दिल्ली की आँगनवाड़ीकर्मियों का संघर्ष बुर्जुआ न्यायतन्त्र के चेहरे को भी कर रहा बेनक़ाब!
पूँजीवादी न्याय व्यवस्था आमतौर पर पूँजीपतियों को न्याय और मज़दूरों-मेहनतकशों को अन्याय देने वाली व्यवस्था है!!
प्रियम
दिल्ली की आँगनवाड़ी कर्मियों के ऐतिहासिक और जुझारू संघर्ष के बारे में हम ‘मज़दूर बिगुल’ के पन्नों पर पहले भी लिखते रहे हैं। 22,000 महिलाकर्मियों की 38 दिनों तक चली हड़ताल व उनके आन्दोलन ने जहाँ एक तरफ़ विधायिका और कार्यपालिका यानी विधानसभा, सरकार और समूची सरकारी मशीनरी के मज़दूर-विरोधी चेहरे को उजागर किया था वहीं दूसरी तरफ अब फ़र्जी बर्ख़ास्तगी के ख़िलाफ़ न्यायालय में चल रहे केस ने न्यायपालिका यानी कोर्ट के असल चरित्र को भी सामने ला दिया है।
दिल्ली स्टेट आँगनवाड़ी वर्कर्स एण्ड हेल्पर्स यूनियन के नेतृत्व में चली इस हड़ताल को रोक पाने में असफल दिल्ली व केन्द्र सरकार ने ‘हेस्मा’ जैसे काले क़ानून के ज़रिए हड़ताल पर प्रतिबन्ध लगाया। वहीं दिल्ली सरकार के महिला एवं बाल विकास विभाग ने बदले की भावना से 884 महिलाकर्मियों को ग़ैर-क़ानूनी तरीक़े से बर्ख़ास्त कर दिया था। इन बर्ख़ास्तगियों के ख़िलाफ़ 15 मार्च 2022 को यूनियन द्वारा दिल्ली उच्च न्यायालय में केस दायर किया गया था। न्याय के मठ में अभी 884 महिलाओं कि बर्ख़ास्तगी पर कार्रवाई की प्रक्रिया बेहद धीमी गति से चल रही है। आपको बता दें कि दिल्ली सरकार के महिला एवं बाल विकास विभाग ने बर्ख़ास्तगी का कारण अधिकांश मसलों में हड़ताल में भागीदारी को बताया है। क्या मानदेय बढ़ोतरी के लिए हड़ताल करना ज़ुर्म है? कानून और संविधान इसकी इजाज़त देता है कि कहीं भी श्रमिक अपनी माँगों के लिए हड़ताल कर सकते हैं। साफ़ है कि दिल्ली सरकार ने एक ग़ैर-क़ानूनी कार्रवाई की है और सारे सबूत इस ग़ैर-क़ानूनी कार्रवाई की साफ़ आवाज़ में गवाही दे रहे हैं। लेकिन पूँजीवादी न्यायपालिका अभी तक इस मसले को लटकाये हुए है। यहीं अगर किसी टाटा-बिड़ला, अम्बानी-अडानी के मुनाफ़े या धन्धे का मामला होता, तो सुप्रीम कोर्ट में आधी रात को दरवाज़ा खोल कर बैठ जाता है और तत्काल सुनवाई कर सुनिश्चित किया जाता है कि इन धनपशुओं की मुनाफ़ाखोरी के हक़ में पलभर का भी ख़लल न पड़ने पाये। लेकिन आँगनबाड़ीकर्मी ठहरी आम मेहनतकश औरतें! उनके लिए भला कोर्ट क्यों त्वरित कार्रवाई करने लगा?
