पाँच दिवसीय सातवीं अन्तरराष्ट्रीय अरविन्द स्मृति संगोष्ठी हैदराबाद में सम्पन्न हुई!
फ़ासीवाद की सही समझ के साथ इसके विरुद्ध संघर्ष तेज़ करने का संकल्प
बिगुल संवाददाता
गत 29 दिसम्बर 2024 से 2 जनवरी 2025 के बीच ‘इक्कीसवीं सदी में फ़ासीवाद: निरन्तरता और परिवर्तन के तत्व और समकालीन सर्वहारा रणनीति का प्रश्न’ विषयक सातवीं अन्तरराष्ट्रीय अरविन्द स्मृति संगोष्ठी हैदराबाद में सम्पन्न हुई। अरविन्द स्मृति न्यास द्वारा आयोजित इस संगोष्ठी में 400 से अधिक लोगों ने भागीदारी की। इस संगोष्ठी में कई कम्युनिस्ट संगठनों, समूहों, राजनीतिक कार्यकर्ताओं, मार्क्सवादी बुद्धिजीवी, शोधार्थियों व लेखकों के अतिरिक्त बड़ी संख्या में छात्रों-युवाओं ने भागीदारी की। संगोष्ठी में न सिर्फ़ देश के विभिन्न हिस्सों से, बल्कि नेपाल, अमेरिका, आस्ट्रेलिया, जर्मनी आदि देशों से भी लोगों ने भागीदारी की। इस संगोष्ठी में आयोजकों की ओर से पाँच आलेखों सहित कुल 10 आलेख प्रस्तुत किये गये। विभिन्न संगठनों, समूहों व व्यक्तियों ने अपनी समझदारी साझा करते हुए बहस-मुबाहिसे में हिस्सेदारी की तथा पाँच दिनों तक राजनीतिक विचार-विमर्श का सिलसिला जारी रखा।
हमारे देश के कम्युनिस्ट आन्दोलन में फ़ासीवाद की समझदारी को लेकर आम तौर पर काफ़ी विभ्रम मौजूद हैं। कई संगठन और समूह बीसवीं सदी के फ़ासीवाद के हूबहू दोहराव की अपेक्षा कर रहे हैं तो कई आज मौजूदा सत्ता को फ़ासीवादी कहते हैं मगर उनमें फ़ासीवाद की स्पष्ट समझदारी की कमी है और वे फ़ासीवाद से लड़ने के लिए बीसवीं सदी में अपनायी गयी रणनीतियों से आगे नहीं बढ़ पा रहें हैं। ऐसे में, भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन में अरविन्द स्मृति न्यास द्वारा आयोजित यह संगोष्ठी एक पथ प्रदर्शक के तौर पर उन तमाम लोगों के लिए मददगार है जो फ़ासीवाद को समझने और उसके ख़िलाफ़ सही सर्वहारा रणनीति बनाने के काम में जुटे हुए हैं।
संगोष्ठी के पहले दिन की शुरुआत साथी अरविन्द और साथी मीनाक्षी की तस्वीर पर माल्यार्पण करते हुए क्रान्तिकारी नारों और गीतों के साथ हुई। उसके पश्चात अरविन्द स्मृति न्या्स की ओर से कॉमरेड सत्यम ने अरविन्द स्मृति न्यास का एक संक्षिप्त परिचय दिया और इसके आयोजन की ज़रूरत पर अपनी बात साझा की। उन्होंने कहा कि संगोष्ठी का आयोजन एक ऐसे समय में हो रहा है जब दुनिया भर में आर्थिक मन्दी के मद्देनज़र धुर-दक्षिणपन्थी ताक़तों का उभार देखने को मिल रहा है। फ़ासीवाद इस धुर-दक्षिणपन्थी प्रतिक्रिया का एक विशिष्ट रूप होता है। आज के फ़ासीवाद की विशिष्टता को समझते हुए उसके विरुद्ध कारगर सर्वहारा रणनीति व आम रणकौशल विकसित करने का काम केन्द्रीय महत्व रखने वाला बुनियादी राजनीतिक मसला है। इस बेहद ज्वलन्त और जीवन्त मुद्दे पर तफ़सील से और तसल्ली से बातचीत, विचार-विमर्श और बहस-मुबाहिसे के मक़सद से सातवीं अन्तरराष्ट्रीय अरविन्द स्मृति संगोष्ठी का आयोजन किया जा रहा है। साथ ही उन्होंने अब तक आयोजित छह अरविन्द स्मृति संगोष्ठियों का एक संक्षिप्त परिचय दिया, अरविन्द मार्क्सवादी अध्ययन संस्थान की पूरी परियोजना और अब तक इसके तहत हुई कार्यशालाओं, व्याख्यानों और प्रकाशनों का विवरण पेश किया। कॉमरेड सत्यम ने बहस-मुबाहिसे की मार्क्सवादी परम्परा और मार्क्सवाद के प्राधिकार को स्थापित करने की ज़रूरत को भी रेखांकित किया और आने वाले पाँच दिन तक प्रस्तुत किये जाने वाले आलेखों को आमन्त्रित किया।
