ने काम किया लेकिन मार्क्स द्वारा इस क्षेत्र में लगायी गयी वैचारिक छलाँग की तुलना में उनका लेखन किसी प्रगति की नुमाइन्दगी नहीं करते हैं, बल्कि कई मामलों में उससे पीछे जाते हैं।

जैसा कि हमने ऊपर बताया, ‘पूँजी’ के पहले खण्ड में मार्क्स उत्पादन के स्थान यानी कारखाने पर ध्यान केन्द्रित करते हैं। वह दिखलाते हैं कि किस प्रकार एक ओर पूँजीवादी उत्पादन की प्रक्रिया किसी भी उत्पादन की प्रक्रिया के समान एक श्रम-प्रक्रिया होती है जो उपयोग-मूल्यों को पैदा करती है, वहीं दूसरी ओर वह एक मूल्य-संवर्द्धन प्रक्रिया होती है, यानी बेशी मूल्य को पैदा करने की प्रक्रिया होती है, जो कि पूँजीवादी उत्पादन का लक्ष्य होता है। यहाँ वह पूँजीपति और मज़दूर के रिश्ते को विस्तृत तरीक़े से समझाते हैं और पूँजीवादी मुनाफ़े के स्रोत और साथ ही भूस्वामी के लगान, सूदखोर के ब्याज, व्यापारी के व्यापारिक मुनाफ़े, सभी के स्रोत की ओर भी इशारा कर देते हैं, यानी बेशी मूल्य का उद्यमी पूँजीपति द्वारा विनियोजन। लेकिन दूसरे खण्ड में वह उत्पादन की बजाय पूँजी के संचरण की प्रक्रिया को केन्द्र में रखते हैं। यहाँ वह उद्यमी पूँजीपति (जो कि श्रमशक्ति को ख़रीदकर उसका शोषण करता है और बेशी श्रम को बेशी मूल्य के रूप में विनियोजित करता है), पूँजीवादी भूस्वामी (जो विनियोजित बेशी मूल्य का एक हिस्सा लगान के रूप में प्राप्त करता है), पूँजीवादी सूदखोर (जो बेशी मूल्य का एक हिस्सा ब्याज के रूप में प्राप्त करता है), और व्यापारिक पूँजीपति (जो बेशी मूल्य का एक हिस्सा व्यापारिक मुनाफ़े के रूप में प्राप्त करता है) के बीच के रिश्तों का क़रीबी से विश्लेषण करते हैं, और मज़दूर यहाँ पर केवल मज़दूरी-उत्पादों के ख़रीदार के रूप में और श्रमशक्ति के विक्रेता के रूप में सामने आता है, बेशी मूल्य का उत्पादन करने वाले के रूप में नहीं। ऐसा इसलिए भी है कि पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में शुद्ध उत्पाद (यानी ख़र्च होने वाले उत्पादन के साधनों की भरपाई और ख़र्च होने वाले उपभोग के साधनों की भरपाई के बाद बचने वाला उत्पाद) के लिए प्रभावी माँग पूँजीपति वर्ग और उसके अहलकारों के वर्ग के बीच से ही पैदा होती है, न कि मज़दूर वर्ग के बीच से। यह सच है कि सम्बन्धों के इस संकुल का आधार वास्तव में मज़दूर द्वारा पूँजीपति को श्रमशक्ति का विक्रय ही है, क्योंकि इसके बिना न तो मूल्य व बेशी मूल्य पैदा हो सकता है, न उपयोग-मूल्य पैदा हो सकता है, और न ही उनके वास्तवीकरण का प्रश्न पैदा हो सकता है और नतीजतन संचरण की प्रक्रिया का प्रश्न ही ग़ायब हो जाता है।

