पाँच राज्यों में आगामी विधानसभा चुनावों के मद्देनज़र क्रान्तिकारी मज़दूर वर्ग का नारा
साम्प्रदायिक फ़ासीवाद द्वारा फैलाये जा रहे धार्मिक उन्माद में मत बहो!
‘मन्दिर-मस्जिद’ पर आधारित धार्मिक कट्टरपन्थी प्रचार का पूर्ण बहिष्कार करो!
अपने असली वर्गीय मसलों को पहचानो और मेहनतकश आबादी की वर्गीय एकजुटता क़ायम करो!

– सम्पादकीय

पाँच राज्यों, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, पंजाब, गोआ और मणिपुर में फ़रवरी-मार्च में होने वाले विधानसभा चुनावों के नज़दीक आने के साथ ही संघ परिवार और उसके चुनावी चेहरे भाजपा ने साम्प्रदायिकता की लहर फैलाने का काम शुरू कर दिया है। जहाँ एक ओर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ मन्दिर राजनीति की नये सिरे से शुरुआत कर काशी विश्वनाथ और मथुरा में मन्दिर निर्माण का मसला उछाल रहे हैं, वहीं दूसरी ओर हरिद्वार में धार्मिक कट्टरपन्थियों द्वारा किये गये कार्यक्रम में सीधे मुसलमानों के नरसंहार का आह्वान करना भी संघ परिवार की रणनीति का ही एक अंग है और धार्मिक कट्टरपन्थ और साम्प्रदायिकता की लहर को उभाड़ने का ही एक उपकरण था। इसका मक़सद है आने वाले चुनावों में वोटों का धार्मिक ध्रुवीकरण। अन्य कई राज्यों में भी विधानसभा चुनाव हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश का चुनाव सभी पूँजीवादी दलों के लिए सबसे अहम है क्योंकि 2024 के लोकसभा चुनावों के मद्देनज़र इसका विशेष महत्व है।
नये सिरे से ‘मन्दिर-मस्जिद’ व ‘हिन्दू-मुसलमान’ की राजनीति भाजपा इसलिए कर रही है क्योंकि पिछले पाँच वर्षों में योगी सरकार हर मोर्चे पर नाकामयाब रही है और व्यापक मेहनतकश जनता के भीतर उसके प्रति असन्तोष और रोष की भावना पैदा हो रही है। कोरोना महामारी के दौरान जिस प्रकार प्रदेश में मौत का ताण्डव हुआ, जिस प्रकार ऑक्सीज़न की कमी से मौतें हुईं, जिस प्रकार श्मशान में अन्तिम संस्कार के लिए लाइनें लगीं और जिस प्रकार ऑक्सीजन व दवाओं की कमी की ओर इंगित करने वाले डॉक्टरों, अस्पतालों व नर्सिंग होमों पर योगी सरकार ने गुण्डई करते हुए कार्रवाई की और जिस प्रकार लाखों मौतों को छिपाने का काम किया गया, उसे प्रदेश की मेहनतकश जनता अभी भूली नहीं है। अपने घर व आस-पड़ोस में हुई त्रासद मौतों की दुख-भरी यादें भी अभी जनता के ज़ेहन में ताज़ा हैं। यहाँ तक कि उच्च मध्य वर्ग व उच्च वर्ग तक के कुछ हिस्सों में इसके कारण असन्तोष है।
पूरे देश में और पूरे प्रदेश में बेरोज़गारी और महँगाई का जो आलम है, उसने एक ओर व्यापक आम युवा आबादी में भयंकर गुस्सा पैदा किया है, वहीं आम मेहनतकश आबादी को भी असन्तोष से भर दिया है। सरकारी नौकरियाँ नहीं के बराबर हैं और जो हैं वे ख़त्म की जा रही हैं। सरकारी नौकरियों के लिए फॉर्म ही नहीं निकलते, फॉर्म निकलते हैं तो परीक्षाएँ नहीं होती हैं, परीक्षाएँ होती हैं तो परिणाम नहीं निकलते, परिणाम निकलते हैं तो नियुक्तियाँ नहीं होती हैं। फॉर्म बेचकर ही सरकार करोड़ों कमाती है और बेरोज़गार और मेहनतकश युवाओं को ठगती है। कई परीक्षाओं के प्रश्नपत्र सरकारी तंत्र, नेताशाही व नौकरशाही की मिलीभगत से लीक हो जाते हैं और मसला सामने आने पर परीक्षाएँ रद्द हो जाती हैं। लेकिन इस सारी नौटंकी में आम बेरोज़गार युवा आबादी मारी जाती है। निजी क्षेत्र में भी मन्दी के दौर में छँटनी और तालाबन्दी का कहर जारी है और जो नौकरियाँ हैं उनमें गुलामों की तरह मज़दूरों को खटाया जा रहा है। उत्तर प्रदेश में अप्रैल 2020 में बेरोज़गारी दर 22 प्रतिशत के क़रीब जा पहुँची थी। इसमें बहुत बड़ी भूमिका कोरोना महामारी का सरकार द्वारा कुप्रबन्धन था। लेकिन उसके बाद भी 2021 के अन्त तक बेरोज़गारी दर 7 से 8 प्रतिशत के ऊपर रही है। याद रहे ये सरकारी आँकड़ें हैं, जो कि सप्ताह में किसी एक दिन एक घण्टे भी काम करने वाले व्यक्ति को रोज़गारशुदा मानते हैं! अब आप ख़ुद सोचिये कि वास्तव में बेरोज़गारी के हालात क्या होंगे! हम मज़दूर-मेहनतकश तो अपने जीवन के अनुभव से भी इस बात को अच्छी तरह से समझते हैं कि सरकारी आँकड़ें मध्यवर्गीय आबादी को मूर्ख बनाने के लिए बनाए जाते हैं और इससे मेहनतकश आबादी बेवकूफ़ नहीं बनाया जा सकता है।