संगोष्ठी के पहले दिन केन्द्रीय पेपर “इक्कीसवीं सदी में फ़ासीवाद : निरन्तरता और परिवर्तन के तत्व” को ‘मज़दूर बिगुल’ अख़बार के सम्पादक अभिनव सिन्हा द्वारा पेश किया गया। अपने आलेख में अभिनव ने उल्ले्ख किया कि फ़ासीवाद कोई सामान्य् व साधारण धुर-दक्षिणपन्थी बुर्जुआ प्रतिक्रिया नहीं है बल्कि यह एक विशिष्ट प्रकार की धुर-दक्षिणपन्थी पूँजीवादी प्रतिक्रिया का रूप है जिसकी पहचान एक विशिष्ट प्रकार फ़ासीवादी विचारधारा, एक विशिष्ट क़िस्म के काडर आधारित संगठन और टुटपुँजिया वर्गों के एक संगठित प्रतिक्रियावादी आन्दोलन से होता है। उन्होंने फ़ासीवाद की सामान्य सार्वभौमिक चारित्रिक अभिलाक्षणिकताओं को स्पष्ट करते हुए उल्लेख किया कि फ़ासीवाद किस प्रकार धुर-दक्षिणपन्थी प्रतिक्रिया के अन्य रूपों से अलग है। साम्राज्यवाद के नवउदारवादी दौर में पूँजीवाद की कार्यप्रणाली में आने वाले बदलावों के साथ ही फ़ासीवादी उभार व फ़ासीवादी सत्ता्ओं की कार्यप्रणाली और अस्तित्व रूप में भी महत्वपूर्ण बदलाव आये हैं। आज फ़ासीवाद एक राजनीतिक प्रवृत्ति के रूप में एक आपदा समान “घटना” नहीं रह गया है बल्कि अब इसकी पहचान लम्बे ऊष्मायन काल (long incubation period) से होती है। चूँकि आज पूँजीवादी आर्थिक संकट एक दीर्घकालिक व चिरकालिक स्वरूप ग्रहण कर चुका है इसलिए फ़ासीवादी प्रतिक्रिया भी समाज में एक दीर्घकालिक परिघटना में तब्दील हो चुकी है। इस दौरान फ़ासीवाद समाज में अपनी उपस्थिति बनाये रखते हुए सेना, नौकरशाही, न्यायपालिका समेत राज्यसत्ता के विभिन्न निकायों में अपनी घुसपैठ को उत्तरोत्तर बढ़ाता है यानी राज्यसत्ता में गहरी घुसपैठ करता है और समाज में आणविक व्याप्ति को अंजाम देता है, पूँजीवादी आर्थिक संकट के कारण पैदा होने वाली टुटपुँजिया वर्गों की अन्धी प्रतिक्रिया के सामने किसी विचारणीय आकार की अल्पसंख्यक आबादी को एक नकली दुश्मन के रूप में खड़ा करता है ताकि उसके सामने से असली शत्रु को दृष्टिओझल किया जा सके, फ़ासीवाद अपना विरोध करने वाली हर शक्ति को “राष्ट्र के शत्रु” के रूप में चित्रित करता है और फ़ासीवादी नेता या नेतृत्व को बहुसंख्यक समुदाय के अकेले प्रतिनिधि और प्रवक्ताके रूप में पेश करता है। वह फ़ासीवादी टुटपुँजिया प्रतिक्रिया को संगठित रूप देकर उसे ख़ास तौर पर बड़ी पूँजी और आम तौर पर पूँजी की सेवा में लगा देता है। इस प्रकार एक निरंकुश शासन के ज़रिये फ़ासीवाद पूँजीपति वर्ग को मुनाफ़े की गिरती दर के संकट से उबारने का हर सम्भव प्रयास करता है। अभिनव ने उल्ले़ख किया कि आज के दौर में पूँजीवादी जनवाद के रूप यानी बहुदलीय संसदीय जनवाद की अन्तर्वस्तु इस क़दर खोखली हो चुकी है कि बीसवीं सदी के जर्मन व इतालवी फ़ासीवाद के समान आज के दौर में फ़ासीवाद को पूँजीवादी जनवाद के इस रूप/खोल को त्यागने की आम तौर पर कोई आवश्यकता नहीं है। वह अपने सारतत्व से खोखले हो रहे इस रूप, यानी संसद, चुनाव आदि की मौजूदगी के साथ वह सबकुछ कर सकता है, जो बीसवीं सदी के फ़ासीवाद ने किया था। अभिनव ने अपने आलेख में फ़ासीवाद से मुक़ाबले के लिए संघर्ष के विभिन्न रूपों को रेखांकित किया और सदन के सामने कुछ विशेष कार्यभार पेश किये। अभिनव के आलेख के अन्त में सवाल-जवाब का लम्बा सत्र चला। इस सत्र में सदन में मौजूद अध्येताओं और राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने बेहद सक्रिय भागीदारी दिखायी।
सदन के सवालों का जवाब देते हुए अभिनव बताया कि दुनिया के कम्युनिस्ट आन्दोलन के अन्दर किसी भी प्रकार की प्रतिक्रिया को असावधान तरीके से फ़ासीवाद का नाम देने की एक प्रवृत्ति रही है। वजह यह कि फ़ासीवाद की विशिष्टता को समझने का एक अभाव रहा है और इसके बग़ैर फ़ासीवाद के विरुद्ध कोई कारगर सर्वहारा रणनीति व आम रणकौशल विकसित करने का काम पूरा नहीं किया जा सकता है।
जो लोग फ़ासीवाद की सार्वभौमिक विशिष्टताओं को पहचानते हैं, उनके सामने यह प्रश्न है कि क्या बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में पैदा हुए फ़ासीवादी व नात्सीवादी आन्दोलनों व सत्ताओं के मुक़ाबले आज के दौर के फ़ासीवादी उभार व सत्ता में कोई अन्तर है? क्या आज की फ़ासीवादी शक्तियाँ, उनके जीवन-रूप, उनकी कार्यप्रणाली, आज का फ़ासीवादी आन्दोलन, आज उसके सत्तारोहण के तरीक़े, उनकी ताक़त में हम परिवर्तन के तत्व देखते हैं? या हम आज के फ़ासीवादी उभारों में भी बीसवीं सदी के फ़ासीवादी प्रयोगों की प्रतिलिपि को देखते हैं? हमारे देश में मोदी-शाह सत्ता को और 1980 के दशक के मध्य से लम्बी प्रक्रिया में जारी सत्तारोहण को किस प्रकार देखते हैं? क्या मोदी-शाह की सत्ता महज़ ‘नवउदारवादी पूँजी की तानाशाही है’? क्या वह महज़ ‘सर्वसत्तावादी धार्मिक कट्टरपन्थी सत्ता’ है? क्या वह केवल एक ‘ऑटोक्रैटाइज़्ड सत्ता’ है? या फिर वह एक फ़ासीवादी सत्ता है, एक नये प्रकार की फ़ासीवादी सत्ता जिसकी बीसवीं सदी की फ़ासीवादी सत्ताओं, शक्तियों, व आन्दोलनों से कुछ महत्वपूर्ण विशिष्ट भिन्नताएँ हैं?
इसके साथ ही उन्होंने बताया कि हमें पूरी दुनिया में हो रहे परिवर्तनों को भी समझना होगा। पिछली सदी में दुनिया जहाँ खड़ी थी आज उससे कहीं आगे जा चुकी है। विश्व पूँजीवाद की कार्यप्रणाली में, मन्दी की प्रकृति में, पूँजीवादी समाजों की वर्ग संरचनाओं में, बुर्जुआ राज्यसत्ता के काम करने के तौर-तरीके में कई महत्वपूर्ण बदलाव आए हैं जिसका प्रभाव फ़ासीवाद के उभार और उसके चरित्र पर पड़ा है। तुर्की, ब्राज़ील, फिलिप्पींस, रूस, मध्य-पूर्व क्षेत्र में, अमेरिका, ब्रिटेन या फ्रांस में जो परिवर्तन हो रहे हैं, उन्हें भी समझना ज़रूरी है। उन्होंने तुर्की में एर्दोआन, रूस में पुतिन, ब्राज़ील में बोल्सोनारो, अमेरिका में ट्रम्प, ईरान में खुमैनी-नीत क्रान्ति के बाद से अस्तित्वमान रही सत्ता के चरित्र के बारे में बात रखी और बोनापार्तवादी सत्ता व फ़ासीवादी सत्ता में फ़र्क़ स्पष्ट करते हुए बताया कि फ़ासीवाद एक ख़ास प्रकार के राजनीतिक संकट यानी ‘पावर ब्लॉाक’ के संकट की उत्पत्ति होता है जबकि बोनापार्टवाद ‘सन्तुलन संकट’ की अभिव्यक्ति होता है।
ऐसे में, फ़ासीवाद की आम या सार्वभौमिक विशिष्टताओं को पहचानना और 21वीं सदी में फ़ासीवाद की अभिलाक्षणिकताओं को समझना व अन्य धुर-दक्षिणपन्थी प्रतिक्रियाओं से उसकी अन्तरकारी विशिष्टता की पहचान करना महज़ कोई अकादमिक कवायद नहीं है, बल्कि आज के दौर में केन्द्रीय महत्व रखने वाला बुनियादी राजनीतिक सवाल है। इन सवालों पर विस्तार से बात रखते हुए उन्होंने कहा कि ऐसी बहसों के ज़रिये ही हम आज के सबसे जीवन्त व अव्यवहित राजनीतिक प्रश्न के समाधान की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं: यानी मौजूदा मोदी-शाह सत्ता के विरुद्ध एक सही क्रान्तिकारी रणनीति व आम रणकौशल को तैयार करने के काम में लग सकते हैं।