अधिकांश भोंड़े अर्थशास्त्री (जिनमें कुछ “मार्क्सवादी” अर्थशास्त्री भी शामिल हैं) ‘पूँजी’ के दूसरे खण्ड के महत्व को नहीं समझ पाते हैं। उसकी वजह यह है कि मार्क्सवादी अर्थशास्त्र के विषय में उनका ज्ञान अक्सर गौण स्रोतों, मसलन, कुछ ख़राब पाठ्यपुस्तकों पर आधारित होता है। साथ ही, वे लोग भी इस खण्ड का मूल्य नहीं समझ पाते, जो इसमें कोई उद्वेलनात्मक सामग्री नहीं ढूँढ पाते हैं। वे मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के सम्पूर्ण वैज्ञानिक चरित्र को नहीं समझ पाते। नतीजतन, वे यह समझने में असफल रहते हैं कि मार्क्स का राजनीतिक अर्थशास्त्र समूची पूँजीवादी व्यवस्था के पूरे काम करने के तरीक़े और उसकी गति के नियमों को उजागर करता है, जिसमें महज़ पूँजीपति वर्ग और मज़दूर वर्ग के सम्बन्धों की पड़ताल ही शामिल नहीं है, बल्कि आधुनिक पूँजीवादी समाज के सभी बुनियादी वर्गों के बीच के सम्बन्धों की पड़ताल शामिल है। अन्तत:, ऐसे लोग पूँजी के उत्पादन की प्रक्रिया और पूँजी के संचरण की प्रक्रिया की बुनियादी एकता को नहीं समझ पाते हैं, जिसमें बुनियादी निर्धारक भूमिका निश्चित तौर पर उत्पादन की प्रक्रिया ही निभाती है। यह एक अन्तरविरोधी एकता होती है और इस अन्तरविरोध का स्रोत और कुछ नहीं बल्कि स्वयं माल के भीतर मौजूद अन्तरविरोध ही है। यानी, उपयोग-मूल्य और विनिमय-मूल्य के बीच का अन्तरविरोध। ऐसे लोगों के विपरीत आजकल कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो उत्पादन की प्रक्रिया के निर्धारक महत्व को नहीं समझते और पूँजीवादी शोषण का मूल, आय के विभिन्न रूपों के समाज के विभिन्न वर्गों में बँटवारे के मूल को संचरण की प्रक्रिया में ढूँढते हैं और ‘पूँजी’ के दूसरे खण्ड को ठीक वह स्थान देते हैं, जो उसका स्थान हो ही नहीं सकता है। वे भी वास्तव में इस दूसरे खण्ड को समझने में असफल रहते हैं। ऐसे लोग पूँजीवादी संकट का मूल भी उत्पादन की प्रक्रिया में देखने के बजाय संचरण की प्रकिया में, बाज़ार में और मूल्य का वास्तवीकरण न होने के संकट में ढूँढते हैं। ये दोनों ही छोर ग़लत हैं और इन पर खड़े लोग मार्क्स की ‘पूँजी’ की परियोजना को समझने में असफल रहते हैं।

