75वें स्वतंत्रता दिवस का जश्न वे मनायें जिन्हें इस लुटेरी व्यवस्था ने सबकुछ दिया है
मेहनतकशों को तो अपनी असली आज़ादी हासिल करने के लिए नयी जंगे-आज़ादी की तैयारी करनी होगी!
– सम्पादकीय
आने वाले पन्द्रह अगस्त को 75वें स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाने की तैयारियाँ जारी हैं। सबसे ज़्यादा शोर वे मचा रहे हैं जिन्होंने ब्रिटिश हुक़ूमत के ख़िलाफ़ लड़ाई में कभी एक ढेला तक नहीं चलाया, क्रान्तिकारियों की मुखबिरी तक की और जंगे-आज़ादी को कमज़ोर करने के लिए उस समय भी हिन्दू-मुस्लिम को बाँटने में लगे रहते थे।
पूरा सत्ताधारी वर्ग और पिछले 74 सालों के दौरान पैदा हुए मलाई चाटने वाली जमातें जोर-शोर से स्वतंत्रता दिवस का जश्न मनायेंगी और अपनी “देशभक्ति” का फूहड़ प्रदर्शन करेंगी। और वे जश्न क्यों न मनायें? आखि़र इस आज़ादी का भरपूर फ़ायदा तो उन्हें ही मिला है। लेकिन आम मेहनतकश जनता इस जश्न में कैसे शामिल हो? आज़ादी के इन गुज़रे सालों में उसे क्या मिला है? इन 74 वर्षों के दौरान जनता की मेहनत को लूटकर-निचोड़कर ऊपर के पन्द्रह-बीस प्रतिशत लोगों की सम्पत्ति और अय्याशियाँ बढ़ती गयी हैं जबकि जनता के हिस्से में आया है भयंकर शोषण, लूट-खसोट, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, अपराध, चुनावी राजनीति के हथकण्डों से भड़काये गये दंगे, आपसी कलह-विग्रह, अत्याचार, दमन और उत्पीड़न।
पिछले 7 साल से प्रधानमंत्री मोदी सहित केन्द्र सरकार के तमाम मंत्री और भोंपू मीडिया पूरे जोशोख़रोश के साथ डंका बजाते रहे हैं कि देश के विकास का रथ विकास के राजमार्ग पर कुलाँचे भर रहा है। जीडीपी की बढ़ती दर दिखाने के लिए फ़र्ज़ी आँकड़ों की नुमाइश होती रही है। “अच्छे दिनों’’ के इन्तज़ार में रोज़ नयी तकलीफ़ें सहते-सहते देश की आम मेहनतकश जनता के सब्र का प्याला छलकने लगा, मगर जनता की गाढ़ी कमाई से बड़े पूँजीपतियों को तरह-तरह के तोहफ़े लुटाये जाते रहे हैं। जब कोरोना महामारी और बिना किसी योजना व तैयारी के थोपे गये लॉकडाउन के कारण करोड़ों मेहनतकश लोग ग़रीबी और बेरोज़गारी में धकेल दिये गये, तब भी मोदी सरकार के चहेते पूँजीपतियों की सम्पत्ति दोगुनी हो गयी। कहीं से कोई विरोध न हो, इसलिए जनता को दबाने, कुचलने, उसका मुँह बन्द करने, मूल मुद्दों से बहकाने और आपस में बाँटने के तमाम हथकण्डे अपनाये जा रहे हैं।
आज भी देश के विकास का डंका बजाया जा रहा है और लोगों को यह झूठ परोसा जा रहा है कि महामारी ने थोड़ा झटका दे दिया है वरना भारत तो विश्वगुरु बनने की राह पर तेज़ी से डग रहा था। मगर देश की करोड़ों-करोड़ मेहनतकश जनता तो विकास के इन राजमार्गों से अलग-थलग महानगरों की अँधेरी सीलनभरी झुग्गियों में, कस्बों-गाँवों की ऊबड़-खाबड़ सड़कों-खड़ंजों के किनारे लहूलुहान पड़ी हुई है। इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। यही तो पूँजीवादी विकास का स्वाभाविक विरोधाभास है। विकास की चमकती तस्वीर का दूसरा पहलू है। पूँजीवादी समाज में खुशहाली के जगमगाते टापू तबाही-बदहाली के महासागरों के बीच ही खड़े होते हैं।
