Category Archives: सम्‍पादकीय

इज़रायली सेटलर उपनिवेशवादी ज़ायनवादी हत्यारों द्वारा फ़िलिस्तीनी जनता के जनसंहार का विरोध करो!

इज़रायल कोई देश नहीं है। जिस देश को आज साम्राज्यवाद इज़रायल के नाम पर प्रचारित करते हैं, वह वास्तव में फ़िलिस्तीन ही है, जिस पर पश्चिमी साम्राज्यवादियों ने एक सेटलर उपनिवेशवादी चौकी बिठा रखी है। पश्चिमी साम्राज्यवादियों की इस उपनिवेशवादी चौकी का नाम इज़रायल है। इस चौकी को चलाने के लिए 1917 में ही यूरोप के नस्लवादी श्रेष्ठतावादी विचारधारा रखने वाले और यहूदी बुर्जुआ वर्ग व टुटपुँजिया वर्ग से आने वाले प्रतिक्रियावादी ज़ायनवादियों ने ली थी। इनका मकसद था आयरलैण्ड में ब्रिटिश बस्ती व चौकी (जिसे अल्स्टर कहा गया था) की तर्ज़ पर फ़िलिस्तीन में पश्चिमी साम्राज्यवाद की एक बस्ती और चौकी, एक यहूदी अल्स्टर बिठाना। फ़िलिस्तीन को ही इसके लिए क्यों चुना गया? ज़ायनवादियों ने अपने नस्लवादी यहूदी राज्य के लिए पहले लातिन अमेरिका व अफ्रीका के कुछ देशों पर भी विचार किया था। लेकिन 1908 में मध्य-पूर्व में तेल मिला। यह कुछ ही वर्षों के भीतर पश्चिमी साम्राज्यवाद के लिए सबसे रणनीतिक माल बन गया और इसलिए अब ज़ायनवादी आन्दोलन और ब्रिटिश साम्राज्यवाद में एक समझौता हुआ कि यह यहूदी उपनिवेशवादी व नस्ली श्रेष्ठतावादी राज्य फ़िलिस्तीन की जनता को बेदख़ल करके बनाया जाये।

जनता के जनवादी अधिकारों पर आक्रामक होता फ़ासीवादी मोदी सरकार का हमला और इक्कीसवीं सदी में फ़ासीवाद के बारे में कुछ बातें

जब फ़ासीवादी शक्तियाँ सत्ता से बाहर भी होती हैं, तो उनका पूर्ण ध्वंस नहीं होता बल्कि बुर्जुआजी तब भी उनके अस्तित्व बनाये रखना चाहती है और उन्हें अपना समर्थन देती रहती है। वह उन पर किसी प्रकार के पूर्ण प्रतिबन्ध का आम तौर पर विरोध करती है। वह उन्हें अपनी असंस्थानिक व अनौपचारिक राजनीतिक शक्ति के रूप में समाज और राजनीति में बनाये रखती है ताकि उसका सर्वहारा वर्ग और आम मेहनतकश जनता के विरुद्ध प्रतिभार के रूप में इस्तेमाल कर सके।

दंगे करने का अधिकार, माँग रहा है संघ परिवार! शामिल है मोदी सरकार!

