मज़दूर वर्ग के महान नेता और शिक्षक कार्ल मार्क्स के जन्मदिवस (5 मई) के अवसर पर
मार्क्स – क्रान्तिकारियों के शिक्षक और गुरु
विल्हेल्म लीबनेख़्त
मार्क्स के साथी और जर्मन मज़दूर आन्दोलन के एक प्रमुख नेता
“मूर” (दोस्तों के बीच मार्क्स का नाम) हम “तरुणों” से 5 या 6 साल ही बड़े थे, लेकिन हमारे सम्बन्ध में अपनी परिपक्वता की गुरुता का उन्हें पूरा एहसास था और हम लोगों की, ख़ासकर मेरी, जाँच के लिए हर अवसर से लाभ उठाते थे। उनके प्रकाण्ड अध्ययन तथा अद्भुत स्मरण-शक्ति के कारण हममें से कइयों को लोहे के चने चबाने पड़ते थे। हममें से किसी न किसी “विद्यार्थी” को कोई टेढ़ा प्रश्न देकर और उसके आधार पर हमारे विश्वविद्यालयों तथा हमारी वैज्ञानिक शिक्षा की पूर्ण निस्सारता सिद्ध करने में उन्हें मज़ा आता था।
लेकिन उन्होंने शिक्षा भी दी और उनकी शिक्षा योजनाबद्ध थी। उनके बारे में मैं संकुचित और व्यापक दोनों अर्थों में कह सकता हूँ कि वे मेरे गुरु थे और यह बात सभी क्षेत्रों पर लागू होती है। राजनीतिक अर्थशास्त्र की तो मैं बात ही नहीं करता, क्योंकि पोप के महल में पोप की बात नहीं की जाती। कम्युनिस्ट लीग में राजनीतिक अर्थशास्त्र पर उनके व्याख्यानों की बात मैं बाद में करूँगा। मार्क्स को प्राचीन और आधुनिक भाषाओं का बहुत अच्छा ज्ञान था। मैं भाषाविद् था और अरस्तु अथवा एस्कीलस का कोई ऐसा कठिन अंश मुझे दिखाने का अवसर पाकर उन्हें बच्चों जैसी ख़ुशी होती थी, जो मैं फ़ौरन नहीं समझ सकता था। उन्होंने एक दिन मुझे इसलिए बहुत बुरा-भला कहा कि मैं स्पेनी भाषा नहीं जानता था और मार्क्स किताबों के एक ढेर में से डॉन क्विक्ज़ोट निकालकर मुझे स्पेनी के सबक़ देने लगे। मैं दीत्स लिखित लातीनी भाषाओं के तुलनात्मक व्याकरण से स्पेनी के व्याकरण तथा शब्द-विन्यास के नियम जान चुका था, इसलिए “मूर” के उत्कृष्ट पथप्रदर्शन और मेरे रुकने या लड़खड़ाने की सूरत में उनकी सतर्क सहायता से काम काफ़ी ठीक ढंग से चलता रहा। वे, जो वैसे तो इतने उतावले थे, पढ़ाने में कितने धैर्यवान थे! मिलनेवाले किसी व्यक्ति के आ जाने पर ही सबक़ का अन्त होता था। जब तक उन्होंने मुझे पर्याप्त योग्यता सम्पन्न नहीं समझ लिया, तब तक मुझसे रोज़ सवाल पूछते रहे और मुझे डॉन क्विक्ज़ोट अथवा अन्य किसी स्पेनी पुस्तक के अंश का अनुवाद करना पड़ता था।
मार्क्स अद्भुत भाषाविद् थे, यद्यपि प्राचीन भाषाओं से अधिक आधुनिक भाषाओं के ज्ञाता थे। उन्हें ग्रिम के जर्मन व्याकरण का अधिकतम अचूक ज्ञान था। वे ग्रिम-बन्धुओं के शब्दकोश को मुझ भाषाविद् की अपेक्षा अधिक अच्छी तरह समझते थे। वे किसी अंग्रेज़ या फ़्रांसीसी की भाँति ही बढ़िया अंग्रेज़ी या फ़्रांसीसी लिख सकते थे यद्यपि उच्चारण इतना अच्छा नहीं था। न्यूयॉर्क डेली ट्रिब्यून के लिए उनके लेख क्लासिकीय अंग्रेज़ी में और प्रूदों की ‘दरिद्रता का दर्शन’ के विरुद्ध उनकी कृति ‘दर्शन की दरिद्रता’ क्लासिकीय फ़्रांसीसी में लिखे गये थे। छपने से पहले यह दूसरी रचना उन्होंने जिस फ़्रांसीसी मित्र को दिखायी, उन्होंने उसमें बहुत ही कम काट-छाँट की।