जनता की अकूत क़ुर्बानियों के दम पर 1947 में देश विदेशी ग़ुलामी से आज़ाद हो गया और राजनीतिक रूप से स्वतंत्र हो गया। लेकिन जो पूँजीपति वर्ग सत्ता में आया उसने साम्राज्यवाद से अपने रिश्ते नहीं तोड़े। अपनी राजनीतिक स्वतंत्रता को क़ायम रखने के लिए उसने नेहरू के “समाजवाद” के जुमले के साथ पब्लिक सेक्टर पूँजीवाद का एक ढाँचा खड़ा किया और साम्राज्यवाद पर अपनी वित्तीय और प्रौद्योगिकीय निर्भरता को सीमित रखा। नतीजतन, देश में देशी पूँजीपति वर्ग और साम्राज्यवाद की लूट जारी रही। देश के पैमाने पर देश का पूँजीपति वर्ग इस लूट का बड़ा साझीदार रहा है, जबकि दुनिया के पैमाने पर देश का पूँजीपति वर्ग साम्राज्यवाद का छोटा साझीदार है। 15 अगस्त, 1947 को भारत विदेशी कर्जे से पूरी तरह मुक्त ही नहीं था बल्कि उल्टे ब्रिटेन पर भारत का 16.12 करोड़ रुपये का कर्ज़ था। लेकिन आज भारत पर 40,000 अरब रुपये से भी अधिक का विदेशी कर्ज़ लदा हुआ है (स्रोत: रिज़र्व बैंक)। इसका अन्दाज़ा बस इसी बात से लगाया जा सकता है कि यह रक़म भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 21 प्रतिशत से भी ज़्यादा है। नये विदेशी कर्ज़ों का लगभग 40 प्रतिशत तो सिर्फ़ पुराने कर्ज़ों का ब्याज भरने में ही चला जाता है। इतना ही नहीं, सरकार पर घरेलू कर्ज़ों का बोझ इतना अधिक है कि केन्द्र और राज्य सरकारों का लगभग आधा राजस्व कर्ज़ भरने में ही निकल जाता है। मोदी सरकार के आने के बाद इसमें और भी तेज़ी से बढ़ोत्तरी हुई है।
बेशक, इन 74 वर्षों के दौरान कृषि और औद्योगिक, दोनों उत्पादनों में भारी बढ़ोत्तरी हुई है। यह बढ़ोत्तरी पूँजीपतियों की हिक़मत और साहस के बलबूते पर नहीं हुई है, जिसका कि बुर्जुआ मीडिया लगातार गुणगान करता रहता है। इसकी बुनियाद करोड़ों मज़दूरों और किसानों की अथक मेहनत के दम पर और उनके ख़ून-पसीने को निचोड़कर खड़ी की गयी है। लेकिन उत्पादन में इस ज़बर्दस्त बढ़ोत्तरी का लाभ किसको मिला है? अरबपतियों की तादाद के मामले में भारत दुनिया में तीसरे नम्बर पर पहुँच गया है। करोड़पतियों की संख्या में भी भारी बढ़ोत्तरी हुई है। लेकिन दूसरी ओर देश के ग़रीबों की संख्या में इससे कहीं तेज़ी से वृद्धि हुई है। ऑक्सफ़ैम की रिपोर्ट के अनुसार कोरोना काल के लॉकडाउन में भी भारत के चन्द अरबपतियों की सम्पत्ति में 35% तक वृद्धि हुई है। हर मन्दी छोटी पूँजियों के बड़ी पूँजी द्वारा निगले जाने का दौर भी होता है। इस दौर में तमाम छोटे और मँझोले पूँजीपति तबाह होते हैं और उनकी पूँजी व परिसम्पत्तियों को बड़े इज़ारेदार पूँजीपति निगलते हैं और इस प्रकार मन्दी में मुनाफ़े की गिरती दर के बावजूद पूँजी का केन्द्रीकरण होता है और बड़े इज़ारेदार पूँजीपतियों की पूँजी में बढ़ोत्तरी होती है। सन् 2009 से अब तक इन अरबपतियों की सम्पत्ति में 90% बढ़ोत्तरी हो चुकी है, यानी पिछले 12 साल में इनकी दौलत लगभग दोगुनी हो गयी है। दूसरी ओर, सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़, लगभग 30 प्रतिशत आबादी आज भी ग़रीबी रेखा के नीचे जीती है। लेकिन देश के प्रमुख अर्थशास्त्री यह साबित कर चुके हैं कि ग़रीबी रेखा का पैमाना सरासर ग़लत है और वास्तव में लगभग आधी आबादी ग़रीबी में जी रही है।
मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में जब देश की अर्थव्यवस्था 8 प्रतिशत की दर से कुलाँचे भर रही थी, तब भी संयुक्त राष्ट्र मानव विकास सूचकांक के अनुसार भारत 177 देशों की सूची में 124वें स्थान से नीचे खिसककर 127वें स्थान पर पहुँच गया था। आज मोदी राज में ग़रीबी, भुखमरी, दवा-इलाज की कमी और जीवन की गुणवत्ता के तमाम सूचकांकों पर भारत दुनिया के सबसे ग़रीब देशों के साथ बिल्कुल निचली पायदानों पर पहुँच गया है। भारत में औसत आयु चीन और श्रीलंका के मुकाबले 7 वर्ष कम और भूटान के मुकाबले भी 2 वर्ष कम है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार पाँच वर्ष से कम के बच्चों की मृत्यु दर चीन के मुकाबले तीन गुना, श्रीलंका के लगभग छह गुना और यहाँ तक कि बंगलादेश और नेपाल से भी ज़्यादा है।
एक ओर विकास के आँकड़े उछाले जा रहे हैं दूसरी ओर देश में ग़रीबों, बेरोजगारों, बेघर लोगों की तादाद भी लगातार बढ़ती गयी है। देश की लगभग 47 करोड़ मज़दूर आबादी में से 93 प्रतिशत, या 43 करोड़ मज़दूर असंगठित क्षेत्र में धकेल दिये गये हैं जहाँ वे बिना किसी क़ानूनी सुरक्षा के ग़ुलामों जैसी परिस्थितियों में काम करने के लिए मजबूर हैं। इनमें से बहुत बड़ी संख्या ने पिछले डेढ़ साल में अपना रोज़गार खो दिया है। भारत में अर्थव्यवस्था के आँकड़ों पर नज़र रखने वाली प्रमुख संस्था, सेण्टर फ़ॉर मॉनीटरिंग इण्डियन इकोनॉमी के अनुसार इस साल केवल मई महीने में ही डेढ़ करोड़ से ज़्यादा लोगों ने रोज़गार गँवा दिया है। इस साल के शुरुआती पाँच महीनों में ही ढाई करोड़ से ज़्यादा लोग रोज़गार गँवा चुके हैं। कोरोना की पहली लहर के आगमन के पहले ही फ़रवरी 2020 में बेरोज़गारी दर 6.2 फ़ीसदी तक पहुँच चुकी थी। उसके बाद के लॉकडाउन में करोड़ों लोगों ने रोज़गार गँवाया और अप्रैल 2020 में बेरोज़गारी दर 24 फ़ीसदी तक पहुँच गयी। पिछले पूरे साल भर भी औसत बेरोज़गारी दर 6-7 प्रतिशत बनी रही। मई 2021 में देशव्यापी बेरोज़गारी दर 11.9 फ़ीसदी तक पहुँच गयी। मई 2021 में शहरी क्षेत्र में बेरोज़गारी दर 14.73 प्रतिशत और ग्रामीण क्षेत्र में 10.63 प्रतिशत थी। युवाओं और महिलाओं को ज़्यादा बड़े स्तर पर बेरोज़गारी का सामना करना पड़ रहा है। 20 वर्ष की आयु से 24 वर्ष की आयु वाले शहरी युवाओं में 37.9 प्रतिशत बेरोज़गार हैं। मगर इनके लिए सरकार के पास कोई योजना नहीं है।
एक रिपोर्ट के अनुसार 45 करोड़ भारतीय ग़रीबी रेखा के नीचे जी रहे हैं, जिसका अर्थ है कि वे भुखमरी की कगार पर बस किसी तरह ज़िन्दा हैं। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) की मानव विकास रिपोर्ट में भारत 188 देशों की सूची में खिसककर अब 131वें स्थान पर पहुँच गया है। दक्षिण एशियाई देशों में यह तीसरे स्थान पर, श्रीलंका और मालदीव जैसे देशों से भी पीछे चला गया है। हमारे देश में दुनिया के किसी भी हिस्से से अधिक, 46 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। एक तिहाई आबादी भूखी रहती है और यहाँ हर दूसरे बच्चे का वज़न सामान्य से कम है। वैश्विक भूख सूचकांक के आधार पर बनी 119 देशों की सूची में भारत 100वें स्थान पर है, उत्तर कोरिया और बंगलादेश जैसे देशों से भी नीचे। बेरोज़गारी की दर लगातार बढ़ती जा रही है। अगर बेरोजगारी बढ़ने की रफ़्तार यही रही तो हालात क्या होंगे इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं। ऐसे में समझना मुश्किल नहीं है कि हर साल दो करोड़ रोज़गार देने का वादा करके सत्ता में आयी मोदी सरकार ने रोज़गार के आँकड़े जुटाने और जारी करने की व्यवस्था को 2018 में अचानक क्यों बन्द कर दिया!
