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बजट 2023-24 : मोदी सरकार की पूँजीपरस्ती का बेशर्म दस्तावेज़

इस साल के बजट का एक संक्षिप्त विश्लेषण या उस पर एक सरसरी निगाह ही इस बात को दिखला देती है कि मोदी सरकार की प्राथमिकताएँ एक पूँजीवादी सरकार और विशेष तौर पर नवउदारवाद के दौर की फ़ासीवादी सरकार के तौर पर क्या हैं। नवउदारवाद के पूरे दौर में और विशेष तौर पर मोदी सरकार के दौर में भारत के पूँजीवादी विकास की पूरी कहानी वास्तव में मज़दूर वर्ग और व्यापक मेहनतकश आबादी की औसत मज़दूरी को कम करने पर आधारित है।

नये साल में मज़दूर वर्ग के समक्ष प्रमुख चुनौतियाँ क्या हैं?

इस सदी का एक और साल बीत गया। बिना तैयारी के लगाये गये लॉकडाउन, लचर स्वास्थ्य व्यवस्था तथा सरकार के ग़रीब-विरोधी रुख़ के चलते कोविड की दूसरी लहर में आम मेहनतकश जनता ने अकल्पनीय दुख-तकलीफ़ें झेलीं। लॉकडाउन के बाद सामान्य दौर में भी मज़दूरों के जीवन में कोई बेहतरी नहीं हुई है। असल में आर्थिक संकट से जूझती अर्थव्यवस्था में मज़दूरों को कोविड के बाद कम वेतन पर तथा अधिक वर्कलोड पर काम करने पर पूँजीपति वर्ग ने मजबूर किया है। लॉकडाउन व कोविड महामारी की आपदा को देश के धन्नासेठों ने अपने सरगना नरेन्द्र मोदी के निर्देश पर अच्छी तरह से “अवसर” में तब्दील किया है!

आम मेहनतकश जनता का ख़तरनाक और धोखेबाज़ दुश्मन है अरविन्द केजरीवाल और ‘आम आदमी पार्टी’

आज से क़रीब एक दशक से भी ज़्यादा वक़्त पहले सदाचार की डुगडुगी बजाते हुए अण्णा हज़ारे के नेतृत्व में ‘इण्डिया अगेंस्ट करप्शन’ का मजमा दिल्ली में एकत्र हुआ था। इस शंकर की बारात में किरण बेदी जैसे जोकरों के साथ योगेन्द्र यादव, प्रशान्त भूषण व शान्ति भूषण जैसे घाघ समाजवादी व सुधारवादी तथा अरविन्द केजरीवाल व मनीष सिसोदिया जैसे अवसरवादी और लोकरंजकतावादी दक्षिणपन्थी और साथ ही स्वामी रामदेव जैसे मक्कार ठग बाबा इकट्ठा हुए थे।

अक्टूबर क्रान्ति की स्मृति और विरासत का आज हम मज़दूरों-मेहनतकशों के लिए क्या अर्थ है?

रूसी कैलेण्डर के अनुसार, 1917 के अक्टूबर महीने में रूस के सर्वहारा वर्ग ने अपनी कम्युनिस्ट पार्टी, जिसका नाम बोल्शेविक पार्टी था, की अगुवाई में पूँजीपतियों और पूँजीवादी ज़मीन्दारों की सत्ता को एक क्रान्ति के ज़रिए उखाड़ फेंका और मज़दूर राज की स्थापना की। हमारे कैलेण्डर के अनुसार, यह महान घटना 7 नवम्बर 1917 को हुई थी। इस मज़दूर राज के पहले व्यवस्थित प्रयोग का जीवन 36 वर्षों तक चला। उसके बाद पूँजीपति वर्ग ने मज़दूर वर्ग की सत्ता को गिराकर पूँजीवादी व्यवस्था की पुनर्स्थापना कर दी। यह कोई अनोखी बात नहीं थी। जब पूँजीपति वर्ग ने सामन्ती ज़मीन्दारों, राजे-रजवाड़ों और चर्च की सत्ता को दुनिया में पहली बार ज़मीन्दोज़ किया था तो उसकी सत्ता तो एक दशक भी मुश्किल से चली थी।

सिर्फ़ एक धर्म विशेष क्यों, हर धर्म के धार्मिक कट्टरपन्थी अतिवादी संगठनों पर रोक क्यों नहीं?

लेकिन यहाँ एक और अहम सवाल है। क्या पीएफ़आई देश में एकमात्र धार्मिक कट्टरपन्थी और आतंकवादी संगठन है? क्या केवल पीएफ़आई है जो जनता के बीच धार्मिक व साम्प्रदायिक कट्टरपन्थ और दक्षिणपन्थी अतिवादी सोच का प्रचार-प्रसार कर रहा है? सच तो यह है कि हमारे देश में जनता की एकता को हर प्रकार के धार्मिक कट्टरपन्थी और दक्षिणपन्थी साम्प्रदायिक अतिवाद से ख़तरा है और पीएफ़आई ऐसा अकेला संगठन नहीं है जो इस प्रकार की प्रतिक्रियावादी और जनविरोधी विचारधाराओं के प्रचार-प्रसार और अतिवादी गतिविधियों में लगा रहा है। यहाँ तक कि पीएफ़आई को इस मामले में सबसे बड़ा ख़तरा भी नहीं कहा जा सकता है।

