महान अक्तूबर समाजवादी क्रान्ति की 104वीं वर्षगाँठ के अवसर पर
फिर लोहे के गीत हमें गाने होंगे दुर्गम यात्राओं पर चलने के संकल्प जगाने होंगे

– सम्पादकीय

7 नवम्बर 2021 को रूस की महान अक्तूबर समाजवादी क्रान्ति के 104 वर्ष पूरे हो गये। इस क्रान्ति के साथ मानव समाज के इतिहास का एक नया अध्याय शुरू हुआ था और बीसवीं सदी के इतिहास को यदि किसी घटना ने सबसे ज़्यादा परिभाषित किया था, तो वह यह क्रान्ति थी। यह कोई साहित्यिक दावा या मुहावरे के रूप में कही गयी बात नहीं है, बल्कि शब्दश: सच है। इस क्रान्ति ने मानव इतिहास में मज़दूर वर्ग की पहली व्यवस्थित राज्यसत्ता स्थापित की और समाजवाद के पहले महान प्रयोग की शुरुआत की। रूस के मज़दूर वर्ग ने ग़रीब और मँझोले मेहनतकश किसानों और मध्यवर्ग को साथ लेकर 7 नवम्बर 1917 को पूँजीपतियों और भूस्वामियों की तानाशाही की नुमाइन्दगी करने वाली आरज़ी सरकार को उखाड़ फेंका और सर्वहारा वर्ग की तानाशाही की स्थापना की। रूस के सर्वहारा वर्ग ने अपनी क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी, यानी बोल्शेविक पार्टी, के नेतृत्व में इस महान उपलब्धि को अंजाम दिया। बोल्शेविक पार्टी उस समय दुनिया की सभी कम्युनिस्ट पार्टियों में विचारधारात्मक व राजनीतिक रूप से सबसे उन्नत पार्टी थी और इसमें व्लादिमिर इलिच लेनिन की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण थी। आज मज़दूर वर्ग के लिए यह जानना विशेष महत्व रखता है कि रूस के हमारे मज़दूर भाइयों-बहनों ने किस प्रकार पूँजीपति वर्ग की सत्ता को उखाड़ फेंका था और सर्वहारा सत्ता और समाजवादी व्यवस्था की स्थापना की थी।

महान समाजवादी अक्तूबर क्रान्ति ने क्या किया?

