पॉलिथीन कारख़ानों के मज़दूरों की हालत
पॉलिथीन कारख़ानों के मज़दूरों की हालत मोती, दिल्ली दिल्ली के बादली, समयपुर, लिबासपुर आदि इलाक़ों में प्लास्टिक की पन्नी बनाने के अनेक छोटे-छोटे कारख़ाने हैं। बड़े उद्योगों में पैकिंग की…
पॉलिथीन कारख़ानों के मज़दूरों की हालत मोती, दिल्ली दिल्ली के बादली, समयपुर, लिबासपुर आदि इलाक़ों में प्लास्टिक की पन्नी बनाने के अनेक छोटे-छोटे कारख़ाने हैं। बड़े उद्योगों में पैकिंग की…
सुबह ड्यूटी जा रहा था तो एक लड़का मेरे साथ-साथ चल रहा था। मुझे उसने देखा, मैंने उसे देखा। लड़के की उम्र करीब 12 साल थी। मैंने पूछा कहाँ जा रहे हो। उसने कहा ड्यूटी। कहाँ काम करते हो? लिबासपुर! क्या काम है? जूता फ़ैक्टरी! कितनी तनख्वाह मिलती है? आठ घण्टे के 3500 रुपये। मैंने पूछा, आठ घण्टे के 3500 रुपये? बोला हाँ। मैंने पूछा सुबह कितने बजे जाते हो, बोला 9 बजे। मैंने कहा शाम कितने बजे आते हो, बोला 9 बजे। मैंने कहा तो 12 घण्टे हो गये। कहा नहीं… आठ घण्टे के 3500 रुपये।
मज़दूरों के पास जानकारी का अभाव होने और संघर्ष का कोई मंच नहीं होने के कारण, उन्होंने सीटू की शरण ले ली। मज़दूरों का कहना है कि हम लड़ने को तैयार हैं, लेकिन हमें कोई जानकारी नहीं है इसलिए हमें किसी यूनियन का साथ पकड़ना होगा। जबकि सीटू ने मज़दूरों से काम जारी रखने को कहा है और लेबर आफिसर के आने पर समझौता कराने की बात कही है। आश्चर्य की बात यह है कि संघर्ष का नेतृत्व करने वाले किसी भी आदमी ने यह स्वीकार नहीं किया कि वे संघर्ष कर रहे हैं। सीटू की सभाओं में झण्डा उठाने वाले फैक्ट्री के एक व्यक्ति का कहना था कि हमारी मालिक से कोई लड़ाई नहीं है। दिलचस्प बात यह है कि जहाँ मालिक को सीटू के नेतृत्व में आन्दोलन चलने से कोई समस्या नहीं है, वहीं सीटू के लिए यह संघर्ष नहीं ”आपस की बात” है।
अगर काम पर 5 मिनट लेट आये तो आधा घण्टे का पैसा कटेगा; अगर 10 मिनट लेट हुए तो एक घण्टे का और अगर 30 मिनट लेट आये तो चार घण्टे का पैसा कटेगा। हर रोज़ सुबह 9 बजे से शाम 7:30 बजे तक काम करना होता है जिसमें से आधा घण्टा लंच की छुट्टी मिलती है। इसके बाद सिंगल रेट पर ओवरटाइम करना चाहें तो आपकी मर्ज़ी, लेकिन दस घण्टे हाड़तोड़ काम करने के बाद शरीर जवाब दे जाता है। हेल्पर की तनख्वाह 4000 रुपये और अनुभवी कारीगरों की तनख्वाह 9000 रुपये से ज्यादा नहीं है। 11 साल पुराने मज़दूर भी अब तक हेल्पर की तनख्वाह ही पाते हैं, और किसी भी हेल्पर को ई.एस.आई., फण्ड, बोनस आदि कुछ नहीं मिलता।
जब भी कोई मज़दूर फैक्टरी गेट से बाहर निकलता है, तो हर बार बड़ी मुस्तैदी से तलाशी ली जाती है कि वो कहीं कोई बोल्ट चुराकर न ले जाये। ऐसे जेल जैसे माहौल में गर्दन झुकाकर लगातार काम में लगे रहने के बदले में स्त्री मज़दूर को 8 घण्टे काम के 3200 रुपये महीना और पुरुष मज़दूर को 3500 रुपये महीना मिलते हैं। ओवरटाइम सिंगल रेट से ही मिलता है। अगर मज़दूर तीन-चार साल पुराने हों, तो स्त्री मज़दूर को 3500 रुपये महीना और पुरुष मज़दूर को 4000 रुपये महीना मिलते हैं। ये नियम-क़ानून किसी नोटिस बोर्ड पर नहीं लिखे हैं, मगर ये सभी मज़दूरों को याद रहते हैं। क्योंकि याद नहीं रहने पर ख़ामियाजा भुगतना पड़ता है।
