पूँजीपति वर्ग के पास आर्थिक संकट को रोकने का एक ही तरीका है : और भी व्यापक और विनाशकारी संकटों के लिए पथ प्रशस्त करना और इन संकटों को रोकने के साधनों को घटाते जाना !
उत्पादन, विनिमय और सम्पत्ति के अपने सम्बन्धों के साथ आधुनिक बुर्जुआ समाज, वह समाज, जिसने जैसे तिलिस्म से ऐसे विराट उत्पादन तथा विनिमय साधनों की रचना कर दी है, ऐसे जादूगर की तरह है, जिसने अपने जादू से पाताल लोक की शक्तियों को बुला तो लिया है, पर अब उन्हें वश में रखने में असमर्थ है। पिछले कई दशकों से उद्योग और वाणिज्य का इतिहास सिर्फ आधुनिक उत्पादक शक्तियों की आधुनिक उत्पादन अवस्थाओं के ख़िलाफ, उन सम्पत्ति सम्बन्धों के ख़िलाफ विद्रोह का ही इतिहास है, जो बुर्जुआ वर्ग और उसके शासन के अस्तित्व की शर्तें हैं। यहाँ पर वाणिज्यिक संकटों का उल्लेख काफी है, जो अपने नियतकालिक आवर्तन द्वारा समस्त बुर्जुआ समाज के अस्तित्व की हर बार अधिकाधिक सख्त परीक्षा लेते हैं। इन संकटों में न केवल विद्यमान उत्पादों का ही, बल्कि पूर्वसर्जित उत्पादक शक्तियों का भी एक बड़ा भाग समय-समय पर नष्ट हो जाता है। इन संकटों के समय एक महामारी फूट पड़ती है, जो सभी पूर्ववर्ती युगों में एक असंगति प्रतीत होती अर्थात अति-उत्पादन की महामारी। समाज अचानक अपने आपको क्षणिक बर्बरता की अवस्था में लौटा हुआ पाता है; लगता है, जैसे किसी अकाल या सर्वनाशी विश्वयुद्ध ने उसके सभी निर्वाह साधनों की पूर्ति को एकबारगी ख़त्म कर दिया हो; उद्योग और वाणिज्य नष्ट हो गये प्रतीत होते हैं; क्यों? इसलिए कि समाज में सभ्यता का, निर्वाह साधनों का, उद्योग और वाणिज्य का अतिशय हो गया है। समाज को उपलब्ध उत्पादक शक्तियाँ बुर्जुआ सम्पत्ति की अवस्थाओं के विकास का अब संवर्धन नहीं करतीं; इसके विपरीत, वे इन अवस्थाओं के लिए, जिन्होंने उन्हें बाँध रखा है, अत्यधिक प्रबल हो गयी हैं, और जैसे ही वे इन बन्धनों पर पार पाने लगती हैं कि वे सारे ही बुर्जुआ समाज में अव्यवस्था उत्पन्न कर देती हैं, बुर्जुआ सम्पत्ति के अस्तित्व को ख़तरे में डाल देती हैं। बुर्जुआ समाज की अवस्थाएँ उनके द्वारा उत्पादित सम्पत्ति को समाविष्ट करने के लिए बहुत संकुचित हो जाती हैं। और भला बुर्जुआ वर्ग इन संकटों पर किस प्रकार पार पाता है? एक ओर, उत्पादक शक्तियों की पूरी-पूरी संहति के बलात् विनाश द्वारा और दूसरी ओर, नये-नये बाज़ारों पर कब्ज़े द्वारा और साथ ही पुराने बाज़ारों के और भी पूर्णतर दोहन द्वारा। कहने का मतलब यह कि और भी व्यापक और विनाशकारी संकटों के लिए पथ प्रशस्त करके और इन संकटों को रोकने के साधनों को घटाकर। जिन हथियारों से बुर्जुआ वर्ग ने सामन्तवाद को पराजित किया था, वे अब स्वयं बुर्जुआ वर्ग के विरुद्ध ही तन जाते हैं। किन्तु बुर्जुआ वर्ग ने केवल ऐसे हथियार ही नहीं गढ़े हैं, जो उसकी मृत्यु लाते हैं, बल्कि उसने उन लोगों को भी पैदा किया है, जिन्हें इन हथियारों को इस्तेमाल करना है आज के मज़दूर, सर्वहारा वर्ग।