नूंह में दंगे भड़काने की संघी फ़ासिस्टों की चाल को जनता की ओर से उस प्रकार का समर्थन नहीं मिला जिसकी वे उम्मीद कर रहे थे। नूंह और हरियाणा की हिन्दू मेहनतकश जनता की बहुसंख्या ने संघियों की दंगाई कोशिशों को बड़े पैमाने पर नकार दिया है। समाज का एक छोटा हिस्सा है जो केवल और केवल मुसलमानों से नफ़रत की वजह से मोदी-शाह सरकार और संघ परिवार की ऐसी चालों का समर्थन कर रहा है। यह कुल हिन्दू आबादी का भी एक बेहद छोटा हिस्सा है। स्वयं यह भी बढ़ती महँगाई और बेरोज़गारी से तंग है। लेकिन मुसलमानों से अतार्किक घृणा और राजनीतिक चेतना की कमी के कारण वह संघी फ़ासिस्ट प्रचार के प्रभाव में है। अभी हो रही सभी दंगाई पंचायतों में इस छोटी-सी अल्पसंख्या से आने वाले लोग ही शामिल हैं। व्यापक मेहनतकश आबादी ने ऐसी दंगाई साज़िशों को ख़ारिज किया है। इस आबादी में जो मुखर हैं और बोलते हैं, उन्होंने स्पष्ट तौर पर बोलकर हार के डर से बौखलायी मोदी-शाह सरकार की साम्प्रदायिक फ़ासिस्ट चालों को नकारा है। लेकिन जो बहुसंख्यक आबादी मुखर नहीं भी है, वह मोदी सरकार और संघ परिवार की दंगाई चालों से बुरी तरह से चिढ़ी हुई और नाराज़ है।

हार की आशंका से घबरायी मोदी-शाह सरकार और भाजपा देश को दंगों की आग में झोंकने की तैयारी में

क्या आपने कभी सोचा है कि जब भी भाजपा चुनावों में हार की आशंका से त्रस्त होती है, उसी समय देश में जगह-जगह दंगे और साम्प्रदायिक तनाव क्यों भड़क जाते हैं? याद करें। राम मन्दिर आन्दोलन की शुरुआत और रथयात्रा की शुरुआत भी राज्यों या केन्द्र के चुनावों के ठीक पहले की गयी थी। कारगिल घुसपैठ और युद्ध भी चुनावों के ठीक पहले हुआ था। 2002 में गुजरात दंगे भी राज्य के चुनावों के ठीक पहले हुए थे। आज भी हर चुनाव के पहले धार्मिक त्योहारों को दंगे के त्योहारों में तब्दील करने के लिए आर.एस.एस. और उसकी गुण्डा-वाहिनियाँ लगी रहती हैं। इसी साल मार्च-अप्रैल में रामनवमी के मौके पर दंगे फैलाने के कारण भी लगभग एक दर्जन लोग मारे गये थे। बताने की ज़रूरत नहीं है कि ये मारे जाने वाले लोग कोई धन्नासेठों, मालिकों, ठेकेदारों और धनी दुकानदारों की औलादें नहीं थीं, बल्कि आपके और हमारे परिजन थे। वजह यह कि जब धर्म का उन्माद भड़काया जाता है, तो हम मज़दूरों-मेहनतकशों को उसमें प्यादों की तरह इस्तेमाल किया जाता है क्योंकि हममें से कुछ लोग “धर्म की रक्षा”, “धर्म-ध्वजा रक्षा”, “धर्म का अपमान”, “राम का अपमान” जैसी बेवकूफ़ी की बातों में बह जाते हैं।

समान नागरिक संहिता के पीछे मोदी सरकार की असली मंशा है साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण जिसकी फसल 2024 के लोकसभा चुनावों में काटी जा सके!

यदि मुसलमान औरतों के प्रति भाजपा का कोई सरोकार होता तो उसके नेता मुसलमान स्त्रियों को कब्र से निकालकर उनके बलात्कार का आह्वान मंचों से न करते, गुजरात के दंगों में मुसलमान औरतों का सामूहिक बलात्कार, गर्भ चीरकर भ्रूण निकालने जैसी वीभत्स और बर्बर घटनाएँ आर.एस.एस. व भाजपा के गुण्डों द्वारा न अंजाम दी जातीं। अगर उन्हें मुसलमान औरतों के प्रति न्याय को लेकर इतना दर्द उमड़ रहा होता तो बिलकिस बानो के बलात्कारियों और उसके बच्चे और परिवार के हत्यारों को भाजपा सरकार बरी न करती, न ही माया कोडनानी और बाबू बजरंगी जैसे लोग बरी होते या उन्हें पैरोल मिलती। साफ़ है कि मुसलमान औरतों के प्रति चिन्ता का हवाला देकर भाजपा तथाकथित समान नागरिक संहिता को मुसलमान आबादी पर थोपना चाहती है और असल में वह समान नागरिक संहिता के नाम पर हिन्दू पर्सनल लॉ को ही विशेष तौर पर मुसलमान आबादी पर थोपना चाहती है, जो कि उनकी धार्मिक व निजी आज़ादी का हनन होगा और इस प्रकार साम्प्रदायिक तनाव और ध्रुवीकरण को बढ़ाने का उपकरण मात्र होगा। मुसलमान औरतों के प्रति भाजपाइयों और संघियों के पेट में कितना दर्द है, यह सभी जानते हैं।