संगोष्ठी में दूसरे दिन उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता कॉलिन गोंज़ाल्विस ने “फ़ासीवाद का उभार और क़ानून तथा न्यायपालिका का सवाल” विषय पर अपनी बात रखी। कॉलिन गोंज़ाल्विस ने बताया कि किस तरह से समूची न्याषयपालिका को फ़ासीवादी शक्तियों ने अन्दर से खोखला कर दिया है और लम्बी प्रक्रिया में उसका टेकओवर कर लिया है। हालिया कई फ़ैसलों की चर्चा करते हुए उन्होंने दिखलाया कि न्याययपालिका समेत पुलिस व नौकरशाही तक पर फ़ासीवादी ताक़तों ने अन्दर से कब्ज़ा किया है। उन्होंने बताया किस तरह पिछले 10 वर्षों के दौरान मोदी सरकार ने न्यायपालिका को एक तरह से ख़त्म ही कर दिया है और यह अभूतपूर्व है। स्वातन्त्र्योत्तर भारत में इसकी कोई मिसाल नहीं है। कॉलिन ने अनेक तथ्यों और घटनाओं के ज़रिये पुरजोर ढंग से इस बात को रखा कि मोदी सरकार ने आज लोकतन्त्र को भीतर से खोखला बना दिया है। तमाम लोकतान्त्रिक संस्थाओं का बस ढाँचा बचा रह गया है। उन्होंने न्यायपालिका में फ़ासीवादी घुसपैठ और लोकतन्त्र पर हमले के बारे में बहुत से ठोस उदाहरणों के साथ बेहद विचारोत्तेजक वक्तव्य दिया।
उसके बाद संगोष्ठी में सीपीआई (एमएल) रेड स्टा र के कॉमरेड पी.जे. जेम्स के आलेख ‘ग्लोबल नियोफ़ासिज़्म इन्क्लूडिंग आरएसएस फ़ासिज़्म इन इण्डिया एण्ड एण्टी फ़ासिस्ट टास्क’ को कॉमरेड मनसाया ने प्रस्तुत किया और उसके बाद उस आलेख में प्रस्तुत फ़ासीवाद की समझ पर तीखी बहस भी हुई। दूसरे दिन के दूसरे सत्र में आयोजकों की ओर से दूसरा आलेख कॉमरेड आनन्द ने प्रस्तुत किया जिसका शीर्षक था ‘भारत में फ़ासीवाद का उभार : उत्पत्ति, विकास और वर्तमान अवस्था तथा प्रतिरोध की सर्वहारा रणनीति का प्रश्न’। इस आलेख में भारत में फ़ासीवाद की विशिष्टता के बारे में विस्तार से उल्लेख करते हुए यह बताया गया कि भारत में फ़ासीवादी संगठन व फ़ासीवादी विचारधारा ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में ही अस्तित्व में आ चुकी थी, परन्तु फ़ासीवादी आन्दोलन उसके कई दशकों बाद 1980 के दशक में जाकर अस्तित्व में आया। इस प्रकार भारत में फ़ासीवाद एक लम्बी ऊष्मायन अवधि ( सुमित सरकार के शब्दों में लम्बी गर्भावस्था की अवधि से होकर गुज़रा है जिस दौरान उसने समाज के पोर-पोर में एक प्रकार का आणविक व्याप्ति को अंजाम दिया है। अपने वजूद के पहले छह दशकों के दौरान वह ग्राम्शी के शब्दों में एक लम्बे अवस्थितिबद्ध युद्ध (war of positions) में संलग्न था। इस दौरान उसने समाज में विभिन्न किस्म की संस्थाएँ बनायीं जो आज संघ परिवार का हिस्सा हैं। सामाजिक, शैक्षिक और सुधार संस्थाओं का तानाबाना खड़ा करके अपने सामाजिक आधार को विस्तारित करना आरएसएस की दीर्घकालिक योजना का हिस्सा था। इस दौरान इसने राज्य उपकरण के सभी अंगों में गहरी घुसपैठ की।
1980 के दशक के मध्य तक आते-आते जब पब्लिक सेक्टर पूँजीवाद अपने संतृप्ति बिन्दु पर पहुँच रहा था और जब टटपुँजिया प्रतिक्रिया एक विचारणीय स्तर पर पहुँच चुकी थी। फ़ासीवादियों ने 1980 के दशक में पूँजीवादी संकट द्वारा मध्य वर्गों में पैदा हुई असुरक्षा का इस्तेमाल करते हुए वास्तविक वर्गीय अन्तरविरोधों को विचारधारात्मवक तथा राजनीतिक तौर पर एक ग़लत रूप और अभिव्यक्ति करके लोगों को राम मन्दिर के मुद्दे पर लामबन्दी किया। इसे भारत में फ़ासीवाद का पहला दौर कहा जा सकता है 1992 में बाबरी मस्जिद को ढहाये जाने के साथ यह आन्दोलन अपने चरम पर जा पहुँचा। 