इससे ज़्यादा शर्म की बात और क्या हो सकती है कि आज भी देश के एक-चौथाई से ज़्यादा लोग अशिक्षित हैं। ग्रामीण इलाक़ों में तो 36 प्रतिशत लोग आज भी पढ़ना-लिखना नहीं जानते। दक्षिण एशिया के ग़रीब मुल्क़ों में भी प्रौढ़ शिक्षा दर और युवा/बाल शिक्षा दर दोनों के लिहाज़ से भारत चौथे स्थान पर है। शिक्षा में जो प्रगति हुई है वह भी तब फीकी लगने लगती है जब यह पता चलता है कि दुनिया का हर चौथा अशिक्षित व्यक्ति एक भारतीय है। करोड़ों बच्चे आज भी स्कूल नहीं जा पाते हैं। जो बच्चे जाते हैं, उनमें भी बड़ी संख्या में बच्चे कक्षा एक से आठवीं के बीच पढ़ाई छोड़ देते हैं। गाँवों और कस्बों ही नहीं, बड़े शहरों के ग़रीब इलाक़ों में भी बड़ी संख्या में स्कूलों के पास ढंग के कमरे, डेस्क, पीने का पानी, शौचालय जैसी न्यूनतम सुविधाएँ भी नहीं हैं। जब बड़ी संख्या में स्कूल बढ़ाने की ज़रूरत है, तब सरकारें लगातार सरकारी स्कूलों को बन्द कर रही हैं। हर राज्य में लाखों की संख्या में शिक्षकों के पद ख़ाली पड़े हुए हैं। एक के बाद एक सरकारें शिक्षा पर ख़र्च बढ़ाकर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 6 प्रतिशत कर देने के वादे करती रही है, लेकिन केन्द्र और राज्य सरकारों का शिक्षा पर ख़र्च 1991-92 में 4 प्रतिशत से घटकर 2021 में 3.1 प्रतिशत रह गया। पिछले वर्षों के दौरान तो सारा जोर उच्च शिक्षा और शिक्षा के निजीकरण पर रहा है।
स्वास्थ्य के क्षेत्र में तो स्थिति और भी बुरी है। भारत स्वास्थ्य पर अपने जीडीपी का जितना ख़र्च करता है, वह कम्बोडिया, म्यांमार, तोगो, सूडान, गिनी और बुरुंडी जैसे ग़रीब देशों से भी कम है। संयुक्त राष्ट्र की एक मानव विकास रिपोर्ट के अनुसार “भारत के कुछ शहरों में प्रौद्योगिकीय उछाल से ख़ुशहाली आयी हुई है, लेकिन हर ग्यारह में से एक भारतीय बच्चा ऐसे इलाज के अभाव में पाँच वर्ष का होने से पहले ही मर जाता है जो मामूली प्रौद्योगिकी और बहुत कम ख़र्च पर उपलब्ध हो सकता है।”
आज़ादी के 74 वर्षों में तमाम सरकारें शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाएँ भी जनता को मुहैया नहीं करा पायी हैं। प्रसिद्ध मेडिकल पत्रिका ‘लैंसेट’ के एक अध्ययन के मुताबिक़, स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता और लोगों तक उनकी पहुँच के मामले में भारत विश्व के 195 देशों में 145वें पायदान पर है। पिछले दस वर्षों में स्वास्थ्य सेवाओं पर सरकार ने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का औसतन 1.1% से 1.5% तक ख़र्च किया। दूसरे देशों से तुलना करें तो क्यूबा में 11.74%, जर्मनी में 11.25%, अमरीका में 8.5%, ब्राज़ील में 3.96%, दक्षिण अफ्रीका में 4.46% और चीन में 3.02% जीडीपी का हिस्सा स्वास्थ्य सेवाओं पर ख़र्च किया जाता है। भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य पर ख़र्च होने वाला जीडीपी का प्रतिशत पिछले 10 वर्ष से ज़्यादा समय से 1% के आसपास ही बना हुआ है। स्वास्थ्य पर किये गये कुल ख़र्च का 27% हिस्सा ही सरकार द्वारा ख़र्च किया जाता है और लगभग 