चूँकि मार्क्स भाषा का मर्म समझते थे और उन्होंने उसके उद्गम, विकास तथा विन्यास का अध्ययन किया था, अतः उनके लिए भाषाएँ सीखना कठिन नहीं था। लन्दन में उन्होंने रूसी सीखी और क्रीमियाई युद्ध के दौरान तुर्की और अरबी सीखने का भी इरादा किया, लेकिन उसे पूरा नहीं कर सके। भाषा पर सचमुच अधिकार जमाने के आकांक्षी के अनुरूप ही, वे पठन को सर्वाधिक महत्त्व प्रदान करते थे। अच्छी स्मरण-शक्ति रखनेवाला व्यक्ति – और मार्क्स की स्मरण- शक्ति इतनी अद्भुत थी कि उन्हें कभी कुछ नहीं भूलता था – शीघ्र ही शब्द-भण्डार और पदविन्यास संचित कर लेता है। उसके बाद व्यावहारिक इस्तेमाल आसानी से सीखा जा सकता है।
मार्क्स ने 1850 और 1851 में राजनीतिक अर्थशास्त्र पर क्रमबद्ध रूप से कई व्याख्यान दिए। वे इसके लिए राज़ी तो नहीं थे, लेकिन चूँकि अपने कुछ निकटतम मित्रों के बीच निजी तौर से चन्द व्याख्यान दे चुके थे, इसलिए हमारे अनुरोध पर अधिक विस्तृत श्रोताओं के सामने भाषण करने को भी तैयार हो गये। उस व्याख्यान-माला में, जिसे सुननेवाले सभी सौभाग्यशाली श्रोताओं को अत्यन्त आनन्द प्राप्त हुआ, मार्क्स ने अपनी मतपद्धति के उसूलों को ठीक वैसे ही विकसित किया, जैसे पूँजी में उसका स्पष्टीकरण किया गया है। उस समय तक ग्रेट विण्डमिल स्ट्रीट पर ही स्थित कम्युनिस्ट शिक्षा-समिति के खचाखच भरे हॉल में, उसी हॉल में, जहाँ डेढ़ साल पहले कम्युनिस्ट घोषणापत्र स्वीकृत किया गया था, मार्क्स ने ज्ञान-प्रचार की उल्लेखनीय प्रतिभा प्रदर्शित की। वे विज्ञान के भ्रष्टीकरण, अर्थात् उसके मिथ्यापन, निकृष्टीकरण और जड़ीकरण, के अनन्य विरोधी थे। अपने विचारों को स्पष्टतः अभिव्यक्त करने में उनसे अधिक समर्थ कोई नहीं था। कथन की स्पष्टता चिन्तन की स्पष्टता का फल होती है और स्पष्ट विचार अनिवार्यतः स्पष्ट अभिव्यक्ति का कारण होते हैं।
मार्क्स बहुत अच्छे ढंग से सिखाते थे। वे संक्षिप्ततम सम्भव रूप में किसी प्रस्थापना का निरूपण करते और फिर अधिकतम सावधानी के साथ मज़दूरों की समझ में न आनेवाली अभिव्यक्तियों से बचते हुए उसकी विस्तृत व्याख्या करते। उसके बाद अपने श्रोताओं को प्रश्न पूछने के लिए आमन्त्रित करते थे। अगर प्रश्न न पूछे जाते, तो वे जाँच करना शुरू कर देते और ऐसी शैक्षणिक निपुणता के साथ जाँच करते कि कोई ख़ामी, कोई ग़लतफ़हमी उनकी निगाह से बच नहीं रहती थी।
एक दिन इस निपुणता पर जब मैंने आश्चर्य प्रकट किया, तब मुझे बताया गया कि मार्क्स ब्रसेल्स की जर्मन मज़दूर समिति* में भी व्याख्यान दे चुके हैं। बहरहाल, उनमें श्रेष्ठ शिक्षक के सभी गुण मौजूद थे। शिक्षण में वे श्यामपट्ट का भी इस्तेमाल करते थे, जिस पर सूत्र लिख देते थे। उन सूत्रों में वे भी शामिल होते थे, जिन्हें हम सभी पूँजी के प्रारम्भिक पृष्ठों से ही जानते थे।
खेद की बात है कि व्याख्यान-माला केवल छह महीने अथवा उससे भी कम चली।