कर्नाटक चुनावों के नतीजे, मोदी सरकार की बढ़ती अलोकप्रियता, फ़ासिस्टों की बढ़ती बेचैनी, साम्प्रदायिक उन्माद व अन्धराष्ट्रवादी लहर पैदा करने की बढ़ती साज़िशें और हमारे कार्यभार

कर्नाटक चुनावों में भाजपा और मोदी-शाह की जोड़ी ने एड़ी-चोटी का पसीना एक कर दिया लेकिन इसके बावजूद उसे चुनावों में क़रारी हार का सामना करना पड़ा। नरेन्द्र मोदी ने सारा कामकाज छोड़कर कर्नाटक चुनावों के प्रचार में अपने आपको झोंक दिया और हमेशा की तरह प्रधानमन्त्री की बजाय प्रचारमन्त्री की भूमिका निभायी। हार की आशंका होते ही नरेन्द्र मोदी और अमित शाह ने सीधे साम्प्रदायिक प्रचार और धार्मिक उन्माद पैदा करने की कोशिश की। लेकिन कुछ भी काम नहीं आया। इसकी कई वजहें थीं। पहली वजह यह थी कि जनता महँगाई, बेरोज़गारी और कर्नाटक में भाजपा द्वारा भ्रष्टाचार की नयी मिसालों को देखकर त्रस्त थी, दूसरा, हिन्दू-मुस्लिम और मन्दिर-मस्जिद के मुद्दे अब किसी नयी आबादी को भाजपा के पक्ष में नहीं जीत पा रहे थे और तीसरा, इन्हीं वजहों से लोग बदलाव चाहते थे।

2024 के आम चुनावों के पहले अन्धराष्ट्रवाद व साम्प्रदायिक उन्माद की लहर उठाने की कोशिशों से सावधान रहें!

जब भी भाजपा की कोई सरकार ख़तरे में होती है तो या तो पाकिस्तान की ओर से घुसपैठ होती है, या फिर कोई आतंकी हमला हो जाता है या कहीं दंगा फैल जाता है! याद करें कि गोधरा की घटना और फिर गुजरात-2002 साम्प्रदायिक नरसंहार भी 2002 के गुजरात विधानसभा चुनावों के ठीक पहले ही हुआ था। ऐसा लगता है मानो जब-जब भाजपा हार रही होती है और उसके नेता दिलो-जान से चाहते हैं कि कोई ऐसी आकस्मिक घटना घट जाये, उसी समय ऐसी आकस्मिक घटना घट ही जाती है! लेकिन पुलवामा हमले के समय जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल रहे भाजपा नेता सत्यपाल मलिक के साक्षात्कार और डीएसपी देविन्दर सिंह को बाद में मिली जमानत से इस आकस्मिकता पर भी सवाल खड़े हो जाते हैं। ये घटनाएँ कितनी इत्तेफ़ाकन थीं, इस पर भी सवाल खड़े हो जाते हैं। और बार-बार भाजपा और उसकी सरकारों के संकट में आने पर अचानक “देश संकट में” कैसे आ जाता है, इस पर भी सवाल खड़े हो जाते हैं।

