राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 और मज़दूर वर्ग पर उसका असर
स्वास्थ्य जैसी समाज की मूलभूत ज़रूरत के प्रति सरकार ने जो नीति बनाई है, वह एक छोटे से धनाढ्य वर्ग और मध्य वर्ग के हित में है।

पराग वर्मा

भारत में हर साल लाखों लोग सही समय पर सही इलाज न मिल पाने के कारण अपनी जान गँवा रहे हैं। ऐसी हालत में राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति एक बहुत अहम विषय बन जाती है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति सरकार द्वारा समाज में स्वास्थ्य व्यवस्थाओं की योजना बनाने की दिशा और तरीक़े का ब्यौरा होती है। हाल ही में केन्द्रीय कैबिनेट द्वारा पारित की गयी राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 में सरकार का रुझान एक बार फिर निजी क्षेत्र द्वारा मुहैया कराई जाने वाली स्वास्थ्य सेवाओं को ही बढ़ावा देने का नज़र आता है। इस स्वास्थ्य नीति में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं में आउटसोर्सिंग द्वारा प्राइवेट सेक्टर को और अधिक शामिल करने की सिफ़ारिश की गयी है और एक बार फिर 15 साल बाद वही रास्ता पकड़ा गया है जो इतने सालों में एक स्थायी सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा का ढाँचा नहीं खड़ा कर पाया है। भूमण्डलीकरण की नीतियों के लागू होने के बाद से ही भारतीय राज्य लोक कल्याण के वायदों से लगातार मुकरता जा रहा है और इसी के साथ ही स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण भी बढ़ता जा रहा है। निजीकरण और मुनाफ़ाख़ोरी की प्रवृत्ति ने इस क्षेत्र में सामाजिक न्याय, मानवीय संवेदना व सहानुभूति के लिए कोई जगह नहीं छोड़ी है।

आज आमजन के लिए स्वास्थ्य सुविधा प्राप्त करना दुष्कर हो गया है। पिछले दो दशकों में मेडिकल-शिक्षा के क्षेत्र में भी निजी शिक्षण संस्थानों को ख़ूब बढ़ावा दिया गया और सार्वजनिक/सरकारी संस्थाओं को निरुत्साहित किया गया है जिसके कारण चिकित्सा के क्षेत्र में अध्ययन करना काफ़ी महँगा हो गया है। मेडिकल प्रवेश परीक्षा की तैयारी के ख़र्च और निजी शिक्षण संस्थानों की फ़ीस इतनी अधिक हो चुकी है कि डॉक्टर बनने का सौभाग्य आमतौर पर केवल उन विद्यार्थियों को मिल पाता है जिनके पास पूर्व अर्जित पूँजी होती है। इस तरह की व्यवस्था में ही व्यापम जैसे घोटाले होते हैं और कई मुन्ना भाई चिकित्सक बन जाते हैं और योग्य व प्रतिभाशाली छात्रों के अवसर छीनकर उन्हे निराशा व कुंठा में धकेल दिया जाता है। कॉरपोरेट घरानों व बीमा कम्पनियों की मिलीभगत से एक असुरक्षा और अनिश्चितता का माहौल भी बनाया गया है जो इन कम्पनियों को और ज़्यादा मुनाफ़ा कमाने के मौक़ा देता है। डॉक्टर-पेथोलॉजी-लेबोरेटरी व दवा कम्पनियों के गँठजोड़ से भी मुनाफ़ाख़ोरी का पूरा तन्त्र चल रहा है जिसमें आमजन दिन-दहाड़े लूटा जाता है। ड्रग सप्लाई और मैन्युफै़क्चरिंग के क्षेत्र में सुरक्षा मानकों की धज्जियाँ अक्सर उड़ाई जा रही हैं और भ्रष्टाचार चरम पर है। इसी तरह अवैध ड्रग ट्रायल किये जाते हैं तथा मरीज व परिजनों की अज्ञानता के कारण अंगों की चोरी और व्यापार होता है। पूँजीवादी मुनाफ़ाख़ोरी ने स्वास्थ्य क्षेत्र में शोषण का ऐसा कुचक्र बना दिया है जिसमें ग़रीब और मज़दूर न चाहते हुए भी फँस जाता है। सस्ते इलाज की तलाश में ग़रीब व्यक्ति झोलाछाप डॉक्टर, अप्रशिक्षित और अयोग्य ढोंगी नीमहकीम-वैद्य, अन्य फ़र्जी पैथियों के व्यवसाय में लिप्त तथाकथित डॉक्टर तथा अपठ्य दवाई सुझाव करने वाले दुकानदारों से इलाज करवाता है और इस तरह सरकार की इन नीतियों ने ग़रीब व्यक्ति के जीवन के प्रति गम्भीर लापरवाही तथा संकट के रास्ते निर्मित कर दिये हैं।

राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 को ध्यान से समझें तो यह नयी स्वास्थ्य नीति स्वास्थ्य के क्षेत्र में लूट को रोकने तथा निजी व कॉरपोरेट व्यवसाय तन्त्र के शिकंजे से आमजन को मुक्त करने के प्रति कोई विश्वास नहीं जगाती है। मृत्यु दर, अनुमानित जीवन काल की दर और जानलेवा और संक्रामक बीमारियों की मौजूदगी जैसे कुछ मापदण्डों में पुराने तय किये गये लक्ष्य प्राप्त नहीं हो सके इसलिए सुधार के लिए नये लक्ष्यों को तय तो ज़रूर किया गया है, परन्तु स्वास्थ्य सेवाओं के लिए सकल घरेलू उत्पाद के केवल 1.3 प्रतिशत हिस्से का वित्तीय समर्थन निर्धारित किया गया है, जो इतना कम है कि इन नये लक्ष्यों को पाना भी एक सुदूर स्वप्न ही दिखाई पड़ता है। स्वास्थ्य नीति प्राथमिक उपचार पर ज़ोर देते हुए बजट के दो तिहाई हिस्से को प्राथमिक उपचार व्यवस्थाओं पर ख़र्च करने का निर्देश देती है, और बाक़ी बजट को द्वितीय और तृतीय श्रेणी के उपचार पर ख़र्च किया जायेगा। परन्तु साथ ही 2025 तक सकल घरेलू उत्पाद का केवल 2.5 प्रतिशत हिस्सा ही उपचार व्यवस्थाओं पर ख़र्च करने की बात भी करती है जो कि किसी भी विकासशील देश की तुलना में बहुत कम है। इतने कम बजट से प्राथमिक उपचार की सुविधाओं में सुधार ला पाना असम्भव सा लगता है और फिर घूम-फिर कर ग़रीब मज़दूर वर्ग को किसी भी श्रेणी के इलाज के लिए प्राइवेट स्वास्थ्य सेवाओं के विकल्प के ऊपर निर्भर होना पड़ेगा जिसका ख़र्च इतना अधिक होता है कि ग़रीब बीमार मज़दूर इलाज के वास्ते लिये गये क़र्ज़ के बोझ से ही मर जाता है।

नेशनल सैम्पल सर्वे ऑर्गेनाइजेशन (एनएसएसओ) की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत की 80 फ़ीसदी से ज़्यादा आबादी के पास न तो कोई सरकारी स्वास्थ्य योजना पहुँचती है और न ही कोई निजी बीमा, ऐसे में जान बचाने के लिए उनके पास इलाज के लिए क़र्ज़ लेना ही एकमात्र उपाय बचता है। जब सरकार हर साल लाखों करोड़ रुपये कॉरपोरेट घरानों को करों में छूट और सब्सिडी देती है, तब तो राजकोषीय घाटे की चर्चा नहीं होती, लेकिन शिक्षा व स्वास्थ्य बजट को बढ़ाने की बात सुनते ही तमाम बुर्जुआ अर्थशास्त्री राजकोषीय घाटे के बढ़ने पर चिन्ता ज़ाहिर करने लगते हैं।

भारत में स्वास्थ्य व्यवस्था की बदहाली का अन्दाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यहाँ 1,050 मरीजों के लिए सिर्फ़ एक ही बेड उपलब्ध है। इसी तरह 1,000 मरीजों के लिए सिर्फ़ 0.7 डॉक्टर मौजूद हैं। इतनी बड़ी आबादी के लिए भारत पहले से ही स्वास्थ्य क्षेत्र पर सबसे कम ख़र्च करने वाला देश है। दुनिया-भर में इलाज पर अपनी जेब से सबसे ज़्यादा ख़र्च भारत में ही होता है। अनुमान है कि हर वर्ष इलाज के ख़र्च के कारण लगभग छह करोड़ लोग ग़रीबी रेखा के नीचे चले जाते हैं । राजनेता अमीर वर्ग के हित में नीतियाँ बनाते हैं और आमजन के सामने देश को विकसित करने की हवा बाँधते हैं। एक प्रगतिशील भरोसेमन्द तरीक़ा तो यह होता, जब स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुँच को जनता का एक मूलभूत अधिकार बनाने की दिशा में कार्य होता और वैसी सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं का ढाँचा खड़ा करने के लिए उचित बजट दिया जाता, परन्तु इस स्वास्थ्य नीति में इसके ठीक उलट प्रावधान हैं।

राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति को ध्यान से पढ़ने से साफ़ समझ आता है कि सरकार आगे भी निजी क्षेत्र के प्रबन्धक के रूप में ही स्वास्थ्य सेवाओं के विस्तार की योजना बना चुकी है। जहाँ एक ओर सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की अहमियत को बताया गया है, वहीं दूसरी ओर कार्यनीति के तौर पर नि‍जी क्षेत्र को बढ़ावा देने की ही बात की गयी है। इस नीति में समता, सार्वभौमिकता, नैतिकता, अखण्डता, गुणवत्ता और जवाबदेही जैसे कई जुमलों का इस्तेमाल तो ज़रूर किया गया है, पर अगर इस नीति के विवरण पर ग़ौर करें तो न ही पर्याप्त वित्तीय प्रयोजन है और न ही किसी तरह की सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा का ढाँचा बनता दिखाई देता है जिसमें सही मायने में इन सिद्धान्तों पर अमल होगा।

स्वास्थ्य नीति में मातृ और शिशु मृत्यु दर में घटने को बढ़ा-चढ़ाकर बतलाया गया है जो कि किसी और विकासशील देशों से अभी भी कम ही है और दमा, मलेरिया, डेंगू , चिकुनगुनिया जैसी संक्रामक बीमारियों को नियन्त्रण में न कर पाने की सरकार की विफलता को छिपाया गया है। स्वास्थ्य सेवा के व्यवसाय में वृद्धि की प्रशंसा की गयी है, परन्तु यह नहीं बताया गया कि ये जो व्यवसाय है इसकी सेवाओं तक पहुँच केवल मध्य वर्ग और धनाढ्य वर्ग ही है और इसकी वृद्धि को पूरे समाज या देश की वृद्धि के तौर पर देखना नासमझी होगी। सब्सिडी में कटौती और सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा के बुनियादी ढाँचे में बदलाव एक अहम बदलाव है। सरकारी व्यय में बढ़ोत्तरी का कारण बताते हुए सार्वजनिक-निजी साझेदारी के मॉडल को अपनाये जाने पर ज़ोर दिया गया है परन्तु इस बदलाव से स्वास्थ्य सेवाओं की क़ीमतों पर क्या प्रभाव पड़ेगा और इतनी महँगी स्वास्थ्य सेवाओं के चलते कितने और लोग ग़रीबी रेखा के नीचे हो जायेंगे, इसे पूरी तरह नज़रअन्दाज़ कर दिया गया है। जिस फलते-फूलते स्वास्थ्य सेवा उद्योग की चर्चा की जाती है इसमें ये भी ग़ौर करना चाहिए कि इसका उपभोग जो वर्ग कर रहा है, वह जनसंख्या का केवल 1 प्रतिशत हिस्सा है, परन्तु वह 58 प्रतिशत की सम्पत्ति का मालिक भी है। ग्रामीण भूमिहीन किसान, अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाला मज़दूर और अन्य अनेकों मज़दूर जो हर दिन स्वास्थ्य सेवाओं की महँगाई के कारण त्रस्त हैं, उनके लिए इस फलते-फूलते स्वास्थ्य उद्योग के भला क्या मायने हैं? समाज का बहुसंख्यक हिस्सा होने के बावजूद मज़दूर वर्ग के लिए इस व्यापक स्वास्थ्य सेवा की योजना में कुछ भी नहीं है। मध्य वर्ग और धनाढ्य वर्ग के द्वारा उपभोग की जाने वाली स्वास्थ्य सेवाओं के चलते एक फलता-फूलता स्वास्थ्य उद्योग तैयार हुआ है और उसमें होने वाली बढ़ोत्तरी को बड़े उत्साहपूर्वक बताया गया है जबकि ग़रीबी रेखा से नीचे और उससे ज़रा ऊपर रहने वाले अनेकों लोग एक न्यायसंगत स्वास्थ्य सेवा से वंचित होते जा रहे हैं। इस तरह स्वास्थ्य सेवा को एक बाज़ार में बिकती हुई वस्तु के रूप में रूपान्तरित किया जा रहा है और सार्वजनिक क्षेत्र में इस तरह के प्रतिबन्धित वित्तीय समर्थन के चलते और बहुत से अनेक ग़रीब बेहतर स्वास्थ्य सेवा से वंचित ही रहने वाले हैं और इस नीति के चलते स्वास्थ्य सूचकांक में सही मायनों में प्रगति होना नामुमकिन है। कमज़ोर नियन्त्रक ढाँचे में प्राइवेट सेक्टर को और बढ़ावा देना से प्राइवेट सेक्टर को नियमों और क़ानून के तहत बाँधना मुश्किल होता जा रहा है और जिसका साफ़ असर स्वास्थ्य सेवाओं के निर्वाह में ढेरों अनियमितताओं में देखने को मिलता है। इस स्वास्थ्य नीति के उद्देश्य में और ढाँचे में जानबूझकर एक अस्पष्टता बरती गयी है, जिससे कि ग़रीब वर्ग से किया गया धोखा दिखाई न पड़े। वित्तीय बजट का ढिंढोरा ज़्यादा पीटा गया है, जबकि असलियत यह है कि प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा में भी सरकार द्वारा वित्तीय निवेश कम किया गया है। यह स्वास्थ्य नीति हर मोर्चे पर मज़दूर वर्ग और ग़रीबों के ख़ि‍लाफ़ है और केवल प्राइवेट उद्योगों और उद्योगपतियों के हित में है।