महँगाई की स्थिति से भी हम सभी वाकिफ़ हैं। इस बार-बार दुहराए जाने वाले जुमले का असली अर्थ जनता को समझ आ रहा है कि महँगाई ने सारे रिकॉर्ड तोड़ दिये हैं! महँगाई ने वाकई सारे रिकॉर्ड तोड़ दिये हैं! एक ओर रसोई गैस की कीमत हज़ार पहुँच रही है, वहीं पेट्रोल सौ का आँकड़ा छूने को बेताब है। भाजपा सरकार ने सरकारी लूट के सारे कीर्तिमान ध्वस्त कर दिये हैं। इस लूट से इकट्ठा सरकारी ख़ज़ाने का इस्तेमाल भी भाजपा सरकार अपने झूठे प्रचार में कर रही है! भाजपा और संघ परिवार अपने असली विचारधारात्मक पिताओं यानी नात्सियों के समान मानते हैं कि किसी झूठ को सौ बार दुहरा दिया जाये तो वह सच बन जाता है! इसलिए विकास, रोज़गार और महँगाई घटाने के बारे में सीधे-सीधे झूठे प्रचारों के होर्डिंग पूरे देश में लटका दिये गये हैं। यहाँ तक कि उत्तर प्रदेश व उत्तराखण्ड विधानसभाओं के चुनावों के प्रचार दिल्ली, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तेलंगाना, आन्ध्र प्रदेश, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, बिहार आदि तक में किया जा रहा है! लेकिन असल में भाजपा सरकार महँगाई को और बढ़ाने की नीतियाँ लागू करने के लिए तैयार बैठी है। 1 जनवरी 2022 से जूतों व कपड़ों पर 12 प्रतिशत से ज़्यादा जीएसटी लगा दिया जाएगा यानी 7 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी; एटीएम से मुफ़्त लेनदेन पूरा होने के बाद पैसा निकालने पर 20 की बजाय 21 रुपये का शुल्क लगाया जाएगा; उसी प्रकार खाने-पीने के सामानों में महँगाई दर अक्टूबर 2021 तक 18 प्रतिशत तक पहुँच चुकी थी। खाद्यान्न की महँगाई में व्यापारियों, आढ़तियों, बिचौलियों, धनी किसानों-कुलकों की जमाखोरी व कालाबाज़ार के अलावा लाभकारी मूल्य (एमएसपी) की एक केन्द्रीय भूमिका है, क्योंकि यह एमएसपी ही है जो कि खाद्यान्न की कीमतों के लिए एक ऊँचा न्यूनतम स्तर फिक्स कर देता है। एमएसपी की माँग धनी किसानों-कुलकों की माँग है और इसीलिए देश के मज़दूर वर्ग ने इस माँग का समर्थन नहीं किया, हालाँकि कई नवनरोदवादी “कम्युनिस्टों” ने इस माँग के समर्थन से मज़दूर वर्ग को भरमाने और बहकाने का काम किया। यानी खाने-पीने के सामान, ईंधन, कपड़े, जूते सभी महँगे होते जा रहे हैं और इसके पीछे समूचे पूँजीपति वर्ग की लूट की हवस है। आम मेहनतकश इंसान ही समझ सकता है कि इसका उसकी ज़िन्दगी पर क्या असर पड़ रहा है।
कोरोना महामारी की रोकथाम, बेरोज़गारी पर लगाम और महँगाई को कम करने के मामले में पूरी तरह से फिसड्डी साबित हुई भाजपा की मोदी सरकार और उत्तर प्रदेश में भाजपा की योगी सरकार के पास चुनावों में दिखाने के लिए कुछ भी नहीं है। इसलिए संघ परिवार और भाजपा एक बार फिर से धार्मिक उन्माद की आँधी चलाना चाहते हैं। यही कारण है कि पहले मथुरा में मन्दिर का मसला उठाया गया और जब उसे ज़्यादा हवा नहीं मिल पायी तो फिर ख़ुद नरेन्द्र मोदी ने काशी विश्वनाथ में मन्दिर का मसला उछाला है। बिना नाम लिए मोदी ने यह भी कहा कि ‘कुल लोग’ गाय को माता नहीं मानते लेकिन ‘हमारे लिए’ तो गाय माता के समान है। कोई भी समझ सकता है कि ‘कुल लोगों’ से मोदी का तात्पर्य मुसलमान थे और ‘हमारे लिए’ से उसका तात्पर्य हिन्दू थे। कहने के लिए सेक्युलर देश का प्रधानमंत्री अगर इस घटिया साम्प्रदायिक भाषा का इस्तेमाल कर रहा है, तो समझा जा सकता है कि जनता के सामने अपना रिपोर्ट कार्ड पेश करने के नाम पर भाजपा सरकार के पास कुछ भी नहीं है।