जैसा कि हमने कहा ‘पूँजी’ के दूसरे खण्ड के महत्व और उसमें पेश खोजों के अर्थ को समझने के लिए यह अनिवार्य है कि हम उत्पादन की प्रक्रिया और संचरण की प्रक्रिया की अन्तरविरोधी एकता को समझें। सामाजिक श्रम विभाजन के साथ जैसे-जैसे माल उत्पादन का विकास हुआ, जैसे-जैसे माल उत्पादन के ही आन्तरिक नियमों के परिणामस्वरूप बहुत-से माल उत्पादक बरबाद हुए, जैसे-जैसे आदिम संचय की प्रक्रिया के साथ प्रत्यक्ष उत्पादकों की एक भारी आबादी को उनके उत्पादन के साधनों व उपभोग के साधनों से वंचित कर उजरती श्रमिकों की एक भारी आबादी और उत्पादन के साधन पर इजारेदार मालिकाना रखने वाले पूँजीपतियों की एक छोटी-सी आबादी पैदा हुई, वैसे-वैसे छोटे पैमाने के उत्पादन का ह्रास हुआ और उत्पादन का समाजीकरण अधिक से अधिक व्यापक रूप ग्रहण करता गया। आज एक माल के उत्पादन में ही सैंकड़ों और कई बार हज़ारों मज़दूर सामूहिक तौर पर लगे होते हैं। उनके श्रम का चरित्र सामाजिक होता है। लेकिन साथ ही उनके श्रम का चरित्र निजी भी होता है, क्योंकि उत्पादन की स्थितियों या साधनों की मालिक पूँजीपति होता है जो श्रमशक्ति को एक निश्चित अवधि के लिए ख़रीदता है और इस रूप में उसके श्रम के उत्पाद का स्वामी होता है। नतीजा यह होता है कि मज़दूर का श्रम एक साथ ही सामाजिक भी होता है (क्योंकि हज़ारों मज़दूरों के सामूहिक श्रम के ज़रिये ही किसी भी माल का उत्पादन होता है) और निजी भी होता है (क्योंकि समूची श्रम व उत्पादन प्रक्रिया और उसके द्वारा पैदा मूल्य व उपयोग-मूल्य पर पूँजीपति का अधिकार होता है)। समूचे सामाजिक श्रम को किस अनुपात में उत्पादन की किन-किन शाखाओं में लगाया जाना है, यह तय करने का अधिकार सामाजिक आवश्यकताओं के आकलन के आधार पर समाज को नहीं होता है, बल्कि आपस में प्रतिस्पर्द्धारत निजी पूँजीपतियों को होता है। नतीजतन, मज़दूर के श्रम का सामाजिक चरित्र सीधे हमें दिखलायी नहीं पड़ता है। वह केवल उस उत्पाद के बाज़ार में बिकने के साथ बाद में प्रकट होता है। यदि सामाजिक श्रम के उत्पाद का एक हिस्सा बाज़ार में नहीं बिक पाता, यानी उसका मूल्य वास्तवीकृत नहीं हो पाता, तो वह एक उपयोग-मूल्य के रूप में भी वास्तवीकृत नहीं हो पाता और सामाजिक उपभोग में नहीं जा पाता। दूसरे शब्दों में, उसमें लगे श्रम को सामाजिक श्रम की मान्यता प्राप्त नहीं होती। इस प्रकार वस्तुगत तौर पर सामाजिक हो चुके श्रम का सामाजिक चरित्र तभी पहचाना जाता है, जब माल बिकता है। इसके साथ ही हम जान पाते हैं कि पूँजीवादी माल उत्पादन में लगे श्रम का कौन-सा हिस्सा समाज द्वारा सामाजिक श्रम के रूप में मान्यता प्राप्त करता है।

मालों के बिकने या न बिकने की अनिश्चितता वास्तव में उपयोग-मूल्य और विनिमय-मूल्य के अन्तरविरोध की ही अभिव्यक्ति है। यह सामाजिक श्रम और निजी विनियोजन के बीच के अन्तरविरोध को ही हमारे सामने पेश करती है। और इस प्रश्न को तभी समझा जा सकता है जब वैयक्तिक पूँजियों के पुनरुत्पादन व संचरण की प्रक्रिया, और उसके आधार पर समाज के स्तर पर कुल पूँजी के पुनरुत्पादन व संचरण की प्रक्रिया का क़रीबी से अध्ययन किया जाय। मार्क्स ‘पूँजी’ के खण्ड-2 में यही करते हैं।

जब हम एक पूँजीवादी समाज में मालों के संचरण का अध्ययन करते हैं, तो हमें वास्तव में पूँजी के संचरण का अध्ययन करते हैं। वजह यह कि पूँजीवादी समाज में माल पूँजी के रूप में ही संचरित होते हैं। वह किसी साधारण माल उत्पादक द्वारा उत्पादित माल नहीं होता जिसका मूल्य उसके उत्पादन में लगे अप्रत्यक्ष श्रम (यानी ख़र्च होने वाले उत्पादन के साधनों में लगे श्रम) और उसके प्रत्यक्ष श्रम से निर्धारित होता है, जो अभी मुनाफ़े और मज़दूरी में विभाजित नहीं हो रहा। बल्कि यहाँ माल एक पूँजीपति द्वारा उजरती श्रम के शोषण के आधार पर उत्पादित होता है, जिसका मूल्य उसमें लगे उत्पादन के साधनों के मूल्य, यानी अप्रत्यक्ष श्रम, और उजरती मज़दूरों के प्रत्यक्ष श्रम के मूल्य से निर्धारित होता है, जो अब दो हिस्सों में बँटता है: मज़दूरी और मुनाफ़ा। यह माल मूल्य-संवर्द्धन से गुज़र चुकी पूँजी का प्रतिनिधित्व करता है और वस्तुत: माल-पूँजी के रूप में पूँजी ही है। यानी, अब साधारण उत्पादन के दौर के विपरीत, माल स्वयं पूँजी के रूप में संचरित होते हैं।