क्रान्ति के तुरन्त बाद रूस की समाजवादी मज़दूर सत्ता ने समस्त ज़मीन का राष्ट्रीकरण कर उसे समूची जनता की सम्पत्ति घोषित कर दिया, समस्त भूस्वामियों की ज़मीनें ज़ब्त कर ली गयीं, ग़रीब व मँझोले किसानों तथा खेतिहर मज़दूरों की व्यापक आबादी को ज़मीनों का, भोग करने के अधिकार के आधार पर और मज़दूरों के उजरती श्रम के शोषण पर रोक लगाने वाले क़ानून के साथ वितरण किया गया, सभी कारख़ानों का और खानों-खदानों का राष्ट्रीकरण कर दिया गया और उन्हें पार्टी के नेतृत्व में मज़दूर प्रबन्धन के अधीन रख दिया गया, सभी बैंकों का राष्ट्रीकरण कर दिया गया और विदेशी कम्पनियों की सारी परिसम्पत्ति ज़ब्त कर ली गयी। यानी कारख़ानों व खानों-खदानों व वित्त का पूर्ण राष्ट्रीकरण कर दिया गया और खेती के क्षेत्र में सर्वाधिक आमूलगामी जनवादी सुधार किया गया।
खेती के क्षेत्र में तुरन्त किसानों व खेतिहर मज़दूरों के सहकारी फ़ार्म, सामूहिक फ़ार्म व राजकीय फ़ार्म बनाकर समाजवादी सम्पत्ति सम्बन्ध स्थापित नहीं किये जा सके, जिसके दो कारण थे: पहला, रूसी क्रान्ति जब और जिन विशिष्ट परिस्थितियों में हुई, उस समय तक गाँवों में ग़रीब व मँझोले किसानों तथा खेतिहर मज़दूरों के बीच बोल्शेविक पार्टी का आधार बेहद सीमित था और वहाँ पर अन्य ताक़तों जैसे कि समाजवादी-क्रान्तिकारी पार्टी का आधार ज़्यादा था, जिन्होंने रूसी खेती में जारी पूँजीवादी विकास के बावजूद राजनीतिक तौर पर खेतिहर सर्वहारा व अर्द्धसर्वहारा तथा मेहनतकश किसानों के बीच एक बुर्जुआ जनवादी भूमि कार्यक्रम के लिए व्यापक व आम सहमति बना रखी थी; दूसरा, खेती में जारी पूँजीवादी विकास के बावजूद रूस की किसान आबादी में ज़मीन की भूख बनी हुई थी क्योंकि अभी सामन्ती भूस्वामियों का दमन-उत्पीड़न बहुत पुराने अतीत की बात नहीं थी और रूस के तमाम क्षेत्रों में वह अभी पूरी तरह से समाप्त भी नहीं हुआ था, हालाँकि पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्ध खेती में अब प्रमुख रुझान बन चुके थे। बहरहाल, तात्कालिक तौर पर रूसी क्रान्ति खेती के क्षेत्र में समाजवादी सम्पत्ति सम्बन्धों को क़ायम नहीं कर सकी, क्योंकि लेनिन के शब्दों में, समाजवाद सरकारी आदेशों और आज्ञप्तियों से नहीं लाया जा सकता है और व्यापक किसान आबादी तत्काल साझी खेती यानी समाजवादी खेती के लिए तैयार नहीं थी। रूस में किसान आबादी कुल आबादी का क़रीब 85 फ़ीसदी थी और उसमें भी मँझोले व ग़रीब किसानों की बहुसंख्या थी। ऐसे में, समाजवादी मज़दूर सत्ता ने एक लम्बी प्रक्रिया में व्यापक मेहनतकश किसान आबादी को मिसाल पेश करके और समझा-बुझा कर साझी खेती पर लाने का फ़ैसला किया। यह कार्य 1936 में स्तालिन के नेतृत्व में पूरा हुआ।
क्रान्ति के तुरन्त बाद ही देश के भीतर एक भयंकर गृहयुद्ध शुरू हो गया। ज़ाहिर है कि जब लुटेरों के हाथ से सत्ता छीन ली जाती है, तो वे चुपचाप नहीं बैठते बल्कि अपनी सत्ता को फिर से हासिल करने के लिए हमले, तोड़-फोड़, साज़िश और विदेशी साम्राज्यवादी-पूँजीवादी ताक़तों की मदद लेने से भी बाज़ नहीं आते। रूस के पूँजीपतियों और भूस्वामियों ने भी अपने खोये हुए स्वर्ग को हासिल करने के लिए 14 साम्राज्यवादी देशों की मदद से रूस की नवजात मज़दूर सत्ता के विरुद्ध एक युद्ध छेड़ दिया। यह गृहयुद्ध मई 1918 से शुरू होकर 1921 के अन्त तक चलता रहा। इसमें रूस के मज़दूर वर्ग और ग़रीब किसान आबादी ने अद्वितीय क़ुरबानी देकर मालिकों, ज़मीन्दारों, व्यापारियों और विदेशी साम्राज्यवादी शक्तियों की ताक़त को शिकस्त दी। लेकिन पहले विश्वयुद्ध से पहले से ही तबाह और अकाल और भुखमरी झेल रहे समाजवादी रूस को इसके लिए बहुत नुक़सान भी उठाना पड़ा। आर्थिक तौर पर जो नुक़सान हुआ, उसकी भरपाई करना भी मुश्किल था, लेकिन असली चुनौती राजनीतिक थी।
गृहयुद्ध के दौरान मोर्चे पर सैनिकों और लड़ाई की ज़रूरत के अनुसार पूरी अर्थव्यवस्था और विशेष तौर पर खेती को निचोड़ना पड़ा, क्योंकि उसके बिना मज़दूर सत्ता और समाजवाद को बचाना सम्भव नहीं था। इसी बीच जो धनी किसान और उच्च मध्यम किसान थे, वे मज़दूरों और सैनिकों को अनाज सहज रूप से मुहैया कराने की बजाय अनाज की जमाख़ोरी और कालाबाज़ारी करने में लगे हुए थे। लिहाज़ा, लेनिन के आह्वान पर ग़रीब किसानों ने अपनी समितियाँ बनायीं और धनी किसानों और कुलकों से अनाज ज़ब्त करने लगे। लेकिन युद्ध की स्थितियों में ग़रीब किसान कमेटियों के निशाने पर अक्सर मँझोले किसान भी आने लगे। इसके कारण गृहयुद्ध के दौरान ही गाँवों में बोल्शेविकों व मज़दूर सत्ता के सामाजिक आधार पर ही एक ख़तरा मण्डराने लगा। इसी बीच बोल्शेविक पार्टी में भी एक अगिया बैताल “वामपन्थी” भटकाव भी पैदा हुआ, जिसकी नुमाइन्दगी बुखारिन, त्रॉत्स्की और प्रियोब्रेझेंस्की जैसे नेता कर रहे थे। इनका मानना था कि समाजवादी व्यवस्था को चन्द वर्षों में भी पुख़्ता तौर पर स्थापित किया जा सकता है और इसके लिए पार्टी और मज़दूर राज्यसत्ता को ऊपर से समाजवादी रूपान्तरण को व्यापक जनता पर लाद देना चाहिए। लेनिन ने इसका विरोध किया और बताया कि समाजवादी सम्पत्ति सम्बन्धों व उत्पादन सम्बन्धों की स्थापना का काम, मुद्रा की भूमिका को समाप्त करने का काम, मज़दूरों को कल-कारख़ानों व खानों-खदानों का प्रबन्धन सिखाने का काम, सामूहिक फ़ार्मों की स्थापना का काम स्वयं एक वर्ग संघर्ष की प्रक्रिया है और यह विशेष तौर पर रूस जैसे पिछड़े पूँजीवादी देश में कई चरणों से होकर ही गुज़र सकती है। यह कार्य राजनीतिक तौर पर व्यापक जनता में सर्वहारा वर्ग के राजनीतिक व विचारधारात्मक नेतृत्व को स्थापित करके ही हो सकता है। गृहयुद्ध की स्थितियों ने पार्टी और मज़दूर सत्ता को यह काम नहीं करने दिया और उन्हें बाध्यतावश मज़दूर सत्ता की रक्षा के लिए न सिर्फ़ मँझोले किसानों पर बल्कि मज़दूर वर्ग के एक हिस्से को भी कुछ ऐसे क़दमों को उठाने के लिए बाध्य करना पड़ा, जो क़दम लम्बी दूरी में व्यापक जनता को राजनीतिक व विचारधारात्मक तौर पर तैयार करके ही उठाये जा सकते थे। “वामपन्थी” भटकाव से ग्रस्त धड़ा इन बाध्यतापूर्ण क़दमों को ही कम्युनिज़्म ऊपर से ला देने का रास्ता बता रहा था, जिसका लेनिन ने विरोध किया।
इसलिए गृहयुद्ध ख़त्म होने के बाद लेनिन ने टूटते हुए मज़दूर-किसान संश्रय को बचाने के लिए नयी आर्थिक नीतियों का प्रस्ताव रखा, जिसके अनुसार, आर्थिक बर्बादी और अकाल से निपटने के लिए तात्कालिक तौर पर पूँजीवादी व निम्न-पूँजीवादी तत्वों को नियंत्रित तौर पर और सर्वहारा वर्ग की तानाशाही की चौकसी के अन्तर्गत कुछ छूट देने का रास्ता अपनाया गया। इसमें धनी व उच्च मध्यम किसान आबादी से ज़बरन फ़सल वसूली रोककर एक निर्धारित फ़सल कर लगाया गया, जिसे मज़दूर सत्ता को देने के बाद किसान अपनी बेशी फ़सल को खुले बाज़ार में बेच सकते थे। इसी के पूरक के तौर पर समाजवादी उद्योगों को भी बाज़ार में मुक्त विनिमय की छूट देनी पड़ी। निश्चित तौर पर इससे कालान्तर में पूँजीवादी तत्व पैदा होते। लेकिन लेनिन ने स्पष्ट किया कि यह एक अस्थायी रूप से पीछे हटाया गया रणनीतिक क़दम है, न कि समाजवादी निर्माण की आम नीति। लेकिन अभी मज़दूर सत्ता को मज़दूर-किसान संश्रय को बचाकर ही बचाया जा सकता है और साथ ही देश को आर्थिक बर्बादी और पतन से बचाने के लिए भी यह ज़रूरी है। लेनिन की यह नीति स्वीकार की गयी। नयी आर्थिक नीतियों के लागू होने के एक वर्ष के भीतर ही आर्थिक तौर पर स्थिति सुधरने लगी और मँझोले किसानों से टूट रहे संश्रय को दुरुस्त करने में भी मज़दूर सत्ता कामयाब रही। इसका नकारात्मक यह था कि नये धनी किसानों व कुलकों का एक वर्ग पैदा होने लगा और साथ ही व्यापारियों व बिचौलियों का भी एक वर्ग पैदा होने लगा, जो समाजवाद का विरोधी था और मज़दूर वर्ग की सत्ता का खुले व छिपे तरीक़े से प्रतिरोध करता था।
पार्टी के भीतर भी बुखारिन जैसे लोग इन धनी किसानों का समर्थन करने की बात कहने लगे क्योंकि उन्हें लगता था कि उत्पादक शक्तियों का तेज़ विकास करने के लिए धनी किसानों को और धनी बनने का नारा दिया जाना चाहिए। यह पार्टी के भीतर समाज में जारी वर्ग संघर्ष की ही अभिव्यक्ति थी। पार्टी और राज्यसत्ता के भीतर ही ‘किसी भी क़ीमत पर’ आर्थिक विकास और उत्पादक शक्तियों के विकास की ख़तरनाक पूँजीवादी सोच जड़ जमाने लगी थी। धनी किसानों-कुलकों व कालाबाज़ारी करने वाले व्यापारियों का एक पूरा वर्ग समाज में मज़बूत हो रहा था। 1926-27 से ही इसने मज़दूर सत्ता की अवहेलना करना, जमाख़ोरी और कालाबाज़ारी करके मुनाफ़ाख़ोरी करना और कृत्रिम अकाल पैदा करने की नीति अपनानी शुरू कर दी थी। 1928-29 तक धनी किसानों-कुलकों के इस वर्गीय प्रतिरोध के कारण मज़दूर सत्ता के लिए एक बार फिर से गम्भीर स्थिति पैदा हो गयी थी।
1924 में लेनिन की मृत्यु हो चुकी थी और उसके बाद सोवियत यूनियन में सर्वहारा सत्ता और बोल्शेविक पार्टी को नेतृत्व देने का काम मुख्य रूप से स्तालिन कर रहे थे। स्तालिन ने 1929 में धनी किसानों-कुलकों के इस प्रतिरोध से निपटने के लिए पहले ज़बरन फ़सल वसूली के आपात क़दम उठाये। लेकिन यह स्पष्ट हो चुका था कि अब खेती में समाजवादी सम्पत्ति सम्बन्धों की स्थापना करने का काम किये बिना, यानी निजी खेती के स्थान पर सामूहिक या साझी खेती के रूपों की स्थापना किये बग़ैर संकट से निपटना मुश्किल था। इसलिए 1930-31 में स्तालिन के नेतृत्व में बोल्शेविक पार्टी के नेतृत्व में सर्वहारा वर्ग ने ग़रीब और मँझोले किसानों को साथ लेकर गाँवों में खेती के सामूहिकीकरण का एक पूरा आन्दोलन शुरू किया गया। यह समाजवाद में जारी वर्ग संघर्ष ही था। 1936 में सामूहिकीकरण समाप्त हुआ और धनी किसानों व कुलकों को एक वर्ग के तौर पर ख़त्म कर दिया गया। इसके साथ स्तालिन के नेतृत्व में सोवियत समाजवाद एक और क़दम आगे गया और उद्योगों के बाद खेती के क्षेत्र में भी समाजवादी सम्पत्ति सम्बन्धों की स्थापना के काम को पूरा किया गया।
इस समय तक सोवियत संघ में बेरोज़गारी, ग़रीबी, भुखमरी, दरिद्रता, वेश्यावृत्ति की पूरी तरह से समाप्ति की जा चुकी थी। मज़दूरों और सामूहिक किसानों का जीवन स्तर कई गुना ऊपर उठ चुका था। साक्षरता दर 10 प्रतिशत से 80 प्रतिशत पहुँच चुकी थी, देश में सम्पूर्ण विद्युतीकरण का काम पूरा हो चुका था, स्त्रियों के जीवन में भारी परिवर्तन आया था क्योंकि सामूहिक भोजनालयों और शिशु पालना घरों ने उन्हें रसोई और बच्चों के पालन-पोषण तक सीमित रहने से मुक्त करना शुरू कर दिया था, औद्योगिक विकास की दर अद्भुत रूप से ऊँची थी, जिस पर कभी कोई पूँजीवादी देश नहीं पहुँच पाया था। इन उपलब्धियों के अलावा, सोवियत यूनियन ने ज़ारशाही के दौर के रूस द्वारा दमित तमाम क़ौमों को आज़ादी थी और पहले उनके साथ एक संघ का निर्माण किया क्योंकि ये दमित क़ौम सोवियत रूस के साथ एक संघ में ही शामिल होना चाहते थे और आगे चलकर सोवियत यूनियन का निर्माण किया। शुरू में सोवियत यूनियन में मौजूद संघीय ढाँचा भी बाद में वास्तव में समाप्त हो गया और कई राष्ट्रों को अपने अन्दर समेटे एक ऐसे समाजवादी देश का निर्माण हुआ जिसमें सभी क़ौमों और राष्ट्रीयताओं को समानता का स्थान प्राप्त था और सभी भाषाओं को पूर्ण बराबरी हासिल थी।

सोवियत संघ में समाजवादी प्रयोग महान उपलब्धियों के 36 वर्षों के बाद क्यों गिरा?

सोवियत संघ की इन आर्थिक और राजनीतिक उपलब्धियों के बावजूद यह सवाल आपके दिमाग़ में उठ सकता है कि 1953 में स्तालिन की मृत्यु के बाद समाजवादी व्यवस्था का पतन क्यों हो गया, रूसी पार्टी कम्युनिस्ट पार्टी से एक संशोधनवादी पूँजीवादी पार्टी में क्यों तब्दील हो गयी? यह एकदम नैसर्गिक और जायज़ सवाल है और इसका जवाब दिये बग़ैर नयी समाजवादी क्रान्ति को अंजाम देना और पूँजीवादी व्यवस्था का ध्वंस करना सम्भव नहीं है।
सोवियत यूनियन में समाजवादी व्यवस्था के पतन और पूँजीवादी पुनर्स्थापना के कई वस्तुगत और मनोगत कारक थे। पहला, बुनियादी वस्तुगत कारक यह था कि रूस में एक बेहद विशिष्ट स्थिति में एक नवोदित और छोटे लेकिन राजनीतिक रूप से उन्नत और संगठित मज़दूर वर्ग ने समाजवादी क्रान्ति को अंजाम दिया था और इससे पहले समाजवादी प्रयोग की कोई मिसाल उसके सामने मौजूद नहीं थी। आम तौर पर, किसी भी वर्ग की राज्यसत्ता के पहले प्रयोग सफल नहीं होते। पूँजीपति वर्ग भी सामन्तवाद से चार सौ साल के बाद जीत पाया, जिस दौरान उसने कई क्रान्तियाँ भी कीं और कई हारें भी देखीं। इसमें कोई ताज्जुब की बात नहीं है कि सर्वहारा वर्ग के प्रथम दौर के प्रयोग भी महान उपलब्धियों को हासिल करने के बाद गिर गये।
दूसरा वस्तुगत कारक यह था कि रूस में बेहद अपवादस्वरूप स्थितियों में नवम्बर 1917 में समाजवादी क्रान्ति हुई। लेनिन ने ख़ुद ही बताया था कि दो अपवादस्वरूप स्थितियों के कारण रूस में नवम्बर 1917 में समाजवादी क्रान्ति हो सकी। पहला कारण था प्रथम विश्वयुद्ध द्वारा पैदा आर्थिक बर्बादी, अकाल और भुखमरी की स्थिति और इस युद्ध में बड़े पैमाने पर रूसी सैनिकों का क़त्लेआम (जो मुख्यत: और मूलत: किसान और मज़दूर ही थे)। इसके कारण देश में भयंकर विद्रोह का माहौल पैदा हुआ, जिसने पहले स्वत:स्फूर्त रूप से फ़रवरी 1917 की जनवादी क्रान्ति को जन्म दिया और फिर बोल्शेविक पार्टी के सचेतन राजनीतिक नेतृत्व में नवम्बर 1917 की समाजवादी क्रान्ति को। दूसरा कारण था, क्रान्ति के पहले जनपंचायत जैसी संस्था सोवियत का फिर से एक नये रूप में जाग उठना, जो कि पहली बार 1905 की असफल रूसी क्रान्ति के दौरान अस्तित्व में आयीं थीं। साथ ही, मज़दूरों का कारख़ाना समिति आन्दोलन और मेहनतकश किसानों का भूमि समिति आन्दोलन, फ़रवरी 1917 के बाद आयी आरज़ी पूँजीवादी सरकार की जड़ें खोद रहे थे और दूसरी ओर समानान्तर सोवियत सत्ता को बल प्रदान कर रहे थे। इन दो वस्तुगत कारकों के अलावा एक महत्वपूर्ण मनोगत कारक भी था: बोल्शेविक पार्टी के रूप में दुनिया की सबसे उन्नत कम्युनिस्ट पार्टी का मौजूद होना और उसके नेतृत्व में रूस के नवोदित और छोटे लेकिन राजनीतिक रूप से उन्नत मज़दूर वर्ग का मज़बूती से गोलबन्द और संगठित होना। इन कारकों के मिलने से एक क्रान्तिकारी परिस्थिति पैदा हो गयी थी: यानी, एक ओर आर्थिक संकट और युद्ध ने पूँजीपति वर्ग से एक राजनीतिक वर्ग के रूप में शासन करने की क्षमता को छीन लिया था और उनकी आपसी राजनीतिक सहमति बिखर गयी थी और वहीं दूसरी ओर बोल्शेविक पार्टी के नेतृत्व में मज़दूर वर्ग सत्ता पर क़ब्ज़ा करने में सक्षम था।
उपरोक्त वस्तुगत कारकों ने बेहद विशिष्ट सन्धि-बिन्दु, यानी कई आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक अन्तरविरोधों के मिल जाने से पैदा हुए राजनीतिक संकट, में रूसी समाजवादी क्रान्ति को सम्भव बनाया। लेकिन ठीक इन्हीं वजहों से रूस में समाजवादी क्रान्ति की समस्याएँ भी पैदा हुईं। एक कमज़ोर और नवोदित बुर्जुआ सत्ता को विशिष्ट स्थितियों में उखाड़ फेंकना आसान था, लेकिन एक बेहद पिछड़े पूँजीवादी देश में, जिसमें कि 85 प्रतिशत आबादी किसानों की थी, समाजवादी व्यवस्था का निर्माण करना और उस प्रक्रिया में जारी वर्ग संघर्ष को सही ढंग से संचालित करना बोल्शेविक पार्टी के समक्ष बेहद जटिल और मुश्किल सवालों को खड़ा करता था। एक ओर व्यापक मेहनतकश किसान आबादी के साथ मज़दूर वर्ग के संश्रय को बरक़रार रखना सर्वहारा सत्ता के अस्तित्व को बचाये रखने के लिए अनिवार्य था, वहीं उद्योग और खेती समेत समूची अर्थव्यवस्था में समाजवादी उत्पादन सम्बन्धों की स्थापना की शुरुआत करना और उत्पादक शक्तियों का विकास करना भी आवश्यक था, जिसके बिना सोवियत समाजवाद के अस्तित्व को क़ायम रख पाना मुश्किल था। दूसरे शब्दों में, रूस की विशिष्ट परिस्थितियों में पूँजीपति वर्ग की राज्यसत्ता का ध्वंस कर क्रान्ति करना अपेक्षाकृत आसान था लेकिन समाजवादी मज़दूर सत्ता को टिका पाना और समाजवादी निर्माण के कार्य को आगे बढ़ाना ज़्यादा मुश्किल। साथ ही, लेनिन, स्तालिन और समूची बोल्शेविक पार्टी के पास समाजवादी प्रयोगों की कोई मिसाल मौजूद नहीं थी, जिसके अनुभवों से सीखकर इन समस्याओं का हल करने में उन्हें कोई मदद मिलती।
नतीजतन, ग़लतियाँ होना लाज़िमी था। इसका यह मतलब नहीं कि सोवियत समाजवाद का पतन अवश्यम्भावी था। इस प्रकार का नियतिवाद अवैज्ञानिक और मूर्खतापूर्ण होगा। इसका यह अर्थ है कि वस्तुगत रूप से प्रतिकूल ऐतिहासिक परिस्थितियों में मनोगत तौर पर ग़लतियाँ होने की सम्भावना अधिक थी और ऐसी ग़लतियाँ होने की सम्भावना भी पर्याप्त थी, जो कि कालान्तर में समाजवादी प्रयोग के गिरने और पूँजीवादी पुनर्स्थापना की ओर ले जायें। ये मनोगत ग़लतियाँ क्या थीं?
सबसे प्रमुख तौर पर जो मनोगत ग़लती थी, वह थी अर्थवाद की ग़लती। अर्थवाद की प्रवृत्ति, यानी मज़दूर वर्ग को हर राजनीतिक लाभ या हानि को आर्थिक नफ़े-नुक़सान में नापने के लिए प्रशिक्षित करना और राजनीतिक सत्ता और राजनीतिक वर्ग संघर्ष के प्रश्न को उठाने में अक्षम बनाने की प्रवृत्ति। यह प्रवृत्ति यूरोप के मज़दूर आन्दोलन में पहले से मौजूद थी। मज़दूर वर्ग के आन्दोलन के भीतर मौजूद इस बुर्जुआ प्रवृत्ति के ख़िलाफ़ लड़ते हुए मार्क्स और एंगेल्स ने बताया था कि मज़दूर वर्ग को एक राजनीतिक वर्ग के तौर पर, यानी एक ऐसे वर्ग के तौर पर जो अपनी राजनीतिक सत्ता की स्थापना करने की परियोजना के साथ वर्ग संघर्ष में भागीदारी कर रहा है, संगठित करने के लिए ज़रूरी है कि मज़दूर वर्ग अपनी आर्थिक माँगों के लिए संघर्ष करते हुए भी एक राजनीतिक नज़रिया अपनाये, वह अपने राजनीतिक वर्ग हितों को समझे और समूचे मालिक वर्ग और उसकी सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए अपने आपको संगठित करे।
लेनिन ने भी अर्थवाद की प्रवृत्ति के विरुद्ध सतत् संघर्ष किया और बताया कि अर्थवाद की प्रवृत्ति वास्तव में राजनीतिक सत्ता का प्रश्न उठाने की अक्षमता है जो कि मज़दूर वर्ग को कभी शासक वर्ग के रूप में क़ायम नहीं रहने देगी। लेनिन के बाद के दौर में अर्थवाद के विरुद्ध यह संघर्ष थम-सा गया। लेनिन के बाद सोवियत यूनियन में अर्थवाद किस रूप में प्रकट हुआ? यह उत्पादक शक्तियों के विकास के सिद्धान्त के रूप में प्रकट हुआ। 1936 में जब खेती में सामूहिकीकरण के साथ समाजवादी सम्पत्ति सम्बन्ध स्थापित हो गये और निजी सम्पत्ति का ख़ात्मा हुआ, तो स्तालिन ने कहा कि अब सोवियत यूनियन में शत्रुतापूर्ण वर्ग नहीं हैं। यह एक ग़लत समझदारी थी।
समाजवादी सम्पत्ति सम्बन्धों की स्थापना के साथ समाजवादी उत्पादन सम्बन्धों की स्थापना का काम शुरू होता है, ख़त्म नहीं। इसके बाद भी समाज में वर्गों की मौजूदगी होती है। पूँजीपति वर्ग हारा होता है, लेकिन समाप्त नहीं हुआ होता। अभी माल उत्पादन जारी रहता है, हालाँकि श्रमशक्ति अब माल नहीं रह गयी होती। अधिकांश उपभोक्ता वस्तुओं का उत्पादन माल के रूप में ही होता है क्योंकि तमाम सामूहिक फ़ार्मों, राजकीय फ़ार्मों व सहकारी फ़ार्मों व समाजवादी उद्योगों के बीच उनका विनिमय ही होता है। चूँकि मानसिक व शारीरिक श्रम के बीच का अन्तर, उद्योग और कृषि के बीच का अन्तर और गाँव और शहर के बीच का अन्तर बना रहता है और समाजवादी समाज में अभी किये गये सामाजिक श्रम की मात्रा के अनुसार मज़दूर को मज़दूरी का भुगतान होता है, इसलिए यदि उत्पादन सम्बन्धों के क्रान्तिकारी रूपान्तरण के काम को पार्टी के नेतृत्व में व्यापक जनसमुदाय अंजाम नहीं देते, तो समाजवादी समाज में असमानता बढ़ती है, पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों में बढ़ोत्तरी होती है, बुर्जुआ श्रम विभाजन हावी होता है, पूँजीवादी राजनीतिक तत्व समाज में भी जन्म लेते हैं और पार्टी और राज्यसत्ता के भीतर भी; पुराने बुर्जुआ तत्व भी इन परिवर्तनों का लाभ उठाते हैं और अपने आपको बढ़ाते हैं।
ऐसे में, पार्टी और राज्यसत्ता में भी पूँजीवादी तत्वों की प्रधानता बढ़ सकती है जो कि समाजवादी उत्पादन सम्बन्धों की स्थापना के काम को जारी रखते हुए उत्पादक शक्तियों का विकास करने की बजाय, पूँजीवादी तरीक़े से अन्तरवैयक्तिक असमानताओं को बढ़ावा देते हुए उत्पादक शक्तियों के विकास का रास्ता अपनाने लगते हैं, अपने विशेषाधिकारों को बढ़ावा देते हैं, अपनी शक्ति को बढ़ाते हैं और जनसमुदायों की पहलक़दमी को कुचलते हैं। ये तत्व समाज में बुर्जुआ विशेषाधिकारों को सही ठहराने, व्यापक मज़दूर व मेहनतकश किसान जनसमुदायों की पहलक़दमी को खोलने और उन्हें राजनीतिक निर्णय लेने की प्रक्रिया में शिक्षित-प्रशिक्षित करने का विरोध करने, नौकरशाहाना प्रवृत्तियों को बढ़ावा देने, पार्टी व राज्यसत्ता के अहलकारों के विशेषाधिकारों को बढ़ावा देने का काम करने लगते हैं। नतीजतन, समाजवादी निर्माण का वर्ग संघर्ष का कार्यभार आगे बढ़ने की बजाय पीछे जाने लगता है।
सोवियत यूनियन में स्तालिन काल में और विशेष तौर पर 1930 के दशक में यही प्रक्रिया आगे बढ़ी। मज़दूरों की मज़दूरी के बीच अन्तर बढ़ा, जो कि मानसिक व शारीरिक श्रम के बीच के अन्तर को ही दिखा रहा था, उद्योग और कृषि के बीच का अन्तर बढ़ा, बुर्जुआ विशेषाधिकार और बुर्जुआ विचारधारा का प्रभुत्व बढ़ा। उत्पादक शक्तियों का विकास करना चूँकि प्रमुख उद्देश्य बन चुका था इसलिए पार्टी इन अन्तरवैयक्तिक असमानताओं और उसके फलस्वरूप पैदा होने वाली पूँजीवादी विचारधारा और राजनीति और साथ ही इनके वाहक पूँजीवादी पथगामियों के विरुद्ध समाज, राज्यसत्ता और पार्टी के भीतर सचेतन राजनीतिक व विचारधारात्मक संघर्ष नहीं चला सकी। जब कोई विचारधारा समाज के उन्नत तत्वों और उन्नत वर्ग के भीतर जड़ें जमा लेती है, तो वह भी एक भौतिक शक्ति बन जाती है, यह मार्क्स की बुनियादी शिक्षाओं में से एक था। समाजवादी संक्रमण के दौरान अर्थवाद और उत्पादक शक्तियों को स्थायी तौर पर प्राथमिक मानने की ग़लती बुर्जुआ विचारधारात्मक वर्चस्व को तोड़ने की बजाय उसे मज़बूत बनाती है और जब इस विचारधारा के वाहक समाज, राज्यसत्ता और पार्टी के भीतर जड़ें गहरी कर लेते हैं, तो पूँजीवादी पुनर्स्थापना के ख़तरे पैदा हो जाते हैं।
स्तालिन समाज, राज्यसत्ता और पार्टी में पैदा हो रहे पूँजीवादी तत्वों के विरुद्ध लाक्षणिक संघर्ष चलाते रहे। यही कारण था कि उनके जीवित रहते, जनता के बीच उनके नेतृत्व की गहरी स्वीकार्यता के कारण, बोल्शेविक पार्टी के भीतर पैदा हो चुके पूँजीवादी पथगामी पूँजीवादी पुनर्स्थापना के काम को अंजाम नहीं दे सके। स्तालिन एक प्रकार से वह आख़िरी दीवार थे, जो पूँजीवादी पुनर्स्थापना को रोके हुए थी। लेकिन राज्यसत्ता और पार्टी के भीतर अर्थवाद और उत्पादन शक्तियों की स्थायी प्रधानता की सोच के फलस्वरूप बुर्जुआ विचारधारा और राजनीतिक जड़ें जमा चुके थे और वहीं समाज में मज़दूर वर्ग की राजनीतिक पहलक़दमी भी सुषुप्त हो चुकी थी क्योंकि इसी अर्थवाद और उत्पादकतावाद के कारण पार्टी का जनसमुदायों और जनता की सत्ता के निकायों व वर्गीय संस्थाओं से जीवन्त राजनीतिक रिश्ता टूट गया था और केवल तकनीकी आर्थिक सम्बन्ध रह गये थे। दूसरे शब्दों में, क्रान्तिकारी जनदिशा के अभाव के कारण राजनीतिक कार्यदिशा की ग़लती ने जन्म लिया और यह अन्तत: पूँजीवादी पुनर्स्थापना की ओर ले गया।
नतीजतन, जब मज़दूर वर्ग के ग़द्दार ख्रुश्चेव के नेतृत्व में संशोधनवाद ने बोल्शेविक पार्टी में अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया, ‘शान्तिपूर्ण संक्रमण, शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व और शान्तिपूर्ण प्रतियोगिता’ के नाम पर ख्रुश्चेव ने समाजवाद का रास्ता छोड़ दिया, जब आने वाले दशकों में सोवियतों, ट्रेड यूनियनों आदि को संशोधनवादी पार्टी का जेबी माल बनाकर मज़दूर वर्ग और व्यापक मेहनतकश आबादी की राजनीतिक पहलक़दमी को निर्णायक तौर पर ख़त्म किया गया, तो मज़दूर वर्ग इसका जवाब नहीं दे सका। स्तालिन अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में समाजवाद की इन समस्याओं पर सोच रहे थे और क़दम-दर-क़दम आगे बढ़ने का प्रयास कर रहे थे। 1930 के दशक के उत्तरार्द्ध में द्वितीय विश्वयुद्ध की तैयारियों के दबाव में, उससे पहले 1920 के दशक में पहले पार्टी के भीतर त्रॉत्स्की के “वामपन्थी” और दक्षिणपन्थी और फिर बुखारिन के दक्षिणपन्थी भटकाव के विरुद्ध सतत् संघर्ष, पार्टी के भीतर ग़द्दारों की तोड़-फोड़, सामूहिकीकरण के जटिल और तीखे वर्ग संघर्ष और फिर 1941 से 1945 तक द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान स्तालिन को इन समस्याओं पर गहराई से सोचने का वक़्त नहीं मिला। साथ ही, यूरोपीय मज़दूर वर्ग आन्दोलन से विरासत में प्राप्त अर्थवाद और यांत्रिक चिन्तन के प्रभाव से भी स्तालिन पूरी तरह से मुक्त नहीं हो सके थे। इन वस्तुगत और मनोगत सीमाओं के कारण अर्थवाद और संशोधनवाद के विरुद्ध लाक्षणिक तौर पर संघर्ष करने के बावजूद स्तालिन उसके ख़िलाफ़ व्यवस्थित तौर पर विचारधारात्मक-राजनीतिक संघर्ष नहीं चला सके और क्रान्तिकारी जनदिशा के अभाव में वे व्यापक सर्वहारा जनसमुदायों की ऊर्जा का इस्तेमाल कर पार्टी में जड़ें जमा चुके पूँजीवादी पथगामियों के विरुद्ध भी निर्णायक संघर्ष नहीं चला सके।
उपरोक्त मनोगत और वस्तुगत कारकों के मिश्रण से जो स्थितियाँ पैदा हुईं उसमें अन्तत: स्तालिन की मृत्यु के बाद संशोधनवादी ख्रुश्चेव के नेतृत्व में सोवियत यूनियन में पूँजीवाद की पुनर्स्थापना हुई। इसके साथ इतिहास का पहला महान समाजवादी प्रयोग युगान्तरकारी और चमत्कारिक उपलब्धियों के बाद समाप्त हुआ।

सोवियत यूनियन में संशोधनवाद की विजय और माओ की शिक्षा

सोवियत यूनियन में संशोधनवाद की विजय के बाद मज़दूर वर्ग का जो लाल झण्डा ज़मीन पर गिरा था उसे माओ के नेतृत्व में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने उठाया, ख्रुश्चेव के संशोधनवाद के विरुद्ध निर्णायक संघर्ष किया हालाँकि कुछ देरी से, और फिर महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के युगान्तरकारी प्रयोग के ज़रिए समाजवादी संक्रमण की समस्याओं का हल करने के लिए एक दरवाज़ा खोल दिया। माओ ने बताया कि समाजवादी सत्ता और सम्पत्ति सम्बन्धों की स्थापना के बावजूद विचारधारात्मक तौर पर पूँजीपति वर्ग का वर्चस्व तत्काल समाप्त नहीं हो जाता। चूँकि समाजवादी समाज में भी मानसिक व शारीरिक श्रम, उद्योग व कृषि तथा गाँव व शहर के बीच का अन्तर बना रहता है, विनियमित तौर पर सही लेकिन माल उत्पादन क़ायम रहता है, मुद्रा का अस्तित्व बना रहता है, इसलिए पूँजीवादी तत्व अपने आपको आर्थिक आधार के धरातल पर भी पैदा करते रहते हैं और बुर्जुआ विचारधारात्मक वर्चस्व को बल देते हैं। इसलिए राजनीतिक अधिरचना यानी राज्यसत्ता के रूपान्तरण और निजी सम्पत्ति का ख़ात्मा कर आर्थिक आधार के रूपान्तरण के कार्य को शुरू करने के साथ केवल पहला क़दम उठाया गया होता है। वास्तव में, श्रम विभाजन और वितरण की असमानता के रूप में बुर्जुआ विशेषाधिकार और सीमित रूप में माल उत्पादन अभी उत्पादन सम्बन्धों के धरातल पर भी मौजूद रहते हैं और लगातार पूँजीवादी तत्वों और विचारों को जन्म देते रहते हैं; साथ ही, विचारधारात्मक अधिरचना में अभी राजनीतिक सत्ता खो चुके पूँजीपति वर्ग का ही वर्चस्व होता है।
पूँजीपति वर्ग के विचारधारात्मक वर्चस्व को तोड़कर और उत्पादन सम्बन्धों के क्रान्तिकारी रूपान्तरण को उत्पादक शक्तियों का विकास करते हुए जारी रखकर ही समाजवादी संक्रमण को आगे बढ़ाया जा सकता है और पूँजीवादी पुनर्स्थापना को रोका जा सकता है। यानी, विचारधारात्मक अधिरचना में सतत् क्रान्ति और राजनीति को कमान में रखते हुए, यानी वर्ग संघर्ष को कमान में रखते हुए, उत्पादक शक्तियों का विकास करके ही पूँजीवादी पथगामियों को पूँजीवादी पुनर्स्थापना से रोका जा सकता है, उन पर सर्वहारा वर्ग के सर्वतोमुखी अधिनायकत्व को क़ायम किया जा सकता है और कम्युनिज़्म की ओर आगे बढ़ा जा सकता है। अभी भी वर्ग संघर्ष की कुंजीभूत कड़ी होती है। इन सबके लिए व्यापक मेहनतकश जनसमुदायों पर निर्भर रहना पार्टी की अनिवार्यता है। सवर्हारा वर्ग अकेले इतिहास नहीं बनाता है, बल्कि जनता इतिहास बनाती है। सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व के बिना जनता पूँजीवाद का ख़ात्मा और समाजवाद की स्थापना नहीं कर सकती। यही वर्ग और जनसमुदाय का द्वन्द्व है, जिसे सही तरीक़े से हल न करना या तो लोकरंजकतावाद और जनतावाद की ओर ले जायेगा याफिर हिरावलपन्थ की ओर। क्रान्तिकारी जनदिशा के ज़रिए और मार्क्सवादी-लेनिनवादी-माओवादी विज्ञान की रोशनी में व्यापक जनता को पूँजीवादी पथगामियों के विरुद्ध गोलबन्द करना, पूँजीवादी विचारधारात्मक वर्चस्व को तोड़ना और समाजवादी रूपान्तरण के वर्ग संघर्ष को आगे बढ़ाकर ही पार्टी और उसके नेतृत्व में सर्वहारा वर्ग समाजवादी संक्रमण की समस्याओं को हल कर सकते हैं।
माओ की उपरोक्त शिक्षाओं को महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के पहले प्रयोग के दौरान अनगढ़ रूप में लेकिन युगान्तरकारी तरीक़े से लागू किया गया। माओ ने स्वयं बताया था कि पूँजीवादी पुनर्स्थापना को रोकने के लिए और पूँजीपति वर्ग के विचारधारात्मक वर्चस्व और राजनीतिक प्रतिरोध को निर्णायक तौर पर तोड़ने के लिए एक नहीं बल्कि दर्जनों सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्तियों की ज़रूरत होगी क्योंकि यह कोई घटना नहीं बल्कि एक सतत् जारी प्रक्रिया है। अन्तत:, इस पहले प्रयोग के बाद, चीन में भी ग़द्दार देंग स्याओ पिंग के नेतृत्व में पूँजीवादी पुनर्स्थापना हो गयी। लेकिन इसने भी महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के सिद्धान्त को सही ही साबित किया, न कि ग़लत।

महान समाजवादी अक्तूबर क्रान्ति की सकारात्मक और नकारात्मक शिक्षाओं को आज क्यों और कैसे देखें?

मज़दूर वर्ग का कोई देश नहीं होता, हालाँकि वह अलग-अलग देशों में रहता है। वह अन्तरराष्ट्रीयतावादी होता है। रूसी समाजवादी क्रान्ति की 104वीं वर्षगाँठ पर मज़दूर वर्ग को याद करना होगा कि हमने, यानी हमारे ही रूसी भाइयों और बहनों ने, किस प्रकार पूँजीवादी शोषण की समूची व्यवस्था को उखाड़ फेंका था; हमने एक कहीं उन्नत और समानतामूलक समाजवादी व्यवस्था और मज़दूर सत्ता को स्थापित किया था; हमने बेरोज़गारी, ग़रीबी, भुखमरी और जहालत से जनता को आज़ाद किया था और जीवन को एक नयी ऊँचाइयों तक पहुँचाया था। हमने साबित किया था कि पूँजीवाद से बेहतर व्यवस्था सम्भव है और पूँजीवाद अजर-अमर नहीं है। हमने साबित किया था कि हम एक समूचे देश के उत्पादन, राजकाज और समाज के पूरे ढाँचे को न सिर्फ़ संचालित कर सकते हैं बल्कि कहीं बेहतर और वैज्ञानिक ढंग से संचालित कर सकते हैं।
पूँजीवाद की “अन्तिम विजय” के शोर और मज़दूर वर्ग की “अन्तिम पराजय” के शोर और आज के हार, विपर्यय, निराशा और पस्तहिम्मती के दौर में आज मज़दूर वर्ग को अपनी इन ऐतिहासिक उपलब्धियों को याद करने की ज़रूरत इसलिए है क्योंकि एक क्रान्तिकारी सर्वहारा पुनर्जागरण के बिना हम अक्तूबर क्रान्ति के नये उन्नत संस्करणों को नहीं रच सकते हैं। पूँजीवाद स्वयं अपने गहरे संकट से ग्रस्त है। यह संकट व्यापक मेहनतकश जनता के बीच दुनिया भर में ऐसी स्थितियों को जन्म दे रहा है जो आने वाले समय में स्वत:स्फूर्त विद्रोहों और विशेष स्थितियों में पूँजीपति वर्ग के राजनीतिक संकट को जन्म देगा। लेकिन मज़दूर वर्ग अपनी क्रान्तिकारी विरासत से कटकर इन मौक़ों पर सही क्रान्तिकारी हस्तक्षेप नहीं कर सकता है। यानी अपनी क्रान्तिकारी विरासत से कटकर मज़दूर वर्ग अपने वर्ग संघर्ष में आगे नहीं बढ़ सकता है। हमें इस क्रान्तिकारी विरासत के नकारात्मक व सकारात्मक दोनों को ही समझना होगा और आज के पूँजीवाद में आये बदलावों के प्रति भी अपने आपको प्रबोधित करना होगा। इस सर्वहारा पुनर्जागरण और प्रबोधन के ज़रिए ही हम अपने आपको राजनीतिक तौर पर संगठित कर सकते हैं।

अक्तूबर क्रान्ति ने हमें ये बातें सिखायी हैं :

क्रान्ति केवल क्रान्तिकारी शक्तियों के मनोगत रूप से तैयार होने से नहीं होती, बल्कि उसके लिए क्रान्तिकारी परिस्थिति का मौजूद होना आवश्यक है। क्रान्तिकारी परिस्थिति के तैयार होने में भी मनोगत शक्तियों की भूमिका होती है, लेकिन उस पर मनोगत शक्तियों का कोई नियंत्रण नहीं होता या वह उनके मनमुताबिक़ नहीं तैयार होतीं।
क्रान्तिकारी परिस्थिति वह होती है जिसमें पूँजीवाद का आर्थिक और सामाजिक संकट कई अन्तरविरोधों के सन्धिबिन्दु के कारण अपने आपको एक राजनीतिक संकट के रूप में पेश करता है, जिसमें कि बुर्जुआ वर्ग अपने राजनीतिक शासन को जारी रखने में अपने आपको अक्षम पा रहा होता है। पूँजीवादी व्यवस्था अपनी नैसर्गिक गति से समय-समय पर ऐसे राजनीतिक संकटों को जन्म देती रहती है, हालाँकि उनके घटित होने का समय-निर्धारण सर्वहारा वर्ग और उसकी क्रान्तिकारी पार्टी पहले से ही नहीं कर सकती है।
इसलिए मज़दूर वर्ग ऐसे राजनीतिक संकटों का इन्तज़ार नहीं करता कि वे पैदा हों तो वह राजनीतिक तौर पर संगठित हो! यदि ऐसे संकटों के पैदा होने पर मज़दूर वर्ग पहले से राजनीतिक व विचारधारात्मक रूप से संगठित और तैयार नहीं है, तो ऐसे संकटों का फ़ायदा धुर दक्षिणपन्थी प्रतिक्रियावादी ताक़तें, जैसे कि फ़ासीवादी, उठाते हैं और पूँजी की नग्न बर्बर तानाशाही को क़ायम करते हैं। रूस में लेनिन ने इस सच्चाई की ओर बार-बार ध्यान दिलाया था।
इसलिए मज़दूर वर्ग लगातार अपने आपको एक राजनीतिक वर्ग के रूप में तैयार करता है, गोलबन्द और संगठित करता है। इसका उच्चतम रूप होता है सर्वहारा वर्ग की एक हिरावल पार्टी का निर्माण जो कि मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद की विचारधारा से लैस हो, अनुशासित हो, उसका एक गोपनीय ढाँचा हो और क्रान्तिकारी जनदिशा को लागू करके वह एक सही राजनीतिक कार्यदिशा और राजनीतिक कार्यक्रम को अपना सके; यानी ऐसी मार्क्सवादी-लेनिनवादी पार्टी जिसने मार्क्सवादी विज्ञान और क्रान्तिकारी जनदिशा की रोशनी में अपने समाज में वर्ग संघर्ष का सही मूल्यांकन कर मित्र और शत्रु शक्तियों की सही पहचान की हो। ऐसी पार्टी के निर्माण और गठन का कार्य सर्वहारा वर्ग यदि लगातार नहीं करेगा, तो क्रान्तिकारी परिस्थितियों के पैदा होने पर उसे इसका अवसर नहीं मिलने वाला। इसलिए उसका कार्य है सतत् अपने राजनीतिक संगठन को विकसित करना और एक हिरावल क्रान्तिकारी सर्वहारा पार्टी का निर्माण और गठन करना, जो क्रान्तिकारी परिस्थितियों के पैदा होने पर उन्हें क्रान्ति में तब्दील करने, पूँजीवादी राज्यसत्ता का ध्वंस कर सर्वहारा राज्यसत्ता को स्थापित करने, में सक्षम हो। यह भी लेनिन और रूसी क्रान्ति की बुनियादी शिक्षाओं में से एक है।
यानी क्रान्ति के लिए दो बुनियादी चीज़ों की ज़रूरत है: क्रान्तिकारी विचारधारा और क्रान्तिकारी संगठन। क्रान्तिकारी विचारधारा मार्क्सवाद है और क्रान्तिकारी संगठन क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी। इन दोनों के बिना सर्वहारा वर्ग क्रान्ति को अंजाम नहीं दे सकता। यह लेनिन और अक्तूबर क्रान्ति की सबसे महत्वपूर्ण बुनियादी शिक्षाओं में से एक है।
सोवियत समाजवाद के प्रयोग के सकारात्मक और नकारात्मक हमें सिखाते हैं कि समाजवादी संक्रमण एक लम्बी ऐतिहासिक अवधि होता है, जिसमें पूँजीपति वर्ग राजनीतिक तौर पर हारा होता है, लेकिन समाप्त नहीं हुआ होता; समाज में वर्ग संघर्ष जारी रहता है; माल उत्पादन व तीन महान अन्तरवैयक्तिक असमानताएँ मौजूद रहती हैं जो सतत् पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों, पूँजीवादी तत्वों और पूँजीवादी विचारधारा को समाजवादी समाज में मज़बूत करती हैं; ऐसे में, पार्टी और राज्यसत्ता में भी पूँजीवादी तत्व पैदा होते हैं; इसलिए पार्टी को क्रान्तिकारी जनदिशा लागू करते हुए जनसमुदायों को संगठित करना चाहिए, विचारधारात्मक अधिरचना में सतत् क्रान्ति को जारी रखना चाहिए और राजनीति और वर्ग संघर्ष को कमान में रखते हुए उत्पादक शक्तियों का विकास जारी रखना चाहिए। राजनीति, विचारधारा, कला-साहित्य-संस्कृति और शिक्षा तक के क्षेत्र में सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व को सर्वतोमुखी तरीक़े से लागू किये बिना, उत्पादन सम्बन्धों के क्रान्तिकारी रूपान्तरण को सम्पत्ति सम्बन्धों के क्रान्तिकारी रूपान्तरण की मंज़िल से आगे नहीं बढ़ाया जा सकता है और न ही पूँजीवादी पुनर्स्थापना को रोका जा सकता है। यदि अर्थवाद और उत्पादकतावाद के संशोधनवादी सिद्धान्त का प्रभाव पार्टी और उसके नेतृत्व पर हावी होता है, तो यह पूँजीवादी तत्वों को समाज, पार्टी और राज्यसत्ता में और सशक्त बनाता है और सर्वहारा नेतृत्व को संशोधनवाद के विरुद्ध संघर्ष में नि:शस्त्र कर देता है। इसलिए अर्थवाद और संशोधनवाद के विरुद्ध संघर्ष एक प्रमुख कार्यभार होता है। और महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के सिद्धान्त की रोशनी में यह कहा जा सकता है कि यह क्रान्ति के बाद नहीं बल्कि पहले दिन से ही हमारा बुनियादी कार्यभार होना चाहिए।
महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति का माओ का सिद्धान्त मूलत: समाजवादी समाज में वर्ग संघर्ष को जारी रखने, अधिरचना के धरातल पर क्रान्ति को जारी रखने, उत्पादन सम्बन्धों के क्रान्तिकारी रूपान्तरण को जारी रखने, क्रान्तिकारी जनदिशा को लागू कर व्यापक जनसमुदायों को पूँजीवादी विचारधारा और पूँजीवादी पथगामियों के विरुद्ध सर्वहारा वर्ग और उसकी पार्टी के नेतृत्व में संगठित करने और बुर्जुआ वर्ग पर सर्वतोमुखी सर्वहारा अधिनायकत्व को लागू करने का सिद्धान्त है। लेकिन यह सिद्धान्त सोवियत समाजवादी प्रयोग की सकारात्मक और नकारात्मक शिक्षाओं के आधार पर ही विकसित हो सकता था।
आज दुनिया भर के और भारत के सर्वहारा वर्ग को इन शिक्षाओं को समझना होगा, सोवियत समाजवाद की महान उपलब्धियों को जानना होगा, और अपनी ताक़त को समझना होगा। आज हमें इन शिक्षाओं की रोशनी में यह समझना होगा बिना अपनी देशव्यापी क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी के निर्माण और गठन के, हम न तो अपनी रोज़मर्रा की आर्थिक व राजनीतिक लड़ाई को सही तरीक़े से लड़ सकते हैं और न ही हम समाजवादी क्रान्ति के ज़रिए मज़दूर सत्ता की स्थापना और समाजवादी व्यवस्था के निर्माण के अपने दूरगामी लक्ष्य को पूरा कर सकते हैं। इसलिए आज हमारे सामने प्रमुख कार्यभार यह है: एक देशव्यापी क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी का निर्माण।

मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2021


 

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