इसके साथ ही कुछ कुकर्म भाजपा और संघ परिवार खुले तौर पर अपने बैनर तले नहीं कर रहे हैं, बल्कि उसके लिए हिन्दुत्ववादी फ़ासीवाद के तथाकथित हाशिये के उन्मादी पागल तत्वों से करवाने का काम कर रहे हैं। हरिद्वार में धर्म संसद का आयोजन इसी रणनीति का एक अंग था। बेशक इस धर्म संसद में दिखावे के लिए कुछ बातें मोदी के ख़िलाफ़ भी बोलीं गयीं, लेकिन यह पहले से सोच-समझ कर खेला गया कार्ड है। असली इरादा है मुसलमानों व अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों को दुश्मन के तौर पर पेश करना, उनका डर खड़ा करना और साम्प्रदायिकता को भड़का कर वोटों का ध्रुवीकरण करना। इसके पीछे पहला मक़सद था व्यापक हिन्दू मध्यवर्गीय व मेहनतकश आबादी में एक नकली दुश्मन की छवि को खड़ा करना ताकि असली दुश्मन को छिपाया जा सके और दूसरा मक़सद था हिन्दू टुटपुँजिया आबादी और ख़ास तौर पर लम्पट मज़दूर आबादी के दिशाहीन व लक्ष्यहीन तत्वों की भीड़ को उन्माद की लहर में बहाना। केवल हिन्दुत्ववादी फ़ासीवाद की लहर खड़ी करके ही भाजपा सत्ता में आने का सपना देख सकती है क्योंकि उसके विकास के ढोल की पोल पूरी तरह से खुल चुकी है।
धार्मिक उन्माद फैलाने के अलावा, नरेन्द्र मोदी हर जगह चुनाव प्रचार में हज़ारों करोड़ की नयी विकास परियोजनाओं के रिब्बन काटते घूम रहे हैं! देश की जनता जानती है कि मोदी ऐसे रिब्बन पिछले सात साल से काट ही रहा है, लेकिन वह विकास किसी चौथे जगत में हो रहा है, क्योंकि जल, थल और नभ में तो दिख नहीं रहा है! विकास के नाम पर केवल उन ही परियोजनाओं पर काम होता है, जो सीधे पूँजीपति वर्ग को लाभ पहुँचाती हैं। उसी की कुछ जूठन कभी-कभार जनता को भी मिल जाती है, हालाँकि जनता से उसकी पूरी कीमत वसूली जाती है। मसलन, उत्तर प्रदेश सरकार अब आगरा एक्सप्रेस वे पर दोपहिया वाहनों से भी टोल टैक्स वसूल रही है। इसी प्रकार यदि पूँजीपतियों के लिए फ़ायदेमन्द किसी योजना का कुछ लाभ छनकर आम जनता तक भी पहुँचता है, तो उसकी पूरी कीमत पूँजीपति वर्ग आम जनता से वसूलता है। मोदी सरकार और योगी सरकार तो इस प्रकार की लूट में ख़ास तौर पर माहिर है।
ये नाकामियाँ ही हैं, जिसके कारण आज मोदी सरकार और योगी सरकार उत्तर प्रदेश व अन्य राज्यों के विधानसभा चुनावों के मद्देनज़र एक बार फिर से और नये सिरे से धार्मिक उन्माद फैलाकर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की घटिया साज़िशों में लग गयीं हैं। लेकिन अफ़सोस की बात यह है कि कई बार हमारे मज़दूर-मेहनतकश भाई और बहन भी इस हिन्दुत्ववादी फ़ासीवादी साजिश का शिकार हो जाते हैं। कई बार वे भी अपनी धार्मिक भावनाओं में बहकर इस प्रकार के फ़ासीवादी प्रचार का शिकार हो जाते हैं और अन्य धर्मों के अपने ही वर्ग भाइयों-बहनों को अपने से अलग और अपना दुश्मन समझने लगते हैं। इससे किसको लाभ मिलता है? सिर्फ़ और सिर्फ़ आपके मालिकों के पूरे वर्ग को, पूँजीपतियों को, टाटाओं-बिड़लाओं-अम्बानियों से लेकर छोटे मालिकों और ठेकेदारों के पूरे वर्ग को। हमें अपने ही वर्ग भाइयों-बहनों के ख़िलाफ़ भड़काया जाता है और हम उनके ही ख़ून के प्यासे हो जाते हैं। क्या अतीत में कई बार हम इस ग़लती की कीमत नहीं चुका चुके हैं? क्या आपको पता नहीं कि हमेशा साम्प्रदायिक तनाव और दंगों की कीमत आम मेहनतकश जनता को अपने जान-माल से चुकानी पड़ती है? क्या आपने किसी दंगे में कभी किसी योगी, सिंघल, मोदी या फिर ओवैसी का घर जलते या उनके परिजनों को मरते देखा है? नहीं! हम साम्प्रदायिक उन्माद में पागल हो कर अपने ही भाइयों-बहनों के ख़ून की होली खेलते हैं और साम्प्रदायिक फ़ासीवादी और धार्मिक कट्टरपन्थी हमारी चिताओं पर रोटी सेंकते हैं। गोरख पाण्डेय की इन पंक्तियों को याद रखें:
इस बार दंगा बहुत बड़ा था
ख़ूब हुई थी
ख़ून की बारिश
अगले साल अच्छी होगी
फसल
मतदान की।
ज़रा सोचिये साथियो: क्या एक हिन्दू पूँजीपति, मालिक, ठेकेदार या धनी दुकानदार का वर्ग हित किसी हिन्दू मज़दूर से साझा है, या हिन्दू समेत किसी भी धर्म के मज़दूर और मेहनतकश का वर्ग हित अपस में साझा है? महँगाई बढ़ने पर हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई, हर धर्म के मज़दूर पर एक ही असर होता है: उसकी ज़िन्दगी बद से बदतर होती जाती है। और बढ़ती महँगाई का हिन्दू पूँजीपतियों समेत समूचे पूँजीपति वर्ग पर एक ही असर होता है: बढ़ता मुनाफ़ा। बढ़ती बेरोज़गारी का हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई समेत हर मज़दूर पर एक ही असर होता है: उसकी औसत मज़दूरी घटती जाती है और उसकी आमदनी कम होती जाती है। लेकिन हिन्दू पूँजीपतियों समेत समूचे पूँजीपति वर्ग के लिए इसका उल्टा असर होता है: मज़दूरी-उत्पादों को छोड़कर अन्य सभी मालों के मामले में महँगाई बढ़ने से उनकी मुनाफ़े की दर इससे बढ़ती है। मज़दूरी-उत्पादों (यानी वे उत्पाद जो मज़दूर अपनी श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन के लिए अनिवार्यत: ख़रीदते हैं) के मामले में भी जब मज़दूर वर्ग अपनी वास्तविक मज़दूरी को क़ायम नहीं रख पाता, तो महँगाई बढ़ने पर पूँजीपतियों को फ़ायदा ही होता है क्योंकि कुल उत्पादित मूल्य में पूँजीपतियों का हिस्सा बढ़ता है और मज़दूरों का हिस्सा घटता है। जाहिर है, मज़दूरी-उत्पादों की महँगाई को लगातार बढ़ने देना पूँजीपति वर्ग के हित में नहीं होता है क्योंकि एक हद के बाद इसके कारण उसे मज़दूरी को बढ़ाना ही पड़ता है और इससे उसके मुनाफ़े की दर में कमी आती है। लेकिन तात्कालिक तौर पर, वास्तविक मज़दूरी के न बढ़ने की सूरत में, मज़दूरी-उत्पादों की कीमतों के बढ़ने का फ़ायदा भी पूँजीपति वर्ग फ़ौरी तौर पर उठाता है। लुब्बेलुआब यह कि बढ़ती भुखमरी, ग़रीबी, महामारियाँ, अशिक्षा आदि का सभी धर्मों के मज़दूर वर्ग पर नुकसानदेह प्रभाव पड़ता है तो वहीं सभी धर्मों के पूँजीपति, धनी व्यापारी, धनी कुलक व पूँजीवादी किसानों को इसका लाभ मिलता है।
सभी धर्मों के मज़दूरों के एक हित हैं और इस बात को हम मज़दूर जितनी जल्दी समझ लें, उतना बेहतर है। 1986 के राम मन्दिर आन्दोलन के समय से अब तक के 35 वर्षों में बार-बार धार्मिक कट्टरपन्थी उन्माद और साम्प्रदायिक फ़ासीवाद की लहर में बहकर मज़दूर आबादी को बरबादी और तबाही के अलावा कुछ हासिल नहीं हुआ है, जबकि हमारे देश में अमीरों धन्नासेठों के तिजोरियाँ भरती गयीं हैं। इसलिए इस बार यह ग़लती नहीं होने देनी है। वरना मज़दूर वर्ग का फिर से एक भारी नुक़सान होगा।
मज़दूर वर्ग सही मायने में क्रान्तिकारी सेक्युलर विचारों का वाहक भी होता है। यह विचार पैदा तो पूँजीपति वर्ग ने अपने क्रान्तिकारी दौर में किया था, लेकिन अपनी पतनशीलता, ह्रासमानता, परजीविता और मरणासन्नता के दौर में वह जनता को साम्प्रदायिकता और धार्मिक कट्टरपन्थ की सड़ी सौग़ात ही दे सकता है। दूसरी ओर, सर्वहारा वर्ग कोई शोषक वर्ग नहीं होता, निजी सम्पत्ति और पूँजी से वंचित होता है और इसलिए सबसे अधिक क्रान्तिकारी होता है। वह सच की राजनीति करता है और उसका हित सच को छिपाने में नहीं बल्कि सच को उजागर करने में है। सेक्युलरिज़्म का सही मायने में अर्थ क्या है? धर्म का मसला हर व्यक्ति का अपना निजी मसला होता है। कोई भी धर्म मानना या कोई धर्म न मानना हर व्यक्ति का अपना निजी अधिकार होता है। किसी भी धर्म को राजनीति और सामाजिक जीवन से मिलाये जाने का हम मज़दूरों को विरोध करना चाहिए। यही सेक्युलर होने का सही अर्थ है। हमें धर्म और आस्था को अपने सामाजिक जीवन और राजनीति से दूर रखना चाहिए। कोई अपनी घर की चौहद्दियों में कौन से मज़हब को मानता है, कौन-सी प्रार्थना पद्धति अपनाता है या फिर वह नास्तिक है, यह सामाजिक जीवन और राजनीति का मसला है ही नहीं। जब भी इसे सामाजिक जीवन और राजनीति का मसला बनाया जाता है तो बेगुनाह मेहनतकश लोगों का ख़ून बहता है और कोई न कोई मज़दूर-विरोधी व मेहनतकश-विरोधी ताक़त सत्ता में पहुँचती है। क्या अभी तक का तजुरबा इस बात को सही साबित नहीं करता है? आप सभी जानते हैं कि यही सच है।