बेरोज़गारी की विकराल स्थिति

आज हमारे देश में बेरोज़गारी की जो हालत है, वह कई मायने में अभूतपूर्व है। मोदी सरकार की पूँजीपरस्त नीतियों की क़ीमत देश की मेहनतकश जनता कमरतोड़ महँगाई और विकराल बेरोज़गारी के रूप में चुका रही है। इन दोनों का नतीजा है कि हमारे देश में विशेष तौर पर पिछले आठ वर्षों में ग़रीबी में भी ज़बर्दस्त बढ़ोत्तरी हुई है। हम मेहनतकश लोग जानते हैं कि जब भी बेरोज़गारी, महँगाई और ग़रीबी का क़हर बरपा होता है, तो उसका ख़ामियाज़ा भुगतने वाले सबसे पहले हम लोग ही होते हैं। क्योंकि पूँजीपति और अमीर वर्ग अपने मुनाफ़े की हवस से पैदा होने वाले आर्थिक संकट का बोझ भी हमारे ऊपर ही डाल देते हैं।

जनवादी व नागरिक अधिकारों के लिए जुझारू जनान्दोलन खड़ा करो!

हम ‘मज़दूर बिगुल’ के पन्नों पर मोदी के सत्ता में आने के पहले से ही बार-बार यह लिखते रहे हैं कि आज के दौर के फ़ासीवाद की ख़ासियत यह है कि यह नात्सी पार्टी व हिटलर तथा फ़ासिस्ट पार्टी व मुसोलिनी के समान बहुदलीय संसदीय बुर्जुआ जनतंत्र को भंग नहीं करेगा। आम तौर पर, यह बुर्जुआ चुनावों को बरक़रार रखेगा, संसदों और विधानसभाओं को बरक़रार रखेगा व काग़ज़ी तौर पर बहुतेरे जनवादी-नागरिक अधिकारों को भी औपचारिक तौर पर बनाये रखेगा। लेकिन पूँजीवादी जनवाद का केवल खोल ही बचेगा और उसके अन्दर का माल-मत्ता नष्ट हो जायेगा। आज हमारे देश में यही हो रहा है।

भाजपा के “राष्ट्रवाद” और देशप्रेम की खुलती पोल : अब मज़दूरों-किसानों के बेटे-बेटियों को पूँजीपति वर्ग के “राष्ट्र” की “रक्षा” भी ठेके पर करनी होगी!

‘अग्निपथ’ वास्तव में सैनिक व अर्द्धसैनिक बलों में रोज़गार को ठेका प्रथा के मातहत ला रही है। यह एक प्रकार से ‘फ़िक्स्ड टर्म कॉण्ट्रैक्ट’ जैसी व्यवस्था है, जिससे हम मज़दूर पहले ही परिचित हो चुके हैं और जिसके मातहत एक निश्चित समय के लिए आपको काम पर रखा जाता है, और फिर आपको दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकालकर फेंक दिया जाता है। पहले मज़दूरों की बारी आयी थी, अब सैनिकों की बारी आयी है। जैसा कि एक कवि पास्टर निमोलर ने कहा था, फ़ासीवादी देशप्रेम और “राष्ट्रवाद” की ढपली बजाते हुए अन्तत: किसी को नहीं छोड़ते!

बढ़ती महँगाई का असली कारण

अपनी सरकार के आठ साल बीतते-बीतते आखिरकार नरेन्द्र मोदी ने देश की जनता को “अच्छे दिन” दिखला ही दिये! थोक महँगाई दर मई 2022 में 15.08 प्रतिशत पहुँच चुकी थी और खुदरा महँगाई दर इसी दौर में 7.8 प्रतिशत पहुँच चुकी थी। थोक कीमतों का सूचकांक उत्पादन के स्थान पर थोक में होने वाली ख़रीद की दरों से तय होता है, जबकि खुदरा कीमतों का सूचकांक महँगाई की अपेक्षाकृत वास्तविक तस्वीर पेश करता है, यानी वे कीमतें जिन पर हम आम तौर पर बाज़ार में अपने ज़रूरत के सामान ख़रीदते हैं। बढ़ते थोक व खुदरा कीमत सूचकांक का नतीजा यह है कि मई 2021 से मई 2022 के बीच ही आटा की कीमत में 13 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है।

मई दिवस को मज़दूर वर्ग के जुझारू संघर्ष की नयी शुरुआत का मौक़ा बनाओ!

मई दिवस का नाम हम सभी जानते हैं। हममें से कुछ हैं जो 1 मई, यानी मज़दूर दिवस या मई दिवस, के पीछे मौजूद गौरवशाली इतिहास से भी परिचित हैं। लेकिन कई ऐसे भी हैं, जो कि इस इतिहास से परिचित नहीं हैं। यह भी एक त्रासदी है कि हम मज़दूर अपने ही तेजस्वी पुरखों के महान संघर्षों और क़ुर्बानियों से नावाकि़फ़ हैं। जो मई दिवस की महान अन्तरराष्ट्रीय विरासत से परिचित हैं, वे भी आज इसे एक रस्मअदायगी क़वायदों में डूबता देख रहे हैं। कहीं न कहीं हमारे जीवन की तकलीफ़ों में हम भी जाने-अनजाने इसे रस्मअदायगी ही मान चुके हैं। यह मज़दूर वर्ग के लिए बहुत ख़तरनाक बात है। क्यों?