कम्युनिस्ट शिक्षा-समिति में ऐसे तत्त्व घुस आए, जिन्हें मार्क्स नापसन्द करते थे। उत्प्रवास की लहर के शान्त हो जाने पर समिति संकुचित हो गयी और उसने किसी क़दर संकीर्ण स्वरूप ग्रहण कर लिया। वाइटलिंग** और काबे*** के पुराने अनुयायियों ने फिर से सिर उठाया और मार्क्स उस समिति से अलग हो गये।
मार्क्स भाषा के मामले में हठधर्मिता की हद तक शुद्धतावादी थे। अपनी उत्तरी हेस्सी बोली के कारण, जो मुझसे त्वचा की भाँति चिपकी रही, अथवा मैं उससे चिपका रहा, मुझे अनेक बार उनकी खरी-खोटी सुननी पड़ी। मैं सिर्फ़ यह स्पष्ट करने के लिए इन छोटी-छोटी बातों का ज़िक्र कर रहा हूँ कि मार्क्स किस हद तक अपने को हम “नौजवानों” का शिक्षक समझते थे।
यह बात स्वभावतः दूसरे रूप में भी सामने आती थी: वे हमसे अत्यधिक का तक़ाज़ा करते थे। हमारी जानकारी में जैसे ही वे कोई कमी पाते, वैसे ही अत्यन्त ज़ोरदार ढंग से उसकी पूर्ति के लिए आग्रह करते और ऐसा करने के लिए आवश्यक सलाह भी देते। जो कोई भी उनके साथ अकेला रह जाता, उसकी बाक़ायदा परीक्षा लेने लगते और वे परीक्षाएँ कुछ खेल नहीं होती थीं। उनकी आँखों में धूल नहीं झोंकी जा सकती थी। अगर किसी पर अपनी मेहनत बेकार जाती देखते, तो उसके साथ उनकी दोस्ती का अन्त हो जाता। उनकी “मास्टरी” में होना हमारे लिए गौरव की बात थी। मैं जब भी उनसे मिलता, अवश्य कुछ न कुछ सीखता…
उन दिनों ख़ुद मज़दूर वर्ग की एक नगण्य अल्पसंख्या ही समाजवाद के स्तर तक ऊपर उठी थी और समाजवादियों में भी मार्क्स की वैज्ञानिक शिक्षा के अर्थ में, कम्युनिस्ट घोषणापत्र के अर्थ में अल्पसंख्यक ही समाजवादी थे। अधिकतर मज़दूर, अगर वे राजनीतिक जीवन के प्रति कुछ जागरूक हुए भी थे, तो ऐसी भावुकतापूर्ण जनवादी आकांक्षाओं और लफ़्फ़ाज़ियों के कुहासे में फँसे हुए थे, जो 1848 के क्रान्तिकारी आन्दोलन, उसकी पूर्वपीठिका तथा परिणति के लिए चारित्रिक थीं। मार्क्स के लिए लोगों की शाबाशी और वाहवाही इस बात का सबूत होती थी कि आदमी ग़लत रास्ते पर है और दान्ते की यह गर्वोक्ति उनका प्रिय कथन थीः “Segui il tuo corso, elascia dirle gentil” (“तुम अपनी राह चलते चलो, लोग कुछ भी कहें, कहने दो!”)
अक्सर वे उक्त पंक्तियों का हवाला देते थे, जिनके साथ उन्होंने पूँजी की भूमिका भी समाप्त की थी। चोट, धक्के, अथवा मच्छरों और खटमलों के काटने के प्रति कोई भी उदासीन नहीं रह सकता। फिर मार्क्स ने, जिन पर हर तरफ़ से हमले होते रहते थे, रोटी की चिन्ता ने जिनका सत निकाल लिया था, जिन्हें वे मेहनतकश ही सही तौर से नहीं समझते थे जिनकी आज़ादी की लड़ाई के लिए उन्होंने रात के सन्नाटों में हथियार गढ़े थे और जो कभी-कभी कोरे बातूनियों, मक्कार ग़द्दारों या खुले दुश्मनों तक का अनुगमन करते हुए उनकी उपेक्षा भी करते थे – उन मार्क्स ने अपने को साहस तथा नूतन उत्साह से अनुप्राणित करने के लिए उन फ़्लोरेन्सी महापुरुष के उक्त शब्दों को अपने दैन्यपूर्ण, सही मानी में सर्वहारा अध्ययनकक्ष में कितना अक्सर मन ही मन दुहराया होगा!
उन्हें गुमराह नहीं किया जा सकता था। मार्क्स अलिफ़ लैला के शहज़ादे की तरह नहीं थे, जिसने विजय और उसके पुरस्कार को सिर्फ़ इस कारण खो दिया था कि वह अपने चारों तरफ़ के शोरशराबे और प्रेतछायाओं से भयभीत होकर बुज़दिली के साथ चौतरफ़ा देखता रह गया था। वे अपने उज्ज्वल लक्ष्य पर नज़र टिकाये हुए आगे बढ़ते गये…
वे वाहवाही से जितनी नफ़रत करते थे, वाहवाही के पीछे दौड़नेवालों पर उन्हें उतना ही ग़ुस्सा आता था। उन्हें लफ़्फ़ाज़ों से घृणा थी और अगर उनकी मौजूदगी में कोई लफ़्फ़ाज़ी के फेर में पड़ा तो उसकी तो शामत ही समझिए। ऐसे लोगों के प्रति वे निर्मम थे। उनकी ज़बान में “लफ़्फ़ाज़” सबसे बड़ी गाली थी और जिसे वे एकबार लफ़्फ़ाज़ कह देते थे, उसके साथ हमेशा के लिए सम्बन्ध तोड़ लेते थे। हम “नौजवानों” के सम्मुख वे “तार्किक चिन्तन और स्पष्ट अभिव्यक्ति” की आवश्यकता पर ज़ोर देते रहते थे और हमें अध्ययन के लिए मजबूर करते थे।
उस समय तक ब्रिटिश म्यूज़ियम का पुस्तकों के अपार भण्डारवाला शानदार वाचनालय निर्मित हो चुका था। मार्क्स वहाँ रोज़ जाते थे और हमसे भी जाने का तक़ाज़ा करते थे। “अध्ययन करो, अध्ययन करो” – यह था उनका दो टूक आदेश, जो हमें अक्सर सुनने को मिलता था और जो अपने महान मस्तिष्क के सतत कार्य की अपनी निजी मिसाल द्वारा भी वे हमें देते रहते थे।
दूसरे उत्प्रवासी जब हर दिन विश्व-क्रान्ति की योजनाएँ बनाया करते थे और “क्रान्ति कल शुरू हो जाएगी” – जैसे अफ़ीमी नारों से अपने को मदमस्त रखते थे, हम, “गन्धकी गिरोहिए”, “डाकेजन”, “मानवजाति की तलछट”, ब्रिटिश म्यूज़ियम में अपना समय बिताते थे और अपने को शिक्षित करने तथा भविष्य की लड़ाई के लिए शस्त्रस्त्र तैयार करने की कोशिश करते थे।
कभी-कभी हमारे पास खाने को कुछ भी नहीं होता था, फिर भी हम म्यूज़ियम ज़रूर जाते थे। कारण कि वहाँ बैठने को आरामदेह कुर्सियाँ होती थीं और जाड़ों में वह स्थान हमारे घरों की तुलना में (जिनके अपने घर थे भी) अधिक गर्म तथा सुखद होता था।
मार्क्स कठोर शिक्षक थे। वे केवल हमसे अध्ययन करने का तक़ाज़ा ही नहीं, बल्कि इस बात की जाँच भी करते थे कि हम सचमुच अध्ययन करते हैं।
मैं बहुत अर्से तक ब्रिटिश ट्रेड-यूनियनों के इतिहास का अध्ययन करता रहा। वे हर रोज़ मुझसे पूछते कि मैं कहाँ तक पहुँचा हूँ और जब तक मैंने एक बड़ी सभा में एक लम्बी वक्तृता नहीं दे डाली, उन्होंने मुझे चैन नहीं लेने दिया। वे सभा में मौजूद थे। उन्होंने मेरी प्रशंसा नहीं की, लेकिन कड़ी आलोचना भी नहीं की। चूँकि प्रशंसा करने की उनकी आदत नहीं थी और करते भी थे तो केवल दया भाव से, इसलिए उनकी प्रशंसा के अभाव पर मैंने अपने मन को तसल्ली दे ली। फिर जब वे मेरी एक प्रस्थापना पर मुझसे बहस में उलझ गये, तो मैंने उसे अप्रत्यक्ष प्रशंसा ही समझा।
मार्क्स में शिक्षक का एक विरल गुण था: वे कठोर होते हुए भी हतोत्साहित नहीं करते थे। उनका दूसरा, उल्लेखनीय गुण यह था कि वे हमें आत्मालोचना के लिए बाध्य करते थे और हमारी उपलब्धियों से हमें आत्मतुष्ट नहीं होने देते थे। वे सारहीन चिन्तन पर अपनी व्यंगोक्तियों के निर्मम चाबुक बरसाते थे।
* जर्मन मज़दूर समिति – मज़दूरों के बीच राजनीतिक तथा वैज्ञानिक कम्युनिज़्म के विचारों के प्रचार के हेतु अगस्त 1847 में मार्क्स और एंगेल्स द्वारा ब्रसेल्स में स्थापित की गयी। फ़्रांस में 1848 की बुर्जुआ फ़रवरी क्रान्ति के शीघ्र ही बाद इसका अस्तित्व समाप्त हो गया।
** विल्हेल्म वाइटलिंग (1808-1871) – काल्पनिक समतावादी कम्युनिज़्म के एक सिद्धान्तकार।
*** एत्येन काबे (1788-1856) – काल्पनिक कम्युनिज़्म के विख्यात प्रतिनिधि, अमेरिका में कम्युनिस्ट बस्ती के संस्थापक।
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