इसलिए अपने गुस्से, अपनी हताशा और अपने असन्तोष का इस्तेमाल संघ परिवार व भाजपा जैसे साम्प्रदायिक फासीवादियों को मत करने दीजिये! शोषण, लूट, बदहाली, अनिश्चितता से हम श्रान्त-क्लान्त हैं, थके और चिड़चिड़ाए हुए हैं, गुस्से में हैं, लेकिन हमें अपने असन्तोष और रोष को सही दिशा देनी है न कि संघ परिवार और भाजपा जैसे लुटेरों, ठगों और मदारियों को अपने राजनीतिक फ़ायदे के लिए उसका इस्तेमाल करने देना है। हमारे ही भाइयों-बहनों को हमारा दुश्मन बना कर पेश करने का मौक़ा उन्हें मत दीजिये! अपने असली दुश्मन को पहचानिये और उसके ख़िलाफ़ धर्म और जाति की दीवारों को गिराकर संगठित होने के लिए संघर्ष करिये। अपने गुस्से और नफ़रत को सही दिशा दीजिये और उसे मौजूदा समाज और व्यवस्था को बदल देने की ताक़त में तब्दील करिये। एक अकेले मज़दूर की समाज में कोई ताक़त नहीं होती। कुछ मज़दूरों की भी समाज में कोई ताक़त नहीं होती। एक मज़हब के मज़दूरों की भी अपने आप में कोई ताक़त नहीं होती। एक अकेले मज़दूर के तौर पर या किसी एक समुदाय के मज़दूर के तौर पर वह पूँजी की गुलामी करने और अपने मालिक की मातहती करने को मजबूर होता है। इस बात को हमेशा याद रखिये। जब तक वह धर्म, जाति, भाषा व क्षेत्र के आधार पर बँटा रहेगा तब तक वह पूँजी की गुलामी करने को मजबूर रहेगा। लेकिन समूचे मज़दूर वर्ग की सामूहिक शक्ति से बड़ी दुनिया में कोई शक्ति नहीं होती है। धर्म, जाति, क्षेत्र, भाषा और कौम की दीवारें गिराकर मज़दूर वर्ग द्वारा अपनी वर्गीय एकता स्थापित करने के बाद उसकी शक्ति का मुकाबला करना पूँजीपति वर्ग के लिए मुश्किल हो जाता है। इसीलिए फ़ासीवादी व पूँजीवादी हुक्मरान हमें कभी धर्म, कभी जाति, कभी क्षेत्र तो कभी भाषा के नाम पर बाँटते हैं। इस बात को आज समझना ही होगा।
उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, पंजाब, गोआ और मणिपुर के विधानसभा चुनावों में जनता के समक्ष कोई प्रदेशव्यापी विकल्प नहीं है। ऐसे में मेहनतकश अवाम को क्या करना चाहिए? जिस भी क्षेत्र में मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी राजनीति का कोई नुमाइन्दा मौजूद हो, हमें उसे चुनना चाहिए। जहाँ पर ऐसा कोई नुमाइन्दा न हो, वहाँ मज़दूरों और मेहनतकश आबादी को नोटा का बटन दबाकर यह सन्देश हुक्मरानों तक पहुँचाना चाहिए कि हम उन्हें शासन चलाने योग्य या अपना प्रतिनिधि होने योग्य नहीं मानते हैं। मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी राजनीति का अर्थ है एक क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी की राजनीति जो कि एक सही राजनीतिक कार्यदिशा और क्रान्तिके कार्यक्रम से लैस हो। क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी माकपा, भाकपा, भाकपा (माले) लिबरेशन आदि जैसी संसदीय वामपन्थी पार्टी, यानी मज़दूर वर्ग से ग़द्दारी करने वाली पार्टियाँ नहीं होतीं जो कि नाम से कम्युनिस्ट होती हैं और नकली लाल झण्डे से मज़दूर वर्ग को ठगकर वास्तव में पूँजीपति वर्ग की ही सेवा करती हैं।