73% हिस्सा जनता को अपनी जेब से देना पड़ता है। भारत में कुल बीमार लोगों में 23% बीमार लोग इलाज का ख़र्च उठा ही नहीं सकते हैं। आज भी देश में 1456 लोगों पर 1 डॉक्टर है जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 1000 लोगों पर 1 डॉक्टर होना चाहिए। भारत में नर्स और आबादी का अनुपात 1:670 है जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार यह अनुपात 1:300 होना चाहिए। इनमें से भी ज़्यादातर डॉक्टर, नर्स आदि शहरों में हैं, गाँवों, छोटे क़स्बों आदि में इनकी भारी कमी है। 70 फ़ीसदी स्वास्थ्य सेवाओं का बुनियादी ढाँचा देश के 20 बड़े शहरों तक ही सीमित है। देशभर में 30 फ़ीसदी लोग प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाओं तक से वंचित हैं।
भारत की अधिकांश आबादी लगातार जिस खाद्य संकट का सामना करती है उसके कारण स्वास्थ्य की स्थिति और भी गम्भीर हो जाती है। सरकारी आंकड़ां के मुताबिक आज से 50 साल पहले 5 व्यक्तियों का परिवार एक साल में जितना अनाज खाता था। आज उससे 200 किलो कम खाता है। भोजन में विटामिन और प्रोटीन जैसे जरूरी पौष्टिक तत्वों की लगातार कमी होती गयी है। आम आदमी के लिए प्रोटीन के मुख्य स्रोत दालों की कीमत पिछले कुछ सालों में जिस कदर बढ़ी है उससे बहुत से लोग इससे भी वंचित हो गये हैं। हरी सब्ज़ियाँ, दाल और दूध तो ग़रीब आदमी के भोजन से गायब ही हो चुके हैं। इसी का नतीजा है कि कुपोषण के कारण कम वजन वाले बच्चों की सबसे बड़ी संख्या भारत में है। ग्रामीण क्षेत्रों में बहुतेरे परिवारों को दोनों वक़्त या सप्ताह के सातों दिन खाना नहीं मिलता। आज भी लगभग दस हज़ार बच्चे रोज़ कुपोषण और उससे होने वाली बीमारियों के कारण मर जाते हैं। दूसरी ओर, भारत सरकार बाल-पोषण कार्यक्रम के लिए आवण्टन घटाती जा रही है।
गाँवों से उजड़कर भारी आबादी आज शहरों के उद्योगों और निर्माण परियोजनाओं में मज़दूरी कर रही है। ऐसे लगभग सारे मज़दूर दिहाड़ी, अल्पकालिक या ठेके के मज़दूर हैं जिन्हें किसी तरह की कोई रोज़गार या सामाजिक सुरक्षा नहीं मिलती। शहरों के उद्योगों में 10-12 से लेकर 14 घण्टे तक काम करने के बाद छोटे शहरों में 200 रुपये से लेकर दिल्ली में 300 रुपये तक दिहाड़ी मिलती है और वह भी पूरे महीने नहीं मिलती। बेरोज़गार मज़दूरों की भारी आबादी के कारण पूँजीपतियों को मनमानी दरों और शर्तों पर काम कराने के लिए मज़दूर मिलने में कोई कठिनाई नहीं होती। शहरी इलाक़ों में जहाँ ये मज़दूर झुग्गियों और कच्ची बस्तियों में रहते हैं उनकी हालत किसी नर्क से कम नहीं है।
मज़दूरों ने लड़कर लम्बे समय में जो अधिकार हासिल किये थे, उन्हें एक-एक करके छीना जा रहा है। मोदी सरकार ने इस प्रक्रिया को और तेज़ करते हुए 44 श्रम क़ानूनों को ख़त्म करके 4 लेबर कोड बना दिये हैं जिनका एक ही मकसद है – मज़दूरों की श्रमशक्ति की खुली लूट की छूट पूँजीपतियों को देना और मज़दूरों के संगठित होकर आवाज़ उठाने के अधिकार को ख़त्म कर देना।