इसके साथ संचरण की प्रक्रिया को समझने में कई जटिलताएँ आती हैं। इन्हीं जटिलताओं को हल करने के लिए मार्क्स पहले वैयक्तिक पूँजियों के पुनरुत्पादन की प्रक्रिया का क़रीबी से अध्ययन करते हैं और उसके आधार पर सामाजिक स्तर पर कुल पूँजी के पुनरुत्पादन और संचरण यानी सामाजिक पूँजी के टर्नओवर की प्रक्रिया को समझाते हैं। पूँजी के टर्नओवर का अर्थ है पूँजी के मुद्रा-रूप में निवेशित होने यानी माल-पूँजी (उत्पादन के साधन और श्रमशक्ति) में तब्दील होने के बाद, उत्पादन के ज़रिये मूल्य-संवर्द्धन से गुज़रने और संवर्द्धित मूल्य से लैस उत्पादित माल-पूँजी के बाज़ार में बिकने और उसके फिर से मुद्रा-रूप में वापस आने में लगने वाला समय। यानी मुद्रा रूप में निवेशित पूँजी का उत्पादन के ज़रिये मूल्य-संवर्द्धन और बिकवाली के बाद वापस मुद्रा-रूप में आने में लगने वाला समय।

मार्क्स पहले वैयक्तिक पूँजी के टर्नओवर की पूरी प्रक्रिया का अध्ययन करते हैं, जिसके लिए वे पूँजी के विभिन्न सर्किटों की बात करते हैं। उसके बाद, उसके आधार पर वे सामाजिक स्तर पर कुल पूँजी के टर्नओवर का विश्लेषण करते हैं। ज़ाहिर है, विश्लेषण का वैज्ञानिक और तार्किक क्रम यही हो सकता है। वैसे भी सामाजिक स्तर पर कुल पूँजी के टर्नओवर को तभी समझा जा सकता है, जब अलग-अलग पूँजियों के बीच प्रतिस्पर्द्धा और उनके बीच विनियोजित बेशी मूल्य के पुनर्वितरण के उनके टर्नओवर पर असर को समझा जा सके। इसी प्रक्रिया में, मार्क्स इस बुनियादी सवाल का हल हमारे सामने पेश करते हैं: निजी विनियोजन और प्रतिस्पर्द्धा पर आधारित पूँजीवाद जैसी अराजक व्यवस्था किन स्थितियों में अपने आपको पुनरुत्पादित कर पाती है? इसी सवाल का जवाब देने की प्रक्रिया में मार्क्स अपने पुनरुत्पादन के स्कीमा को विकसित करते हैं, जो दूसरे खण्ड के प्रकाशन के कुछ समय बाद से ही बहस के केन्द्र में आ गये थे और आज भी बहस का मसला बने हुए हैं।