क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी सर्वहारा वर्ग की वह पार्टी होती है जो इस सच्चाई को समझती है कि चुनावों के ज़रिए पूँजीपति वर्ग सर्वहारा वर्ग को अपनी राज्यसत्ता नहीं सौंपता है। सर्वहारा वर्ग पूँजीवादी राज्यसत्ता का ध्वंस करके ही अपनी सर्वहारा राज्यसत्ता की स्थापना कर सकता है और यह एक समाजवादी मज़दूर क्रान्ति के ज़रिए ही सम्भव है, किसी चुनाव के ज़रिए नहीं। इतिहास में कभी भी किसी शोषक वर्ग ने राज्यसत्ता चुनाव के ज़रिए जनता के हाथों में नहीं सौंपी है। इतिहास में कभी भी व्यवस्थागत परिवर्तन व सामाजिक-आर्थिक रूपान्तरण चुनावों के ज़रिए नहीं हुए हैं और न ही हो सकते हैं। लेकिन फिर भी क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी संसद व विधानसभाओं के चुनावों में अपने प्रतिनिधियों को खड़ा करती है। क्यों? क्योंकि मज़दूर वर्ग को हर राजनीतिक क्षेत्र में अपनी स्वतंत्र राजनीति के साथ अपनी मौजूदगी दर्ज करानी चाहिए। यदि ऐसा नहीं होगा तो मज़दूर आबादी का बड़ा हिस्सा मालिकों-पूँजीपतियों की इस या उस पार्टी का पिछलग्गू बनता है। केवल सर्वहारा वर्ग के उन्नत क्रान्तिकारी तत्वों द्वारा इस बात को समझने से संसद व विधानसभाएँ अप्रासंगिक नहीं हो जातीं कि संसद-विधानसभाओं के ज़रिए क्रान्तिकारी परिवर्तन नहीं हुआ करते हैं और सरकार ही समूची राज्यसत्ता नहीं होती, बल्कि सरकार के साथ सेना-पुलिस व सशस्त्र बलों, नौकरशाही, न्यायपालिका के स्थायी निकायों को मिलाकर समूची पूँजीवादी राज्यसत्ता बनती है। साथ ही, संसद व विधानसभा चुनावों में रणकौशलात्मक (टैक्टिकल) हस्तक्षेप करके ही मज़दूर वर्ग का उन्नत हिस्सा समूचे मज़दूर वर्ग और समूची मेहनतकश जनता के सामने पूँजीवादी जनवाद और उसकी सारी संस्थाओं और प्रक्रियाओं की असलियत को उजागर कर सकता है, यानी पूँजीवादी चुनावों की असलियत और साथ ही संसद व विधानसभाओं की असलियत।
इन दो कारणों से क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी पूँजीवादी चुनावों के दौरान घर नहीं बैठी रहती और न ही अपरिपक्व तरीक़े से चुनावों के बहिष्कारों का आह्वान करती है जिसे कि जनता ही नहीं सुनती; बल्कि वह अपने प्रतिनिधियों को इन चुनावों में खड़ा करती है, चुनाव लड़ती है, इसके ज़रिए जनता के बीच व्यापक क्रान्तिकारी प्रचार कर पूँजीवादी व्यवस्था की असलियत को उजागर करती है और चुनाव जीतने की सूरत में संसद और विधानसभाओं के भीतर अपने क्रान्तिकारी हस्तक्षेप के ज़रिए उनकी असलियत, यानी उनके पूँजीवादी चरित्र, को उजागर करती है। इसके ज़रिए व्यापक मेहनतकश जनता पूँजीवादी व्यवस्था की सीमाओं को समझती है और साथ ही क्रान्तिकारी रास्ते से क्रान्तिकारी परिवर्तन की अनिवार्यता को भी समझती है। इसलिए क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी अपने समूचे आन्दोलन में क्रान्तिकारी जनान्दोलनों के साथ-साथ पूँजीवादी जनवाद की संस्थाओं और प्रक्रियाओं में भी रणकौशलात्मक हस्तक्षेप करती है और वहाँ पर भी राजनीतिक रूप से स्वतंत्र सर्वहारा लाइन और पोजीशन के साथ मौजूद रहती है। समाज के हर राजनीतिक व विचारधारात्मक क्षेत्र में सर्वहारा वर्ग की स्वतन्त्र राजनीतिक अवस्थिति की मौजूदगी की ज़रूरत को सर्वहारा वर्ग के महान शिक्षकों ने स्पष्ट तौर पर समझाया था। केवल और केवल जनता के व्यापक जनसमुदायों के क्रान्तिकारी परिस्थिति में सर्वहारा पार्टी के नेतृत्व में क्रान्ति के लिए तैयार होने की सूरत में ही क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी संसद और विधानसभाओं के बहिष्कार का नारा देती है और वास्तव में केवल तभी वह एक जन नारा (मास स्लोगन) बन सकता है जिस पर व्यापक मेहनतकश जनता की बहुसंख्या अमल करती है। उसके बिना ऐसा करना हास्यास्पद “वामपन्थी” बचकानापन है।