स्वास्थ्य जैसी समाज की मूलभूत ज़रूरत के प्रति सरकार ने जो नीति बनाई है, वह एक छोटे से धनाढ्य वर्ग और मध्य वर्ग के हित में है। पूँजीपति वर्ग मज़दूर के शोषण से एकत्रित की हुई पूँजी के कारण या तो स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में धन्धा करेगा या फिर इन सेवाओं का उपभोक्ता होगा। मज़दूर वर्ग को इस तरह की नीतियाँ हमेशा भगवान व भाग्य के भरोसे ही रख छोड़ती हैं। इस नाइंसाफ़ी के ख़ि‍लाफ़ मज़दूर आवाज़ न उठा दें, इसलिए उसे बहलाने के और भी तरीक़े सरकार को आते हैं। आजकल सियासी जुमलों की बहुतायत है। जब स्वास्थ्य की चर्चा होती है तो स्वच्छ भारत अभियान, कुपोषण विरोधी अभियान, नशामुक्ति अभियान, रेल-रोड यात्री सुरक्षा अभियान, लिंग परीक्षण विरोधी अभियान, तनाव मुक्ति अभियान, वायु व जल प्रदुषण से मुक्ति और योग और व्यायाम का महत्व इत्यादि मुद्दों पर ही बातें होती हैं, परन्तु अगर तार्किक ढंग से देखा जाये तो मनुष्य के स्वास्थ्य का सीधा सम्बन्ध तो पर्याप्त और पौष्टिक भोजन, न्यायसंगत वेतन, काम करने के सही तरीक़ों, सार्वजनिक परिवहन की उपलब्धता और सही शिक्षा से भी है। जब इन पहलुओं पर नज़र डालते हैं तो पता चलता है कि सरकार इन पर बात नहीं करती, क्यूँकि इन मुद्दों पर बात करने के लिए उसे पूँजीपति वर्ग के ख़ि‍लाफ़ बोलना पड़ेगा, जिसके कारण मज़दूर वर्ग के लिए ये सब कुछ सुविधाएँ पाना सम्भव नहीं है। पूँजीवाद में सरकार पूँजीपति वर्ग की प्रबन्धक होती है और मज़दूर वर्ग को केवल जुमलों में उलझा के रखना चाहती है। ऐसे में इस व्यवस्था के दायरे में मज़दूर वर्ग की स्वतन्त्र राजनीति की माँग नि:शुल्क स्वास्थ्य सुविधाओं को एक मूलभूत अधिकार बनाने की होनी चाहिए।

 

मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2017


 

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