अपनी जायज़ माँगों के लिए हड़ताल करना संवैधानिक है। अबतक इस केस की सुनवाई में 22 तारीखें पड़ चुकी हैं मगर बावजूद इसके पिछले लगभग एक साल से अधिक से कोर्टरूम में इस मसले पर “गम्भीर बहसें” चल रही हैं और तारीख़ पर तारीख़ देकर इसे पेचीदा बनाने की कोशिशें की जा रही हैं। वैसे तो, मज़दूरों के हक़ों को कुचलने के मामले में केन्द्र सरकार और दिल्ली सरकार बिना किसी वाद-विवाद के एकमत हो जाती हैं, मगर आँगनवाड़ी स्त्री कामगारों की बहाली की बात पर एक-दूसरे को ज़िम्मेदार ठहरा कर ‘तू-नंगा, तू-नंगा’ का खेल खेल रही हैं। दिल्ली में आँगनवाड़ी कर्मियों की भर्ती का काम दिल्ली सरकार करती है मगर केन्द्र सरकार जो कि “महिला सशक्तीकरण” के वायदे करती है और इनके नेता-मन्त्री जो कि आँगनवाड़ी कामगारों के प्रति अपनी “संवेदना” समय-समय पर ज़ाहिर करते रहते हैं, महिलाकर्मियों की बर्ख़ास्तगी रद्द करने का आदेश दिल्ली सरकार को क्यों नहीं देते हैं?? या फ़िर अदालत में 884 महिलाओं के प्रति अपनी इस “पवित्र संवेदना” को ज़ाहिर करते हुए यही कह देते कि इन्हें तुरन्त बहाल करने की माँग से उनकी सहमति है। ख़ैर, केन्द्र सरकार की इस मामले में चुप्पी ने हमारे इस तर्क को और स्पष्ट कर दिया है कि सभी धन्नासेठों के वर्गों की चुनाबबाज़ पार्टियाँ मज़दूरों के ख़िलाफ़ एकमत हैं।
हालाँकि आँगनवाड़ी कर्मियों ने अपने संघर्ष के बूते कोर्ट से कुछ फौरी राहत ज़रूर हासिल की है जैसे कि बर्ख़ास्त कर्मियों की जगह पर नयी भर्ती पर रोक लगायी गयी है, शर्तों पर बहाली के ऑर्डर को नामंज़ूर किया है और कोर्ट में भी उसकी धज्जियाँ उड़ी हैं, मगर यह आमतौर पर होने वाली घटना नहीं है। हम जानते हैं कि इस देश की आम मेहनतकश जनता के जीवन से जुड़े बेहद ज़रूरी मसले सालों-साल तक चलते रहते हैं और फ़ैसला आने तक लोग उम्मीद त्याग चुके होते हैं। वैसे तो, मज़दूरों के लिए सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट तक पहुँच पाना ही एक सपना है! अदालत इतनी कार्रवाई करने तक भी इसलिए पहुँची क्योंकि अदालत से बाहर आँगनवाड़ीकर्मियों का एक आन्दोलन और उनकी एक ताक़तवर यूनियन मौजूद है। इस दबाव के बिना इतनी कार्रवाई भी आँगनवाड़ी कर्मियों के पक्ष में न हो पाती।
ख़ैर, आम जनता के मामलों में हमारे देश की न्यायपालिका की धीमी कार्यपद्धति के बारे में मेहनतकश जनता पहले से ही वाकिफ़ है। मज़दूरों और आम जनता से जुड़े मामलों के फ़ैसलों में कोर्ट की फ़ुर्ती शायद ही किसी को देखने को मिली हो। हालाँकि यह बात आज बिलकुल सही है कि हड़तालों और मज़दूरों के अन्य संघर्षों को जब रोकने की बात आती है तो यही अदालतें स्वत: संज्ञान लेती हैं। इसका एक हालिया उदाहरण उत्तर प्रदेश के बिजलीकर्मियों की हड़ताल का है। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इसी साल मार्च में बिजली कर्मचारियों की हड़ताल का संज्ञान लिया और उसे तुरन्त ख़त्म करने के आदेश जारी किये और यह तक कहा कि अगर हड़ताल रोकने में देरी होती है तो हड़ताली कर्मचारियों को इसकी सज़ा भुगतनी पड़ेगी। लेकिन मज़दूरों–कर्मचारियों की माँगों पर त्वरित सुनवाई हो इसका संज्ञान शायद ही कभी किसी कोर्ट ने लिया हो! ताज्जुब तो तब होता है जब यही न्याय का मन्दिर पैसेवालों के मसले में “विशेष सुनवाई” के नाम पर छुट्टियों के दिन भी फ़ैसले सुनाता है। कॉरपोरेट घरानों, बड़ी–बड़ी कम्पनियों और नेता–मन्त्रियों के लिए न्याय भी आसानी से उपलब्ध हो जाता है। हज़ारों लोग विचाराधीन क़ैदियों के तौर पर जेलों में सालों–साल से बन्द हैं जिनपर सुनवाई होने की कोई समय सीमा नहीं है लेकिन वहीं राजनीतिक संरक्षण प्राप्त आपराधिक तत्वों की रिहाई के लिए सभी क़ानून ताक पर रखकर फ़ैसले सुनाये जाते हैं। पिछले साल 15 अगस्त के दिन न्यायालय ने बिल्कीस बानो के अपराधियों को रिहा करके एक बार फिर इस बात को पुष्ट किया। 15 अक्टूबर को एक तरफ़ तो राजनीतिक बन्दियों की रिहाई नामंज़ूर की जा रही थी, वहीं दूसरी ओर डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख गुरमीत राम रहीम को 40 दिन की पैरोल पर रिहा किया जा रहा था। यह वही राम रहीम है जिसने 2002 में दो पत्रकारों और 2021 में अपने आश्रम के प्रबन्धक की हत्या की थी, 2017 में अपने ही आश्रम की दो स्त्री अनुयायियों के साथ बलात्कार के जुर्म में दोषी पाया जा चुका है और इन संगीन जुर्मों के तहत वह अपराधी घोषित किया जा चुका है और 20 साल की सज़ा काट रहा है। लेकिन इसके बावजूद इस हत्यारे और बलात्कारी बाबा को बाहर घूमने की आज़ादी पर कोर्ट बिना कोई देरी किये फ़ैसला देती है।
लेकिन जब बात 884 महिला कामगारों की रोज़ी-रोटी की होती है तब सच और न्याय तक पहुँचने में कोर्ट को सालों लग जाते हैं! इसी प्रकार मारुति के मज़दूरों को दशक से ऊपर का समय बीत जाने के बाद भी इन्साफ़ नहीं मिलता। ठेका मज़दूरों द्वारा स्थायी काम पर स्थायी रोज़गार की जायज़ व कानूनी माँग पर डाले गये केसों की सुनवाई होने में ही केस दायर करने वाले ठेका मज़दूर बूढ़े होकर मर जाते हैं। लेकिन जब पूँजीपतियों का मसला आता है, तो देश की न्यायपालिका उनके दरवाज़े पर जाकर “न्याय” देकर आती है। मौजूदा व्यवस्था के शीर्ष पर पूँजीपति वर्ग क़ाबिज़ है और अगर कुछ परतें और पर्दे उठाकर देखें तो हम मज़दूरों-मेहनतकशों व स्त्रियों को यह बात समझ में आ जायेगी। मौजूदा व्यवस्था में हमारे लिए न्याय नहीं है।
पूँजीवादी न्याय व्यवस्था की पक्षधरता के अनेकों उदाहरण हमें मिल जायेंगे।
आज के फ़ासीवादी दौर में न्याय का चेहरा और अधिक बेनक़ाब हुआ है। सत्ता पक्ष यानी भाजपा व संघ परिवार से जुड़े हत्यारों, दंगाइयों, बलात्कारियों, भ्रष्टाचारियों को कोई सज़ा नहीं मिलती है। अमित शाह, आदित्यनाथ से लेकर प्रज्ञा सिंह ठाकुर, अनुराग ठाकुर, कपिल मिश्रा, संगीत सोम, असीमानन्द “बाइज़्ज़त बरी” कर दिये जाते हैं और इनके ख़िलाफ़ दर्ज हत्याओं, दंगों, धार्मिक उन्माद फ़ैलाने, नफ़रती भड़काऊ भाषणों के तमाम मामले रातोंरात ग़ायब हो जाते हैं।
कुछ आँकड़ों के ज़रिए “महान न्याय व्यवस्था” की कार्यपद्धति को देखें तो तस्वीर और स्पष्ट होगी।
कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने 20 जुलाई 2023 को राज्यसभा में लिखित तौर पर बताया कि 5.02 करोड़ केस हमारे देश की विभिन्न अदालतों में पेंडिंग है। डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में 4,41,35,357 केस, देश के 25 हाईकोर्ट में 60,62,953 और सुप्रीम कोर्ट में 69,766 केस फ़ैसले के इन्तज़ार में हैं। वहीं 2022 में संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान गृह मंत्रालय में राज्य मंत्री अजय कुमार मिश्रा ने बताया कि देश के 5,54,034 क़ैदियों में से 76% (4,27,165) विचाराधीन क़ैदी हैं, यानी जिन्हें कोई सज़ा नहीं हुई है बल्कि उनका मुक़दमा चल रहा है। इस 76% में से 66% लोग दलित, मुसलमान और अन्य दमित समुदायों से हैं।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार पिछले 10 वर्षों में जेलों में विचाराधीन क़ैदियों की संख्या लगातार बढ़ी है और 2021 में अपने चरम पर पहुँच गयी है। जेल में पड़े क़ैदियों का अधिकांश हिस्सा भी ग़रीब और मेहनतकश पृष्ठभूमि से आने वाले लोगों का है जो किसी छोटे-मोटे जुर्म में सज़ा काट रहे हैं।
उपरोक्त तथ्यों और उदाहरणों से भारतीय न्याय व्यवस्था का चरित्र और उसकी पक्षधरता साफ़ है। हमारे देश के ग़रीबों-मेहनतकशों के लिए न्यायालय पहुँचना और इंसाफ़ की उम्मीद लगाना एक सपने से अधिक कुछ नहीं है। दिल्ली की आँगनवाड़ी महिलाकर्मियों के मसले से लेकर हम मारुति के मज़दूरों के मामले को उदाहरण के तौर पर देख सकते हैं। 884 महिलाकर्मी अलग-अलग रहकर बर्ख़ास्तगी के ख़िलाफ़ न्यायालय में लड़ाई जारी रखने का शायद ही सोच पातीं।
आपको बता दें कि मारुति के मज़दूर अपनी यूनियन पंजीकृत कराने और काम की अमानवीय स्थितियों को बदलने के लिए संघर्षरत थे। कम्पनी प्रबन्धन लगातार ही मज़दूरों की एकता तोड़ने की अलग-अलग तरीक़ों से कोशिश कर रहा था। इसी टकराव में मारुति के एचआर की मृत्यु के बाद हत्या का आरोप लगाकर संघर्षरत 148 मज़दूरों पर मुक़दमा किया गया, उनकी गिरफ़्तारी की गयी और उन्हें 4 साल से भी ज़्यादा समय के लिए जेल में बन्द रखा गया। कोर्ट की कार्रवाई के बाद 13 मज़दूरों को सज़ा दी गयी, यह बताने के लिए कि अगर आप पूँजीवादी मुनाफ़े के तन्त्र के रास्ते में आते हैं तो पूँजीवादी न्याय की देवी आपको नहीं बख़्शेगी।
लेकिन, क्या आपने कभी सुना है कि आये दिन फैक्ट्री में होने वाले मज़दूरों की मौत पर किसी मालिक को सज़ा हुई हो? क्या आपने सुना है कि मज़दूरों के साथ अन्याय करने के लिए किसी अधिकारी या नेता–मन्त्री को सज़ा हुई हो? पिछ्ले क़रीब डेढ़ वर्षों से भूख और बेरोज़गारी की मार झेलती आँगनवाड़ी महिलाओं की इस स्थिति की सज़ा किसको मिलेगी??
क़ानून और न्याय सिर्फ़ मज़दूरों-मेहनतकशों को चुप कराने के लिए और यह बताने के लिए है कि अगर वे मालिकों और सरकार के ख़िलाफ़ बोलेंगे तो उनका यही हश्र होगा!!
मोदी सरकार के शासनकाल में तो न्यायपालिकाओं ने अपने पिछले सभी रिकॉर्ड ध्वस्त करते हुए मज़दूर-विरोधी फ़ैसले सुनाये हैं और अपनी “निष्पक्षता” को बख़ूबी साबित किया है!!