2002 में गुज़रात जनसंहार के रूप में भारतीय फ़ासीवाद ने अपना दूसरे दौरे को अंजाम दिया। इस दौरे से तथाकथित “हिन्दू हृदय सम्राट” नरेन्द्र मोदी के रूप में भारतीय फ़ासीवाद के फ़्यूहरर की परिघटना की शुरुआत हुई। 2004 से 2014 के बीच एक दशक के विराम काल में दो संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन (संप्रग) सरकारों के कार्यकाल के दौरान संघ परिवार ने सभ्य समाज में अपनी पैठ बनाये रखी, भले ही वह सरकारी सत्ता से बाहर था। आर्थिक संकट की परिस्थिति एवं 2010-11 से विशाल घपलों-घोटालों की वजह से कांग्रेस नीत संप्रग सरकार की बड़े पैमाने पर अलोकप्रियता के मद्देनज़र ऐसे हालात बने जिनमें 2010-11 और 2014 के बीच में भारतीय फ़ासीवाद ने कॉरपोरेट मीडिया की पूर्ण मिलीभगत से नरेन्द्र मोदी के पक्ष में पैदा किये गये प्रतिक्रियावादी उन्माद की बदौलत अपने तीसरे दौरे को अंजाम देने में कामयाबी हासिल की जब नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा स्वततन्त्र भारत के इतिहास में पहली बार पूर्ण बहुमत के साथ सरकारी सत्ता तक पहुँची। उसके बाद से भारत के लोग एक फ़ासीवादी सत्ता के तहत जीने का दुस्वप्न झेल रहे हैं जिसने चुनावी व अन्य लोकतान्त्रिक प्रक्रियाओं एवं न्या यपालिका सहित अन्य संस्थाओं को नष्ट करके बुर्जुआ लोकतान्त्रिक अन्तर्वस्तु को अभूतपूर्व ढंग से तार-तार कर दिया है। आलेख के अन्त में फ़ासीवाद के ख़िलाफ़ प्रतिरोध खड़ा करने के मद्देनज़र सामान्य व विशिष्ट कार्यभारों का भी उल्लेख किया। आलेख की प्रस्तुति के बाद उस पर सवाल-जवाब व बहस-मुबाहिसे का सिलसिला तीसरे दिन के पहले सत्र तक जारी रहा।
उसके उपरान्त संगोष्ठी के आयोजकों की ओर से तीसरे आलेख की प्रस्तुति की शुरुआत कॉमरेड शिवानी ने की। ‘फ़ासीवाद सम्बन्धी मार्क्सवादी इतिहासलेखन : एक आलोचनात्मक पुनर्मूल्यांकन’ नामक इस आलेख में क्लारा ज़ेटकिन, ग्राम्शी जैसे मार्क्सवादी विचारकों के दृष्टिकोणों की चर्चा करते हुए फ़ासीवाद के प्रति कॉमिण्टर्न यानी तीसरे कम्युननिस्ट इण्टरनेशनल के विश्लेषण के उद्भव और विकास का अन्वेषण किया गया। साथ ही द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पूँजीवादी राज्य तथा फ़ासीवाद की प्रकृति और कार्यप्रणाली में आये बदलावों पर विस्तृत चर्चा करते हुए एन्सन राबिनबाख़, डेविड अब्राहम, जेफ़ एली, कर्ट गॉसवाइलर और निकोस पूलांत्ज़ास जैसे मार्क्सवादी व अध्येताओं के विश्लेषण का आलोचनात्मक मूल्यांकन किया गया। आलेख में इस बात को पुरज़ोर ढंग से रखा गया कि अपनी सातवीं कांग्रेस में कॉमिण्टर्न द्वारा अपनायी गयी ‘पॉप्युलर फ़्रण्ट’ की लाइन ग़लत थी, हालाँकि कॉमिण्टर्न ने बाद में इसे छोड़ दिया था। आलेख में 1920 व 1930 के दशकों के दौरान कॉमिन्टर्न की लाइन में आए बदलावों का विस्तृत वर्णन करते हुए बताया कि “नीचे से संयुक्त मोर्चा” बनाने की लेनिनवादी लाइन सही लाइन थी परन्तु बाद में “वाम” व दक्षिणपन्थी भटकाव हुए, और छठीं कांग्रेस से अतिवाम के भटकाव की एक रोगात्मक प्रतिक्रिया के रूप में ही ‘पॉप्युलर फ्रण्ट’ की लाइन सामने आयी। फिर भी आज हमारे देश में फ़ासीवाद के प्रतिरोध के नाम पर बस “पॉप्युलर फ़्रण्ट” की ही बात की जाती है और उसे भी महज़ बुर्जुआ पार्टियों के साथ चुनावी मोर्चे तक अपचयित कर दिया जाता है। इसके अतिरिक्त आलेख में पिछली सदी के अन्तिम कुछ दशकों में पूँजीवादी संकट की