मेरे क्रोध की लपटें
एक फ़िलिस्तीनी स्त्री
(अनुवाद : वीणा शिवपुरी)
तुमने मुझे बाँधा है
जकड़ा है ज़ंजीरों में
पर लपटें मेरे क्रोध की
धधकती हैं, लपकती हैं।
नहीं कोई आग इतनी तीखी
क्योंकि मेरी पीड़ा के ईंधन से
ये जीती हैं, पनपती हैं।
आग को ठण्डाने के लिए
हँस सकती हूँ मैं भी
उन लोगों की ताक़त पर
हैं नहीं जो इंसान
कहलाने के काबिल भी।
शरीर बाँध सकते हो,
बेड़ियों से, जंज़ीरों से
शब्दों को बन्दी बनाना नहीं मुमकिन
वो तो उड़ जायेंगे
मुक्त पंछियों से।
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