मार्क्स पूँजी के संचय और विस्तारित पुनरुत्पादन की चर्चा पहले खण्ड में और दूसरे खण्ड में, दोनों में ही करते हैं। पहले खण्ड में यह चर्चा पूर्णत: उत्पादन की प्रक्रिया के अंग के रूप में होती है, जहाँ मार्क्स यह दिखलाते हैं कि किस प्रकार पूँजीपति वर्ग आपसी प्रतिस्पर्द्धा और मज़दूर वर्ग के साथ प्रतिस्पर्द्धा के कारण पूँजी के आवयविक संघटन को निरन्तर बढ़ाने को मजबूर होता है और इसी के साथ विनियोजित बेशी मूल्य के एक हिस्से को पूँजी में रूपान्तरित करने के लिए बाध्य होता है। इसके साथ ही पहले से ज़्यादा उत्पादन के साधनों पर पहले से ज़्यादा संख्या में मज़दूर (हालाँकि मज़दूरों की संख्या उसी अनुपात में नहीं बढ़ती जिस अनुपात में उत्पादन के साधन बढ़ते हैं) काम करते हैं, जो पहले से ज़्यादा परिमाण  में मुनाफ़ा पैदा करते हैं (हालाँकि इसका अर्थ हमेशा मुनाफ़े की दर में वृद्धि नहीं होती है) पैदा करते हैं। दूसरे खण्ड में साधारण पुनरुत्पादन में माल के संचरण पर बुनियादी चर्चा के बाद मार्क्स पूरी तरह से विस्तारित पुनरुत्पादन की स्थितियों में पूँजी के पुनरुत्पादन और संचरण की चर्चा करते हैं, जिसके लिए पहले वे वैयक्तिक पूँजियों के स्तर पर विश्लेषण करते हैं और फिर सामाजिक स्तर पर कुल पूँजी के आधार पर विश्लेषण करते हैं और अपने पुनरुत्पादन स्कीमा के आधार पर समूची पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के पुनरुत्पादन की स्थितियों को स्पष्ट करते हैं। इसी के आधार पर मार्क्स पूँजी के संचरण की प्रक्रिया में निहित अन्तरविरोधों को पहली बार उजागर करते हैं और दिखलाते हैं कि यह माल में निहित अन्तरविरोध, उपयोग-मूल्य और विनिमय-मूल्य के बीच के अन्तरविरोध का ही विस्तार है, सामाजिक श्रम और निजी विनियोजना के बीच के अन्तरविरोध की ही अभिव्यक्ति है।

इसलिए दूसरे खण्ड की विशिष्टता को समझना भी आवश्यक है और ‘पूँजी’ की समूची परियोजना में उसके तार्किक स्थान को समझना भी आवश्यक है। इसी के आधार में हम उत्पादन की प्रक्रिया और संचरण की प्रक्रिया की अन्तरविरोधी एकता को समझ सकते हैं। इस समझ के आधार पर ही ‘पूँजी’ के तीसरे खण्ड की भी एक समुचित समझदारी निर्मित हो सकती है, जहाँ मार्क्स सम्पूर्णता में पूँजीवादी उत्पादन की गति के नियमों को उजागर करते हैं, जहाँ वे उसके बुनियादी अन्तरविरोध को स्पष्ट करते हुए पूँजीवादी संकट का एक सटीक वैज्ञानिक सिद्धान्त पेश करते हैं, जो ऐतिहासिक तौर पर सही सिद्ध हुआ है। इसलिए दूसरे खण्ड को भी हमें उतनी ही गहराई से समझने की आवश्यकता है, जितनी गहराई से पहले और तीसरे खण्ड को।

 

मौजूदा पुस्तक के इस दूसरे खण्ड में हम मार्क्स की ‘पूँजी’ के दूसरे खण्ड में पूँजी के संचरण की प्रक्रिया की बुनियादी गतिकी के बारे में उजागर नियमों को ही अधिकतम सम्भव सरल शब्दों में समझेंगे। यह ‘पूँजी’ के दूसरे खण्ड को पढ़ने का विकल्प नहीं है, बल्कि उसे पढ़ने वालों के लिए एक कुतुबनुमा का काम करेगा, जिसके ज़रिये पाठकों के लिए उसे समझना कुछ सुगम और सरल बनाया जा सके। इसी प्रक्रिया में हम मार्क्स के राजनीतिक अर्थशास्त्र के इन बुनियादी उसूलों की कुछ ग़लत व्याख्याओं का भी खण्डन करेंगे और साथ ही उस पर बाद में हुए हमलों या उसकी ग़लत अवस्थितियों से की गयी आलोचनाओं का जवाब भी देंगे।

हम उम्मीद करते हैं हम अपने इस उद्देश्य में सफल होंगे और यह पुस्तक किसी न किसी रूप में मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के इस विशिष्ट पहलू, यानी पूँजी के संचरण की प्रक्रिया की गतिकी, को समझने में मज़दूर साथियो, छात्र-युवा साथियो, व क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए मददगार साबित होगी।

 

मज़दूर बिगुल, फरवरी 2025


 

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