प्रकृति में आ रहे बदलावों और इसी के साथ बुर्जुआ राज्य के निरंकुश होते जाने और फ़ासीवाद के काम करने के तौर तरीक़ों में आये बदलावों पर भी पूलांत्ज़ास आदि के विश्लेषण के हवाले से चर्चा की गयी। इसके बाद, पिछले 30 वर्षों के दौरान दुनिया में फ़ासीवाद समेत धुर दक्षिणपन्थी प्रतिक्रिया के अन्य रूपों का विश्लेषण करते हुए पेपर में इस विषय पर हुए नये शोधों का भी आलोचनात्म्क मूल्यांकन किया गया, जिसमें जी. एम. तमास, उगो पलहेता, आदि जैसे अध्येता शामिल थे। एक अलग हिस्से में इस पेपर में संशोधनवादी व सामाजिक-जनवादी व्याख्याओं की आलोचना पेश की गयी, जिसमें समकालीन भारत से माकपा के बुद्धिजीवियों की अवस्थिति की विस्तृत आलोचना पेश की गयी। इस विस्तृत आलेख पर चर्चा अगले दिन भी जारी रही।
संगोष्ठी में चौथे और पाँचवे दिन जर्मनी के अध्येता निकोलाई, कोलकाता से दिशारी चक्रवर्ती और दिल्ली से सनी सिंह और कवयित्री कात्यायनी के आलेख प्रस्तुत किये गये। जर्मनी के अध्येता निकोलाई मेसरश्मिट के आलेख की विषय वस्तु ‘उत्तरऔपनिवेशिक फ़ासीवाद: हिन्दू राष्ट्रवाद का आलोचनात्मक व उत्तरऔपनिवेशिक सिद्धान्त द्वारा एक विश्लेषण’ थी। यह प्रस्तुति निकोलाई के शोध प्रस्ताव पर आधारित थी। अपनी प्रस्तुति के दौरान निकोलाई ने कहा कि फ़ासीवाद को पूँजीवाद के ख़िलाफ़ उपजी प्रतिक्रिया के रूप में समझा जा सकता है। चूँकि भारत में हिन्दुत्व फ़ासीवाद के उभार 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध में जर्मनी और इटली में हुए फ़ासीवादी उभार से तुलना नहीं की जा सकती है, इसलिए भारत में हुए फ़ासीवादी उभार का अध्ययन करने के लिए मार्क्सवाद का प्रयोग नहीं किया जा सकता है, क्योंकि यह पश्चात्य सिद्धान्त है। भारत जैसा देश जहाँ औपनिवेशिक शासन का लम्बा इतिहास रहा है, वहाँ की वर्तमान परिस्थितियों के अध्ययन व विश्लेषण उत्तरऔपनिवेशिक सिद्धान्त की आवश्यकता है। निकोलाई की प्रस्तुति पर अरविन्द स्मृति न्यास की तरफ़ से साथी अभिनव ने निकोलाई द्वारा रखे गये तर्कों की आलोचना रखते हुए कहा कि मार्क्सवाद एक विज्ञान है और विज्ञान सार्वभौमिक होता है। इसलिए, मार्क्सवादी सिद्धान्त का प्रयोग किसी भी देश में किसी भी कालखण्ड में उत्पन्न हुई राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक परिघटनाओं के अध्ययन में किया जाता है। उत्तरऔपनिवेशिक सिद्धान्त, उत्तरआधुनिकतावादी सिद्धान्त जैसे प्रतिक्रियावादी सिद्धान्त चूँकि किसी सामाजिक राजनितिक परिघटना के पीछे कार्यरत वर्ग संघर्ष की अवस्थिति व आर्थिक कारकों को नज़रान्दाज़ कर देते हैं इसलिए फ़ासीवाद के उभार के कारणों को पहचनाने में ये सिद्धान्त असफल हो जाते हैं। वास्ताव में, ये सिद्धान्त पूँजीवाद के सबसे प्रतिक्रियावादी दौर में पैदा हुए और इन्होंने वास्तव में मार्क्सवाद को निशाना बनाने के लिए समूची पश्चिमी आधुनिकता, प्रबोधन और तर्कणा को ही कचरा-पेटी के हवाले किया और उसे पश्चिम की “दमन की परियोजना” बताया। इसी के साथ भारत में उत्तनरऔपनिवेशिक सिद्धान्त की पूँछ पकड़ कर चलने वाले सबऑल्टर्न स्टडीज़ ने वस्तुत: संघ परिवार का ही समर्थन करने का काम किया क्योंकि उन्हें कारसेवा में भी प्राच्य की रचनात्मकता दिखायी दे रही थी।