टीवी चैनलों में कभी-कभी महँगाई की ख़बर अगर दिखायी भी जाती है तो भी उनके कैमरे कभी उन ग़रीबों की बस्तियों तक नहीं पहुँच पाते जिनके लिए महँगाई का सवाल जीने-मरने का सवाल है। टीवी पर महँगाई की चर्चा में उन खाते-पीते घरों की महिलाओं को ही बढ़ते दामों का रोना रोते दिखाया जाता है जिनके एक महीने का सब्ज़ी का खर्च भी एक मज़दूर के पूरे परिवार के महीनेभर के खर्च से ज्यादा होता है। रोज़ 200-300 रुपये के फल खरीदते हुए ये लोग दुखी होते हैं कि महँगाई के कारण होटल में खाने या मल्टीप्लेक्स में परिवार सहित सिनेमा देखने में कुछ कटौती करनी पड़ रही है। मगर हम ‘मज़दूर बिगुल’ के पाठकों के सामने एक तस्वीर रखना चाहते हैं कि देश की सारी दौलत पैदा करने वाले मज़दूर इस महँगाई के दौर में कैसे गुज़ारा कर रहे हैं।
मालिक ने कारीगर को दफ्तर में बुलाया जहाँ माल लेने आयी पार्टी के भी 3-4 लोग बैठे थे। माँ-बहन की गालियाँ देते हुए उसने पूछा कि ये क्या है। कारीगर ने कहा बाबूजी, ज़रा सा पेण्ट छूटा है, अभी सही कर देता हूँ। इस पर मालिक ने पहले तो कान पकड़कर उसे बुरी तरह झिंझोड़ा और फिर दो थप्पड़ भी लगा दिये। फिर सारे मज़दूरों को गालियाँ बकने लगा। मज़दूरों ने इस पर आपत्ति करते हुए कहा कि इसे निकालना ही था तो मारा क्यों। दो दिन से गालियाँ दे रहे हो, फिर भी हम चुप हैं। इसके जवाब में उसने अगले ही दिन 22 लोगों को बाहर कर दिया। हमें चुपचाप चले आना पड़ा।
इन सब स्थितियों के बाद भी मज़दूर कहते हैं, ‘मालिक बहुत दिलदार है।’ इसका कारण यह है कि उन्हें न तो अपने अधिकारों की जानकारी है और न ही इस बात की चेतना है कि इंसाफ और बराबरी किस चिड़िया का नाम है। इसीलिए मालिकों से छोटे-छोटे टुकड़े पाकर ही मज़दूर ख़ुश हो जाते हैं। हमें मज़दूरों में फैली इस सोच के ख़िलाफ भी लड़ना होगा, क्योंकि यह मानसिकता मज़दूरों को संगठित होने में बाधक है।
पिछले कई वर्षों से मैं मज़दूर बिगुल पढ़ रहा हूँ। और भी बहुत सारे मज़दूर यह अख़बार पढ़ते हैं। मज़दूरों में यह चेतना आयी है कि इन मालिकों को अगर झुकाना है को एक अपना संगठन बनाना पड़ेगा। हम मज़दूरों ने इस बात को समझकर सन 2010 में टेक्सटाइल मज़दूर यूनियन का गठन किया। न्यू शक्तिनगर, गौशाला, माधोपुरी, कशमीर नगर, टिब्बा रोड, गीता नगर, महावीर कालोनी, हीरा नगर, मोतीनगर, कृपाल नगर, सैनिक कालोनी, भगतसिंह नगर, और मेहरबान के हम मज़दूरों ने आवाज़ उठायी और एक न्यायपूर्ण संघर्ष लड़ा और जीता भी। पिछले करीब 20 वर्षों से हम मज़दूरों को मालिकों की मर्ज़ी से काम करना पड़ता था और मालिक जब चाहे काम पर रखते थे और जब मर्ज़ी आये तो काम से निकाल देते थे। गाली-गलौज और मार-पीट आम बात थी। अब एकता बनाकर हम मज़दूर मालिकों के सामने अपने हक़ की बात सर ऊँचा उठाकर करते हैं। अगर हम पूरे देश और पूरी दुनिया के मज़दूर मिलकर एक हो जाएँ तो देश-दुनिया के सारे मालिकों को झुका सकते हैं।
कुकर की घिसाई (बफिंग) के कारण बहुत ज़्यादा गर्दा उड़ता है। हमने सुना है कि प्रदूषण वाली फ़ैक्ट्री में हर मज़दूर को रोज़ाना 100 ग्राम गुड़ व 250 मिली दूध देने का क़ानून है। मगर यहाँ तो ड्यूटी के समय में किसी को एक कप चाय तक नहीं मिलती। रोज़ कम-से-कम दो घण्टा ओवरटाइम लगाना ज़रूरी है जिसका पैसा सिंगल रेट से ही मिलता है। मैंने पिछले महीने काम छोड़ दिया क्योंकि प्रदूषण बहुत ज़्यादा होता है। मुझे लगातार खाँसी आने लगी थी। 50 से ऊपर की उम्र में मेरे लिए इस तरह का काम करना कठिन हो रहा था। मैंने ठेकेदार से हिसाब करने को कहा तो कहता है कि जो हमें खड़े-खड़े जवाब देता है, उसके लिए यही नियम है कि हिसाब अगले महीने लेना। यानी अपनी महीने भर की मज़दूरी लेने के लिए भी मुझे चक्कर लगाने पड़ेंगे। लेकिन इस इलाके में सभी मज़दूरों के साथ ऐसा ही होता है। कोई एकजुट होकर बोलता नहीं है इसलिए मालिकों और ठेकेदारों की मनमानी पर कोई रोक-टोक नहीं है।