कुल मिलाकर आज़ादी के इन 74 सालों के सफ़र ने देश की आम जनता पर तकलीफ़ों और तबाहियों का कहर बरपा किया है जबकि दूसरी ओर ग़रीबी के इस महासागर में ऊपर की पन्द्रह से बीस फ़ीसदी आबादी के लिए विलासिता और हर क़िस्म के ऐशो-आराम से भरपूर टापू सजाये गये हैं। एक तरफ अस्सी प्रतिशत आबादी अभावों और दुःखों के अँधेरे में दिन काट रही है, दूसरी ओर पूँजीपतियों, व्यापारियों, ठेकेदारों, अफसरों, नेताओं और बहुत बड़े परजीवी मध्य वर्ग के लिए जगमजगाते मॉल, हर क़िस्म की सुख-सुविधाओं से लैस अपार्टमेण्ट और कोठियाँ, फ़ाइव स्टार अस्पताल और एअर-कंडीशंड ल-कॉलेज खुल रहे हैं। दुनिया की महँगी से महँगी विलासिता की वस्तुएँ देश के महानगरों में ही नहीं, छोटे शहरों तक में उपलब्ध हैं। गाँवों में धनी किसानों, कुलकों-फ़ार्मरों और खाते-पीते मध्यम किसानों को भी अपने आप में पूँजीवादी लूट और शोषण से कोई शिकायत नहीं है, क्योंकि वे ख़ुद ग़रीब किसानों व खेतिहर मज़दूरों के पूँजीवादी शोषक और लुटेरे हैं। उनकी शिकायत बड़े पूँजीपति वर्ग से है, जो कि पूँजीवादी शासक वर्ग का प्रमुख हिस्सा है और खेती के क्षेत्र में गाँव के धनी किसानों-कुलकों के एकाधिकार को समाप्त कर रहा है। नतीजतन, गाँव का यह धनी किसान-कुलक आज काफ़ी चीख़-पुकार मचा रहा है, लेकिन यह मज़दूर वर्ग और आम ग़रीब मेहनतकश किसानों का मसला नहीं है, बल्कि पूँजीपति वर्ग के दो हिस्सों का आपसी अन्तरविरोध है।
लगातार चौड़ी होती जा रही शासक वर्गों और वंचितों-शोषितों की यह खाई दिन-ब-दिन मेहनतकशों के दिल में बग़ावत की आग को हवा दे रही है और इससे निपटने के लिए शासन अपने दमन तंत्र को मज़बूत बनाने में लगा हुआ है। आज़ाद भारत में देशी सरकार की गोलियों ने जनता का जितना ख़ून बहाया है उतना तो 200 वर्षों के ब्रिटिश राज में भी नहीं बहा होगा। जनता को एकजुट होने से रोकने के लिए जाति, धर्म, भाषा, इलाक़ा आदि-आदि के नाम पर लगातार टुकड़ों में बाँटने की साज़िशें जारी हैं। आरएसएस और भाजपा यह काम करने वाले सबसे बड़े गिरोह के रूप में शासक वर्गों की जमकर सेवा कर रहे हैं। लोगों को सोचने न दिया जाये, इसके लिए टीवी, अख़बार, फ़िल्में और पूरा मीडिया लगातार झूठ, अन्धविश्वास, जादू-टोने, पिछड़े मूल्यों-मान्यताओं, अश्लीलता और अज्ञान परोसने में लगा हुआ है। लेकिन शासक भी जानते हैं कि ये तमाम हथकण्डे भी मेहनतकशों को एक न एक दिन जागने और उठ खड़े होने से रोक नहीं सकते। इसीलिए इस व्यवस्था के दूरगामी पैरोकार जनता के असन्तोष पर पानी के छींटे डालने और उसमें इसी व्यवस्था के भीतर कुछ पा लेने की उम्मीद जगाने के वास्ते तरह-तरह की सुधारवादी योजनाएँ पेश कर रहे हैं।
शासक वर्गों को अपनी आज़ादी का जश्न मनाने दीजिए, पर मेहनतकशों को अपनी असली आज़ादी के लिए लड़ाई की तैयारियों में जुटना होगा। वह आज़ादी जिसका सपना भगतसिंह और तमाम क्रान्तिकारी शहीदों ने देखा था। वह आज़ादी जो पूँजीवाद और साम्राज्यवाद के शिकंजे से इस देश को आज़ाद करेगी और राज, समाज और उत्पादन के पूरे ढाँचे पर मेहनतकश वर्गों का अधिकार क़ायम करेगी।
मज़दूर बिगुल, अगस्त 2021
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