कार्यक्रम में आगे आस्ट्रेलिया-एशिया वर्कर्स लिंक (AWWL) की सेक्रेटरी जिसेल हान्ना ने भी वीडियो लिंक के ज़रिये अपनी प्रस्तुति दी जिसका विषय था ‘आस्ट्रेलिया में आल्ट-राइट का उभार और हम कैसे उससे लड़ रहे हैं’। जिसेल ने कहा कि “फ़ासीवाद से लड़ने में मज़दूर वर्ग को मुख्य भूमिका निभानी है। हमें इस लड़ाई को व्यापक बनाने के लिए संयुक्त मोर्चे के तहत लोगों को संगठित करना होगा। व्यापक मेहनतकश आबादी की आम माँगों पर आन्दोलन खड़े करने होंगे और औद्योगिक मज़दूरों की प्रतिरोध कार्रवाइयाँ संगठित करनी होंगे।” उन्होंने अपनी बात में कई संघर्षों के उदाहरण भी दिये और फ़ासीवाद के विरुद्ध अन्तरराष्ट्रीय एकजुटता की ज़रूरत पर ज़ोर देते हुए अपनी बात ख़त्म की।
संगोष्ठी के चौथे दिन आयोजकों की ओर से सनी सिंह ने अपना आलेख “भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन में फ़ासीवाद की समझ और इसके प्रतिरोध की रणनीतियाँ : एक आलोचनात्मक विश्लेषण” प्रस्तुत किया जिसमें भारत में विभिन्न कम्युनिस्ट संगठनों व बुद्धिजीवियों तथा सामाजिक जनवादियों की फ़ासीवाद की समझ की विस्तृत आलोचना प्रस्तुत की गयी। इसमें सीपीआई (एमएल) न्यू डेमोक्रेसी, सीपीआई (एमएल) रेड स्टार, और साथ ही कॉ. मुरली (अजीत) की फ़ासीवाद की समझ की भी विस्तृत आलोचना प्रस्तुत की गयी। इसमें मार्क्सवाद से कॉ. मुरली के भटकाव को विस्तार से इंगित किया गया। साथ ही फ़ासीवाद के बारे में प्रभात पटनायक की समझदारी की भी आलोचना प्रस्तुत की गयी। इस आलेख पर चर्चा पाँचवें दिन भी जारी रही। आलेख पढ़े जाने के उपरान्त कई महत्वपूर्ण बातचीत के अलावा किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP), आरक्षण और भारत में प्रभुत्वशाली उत्पादन पद्धति जैसे मुद्दों पर सवाल आये। इन सवालों के जवाब देते हुए इस बात पर जोर दिया कि हमें ग्रामीण श्रमिकों और ग़रीब तथा सीमान्त किसानों की माँगों जैसे संस्थागत ऋण, कृषि श्रमिकों के लिए श्रम विनियमन, धनी किसानों पर कर लगाकर कृषि लागतों को कम करने आदि पर स्वतन्त्र संघर्ष करना चाहिए, न कि एमएसपी के समर्थन में धनी किसानों व कुलकों के पीछे चलना चाहिए।
संगोष्ठी के पाँचवें व अन्तिम दिन सीपीआई (एमएल) मासलाइन के केजी रामचन्द्र की ओर से कॉ. पद्मा ने फ़ासीवाद पर एक आलेख प्रस्तुत किया। इसमें मोदी-शाह के वर्तमान शासन को एक खुली आतंकवादी तानाशाही बताते हुए संगोष्ठी के मुख्य पेपर की इस पोज़ीशन से सहमति व्यक्त की गई कि फ़ासीवाद महज़ एक धुर-दक्षिणपन्थी प्रतिक्रिया नहीं है बल्कि यह एक विशेष प्रकार की धुर-दक्षिणपन्थी प्रतिक्रिया है जिसके कई तत्व पिछली सदी के फ़ासीवाद से मिलते हैं पर कुछ तत्व बदल गये हैं जिनका ध्यान रखे बग़ैर इससे नहीं लड़ा जा सकता। इस आलेख पर भी लम्बी बहस हुई जो समय की कमी के चलते पूरी नहीं हो सकी।
संगोष्ठी के अन्तिम दिन आयोजकों की ओर से प्रसिद्ध हिन्दी कवयित्री और ऐक्टिविस्ट कात्यायनी द्वारा ‘हमारे समय में फ़ासीवाद और कला-साहित्य का मोर्चा: कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न’ विषय पर आलेख प्रस्तुत किया गया। फ़ासीवाद किस तरह कला और साहित्य का अपने पक्ष में इस्तेमाल करता है, इस पर विस्तार से चर्चा करते हुए उन्होंने प्रतिक्रियावादी और पुनरुत्थानवादी तत्वों का इस्तेमाल करने की हिन्दुत्व फ़ासीवादियों की सांस्कृतिक रणनीति पर ज़ोर दिया। उन्होंने फ़ासीवाद विरोधी संघर्ष में कला और साहित्य के मोर्चे पर ऐतिहासिक अनुभवों को रेखांकित किया और हमारे समय में इसे लेकर मौजूद विभिन्न विभ्रमों और विजातीय प्रवृत्तियों पर एक आलोचनात्मक विश्लेषण प्रस्तुत किया। इस अंतर्दृष्टिपूर्ण आलेख का समापन फ़ासीवाद के विरुद्ध संघर्ष में कला, साहित्य और संस्कृति के मोर्चे पर आसन्न कार्यभारों को रेखांकित करने के साथ हुआ।