हर प्रकार के राजनीतिक विरोध को ख़ामोश करने की मोदी-शाह सत्ता की कोशिशें

जनवाद पर होने वाला हर हमला अन्तत: और दूरगामी तौर पर सर्वहारा वर्ग के हितों के विपरीत जाता है और सर्वहारा वर्ग व आम मेहनतकश जनता ही उसकी सबसे ज़्यादा क़ीमत चुकाती है। जब भी हम जनवाद पर होने वाले फ़ासीवादी हमले पर चुप रहते हैं तो हम फ़ासीवादी सत्ता के “दमन के अधिकार” का आम तौर पर वैधता प्रदान कर रहे होते हैं, चाहे हमारा ऐसा इरादा हो या न हो। इसलिए राहुल गाँधी की सदस्यता रद्द होने का प्रश्न हो या फिर जनपक्षधर पत्रकारों, जाति-उन्मूलन कार्यकर्ताओं, कलाकारों-साहित्यकारों के फ़ासीवादी मोदी-शाह सत्ता द्वारा उत्पीड़न का प्रश्न हो, सर्वहारा वर्ग को उसका पुरज़ोर तरीके से विरोध करना चाहिए। लेनिन ने बताया था कि जनवादी अधिकारों पर होने वाले हर हमले का विरोध किये बग़ैर, शोषक-शासक वर्गों व उनकी सत्ता द्वारा दमन-उत्पीड़न की हर घटना पर आवाज़ उठाये बग़ैर, और हर जगह दमित व शोषित लोगों के साथ खड़े हुए बग़ैर, सर्वहारा वर्ग समूची मेहनतकश जनता की अगुवाई करने और उसका हिरावल बनने की क्षमता अर्जित नहीं कर सकता है।

फ़ासीवाद को परास्त करने के लिए सर्वहारा रणनीति पर कुछ ज़रूरी बातें

चूँकि आर्थिक संकट जारी है, लिहाज़ा भारत में समूचे पूँजीपति वर्ग के बहुलांश का मोदी-शाह की सत्ता, भाजपा और संघ परिवार के साम्प्रदायिक फ़ासीवाद को खुला समर्थन जारी है। क्योंकि उन्हें एक “मज़बूत नेता” की ज़रूरत है, जो मज़बूती से पूँजीपतियों यानी मालिकों, ठेकेदारों, बिचौलियों, दलालों, धनी कुलकों व पूँजीवादी फार्मरों, समृद्ध दुकानदारों, बिल्डरों आदि के हितों की रखवाली करने के लिए आम मेहनतकश जनता पर लाठियाँ, गोलियाँ चलवा सके, उन्हें जेलों में डाल सके और इस सारे कुकर्म को “राष्ट्रवाद”, “धर्म”, “कर्तव्य”, “सदाचार” और “संस्कार” की लफ़्फ़ाज़ियों और बकवास से ढँक सके। बाकी, भाजपाइयों व संघियों के “चाल, चेहरा, चरित्र” से तो समझदार लोग वाक़िफ़ हैं ही और जो नहीं हैं वह पिछले 9 सालों में लगातार राफ़ेल घोटाले, पीएम केयर फ़ण्ड घोटाले, भाजपाइयों द्वारा किये गये बलात्कारों, अडानी-हिण्डनबर्ग मसले और व्यापम घोटाले जैसी घटनाओं में देखते ही रहे हैं। “राष्ट्रवादी शुचिता, संस्कार और कर्तव्य” की भाजपाइयों और संघियों ने विशेषकर पिछले 9 सालों में तो मिसाल ही क़ायम कर दी है!

बजट 2023-24 : मोदी सरकार की पूँजीपरस्ती का बेशर्म दस्तावेज़

इस साल के बजट का एक संक्षिप्त विश्लेषण या उस पर एक सरसरी निगाह ही इस बात को दिखला देती है कि मोदी सरकार की प्राथमिकताएँ एक पूँजीवादी सरकार और विशेष तौर पर नवउदारवाद के दौर की फ़ासीवादी सरकार के तौर पर क्या हैं। नवउदारवाद के पूरे दौर में और विशेष तौर पर मोदी सरकार के दौर में भारत के पूँजीवादी विकास की पूरी कहानी वास्तव में मज़दूर वर्ग और व्यापक मेहनतकश आबादी की औसत मज़दूरी को कम करने पर आधारित है।