आज कोई देशव्यापी क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी यानी क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी मौजूद नहीं है। क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट शक्तियाँ विचारधारात्मक विभ्रमों, ग़लत राजनीतिक कार्यदिशा और ग़लत कार्यक्रम के हावी होने के कारण खण्ड-खण्ड में विभाजित हैं। ऐसे में, आज का प्रधान कार्यभार है एक देशव्यापी क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी का निर्माण और गठन। यह तभी सम्भव है जबकि सही विचारधारात्मक समझ, सही राजनीतिक कार्यदिशा और सही कार्यक्रम को सूत्रबद्ध किया जाय, यानी मार्क्सवादी विचारधारा और विज्ञान की समझदारी विकसित की जाये और व्यापक जनसमुदायों के बीच क्रान्तिकारी जनदिशा को लागू किया जाये। इनके ज़रिए ही एक सही राजनीतिक कार्यदिशा और कार्यक्रम को सूत्रबद्ध किया जा सकता है। इसी के ज़रिए देश के मज़दूर आन्दोलन में एक क्रान्तिकारी विचार-केन्द्र को खड़ा किया जा सकता है, जिसके इर्द-गिर्द नये क्रान्तिकारी प्रयोगों के प्रयोग-केन्द्र की स्थापना की जा सकती है और नये क्रान्तिकारी तत्वों को मज़दूर वर्ग व मध्यवर्गीय क्रान्तिकारी युवा व बौद्धिक आबादी से शामिल कर नये भर्ती-केन्द्र की स्थापना की जा सकती है। एक नया क्रान्तिकारी विचार-केन्द्र, एक नया क्रान्तिकारी प्रयोग-केन्द्र और एक नया क्रान्तिकारी भर्ती-केन्द्र खड़ा करके देश में एक नयी क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी के निर्माण और गठन को अंजाम देना: यही आज का प्रधान कार्यभार है। यह लम्बा काम होने के बावजूद हमारा तात्कालिक कार्यभार है। इस पर आज से ही सतत्, अनथक और मेहनत के साथ काम करना होगा।
इसी सन्दर्भ में मौजूदा विधानसभा चुनावों में क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग देश की समूची मेहनतकश आबादी से क्या कहेगा? मौजूदा विधानसभा चुनावों के मद्देनज़र व्यापक मेहनतकश आबादी के लिए क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग का तात्कालिक सन्देश बिल्कुल स्पष्ट है:
1. संघ परिवार, भाजपा और मोदी सरकार व योगी सरकार द्वारा साम्प्रदायिक फ़ासीवादी व धार्मिक कट्टरपन्थी लहर के ज़रिए ध्रुवीकरण की साजिश का शिकार मत बनो!
2. साम्प्रदायिक फासीवादियों व सभी धर्मों के धार्मिक कट्टरपन्थियों की असलियत को, यानी उनके पूँजीवादी चरित्र को पहचानो! ये जनता को धर्म के नाम बाँटकर वास्तव में धन्नासेठों की ही सेवा करते हैं और उनके वफ़ादार कुत्ते होते हैं।
3. सभी धर्मों व अन्य सामाजिक समुदायों की व्यापक मेहनतकश आबादी के हित एक हैं! उनकी एकजुटता कायम करो! उनमें फूट डालने की फ़ासीवादी, धार्मिक कट्टरपन्थी व जातिवादी साजिशों को कामयाब मत होने दो!
4. अपने असली दुश्मन को पहचानो! तुम्हारा असली दुश्मन समूचा पूँजीपति वर्ग है, जिसमें कि बड़े-छोटे-मँझोले कारखानेदार पूँजीपति, धनी व्यापारी, धनी पूँजीवादी किसान व कुलक, ठेकेदार-जॉबर, शेयर दलाल, प्रापर्टी डीलरों व अन्य दलालों का पूरा संस्तर, पूँजीवादी पार्टियों के नेता, उच्च व उच्च-मध्यम नौकरशाह, सेना-पुलिस के ऊँचे अफ़सर, आदि सभी शामिल हैं। यह ही है जो तुम्हारे ख़ून को सिक्कों में ढालकर ही अपनी तिजोरियाँ भरता है, चाहे उसका धर्म या जाति कुछ भी हो! आज इस लुटेरे वर्ग की सबसे सक्षम तरीक़े से भाजपा व संघ परिवार के साम्प्रदायिक फ़ासीवादी सेवा कर रहे हैं क्योंकि मन्दी के दौर में पूँजीपति वर्ग को अपनी नग्न तानाशाही, “मज़बूत नेतृत्व”, की ज़रूरत है।
5. ‘मन्दिर-मस्जिद’ व ‘हिन्दू-मुसलमान’ के नाम पर फैलाए जा रहे उन्माद से ऊपर उठकर अपने असली वर्ग हितों को पहचानो और उनके आधार पर एकता कायम करो!
6. धर्म को हर व्यक्ति का व्यक्तिगत मसला मानो और उसे सामाजिक जीवन व राजनीति में घुसाने की हरेक हरक़त का विरोध करो, चाहे वह साम्प्रदायिक फ़ासीवादी संघ परिवार व भाजपा करे, या फिर धार्मिक कट्टरपन्थी ओवैसी जैसी ताक़तें करें!
