”विकासमान” बिहार में दम तोड़ते ग़रीबों के बच्चे!

 नवीन

पिछले महीने बिहार के पटना, मुज़फ्फरपुर, गया, वैशाली, सीतामढ़ी सहित कई ज़िलों में दिमाग़ी बुख़ार से 200 से ज्यादा बच्चों की मौत हो गयी और हज़ारों बच्चे इससे ग्रसित हैं। राज्य सरकार ने दस ज़िलों को दिमाग़ी बुख़ार से प्रभावित बताया है और स्थिति से निपटने के लिए चिकित्सकों की एम्बुलेंस वाली मोबाइल यूनिट तैनात की है जो मरीज़ों की निशानदेही कर उनका प्राथमिक इलाज़ करेगी और जिन बच्चों की स्थिति गम्भीर होगी उन्हें बेहतर इलाज़ के लिए अस्पताल पहुँचाया जायेगा। परन्तु असलियत यह है कि सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था की नालायक़ी और डॉक्टरों की लापरवाही से बच्चों की जानें जाती रहीं लेकिन ”सुशासन की सरकार” ने लापरवाही से हुई मौतों के लिए एक भी अफ़सर को दण्डित नहीं किया, क्योंकि मरने वाले बच्चे किसी अरबपति, आला अफ़सर या नेता-मन्त्री के बच्चे नहीं थे! मालूम हो कि इस बीमारी से बचाव के लिए टीका भी उपलब्ध है और इन मौतों से बच्चों को बचाया जा सकता था अगर बच्चों का टीकाकरण उसी मुस्तैदी से होता जिस मुस्तैदी से बिहार के अफ़सर नीतीश कुमार की ”सेवा यात्रा” सफल बनाने में जुटे हुए थे। मीडिया ने इसे बड़ी घटना नहीं बनाया और इसे बड़ी बीमारी से होने वाली सामान्य मौत के रूप में ही दिखाया जिसमें सरकार और डॉक्टरों की थोड़ी खिंचाई करते हुए अंतत: सबको क्लीन चिट दे दी गयी।

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लोगों को भी लगा कि सरकार ने थोडी लापरवाही से काम किया लेकिन इस तरह की बड़ी बीमारियों जैसे हैज़ा, मलेरिया, डेंगू, प्लेग आदि में तो बड़ी संख्या में मौत सामान्य चीज़ है। इसी तरह ग़रीब जन गर्मी में लू लगने से, सर्दी में ठण्ड लगने से, कुपोषण से और न जाने कितनी छोटी-छोटी बीमारियों से हर क्षण मर रहे हैं। और इसका कारण वे अक्सर अपने भाग्य को मानते हैं। अर्जेण्टीना के लेखक एदुआर्दो खालियानो का यह कथन एकदम सटीक लगता है  ”जिस धरती पर हर अगले मिनट एक बच्चा भूख या बीमारी से मरता हो, वहाँ पर शासक वर्ग की दृष्टि से चीज़ों को समझने के लिए लोगों को प्रशिक्षित किया जाता है। लोग व्यवस्था को देशभक्ति से जोड़ लेते हैं और इस तरह से व्यवस्था का विरोधी, एक देशद्रोही अथवा विदेशी एजेंट बन जाता है। जंगल के क़ानूनों को पवित्र रूप दे दिया जाता है ताकि पराजित लोग अपनी हालत को नियति समझ बैठें।”

तमाम बीमारियों से होने वाली ये मौतें दरअसल हत्याएँ हैं जो इस व्यवस्था द्वारा की जा रही हैं। यहाँ दवाइयाँ गोदामों में बेकार पड़ी रहती हैं और दूसरी तरफ दवाइयों के बिना मौतें होती रहती हैं। कुपोषण से मौतें हो रही हैं और उधर गोदामों में अनाज सड़ रहा है। सरकार और एन.जी.ओ. बीमारियों के इलाज़ के लिए कुछ-कुछ कर रहे हैं लेकिन बीमारियाँ कहाँ से पैदा हो रही हैं इसका जवाब इनके पास नहीं है, या जवाब होते हुए भी वे चुप हैं। अगर सभी को साफ़-सुथरा घर, स्वच्छ वातावरण, पौष्टिक आहार उपलब्ध हो तो लोग बहुत कम बीमार पड़ेंगे। मुनाफ़ा आधरित व्यवस्था में दवा कम्पनियाँ तो चाहती ही हैं कि लोग बीमार पड़ें ताकि उनकी दवाएँ ख़ूब बिकें! इसी काम के लिए डॉक्टरों को भी उनका हिस्सा दे दिया जाता है! नेता-मन्त्री, अफ़सर और मीडिया को भी उनका हिस्सा मिल जाता है जिससे काम बेरोकटोक चलता रहे। कुछ टुकड़े तमाम एन.जी.ओ. को व्यवस्था के दामन से ख़ून के धब्‍बों को साफ़ करने के लिए भी दे दिये जाते हैं।

 

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2012


 

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