पूँजीवादी व्यवस्था में आम जनता के बीच यह विभ्रम कुछेक अपवादों के ज़रिए बनाकर रखा जाता है ताकि लोकतन्त्र के इस “पावन मन्दिर” में लोगों की आस्था बरकरार रहे। हालाँकि, यह बात अब आम जनता से छुपी नहीं है कि पूँजीवादी लोकतन्त्र में न्याय भी पैसे से ख़रीदी और बेची जाने वाली चीज़ है। स्कूल-कॉलेज में पढ़ते समय इंसाफ़ और न्याय के नाम पर कोर्ट-कचहरी में जो भरोसा पैदा किया जाता है वह वास्तविकता का सामना करते ही उड़नछू हो जाता है।
हमें समझना होगा कि मुनाफ़े पर टिकी इस पूँजीवादी व्यवस्था में न्याय, इंसाफ़, जनवाद जैसी चीज़ भी निरपेक्ष नहीं हो सकती। इसका एक स्पष्ट वर्ग–चरित्र है। न्याय व्यवस्था आज पैसेवालों की बपौती है और इसकी वर्ग पक्षधरता साफ़ तौर पर पूँजीपतियों, मालिकों और सत्ताधारियों के लिए है। आज के फ़ासीवादी दौर में यह और नंगे रूप में काम कर रही है। पूँजीपति वर्ग और विशेषकर बड़ी पूँजी की सेवा के लिए तमाम नियम-क़ानूनों में फेरबदल तो हो ही रहे हैं और इसके साथ-साथ मज़दूरों के अधिकारों को ख़त्म करने को क़ानूनी जामा पहनाया जा रहा है। कोई हड़ताल या आन्दोलन न उठ खड़ा हो इसके लिए न्यायपालिका की एक “फ़ुर्ती बेंच” हमेशा अलर्ट रहती है जो ऐसी किसी भी घटना पर स्वत: संज्ञान लेकर उसपर त्वरित कार्रवाई करती है!!
पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों पर टिका हुआ क़ानून, संविधान, न्याय व्यवस्था अन्तिम तौर पर पूँजीवादी आर्थिक आधार की रक्षा करता है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि यह निजी सम्पत्ति, पूँजीवादी सम्पत्ति सम्बन्धों व पूँजीवादी वितरण सम्बन्धों और उससे जुड़ी मूल्य-मान्यताओं की ही हिफ़ाज़त करता है और उसे क़ानूनी मान्यता और वैधीकरण प्रदान करता है और क़ानून के दायरे में इन सम्बन्धों का उत्पादन और पुनरुत्पादन भी करती है। हालाँकि, पूँजीवादी अधिरचना की आर्थिक मूलाधार से सापेक्षिक स्वायत्तता होती है और यही वजह है कि ये और अधिक वर्चस्वकारी बनते हैं। आम जनता के एक बड़े हिस्से के बीच अदालतों को लेकर जो भ्रम है वह इसी कारण पैदा होते हैं। उन्हें लगता है कि कहीं न्याय मिले न मिले, अदालतों में तो हमेशा न्याय मिलता है। इस बात को फिल्मों, मीडिया और अन्य विचारधारात्मक उपक्रमों के ज़रिए पूँजीवादी राज्यसत्ता लोगों के दिमाग़ों में बैठाने का काम करती है।
फ़ासीवाद के दौर में बुर्जुआ जनवाद का यह बचा-खुचा रूप भी बेपर्द हो जाता है। क़ानून की आँखों पर निष्पक्षता की नहीं बल्कि पूँजीपतियों-मालिकों के हितों की पट्टी बँधी हुई है। इस वर्ग-विभाजित समाज में क़ानून और न्यायपालिका का चरित्र और उसकी वचनबद्धता मज़दूरों-मेहनतकशों के पक्ष में हो भी नहीं सकती हैं। हमें इस गफ़लत से बाहर आ जाना चाहिए कि अदालतों में अन्ततोगत्वा न्याय मिलता ही है। न्याय व्यवस्था की आँख मज़दूरों के पक्ष में तभी थोड़ी खुलती है जब सड़कों पर कोई जुझारू संघर्ष लड़ा जा रहा हो। आँगनवाड़ी स्त्री–कामगारों ने अपने आन्दोलन से इस बात को चरितार्थ किया है। आँगनवाड़ीकर्मियों ने व अन्य कामगारों ने जो भी थोड़े–बहुत हक़–अधिकार हासिल किये हैं वो अपने संघर्ष के दम पर ही हासिल किये हैं। बहाली की माँग को लेकर दिल्ली उच्च न्यायालय में चल रहे संघर्ष को भी गति देने के लिए अपने आन्दोलन को तेज़ करना ही आज एकमात्र रास्ता है। जब हम सड़कों पर अपनी आवाज़ बुलन्द करेंगे, तो ही न्यायपालिका को भी हमारी बात सुननी पड़ेगी। सड़कों पर सन्नाटा होगा, तो अदालतों में भी आम जनता के लिए अन्याय का सन्नाटा ही होगा।
मज़दूर बिगुल, अगस्त 2023
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन