मोदी सरकार का 2022-23 बजट
पूँजीपतियों की सेवा में बिछी मोदी सरकार की आम मेहनतकश जनता से फिर ग़द्दारी

– सम्पादकीय

जैसा कि अनुमान था, मोदी सरकार का नया बजट भी मज़दूरों और आम मेहनतकश आबादी की पूँजीपतियों और धन्नासेठों द्वारा खुली लूट का इन्तज़ाम करने का दस्तावेज़ है। आज जब कि बेरोज़गारी देश के मज़दूरों, कर्मचारियों और आम घरों से आने वाले नौजवानों के लिए सबसे बड़ा मुद्दा बनी हुई है और उत्तर प्रदेश और बिहार में इस पर युवाओं के स्वत:स्फूर्त आन्दोलन फूट रहे हैं, तो मोदी सरकार की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बेरोज़गारी शब्द का अपने बजट भाषण में एक बार भी नाम नहीं लिया और ‘नौकरी’ शब्द का केवल एक जगह नाम लिया।
बेरोज़गारी का सच्चा आकलन किया जाये, तो क़रीब 25 से 30 करोड़ आबादी बेरोज़गार है। लेकिन ऐसी भयंकर स्थिति में भी ‘अमृत काल’ जैसे मज़ाक़िया सस्ते जुमलों का इस्तेमाल करके बजट भाषण बस दिखावटी जुमलेबाज़ी ही करता रहा।
लेकिन इस जुमलेबाज़ी में भी पूँजीपतियों के हितों का पूरा ख़्याल रखा गया है। पहले नोटबन्दी से अर्थव्यवस्था चरमरायी हुई थी और फिर कोविड महामारी के दौरान मोदी सरकार द्वारा अनियोजित तरीक़े से लॉकडाउन थोपने के कारण उस चरमरायी अर्थव्यवस्था की भी कमर टूट गयी। इसका सबसे बड़ा ख़ामियाज़ा मज़दूरों और ग़रीबों को भुगतना पड़ा है। अनौपचारिक व असंगठित क्षेत्र की हालत इस दौर में सबसे ज़्यादा ख़राब हुई, जिसमें कि भारत के समस्त मेहनतकशों का 94 प्रतिशत काम करता है। उनकी आय और जीवन-स्तर में भारी गिरावट आयी है। लेकिन मोदी सरकार के नये बजट में देश के करोड़ों मज़दूरों-मेहनतकशों को राहत देने के लिए कोई भी क़दम नहीं उठाया गया है। न तो उनकी खाद्य सुरक्षा की कोई बात की गयी है, न उनकी रोज़गार गारण्टी की कोई बात की गयी है और न ही उन्हें किसी अन्य प्रकार का राहत पैकेज दिया गया है।
बजट 2022 को क़रीब से देखने से ही पता चल जाता है कि पूँजीपतियों से पिछले वित्तीय वर्ष के दौरान भी हज़ारों करोड़ रुपये “चन्दे” में पाने वाली भाजपा ने इन्हीं पूँजीपतियों के हितों का पूरी तरह से ध्यान रखा है। इसके लिए मोदी सरकार के बजट में विशेष तौर पर मज़दूर वर्ग की औसत मज़दूरी को और कम करने और पूँजीपतियों को मुनाफ़ाख़ोरी के नये क्षेत्र मुहैया कराने पर पूरा ज़ोर दिया गया है। बजट 2022 में उठाये गये इन क़दमों की समीक्षा करने से पहले इस बात को समझना ज़रूरी है कि ये क़दम किस प्रकार पूँजीपति वर्ग को लाभ पहुँचाने वाले हैं।

अर्थव्यवस्था का गहराता संकट

पिछले आठ वर्षों में अर्थव्यवस्था के निजी क्षेत्र में निवेश की दर में 1991 के बाद से सबसे बड़ी गिरावट आयी है। इसका कारण है वैश्विक मन्दी का असर और स्वयं भारत की अर्थव्यवस्था में मुनाफ़े की गिरती दर का संकट। यह पूँजीवाद का चक्रीय क्रम में आने वाला संकट है, जिससे पूँजीवाद कभी निजात नहीं पा सकता है। इसकी वजह यह है कि पूँजीवादी व्यवस्था में उत्पादन का लगातार समाजीकरण होता जाता है, लेकिन उसमें उत्पादन व उत्पादन के साधनों का मालिकाना निजी होता है। मुनाफ़े पर टिकी ऐसी व्यवस्था में निजी पूँजीपति लगातार बाज़ार का अधिक से अधिक हिस्सा हथियाने की आपसी होड़ में लगे होते हैं। इसी होड़ में वे लगातार श्रम की उत्पादकता को बढ़ाने का प्रयास करते हैं, नयी तकनोलॉजी और मशीनें लगाते हैं, जिससे कि वे अपने माल की क़ीमत को कम-से-कम करके बाज़ार में ज़्यादा प्रतिस्पर्द्धी बन सकें। इस प्रक्रिया में समूची पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में मशीनों व कच्चे माल पर और अवरचनागत निवेश बढ़ता जाता है और श्रमशक्ति ख़रीदने पर निवेश सापेक्षत: कम होता जाता है, हालाँकि कुल मिलाकर निरपेक्ष अर्थों में यह भी दूरगामी तौर पर बढ़ता है। लेकिन मूल्य केवल मज़दूर के श्रम से पैदा होता है। नतीजतन, दीर्घकालिक तौर पर मुनाफ़े की औसत दर में गिरावट आती है क्योंकि मुनाफ़े की दर होती है मुनाफ़े और कुल पूँजी निवेश का अनुपात। यही पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का संकट होता है। भारतीय अर्थव्यवस्था भी विशेष तौर पर पिछले लगभग आठ-नौ वर्षों से इस मुनाफ़े के संकट से विशेष तौर पर जूझ रही है। नोटबन्दी और फिर कोरोना लॉकडाउन के दौरान पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का यह संकट और भी ज़्यादा गहराया। इस संकट की वजह से ही एक ओर अतिउत्पादन पैदा होता है और दूसरी ओर अल्पउपभोग की समस्या भी पैदा होती है क्योंकि मध्य वर्ग समेत आम मेहनतकश आबादी की औसत आमदनी कम होती है। उच्च मध्य वर्ग के लोग भी ख़र्च करने की बजाय बचत करते हैं। इसलिए तमाम सुधारवादी और संशोधनवादी (नक़ली कम्युनिस्टों) के विश्लेषण के विपरीत लोगों की ख़रीदने की क्षमता कम होना अपने आप में समस्या नहीं है बल्कि यह मुनाफ़े की दर का संकट है, जिसके कारण निवेश की दर में कमी आती है, रोज़गार और औसत मज़दूरी में कमी आती है और नतीजतन एक ओर अतिउत्पादन की समस्या पैदा होती है और दूसरी ओर अल्पउपभोग की। कुल घरेलू माँग का कम होना संकट का नतीजा है, संकट का कारण नहीं क्योंकि पूँजीवादी अर्थव्यवस्था जनता के उपभोग के लिए उत्पादन नहीं करती है, बल्कि मुनाफ़े के लिए उत्पादन करती है। वैसे भी मेहनतकश जनता अपनी मज़दूरी के मूल्य के बराबर उपभोक्ता वस्तुएँ ही ख़रीद सकती है और इसलिए पूँजीपति वर्ग के लिए असली प्रभावी माँग स्वयं पूँजीपति वर्ग के भीतर ही पैदा होती है। और पूँजीपति वर्ग अपने उत्पादक उपभोग (यानी उत्पादन के साधन ख़रीदने के लिए निवेश) और वैयक्तिक उपभोग (यानी ऐशो-आराम की वस्तुओं व अन्य उपभोक्ता सामग्रियों पर ख़र्च) दोनों ही कम कर देता है। और पूँजीपति वर्ग यह तब करता है जब मुनाफ़े की दर के गिरने के कारण उसका मुनाफ़ा गिरता है। निश्चित तौर पर, संकट के गहराने पर मेहनतकश जनता के उपभोग में भी कमी आती है। लेकिन यह संकट का कारण नहीं बल्कि संकट का नतीजा होता है और जो पलटकर संकट को और बढ़ावा देता है। भारत की अर्थव्यवस्था दुनिया की अधिकांश अर्थव्यवस्थाओं के समान आज मुनाफ़े की गिरती दर के इसी संकट में घिरी हुई है और इस बजट में मोदी सरकार द्वारा उठाये गये क़दमों को भी इस सन्दर्भ में ही समझा जा सकता है।
जैसा कि हमने ऊपर ज़िक्र किया, पिछले आठ वर्षों में पूँजीपतियों द्वारा निवेश में लगातार भारी कमी आयी है क्योंकि नये निवेश मुनाफ़े की गिरती दर के कारण पर्याप्त लाभप्रद नहीं हैं। चूँकि इस पूरे दौर में नये निवेश पर पर्याप्त मुनाफ़ा नहीं मिल पा रहा है, इसलिए निजी पूँजीपति उत्पादक निवेश करने में दिलचस्पी नहीं दिखला रहे हैं और इस दौर में अपनी पूँजी को सट्टेबाज़ी, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को ख़रीदने, छोटी व मँझोली तबाह होती पूँजी को निगलने, प्राकृतिक संसाधनों की लूट में ख़र्च करने में ज़्यादा दिलचस्पी दिखला रहे हैं। यही कारण है कि इस दौर में सबसे बड़े पूँजीपति, यानी देश के ऊपर के 2 प्रतिशत सबसे अमीर पूँजीपति और भी ज़्यादा अमीर हुए हैं, जबकि मँझोले और छोटे पूँजीपति अधिकांशतः घाटे में गये हैं और कई तबाह भी हुए हैं। हर संकट में यह होता भी है और यही पूँजीपतियों का दुश्मनाना ‘भाईचारा’ है, जिसमें वे एक वर्ग के तौर पर मज़दूरों के ख़िलाफ़ तो एकजुट होते हैं लेकिन आपसी प्रतिस्पर्द्धा में एक दूसरे की गर्दन पर उस्तरा फेर देने में भी संकोच नहीं दिखलाते हैं।

शेखचिल्ली के सपने बनाम कड़वी हक़ीक़त

बजट 2022 मोदी सरकार द्वारा पूँजीपतियों को मुनाफ़े की दर के संकट से निजात दिलाने का ही एक प्रयास दिखता है, जबकि मेहनतकश जनता के हितों को पूरी तरह से पूँजीपति वर्ग के जूतों तले रख दिया गया है। आइए देखते हैं कि पूँजीवादी संकट के दौर में यह बजट किस प्रकार अमीरों, धन्नासेठों और पूँजीपतियों के हितों की सेवा करने का काम करता है।
भारत की अर्थव्यवस्था क़रीब 2210 लाख करोड़ रुपये की हो गयी है। बजट क़रीब 40 लाख करोड़ का है। बजट में कहा गया है कि नॉमिनल तौर पर भारत की सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि दर 11.1 प्रतिशत होगी। इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ यह है कि इसमें मुद्रास्फीति की दर को नहीं जोड़ा गया है। बजट 2022 का दावा है कि आने वाले साल में मुद्रास्फीति की दर 3 से 3.5 प्रतिशत के बराबर होगी, जो कि शेख़चिल्ली का सपना है। वास्तव में, इस समय थोक क़ीमत सूचकांक 13.56 प्रतिशत है जबकि उपभोक्ता क़ीमत सूचकांक 5.6 प्रतिशत है। इसके अलावा वैश्विक बाज़ार में कच्चे तेल की क़ीमतों में भी बढ़ोत्तरी हुई है। नवम्बर 2021 के बाद से मोदी सरकार ने पेट्रोल व डीज़ल की क़ीमतों में लगातार बेतहाशा की जा रही बढ़ोत्तरी को रोक दिया था क्योंकि उसे भी पता था कि चुनावों का मौसम आ चुका है। लेकिन यह तय है कि 10 मार्च 2022 को चुनाव परिणाम आते ही मोदी सरकार तत्काल पेट्रोल व डीज़ल की क़ीमतों में बढ़ोत्तरी करेगी। उस समय थोक व उपभोक्ता क़ीमत सूचकांक दोनों ही ऊपर जायेंगे क्योंकि पेट्रोल व डीज़ल के दामों में होने वाली बढ़ोत्तरी हर चीज़ की क़ीमतों में बढ़ोत्तरी करती है। भारत के कुल तेल उपभोग का 90 प्रतिशत आयात से होता है और जारी वित्तीय वर्ष में ही तेल के आयात के ख़र्च में 70 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई थी। इन तथ्यों के मद्देनज़र यह साफ़ है कि मुद्रास्फीति की दर किसी भी 3 या 3.5 प्रतिशत के दोगुने के आस-पास रहने वाली है। ऐसे में वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि दर 4.5 से 5 प्रतिशत के बीच रहने वाली है।
मोदी सरकार के पहले भी पेट्रोल उत्पादों पर लगाये जाने वाले करों व आयात शुल्क के कारण भारत में इनकी क़ीमत पाकिस्तान, श्रीलंका, आदि जैसे देशों से ज़्यादा थी लेकिन मोदी सरकार ने तो इनकी बढ़ोत्तरी के सारे रिकॉर्ड ध्वस्त कर दिये हैं। भारत में आम तौर पर सभी वस्तुओं व सेवाओं की महँगाई में सबसे बड़ा कारण पेट्रोल व डीज़ल पर लगने वाले शुल्क व कर हैं। इसका अन्दाज़ा आप इस बात से लगायें : भारत सरकार के कुल राजस्व का 25 प्रतिशत पेट्रोल उत्पादों पर डकैतों के समान लगाये जाने वाले करों व शुल्कों से हो रही है।
दूसरे शब्दों में, यह स्पष्ट है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में वृद्धि दर चालू वित्तीय वर्ष में 4 से 5 प्रतिशत से ज़्यादा नहीं होने वाली है और साथ ही महँगाई दर 6 से 7 प्रतिशत के ऊपर ही रहने वाली है। महँगाई के ऊपर रहने का एक कारण यह भी है कि निवेश की दर लगातार गिर रही है और तमाम बुनियादी मालों में आपूर्ति पक्ष का संकट है। आपूर्ति पक्ष का संकट तभी पैदा होता है जबकि मुनाफ़े की दर गिर रही हो, नतीजतन, निवेश की दर गिर रही हो। ऐसे में, महँगाई की दर और भी बढ़ती है। चालू वित्तीय वर्ष में भी इसकी उम्मीद की जा सकती है। जब अर्थव्यवस्था ठहरावग्रस्त हो और साथ ही महँगाई भी बढ़ रही हो, तो यह मुनाफ़े की दर के वापस स्वस्थ स्तरों पर न पहुँचने की सूरत में एक भयंकर कुचक्र का रूप ले सकता है, जिसे स्टैग्फ़्लेशन के नाम से जाना जाता है। ऐसे में न तो कीन्सीय सामाजिक ख़र्च बढ़ाने के नुस्ख़े काम आते हैं और न ही अन्य प्रकार का कल्याणवाद। उल्टे उससे स्टैग्फ़्लेशन का संकट और भी गहराता जाता है।

देश की सबसे अहम समस्या बेरोज़गारी पर चुप्पी

बजट 2022 इस समय देश की सबसे अहम समस्या यानी बेरोज़गारी पर बिल्कुल शान्त है। इसमें जो आर्थिक नीतियाँ सुझायी गयी हैं, वे वास्तव में बेरोज़गारी को कम करने की बजाय बढ़ाने वाली हैं। आइए देखते हैं कि यह कैसे होने वाला है। हम जानते हैं कि बजट आने के ठीक पहले आयी ऑक्सफ़ैम की असमानता सम्बन्धी रिपोर्ट ने बताया कि हमारे देश में जो नीचे की 60 प्रतिशत आबादी है, यानी मज़दूर आबादी, उसकी आमदनी में भारी गिरावट आयी है जबकि ऊपर के 20 प्रतिशत धन्नासेठों की औसत आमदनी बढ़ी है। सबसे नीचे के 30 प्रतिशत यानी मज़दूर आबादी का भी सबसे ग़रीब हिस्सा और भी ज़्यादा ग़रीब हुआ है। उसकी आमदनी में 54 प्रतिशत की गिरावट आयी है। वहीं दूसरी ओर ऊपर के 10 प्रतिशत धन्नसेठों व पूँजीपतियों की आय में 57 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी आयी है। यह सीधे-सीधे नये पैदा होने वाले मूल्य में मज़दूरी का हिस्सा घटने और मुनाफ़े का हिस्सा बढ़ने का प्रतीक है। एक आँकड़े से यह बात स्पष्ट हो जाती है : 1991 में कुल नये उत्पादित मूल्य में 65 प्रतिशत हिस्सा मज़दूरी का था और 35 प्रतिशत हिस्सा मुनाफ़े का, लेकिन आज इसका ठीक उल्टा है, यानी 65 प्रतिशत हिस्सा मुनाफ़े का है और 35 प्रतिशत हिस्सा मज़दूरी का। समाज में ग़ैर-बराबरी का आलम यह है कि ऊपर के 10 प्रतिशत लोग कुल समृद्धि के 57 प्रतिशत के स्वामी हैं, जबकि नीचे के 50 प्रतिशत लोगों के पास केवल 13 प्रतिशत है! 2021 में देश में 84 प्रतिशत घरों की औसत आमदनी में गिरावट आयी जबकि देश में सबसे अमीर अरबपतियों की संख्या 102 से बढ़कर 142 हो गयी! संकट के दौर में होने वाले पूँजी के केन्द्रीकरण में यह होता है और मोदी सरकार की नीतियों ने सामाजिक असमानता के बढ़ने की इस प्रक्रिया को और गति दी।
औसत मज़दूरी को घटाना मोदी सरकार का प्रमुख लक्ष्य है क्योंकि यह पूँजीपतियों के मुनाफ़े की दर को बढ़ाता है। इसलिए मज़दूरों की औसत आय बढ़ाने के लिए मोदी सरकार ने बजट में कोई क़दम नहीं उठाया है। दूसरी ओर पूँजीपतियों के मुनाफ़ा पीटने के नये-नये अवसर बनाने का काम भी यह बजट बख़ूबी करता है। बजट में सामाजिक ख़र्च में वास्तविक तौर पर कटौती की गयी है। नॉमिनल तौर पर सामाजिक ख़र्च में 4.5 प्रतिशत की ही बढ़ोत्तरी की गयी है, जो कि मुद्रास्फीति दर से भी कम है और इसलिए वास्तव में इस ख़र्च में कटौती की गयी है। सामाजिक ख़र्च को बढ़ाकर मेहनतकश व मज़दूर आबादी को तमाम सामाजिक सुरक्षा व लाभ दिये जा सकते थे, लेकिन ऐसा नहीं किया गया क्योंकि यह मज़दूर वर्ग की औसत मज़दूरी पर बढ़ने का दबाव पैदा करता है क्योंकि मज़दूर वर्ग की मोलभाव की क्षमता बढ़ती है। औसत मज़दूरी को घटाने के लिए मज़दूरों को पूर्ण रूप से अरक्षित रखना आवश्यक है। इस मामले में धनी किसानों व कुलकों के हितों का भी पूरा ख़्याल रखा गया है और आर्थिक सर्वेक्षण द्वारा मनरेगा के बजट को 73,000 करोड़ से बढ़ाकर 98,000 करोड़ करने की बात को झुठलाते हुए बजट ने मनरेगा के बजट को 73,000 करोड़ रुपये ही रखा जो कि वास्तविक गिरावट है क्योंकि मुद्रास्फीति बढ़ी है। और यह तब किया जा रहा है कि जबकि मनरेगा में मज़दूरों को कई जगहों पर काम ही नहीं मिल पा रहा है या मात्र 50 दिन का काम मिल रहा है।

पूँजीपतियों का मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए रोज़गार के अवसरों की बलि

लेकिन दूसरी तरफ़ पूँजी ख़र्च में 36 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी करने का प्रावधान किया गया है। यह दीगर बात है कि जो संशोधित आकलन पेश किया गया है, उसके अनुसार यह बढ़ोत्तरी मात्र 24 प्रतिशत होगी, लेकिन यह 24 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी भी पर्याप्त है। पूँजी ख़र्च में होने वाली यह बढ़ोत्तरी वास्तव में दीर्घकालिक अवसंरचनागत प्रोजेक्टों में लगायी जायेगी। लेकिन ये सारे प्रोजेक्ट पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप के मातहत चलेंगे। यह पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप वास्तव में और कुछ नहीं बल्कि जनता के धन पर पूँजीपतियों को मुनाफ़ा पीटने की इजाज़त देने का तरीक़ा है। इसलिए इन सभी प्रोजेक्टों में जनता का पैसा ख़र्च होगा और उसके आधार पर मुनाफ़ा पीटने की आज़ादी निजी पूँजीपति वर्ग को मिलेगी। हालाँकि मुनाफ़े की दर के संकट के कारण पूँजीपति वर्ग ने पिछले वर्ष इस प्रकार के प्रोजेक्टों में भी कम दिलचस्पी दिखलायी थी और ऐसे प्रोजेक्टों के लिए पिछले वित्तीय वर्ष में आवण्टित 5.44 लाख करोड़ रुपये में से नवम्बर 2021 तक 50 प्रतिशत भी ख़र्च नहीं हो पाया था। ज़ाहिर है, पिछले वित्तीय वर्ष के बचे हुए समय में बाक़ी 50 प्रतिशत ख़र्च हो पाना असम्भव है। यह भी ग़ौरतलब बात है कि दीर्घकालिक अवसरंचनागत परियोजनाओं में होने वाला निवेश पूँजी-सघन होता है, श्रम-सघन नहीं। इसलिए इससे तत्काल रोज़गार नहीं पैदा होने वाला है। लेकिन दूरगामी तौर पर यह पूँजीपति वर्ग को मुनाफ़ा देता है और उसके मुनाफ़े की दर को बढ़ाता है। साथ ही, ये परियोजनाओं अन्ततः सबसे ज़्यादा काम पूँजीपतियों के ही आती हैं और उनकी लागतों को कम करती हैं और मुनाफ़े को बढ़ाती हैं।
वास्तव में, यदि सरकार द्वारा ख़र्च का बड़ा हिस्सा गाँवों में विकास कार्यों, मनरेगा, व अन्य सामाजिक मदों में लगाया जाता तो रोज़गार की दर भी बढ़ती और साथ ही मज़दूरों व मेहनतकशों की औसत आमदनी भी बढ़ती। साथ ही, शिक्षा और स्वास्थ्य में ख़र्च की बढ़ोत्तरी से भी रोज़गार सृजन ज़्यादा होता। लेकिन मोदी सरकार ने अपनी फ़ासीवादी असंवेदनशीलता दिखलाते हुए महामारी के जारी दौर में भी स्वास्थ्य के ख़र्च में कोई बढ़ोत्तरी नहीं की है, जबकि इस समय इसकी सबसे अधिक आवश्यकता थी। स्वास्थ्य के लिए कुल ख़र्च मात्र 0.23 प्रतिशत बढ़ाकर रु. 86,200 करोड़ किया गया है। ताज्जुब की बात है कि वैक्सीनेशन के लिए मात्र रु. 5000 करोड़ ही आवण्टित किये गये हैं!
शिक्षा के ख़र्च में 11.86 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी करके उसे रु. 1,04,278 करोड़ किया गया है। लेकिन ज़्यादा आशावादी होने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि सरकार ने इसमें निजीकरण और डिजिटलाइज़ेशन पर ज़ोर दिया है। नये शिक्षकों की स्कूलों से लेकर कॉलेजों के स्तर तक भर्ती पर एक शब्द भी नहीं कहा गया है। लेकिन शिक्षा के इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों में भारी बढ़ोत्तरी की बात की गयी है! यानी शिक्षा के क्षेत्र में नयी भर्तियों के ज़रिए रोज़गार पैदा करने की बजाय बचे-खुचे रोज़गारों को ख़त्म करने और निजीकरण की लहर चलाने का इरादा है।
खेती के क्षेत्र में कुल ख़र्च में सरकार ने वास्तविक तौर पर कटौती की है। कुछ महत्वपूर्ण योजनाएँ जिनका थोड़ा-बहुत फ़ायदा ग़रीब व मँझोले किसानों को मिलता था, उनमें या तो कोई बढ़ोत्तरी नहीं की गयी है या उनमें कटौती की गयी है। लाभकारी मूल्य पर ख़रीद के लिए आवण्टित फ़ण्ड में सरकार ने वास्तविक कटौती की है। यह औद्योगिक-वित्तीय पूँजीपतियों व खेतिहर पूँजीपति वर्ग यानी धनी किसानों व कुलकों के बीच अन्तरविरोध का प्रमुख मसला है। लाभकारी मूल्य को बढ़ाने का अर्थ है तमाम प्रमुख कृषि उत्पादों विशेषकर खाद्यान्न की बाज़ार क़ीमतों के लिए एक ऊँचा फ़्लोर लेवल फ़िक्स करना और इस इजारेदार क़ीमत द्वारा धनी किसानों व कुलकों को बेशी मुनाफ़ा देना। यह मज़दूरों की औसत मज़दूरी पर बढ़ने का दबाव पैदा करता है, जो कि पूँजीपति वर्ग के लिए नुक़सानदेह होता है क्योंकि यह उसकी मुनाफ़े की दर के लिए ख़तरा पैदा करता है। यदि मज़दूरों की औसत मज़दूरी नहीं बढ़ती, तो फिर उनकी वास्तविक मज़दूरी कम होती जाती है क्योंकि धनी किसानों व कुलकों के लाभ के लिए खाद्यान्न की क़ीमतें बढ़ायी जाती हैं। एमएसपी पर चल रही जद्दोजहद में मोदी सरकार को धनी किसानों-कुलकों के आन्दोलन के समक्ष क़दम पीछे हटाने पड़े थे। लेकिन मोदी सरकार ने बजट में एमएसपी पर ख़रीद के लिए आवण्टित फ़ण्ड में कटौती करके अपना इरादा स्पष्ट कर दिया है : औद्योगिक-वित्तीय पूँजीपति वर्ग के हितों के मद्देनज़र वह एमएसपी पर ख़रीद को कम करेगी।
साथ ही, पीएम आशा योजना, जो कि दलहन व तिलहन की एमएसपी पर ख़रीद के लिए है, पर फ़ण्ड में भी कटौती की गयी है। लेकिन मज़ेदार बात यह है कि पिछले वित्तीय वर्ष के दौरान दलहन व तिलहन उगाने वाले धनी किसानों-कुलकों ने सरकार को दालें व तिलहन बेचे ही नहीं क्योंकि खुले बाज़ार में उसकी ज़्यादा क़ीमत मिल रही थी। साफ़ है कि धनी किसानों-कुलकों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली बचाने को लेकर पेट में कोई दर्द नहीं उठा था। उनका एकमात्र लक्ष्य था मुनाफ़ा और अधिक से अधिक मुनाफ़ा। सरकार से वे गारण्टी चाहते हैंकि वह ऊँचा एमएसपी दे लेकिन जब बाज़ार में क़ीमतें उससे ऊँची हों, तो वे खुले बाज़ार में बेचने की स्वतंत्रता भी चाहते हैं, जो कि नैसर्गिक है क्योंकि कोई भी पूँजीपति अपनी यह स्वतंत्रता नहीं छोड़ना चाहता।
एमएसपी पर ख़रीद के फ़ण्ड में कटौती पर मज़दूरों व आम मेहनतकशों को परेशान होने की कोई आवश्यकता नहीं है। क्योंकि एमएसपी मज़दूरों और आम मेहनतकशों के भी हित के ख़िलाफ़ है और यहाँ तक कि ग़रीब व उन मँझोले किसानों के हितों के भी ख़िलाफ़ है जो कि सालभर में जितने कृषि उत्पाद बेचते हैं, उससे ज़्यादा कृषि उत्पाद ख़रीदते हैं। इसलिए लाभकारी मूल्य (यानी एमएसपी) की व्यवस्था क़तई व्यापक आम मेहनतकश जनता के हितों में नहीं है।
लेकिन साथ ही मोदी सरकार ने खाद्य सब्सिडी में भी पिछले वर्ष के बजट के संशोधित आकलन के मुक़ाबले 28 प्रतिशत की कमी की है। इसके अलावा, उन सब्सिडियों को भी ख़त्म किया गया है जिनका कुछ फ़ायदा ग़रीब व मँझोले किसानों को भी मिलता है, हालाँकि उन सब्सिडियों का भी समर्थन बिना शर्त तभी किया जा सकता है, जबकि सरकार उसके लिए धनी वर्गों पर विशेष कर लगाये। यदि व्यापक ग्रामीण व शहरी आम मेहनतकश जनता से निचोड़े गये करों से खेती के इनपुट उत्पादों पर मिलने वाली सब्सिडियों का लाभ मुख्यतः धनी व उच्च मध्यम किसानों को मिलता है, तो उसका समर्थन नहीं किया जा सकता है। मोदी सरकार ने कृषि उन्नति योजना के तहत फ़ण्ड आवण्टन को बढ़ाकर तिलहन और दलहन उत्पादन में आयात पर निर्भरता को ख़त्म करने के लिए कुछ क़दम उठाये हैं क्योंकि पिछले वर्ष भारत में वनस्पति तेल की क़ीमत विश्व बाज़ार में आपूर्ति झटके के कारण और भारत के अपने वनस्पति तेल के लगभग 70 फ़ीसदी से ज़्यादा हिस्से के लिए आयात पर निर्भर होने के कारण अनियंत्रित तरीक़े से बढ़ी थीं। इनके बढ़ने का दूरगामी तौर पर पूँजीपतियों को नुक़सान होता क्योंकि इससे श्रमशक्ति का मूल्य बढ़ता है और अन्ततः उसकी क़ीमत यानी मज़दूरी में भी बढ़ोत्तरी का दबाव पैदा होता है।
खेती के क्षेत्र में असली आवश्यकता थी व्यापक पैमाने पर अवसंरचनागत ढाँचे का निर्माण, सिंचाई की व्यवस्था को खड़ा करना, बिजली पहुँचाना व धनी वर्गों पर विशेष कर लगाकर ग़रीब किसानों व मँझोले किसानों के लिए इनपुट्स की क़ीमतों के बोझ को कम करना। लेकिन इस दिशा में बजट में कुछ भी नहीं किया गया। उल्टे एग्री इन्फ़्रास्ट्रक्चर फ़ण्ड को पिछले वर्ष के रु. 900 करोड़ से घटाकर रु. 500 करोड़ कर दिया गया है। यह भी सोचने की बात है कि पिछले वर्ष भी आवण्टित रु. 900 करोड़ में से केवल रु. 200 करोड़ ही ख़र्च हुए थे। मनरेगा में किस प्रकार लगभग 25 प्रतिशत कम फ़ण्ड आवण्टित किया गया है, उसकी हम पहले ही चर्चा कर चुके हैं। संक्षेप में, मोदी सरकार ने गाँव के ग़रीबों यानी खेतिहर व अन्य ग्रामीण मज़दूरों, ग़रीब व मध्यम किसानों और अन्य मेहनतकशों के लिए कुछ भी नहीं किया है। सही है कि उसने धनी किसानों व कुलकों के फ़ायदे के लिए बनी एमएसपी की व्यवस्था के लिए फ़ण्ड आवण्टन कम किया है, लेकिन यह वित्तीय-औद्योगिक पूँजीपति वर्ग और खेतिहर पूँजीपति वर्ग के आपसी अन्तरविरोध का मसला है और चूँकि एमएसपी की व्यवस्था मज़दूरों और ग़रीब मेहनतकशों के ख़िलाफ़ जाती है इसलिए हम किसी भी तरीक़े से एमएसपी का समर्थन नहीं कर सकते और इसका यह अर्थ भी कुलकवादी व नरोदवादी ही निकाल सकते हैं कि एमएसपी के समर्थन न करने का अर्थ बड़े पूँजीपतियों का समर्थन करना है। उल्टे जो बड़े पूँजीपतियों का विरोध करने के लिए अपेक्षाकृत छोटे पूँजीपतियों की गोद में बैठने को तैयार है वह मज़दूर वर्ग का नुमाइन्दा नहीं है, बल्कि स्वयं टुटपुँजिया राजनीति और विचारधारा का वाहक है। इसके अलावा, गाँवों में पूँजीवादी खेती के विकास, विशेष तौर पर तिलहन व दलहन, होर्टीकल्चर, आधुनिक पूँजीवादी पशुपालन, फ़िशरी आदि का रास्ता भी मौजूदा बजट इस प्रकार खोलता है जिससे कि धनी किसानों-कुलकों के वर्ग को ही लाभ मिलेगा।
अन्त में कहा जा सकता है कि मोदी सरकार के इस बजट का प्रमुख लक्ष्य था पूँजीपतियों को मुनाफ़े की गिरती दर के संकट से राहत दिलाना और इसके लिए औसत मज़दूरी पर गिरने का दबाव पैदा करने वाली, अवसंरचनागत क्षेत्र में पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप के ज़रिए पूँजीपतियों के लिए निजीकरण के रास्ते मुनाफ़ा पीटने के नये क्षेत्र खोलने वाली, महँगाई और बेरोज़गारी को बढ़ाने वाली आर्थिक नीतियाँ पेश करना। न तो जीएसटी में कोई कटौती की गयी और न ही पेट्रोल व डीज़ल पर लगने वाले करों और शुल्कों में, जिससे कि महँगाई में कमी आ सकती थी। साथ ही, उन क्षेत्रों में निवेश को भी नहीं बढ़ाया गया जो तात्कालिक तौर पर बेरोज़गारी की विकराल स्थिति से कुछ राहत दिला पाते, मसलन, अनौपचारिक व असंगठित क्षेत्र के लिए कोई पैकेज, ग्रामीण विकास योजनाओं में निवेश आदि, बल्कि दीर्घकालिक पूँजी-सघन इन्फ़्रास्ट्रक्चरल प्रोजेक्ट्स में भारी पूँजी निवेश करने की योजना है और वह भी पीपीपी के नाम पर निजी क्षेत्र को लूट की खुली छूट देकर। यानी, रोज़गार भी अधिक नहीं पैदा होगा और पूँजीपतियों को जनता के धन के आधार पर मुनाफ़ा पीटने का पूरा अवसर भी मिलेगा। पूँजीपति वर्ग के हितों के रखवाले के तौर पर पूँजीवादी राज्यसत्ता और फ़िलहाल सत्ता में क़ाबिज़ फ़ासीवादी मोदी सरकार वही कर रही है जिसकी उससे उम्मीद की जा सकता है : पूँजीपतियों के दूरगामी सामूहिक हितों की सेवा और मज़दूर वर्ग के हितों पर हमला।

मज़दूर बिगुल, फ़रवरी 2022


 

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Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन

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