जिस अनुपात में बुर्जुआ वर्ग, अर्थात पूँजी का विकास होता है, उसी अनुपात में सर्वहारा, आधुनिक मज़दूरों के वर्ग का भी विकास होता है, जो तभी तक ज़िन्दा रह सकते हैं, जब तक उन्हें काम मिलता है, और उन्हें काम तभी तक मिलता है, जब तक उनका श्रम पूँजी को बढ़ाता है। ये मज़दूर, जिन्हें अपने आपको अलग-अलग बेचना होता है, किसी भी अन्य वाणिज्यिक वस्तु की तरह ख़ुद भी जिन्स हैं, और इसलिए वे होड़ के हर उतार-चढ़ाव तथा बाज़ार की हर तेज़ी-मन्दी के शिकार होते हैं।
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…अभी तक, जैसाकि हम पहले ही देख चुके हैं, समाज का हर रूप उत्पीड़क और उत्पीड़ित वर्गों के विरोध पर आधारित रहा है। लेकिन किसी भी वर्ग का उत्पीड़न करने के लिए कुछेक अवस्थाएँ सुनिश्चित करना आवश्यक है, जिनमें वह कम से कम अपने दासवत अस्तित्व को बनाये रख सके। भूदासता के युग में भूदास ने अपने को कम्यून के सदस्य की स्थिति तक उठा लिया, ठीक जैसे निम्न बुर्जुआ सामन्ती निरंकुशता के जुए के नीचे बुर्जुआ में विकसित होने में कामयाब हो गया था। इसके विपरीत, आधुनिक मज़दूर उद्योग की प्रगति के साथ ऊपर उठने के बजाय स्वयं अपने वर्ग के अस्तित्व के लिए आवश्यक अवस्थाओं के स्तर के अधिकाधिक नीचे ही गिरता जाता है। वह कंगाल हो जाता है और कंगाली आबादी और दौलत से भी ज्यादा तेज़ी से बढ़ती है। और यहाँ यह प्रत्यक्ष हो जाता है कि बुर्जुआ वर्ग अब समाज में शासक वर्ग होने और समाज पर अपने अस्तित्व की अवस्थाओं को एक अभिभावी नियम के रूप में लादने के अयोग्य है। वह शासन करने के अयोग्य है, क्योंकि वह अपने दास का अपनी दासता में अस्तित्व सुनिश्चित करने में अक्षम है, क्योंकि वह उसका ऐसी स्थिति में गिरना नहीं रोक सकता जब उसे दास का पेट भरना पड़ता है, बजाय इसके कि दास उसका पेट भरे। समाज इस बुर्जुआ वर्ग के अधीन अब और नहीं रह सकता, दूसरे शब्दों में उसका अस्तित्व अब समाज से मेल नहीं खाता।
बुर्जुआ वर्ग के अस्तित्व और प्रभुत्व की लाज़िमी शर्त पूँजी का निर्माण और वृद्धि है; और पूँजी की शर्त है उजरती श्रम। उजरती श्रम पूर्णतया मज़दूरों के बीच प्रतिस्पर्द्धा पर निर्भर है। उद्योग की उन्नति, बुर्जुआ वर्ग जिसका अनभिप्रेत संवर्धक है, प्रतिस्पर्द्धा से जनित मज़दूरों के अलगाव की संसर्ग से जनित उनकी क्रान्तिकारी एकजुटता से प्रतिस्थापना कर देती है। इस तरह, आधुनिक उद्योग का विकास बुर्जुआ वर्ग के पैरों के तले उस बुनियाद को ही खिसका देता है, जिस पर वह उत्पादों को उत्पादित और हस्तगत करता है। अत:, बुर्जुआ वर्ग सर्वोपरि अपनी कब्र खोदने वालों को ही पैदा करता है। उसका पतन और सर्वहारा की विजय, दोनों समान रूप से अवश्यम्भावी हैं।
बिगुल, जून 2009
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन
इस की व्यावहारिक व्याख्या जरूरी है।