7. मौजूदा चुनावों में जहाँ कहीं सही मायने में किसी ऐसी क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी, यानी क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी का उम्मीदवार हो जिसके पास एक सही राजनीतिक कार्यदिशा और कार्यक्रम हो, उसे वोट दो, अन्यथा नोटा का बटन दबाकर देश के पूँजीवादी शासक वर्ग के प्रति अपने अविश्वास को व्यक्त करो! अपने आप में महज़ इससे कोई क्रान्तिकारी परिवर्तन नहीं होता, लेकिन चुनाव की प्रक्रिया में रणकौशलात्मक हस्तक्षेप के बिना मज़दूर वर्ग व व्यापक मेहनतकश आबादी इस या उस पूँजीवादी पार्टी का पिछलग्गू बनती है और उसका स्वतंत्र राजनीतिक पक्ष नहीं खड़ा होता, जिसका फ़ायदा हमेशा आम तौर पर पूँजीपति वर्ग को होता है।
8. अपने गली-मुहल्लों में मेहनतकश संघर्ष समितियाँ बनाएँ और किसी भी रूप में साम्प्रदायिक या धार्मिक कट्टरपन्थी प्रचार करने वाले चुनावी मेंढकों (यानी पूँजीवादी पार्टियों के उम्मीदवारों) की सभाओं आदि का पूर्ण बहिष्कार करें और जहाँ सम्भव हो, उन्हें अपने गली-मुहल्लों व कालोनियों में न घुसने दें। अपने बीच ‘मन्दिर-मस्जिद’, ‘हिन्दू-मुसलमान’, ‘बाबर-अकबर-औरंगज़ेब बनाम महाराणा प्रताप-राणा सांगा’, आदि की बात भी न होने दें। ये सारी बातें असली मसलों से मज़दूरों-मेहनतकशों को बहकाने के लिए की जाती हैं ताकि वे अपने असली मुद्दों व मसलों पर न सोच सकें।
9. सभी चुनावी उम्मीदवारों से कहें कि वे अपनी चुनावी फण्डिंग का पूरा ब्यौरा पहले जनता के सामने रखें और फिर बताएँ कि जो उम्मीदवार व पार्टियाँ पूँजीपतियों व उनके चुनावी ट्रस्टों से करोड़ों-करोड़ रुपये लेती हैं, वे जनता के लिए काम कैसे कर सकते हैं? वे तो चुनें जाने पर अम्बानी, अडानी, टाटा-बिड़ला के लिए ही निजीकरण व उदारीकरण की नीतियाँ लागू करेंगी, जिनके कारण महँगाई, बेरोज़गारी और आर्थिक अनिश्चितता बढ़ रही है! जो अपनी पूरी चुनावी फण्डिंग जनता के सामने न खोले उसका भी पूर्ण बहिष्कार करें।
10. सभी चुनावी उम्मीदवारों से पूछें कि चुनाव जीतने पर क्या वे केवल एक कुशल मज़दूर का वेतन लेने और अन्य पूरी आमदनी जनता के विकास फण्ड में डालने के लिए तैयार हैं और अपनी पूरी सम्पत्ति का सार्वजनिक जन-ऑडिट करने को तैयार हैं? क्या वे प्रदेश में न्यूनतम मज़दूरी को बढ़ाकर रुपये 20,000 करने के लिए विधानसभा में संघर्ष करने का लिखित वायदा करने को तैयार हैं? क्या वे विधानसभा में मज़दूर-विरोधी नये लेबर कोड का विरोध करने का लिखित वायदा करने को तैयार हैं? क्या वे मोदी सरकार की समूची निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों का विधानसभा में पुरज़ोर विरोध करने का लिखित वायदा करने को तैयार हैं? यदि वे ऐसा करने को तैयार नहीं हैं, तो मेहनतकश जनता उनका समर्थन क्यों करे?
‘मज़दूर बिगुल’ क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग और आम मेहनतकश जनता के राजनीतिक अख़बार और उसके राजनीतिक संगठनकर्ता के तौर पर उपरोक्त अपील आम मेहनतकश जनता से करता है। उपरोक्त कार्यभारों के साथ हमारे समय का आम प्रधान कार्यभार है एक क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी का निर्माण, जिसके लिए स्वयं राजनीतिक तौर पर शिक्षित होना, प्रशिक्षित होना और जागृत, गोलबन्द व संगठित होना अपरिहार्य है। इसकी शुरुआत ‘मज़दूर अध्ययन मण्डलों’ के निर्माण से की जा सकती है। हमारे ट्रेड यूनियन संघर्षों के साथ इस राजनीतिक कार्य को करना बेहद ज़रूरी है। बल्कि यह कहना होगा कि अपने ट्रेड यूनियन व आर्थिक संघर्षों को भी हम सही ढंग से राजनीतिक शिक्षा से लैस होकर ही लड़ सकते हैं। इसके विषय में हम आगे ‘मज़दूर बिगुल’ के पन्नों पर विस्तार से आपसे चर्चा करेंगे। लेकिन तात्कालिक कार्यभार है अपने प्रदेश में साम्प्रदायिक फ़ासीवादी संघ परिवार, अन्य सभी धार्मिक कट्टरपन्थियों व फिरकापरस्त ताक़तों की साज़िशों को कामयाब न होने देना, साम्प्रदायिकता को आम मेहनतकश जनता के बीच ज़रा भी पाँव न जमाने देना और मज़दूर वर्ग के स्वतंत्र राजनीतिक पक्ष को खड़ा करने के लिए संघर्ष करना।

मज़दूर बिगुल, जनवरी 2022


 

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