कात्यायनी की प्रस्तुति के बाद न्यूयॉर्क के माओवादी कम्युनिस्ट संगठन के एरिक सोराब ने ‘ट्रम्पवाद पर दस आरज़ी टिप्पणियाँ’ शीर्षक से प्रस्तुति दी। उन्होंने अमेरिकी पूँजीवाद के संकट के साथ-साथ वहाँ धुर-दक्षिणपन्थी प्रतिक्रिया के बढ़ते समर्थन की बात करते हुए बताया कि यूनियनों में संगठित मज़दूरों के लगभग 50 प्रतिशत ने इस बार ट्रम्प को वोट दिया। दूसरी तरफ़ गाज़ा में इज़रायल द्वारा जारी जनसंहार को बाइडेन शासन के नग्न समर्थन ने भी डेमोक्रेट्स को नुकसान पहुँचाया। एरिक ने कहा कि ट्रम्प के पीछे कोई कैडर-आधारित पार्टी की ताक़त नहीं है और कुछ अन्य पहलू भी हैं जिनके चलते उसे फ़ासिज़्म नहीं कहा जा सकता, लेकिन उसका शासन निश्चित रूप से बेहद प्रतिक्रियावादी और जनविरोधी होगा।
इसके बाद कोलकाता से आयीं अध्येता दिशारी चक्रवर्ती ने अपने आलेख में ‘सोशल ड्रामा’ और ‘एस्थेटिक ड्रामा’ की अवधारणा के माध्यम से फ़ासीवाद के कुछ सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक पहलुओं को रेखांकित किया। उन्होंने पिछले दिनों कोलकाता के आर.जी. कर मेडिकल कॉलेज में हुई बर्बर घटना और उसके विरोध में चले आन्दोलन की विभिन्न छवियों के उदाहरणों से अपनी बात रखी।
अन्तिम दिन आलेखों पर हुई चर्चा और सवाल-जवाब के साथ-साथ फ़ासीवाद के विशिष्ट चरित्र, इसके विरोध में संयुक्त मोर्चे के गठन, कांग्रेस या संसदीय वाम पार्टियों के साथ चुनावी गँठजोड़ के सवाल आदि पर चर्चा हुई। इस पर ज़ोर दिया गया कि फ़ासिस्टों को आज संविधान व संसद को भंग करने या अन्य आपवादिक क़ानून लागू करने की कोई ज़रूरत नहीं है। पिछले लम्बे समय के दौरान राज्य के विभिन्न अंगों में अपनी घुसपैठ के ज़रिये वे अन्दर से इसका ‘टेकओवर’ कर चुके हैं। बुर्जुआ राज्य के जनवादी तत्वों का पहले ही इस क़दर क्षरण हो चुका है कि उसे अपने उद्देश्यों के अनुरूप ढालने में फ़ासिस्टों को ज़्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी है।
संगोष्ठी के दौरान कॉ. निनु चापागाँई, कॉ. के. मुरली, कॉ. सिद्धार्थ, कॉ. रमा, आदि सहित दर्जनों राजनीतिक कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों व संगठनों ने बातचीत में हिस्सा लिया। इसके साथ ही सातवीं अंतरराष्ट्रीय अरविन्द मेमोरियल संगोष्ठी के लिए प्रसिद्ध तेलुगु लेखिका रंगनायकम्मा व मानवाधिकार कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड की ओर से आये समर्थन संदेशों को पढ़कर सुनाया गया जिसमें उन्होंने आज के सबसे ज्वलन्त प्रश्न पर आयोजित इस विमर्श के लिए आयोजकों व भागीदारों को बधाई देते हुए अपने सुझाव साझा किये।
फ़ासीवाद जैसे बेहद ज्वलन्त व महत्वपूर्ण विषय पर विचार-विमर्श और चर्चा के लिए पाँच दिनों का समय कम पड़ गया और कई मुद्दों पर बातचीत को सीमित करना पड़ा लेकिन इस दौरान हुए राजनीतिक बहस-मुबाहिसे ने कई बेहद अहम सवालों को उठाया। निश्चित ही फ़ासीवाद की परिघटना को समझने और उससे लड़ने की सही सर्वहारा रणनीति तैयार करने की दिशा में कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों व संजीदा इन्साफ़पसन्द लोगों के लिए यह संगोष्ठी एक अहम भूमिका निभाएगी।
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन