आरक्षण आन्दोलन, रोज़गार की लड़ाई और वर्ग चेतना का सवाल

अरविन्द राठी

हरियाणा में आरक्षण का मुद्दा एक बार फिर से गरमाया हुआ है। इसे लेकर फ़रवरी माह में जाटों की क़रीब दो सप्ताह तक शासन-प्रशासन और अन्य जात-बिरादरियों के साथ झगड़ा-फसाद होता रहा। इस दौरान हुई हिंसा, आगज़नी और तोड़फोड़ की घटनाओं ने पूरे हरियाणा को हिलाकर रख दिया। यही नहीं इस पूरे दौर में हरियाणा के समाज में जातिवाद की दुर्गन्ध एक बार फिर से वातावरण में छा गयी या कहें कि सतह पर आ गयी। आन्दोलन के शुरुआती दिनों से ही प्रशासन किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति में दिखाई दिया, प्रशासनिक लकवे की इस हालत में लम्पट तत्वों (तमाम जातियों के) को भी ‘खुलकर खेलने’ का यानी लूटपाट और उत्पात मचाने का पूरा-पूरा मौका मिला। एक-दूसरे समुदाय की दुकानों, धर्मशालाओं और घरों को लूटने और फूँकने के लिए निशाना बनाया गया। स्वयम्भू जातीय नेताओं की करतूतों का फल आम ग़रीब आबादी को भुगतना पड़ा। सामने वाले की नज़रों में अपराधी होने के लिए ‘अन्य जाति’ का होना ही पर्याप्त था और बन्द दुकानों के साइनबोर्डों को देख-देख कर लूटने और फूँकने हेतु चुना जा रहा था। ज़ाहिरा तौर पर इस जातीय हिंसा में जाट आबादी को अपने आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक पहुँच और संख्याबल के कारण इक्कीस पड़ना ही था। तोड़फोड़-आगज़नी और लूटपाट के कारण निजी और सार्वजनिक सम्पत्ति का नुक्सान तो हुआ ही इसके अलावा 32 लोगों की मौत हुई और 200 से ज़्यादा घायल हो गये। सबसे ख़तरनाक चीज़ यह हुई कि 35 बिरादरी बनाम एक बिरादरी के नाम पर मेहनतकश आम जनता के बीच की फूट और बढ़ गयी।  पहले ही स्थिति कोई बेहतर नहीं थी अब तो आपसी फूट और भी गहरा गयी है जिसे दूर होने में लम्बा वक़्त लग सकता है।

jat-bus-fire-480हरियाणा में लोगों का गुस्सा सरकारी मशीनरी और व्यवस्था के ख़िलाफ़ भी खूब निकला। लोगों द्वारा सड़क और रेल तो रोकी ही गयी इसके साथ-साथ नेताओं की कोठियों पर हमले किये गये, काफ़ी जगहों पर थानों को फूँक दिया गया, परिवहन की बसों को आग लगा दी गयी, टोल टैक्स प्लाजों को जला दिया गया और तो और सोनीपत के पास मुनक नामक जागह पर राजधानी में जाने वाली नहर के पानी को भी रोक दिया गया। बेशक इन चीज़ों को उचित नहीं ठहराया जा सकता और न ही इनकी तरफ़दारी किसी भी रूप में जायज़ है लेकिन यह बात भी नहीं भूलनी चाहिए कि इस पूरे घटनाक्रम की ज़िम्मेदारी से शासन-सत्ता भी बच नहीं सकते। हरियाणा की भाजपा सरकार की स्थिति भी चुनावी वायदों को पूरा करने में वही ‘ढाक के तीन पात’ वाली रही है। नौकरी देना तो दूर उल्टा कई भर्तियों को रद्द ही कर दिया गया। 2,852 कम्प्यूटर शिक्षा से जुड़े अध्यापकों और सहायकों को पक्का नहीं किया गया, 9,455 जे.बी.टी. अध्यापकों को नियुक्ति पत्र नहीं दिया गया, 8,857 हरियाणा पुलिस के जवानों की भर्ती को रद्द कर दिया गया। क़रीब 16,000 अतिथि अध्यापकों के मसले पर कहाँ तो भाजपा के दिग्गज लैटर हेड पर लिखित में वायदा लिये हुए घूम रहे थे और अब इस मामले पर ‘कान तक नहीं हिला रहे हैं’, और तो और अपनी माँगों के लिए प्रदर्शन कर रहे अतिथि अध्यापकों और अध्यापिकाओं को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा भी गया। बेरोज़गारों को दिये जाने वाले 6,000 रुपये (12वीं पास को) और 9,000 रुपये (बी.ए. पास को) के बेरोज़गारी भत्ते के मुद्दे पर भी भाजपा ने ‘एक चुप सौ सुख’ वाली नीति ही अपना रखी है। दूसरी ओर 35 बिरादरी बनाम एक बिरादरी के मुद्दे पर भाजपा के नेताओं ने जनता को खूब बाँटने का काम किया। राजकुमार सैनी तो ओ.बी.सी. ब्रिगेड खड़ी करने तक की बात कर रहे थे जो उनके अनुसार तथाकथित जाट आन्दोलनकारियों से सड़क पर लोहा लेती और भाजपा के ही कुछ जाट नेता-मंत्री जाट आरक्षण के समर्थन में भी गाहे-बगाहे बयानबाज़ी करते रहते थे। इसमें कोई शक नहीं है कि आरक्षण की आग के पीछे वोट बैंक की राजनीति भी काम कर रही थी जिसका कि विपक्षी पार्टियों को सीधे-सीधे चुनावी फ़ायदा होने की उम्मीद थी किन्तु स्वयं भाजपा भी हिंसा और लूटपाट के ताण्डव के लिए सीधे तौर पर ज़िम्मेदार है। धर्म और जाति के नाम पर लोगों को लड़ाना संघ परिवार का पुराना शगल रहा है।

Jat-Reservation-1एक तो वोटों की फ़सल काटने के लिए और दूसरा आम मेहनतकश जनता की वर्ग चेतना की धार को भोथरी करने के लिए धर्म, जाति, क्षेत्र, रंग, नस्ल आदि का इस्तेमाल एक आज़मूदा नुस्खा है। यदि हरियाणा का ही उदाहरण लें तो यह बात एकदम साफ़ हो जाती है। जाट आरक्षण की बात नहीं करें तो हरियाणा के तमाम पार्टियों के जाट नेता और खापों के स्वयम्भू चौधरी खुद को बेरोज़गार पाते हैं और राजकुमार सैनी जैसों की ओबीसी वोटबैंक की दुकानदारी तो कायम ही अन्य जातियों के प्रति गाली-गलौच की एक विशिष्ट शैली अपनाने के कारण है।

किसी को भी मौजूदा मुनाफ़ा केन्द्रित पूँजीवादी व्यवस्था पर तो सवाल उठाना नहीं है क्योंकि इन्होंने यदि ऐसा कर दिया तो फिर इन्हें कौन पूछेगा? सरकारों के द्वारा जब शिक्षा को महँगा किया जाता है व इसे आम जनता की पहुँच से लगातार दूर किया जाता है और जब सार्वजनिक क्षेत्र (‘पब्लिक सेक्टर’) की नौकरियों में कटौती करके हर चीज़ का ठेकाकरण किया जाता है तब जातीय ठेकेदार चूं तक नहीं करते! ‘रोज़गार ही नहीं होंगे तो आरक्षण मिल भी जायेगा तो होगा क्या?’ यह छोटी सी और सीधी-सच्ची बात भूल से भी यदि इनके मुँह से निकल गयी तो इन सभी की प्रासंगिकता ही ख़त्म हो जायेगी इस बात को ये घाघ भलीभान्ति जानते हैं।

आरक्षण को लेकर हुआ इस तरह का हिंसा और सर फुटव्वल का मामला कोई पहला मामला नहीं है। जनवरी माह के अन्तिम दिनों में आन्ध्रप्रदेश के कापु समुदाय के लोग भी आरक्षण के लिए खासा हिंसक आन्दोलन कर चुके हैं। अगस्त 2015 में गुजरात में पटेल समुदाय के लोग भी आरक्षण के मुद्दे पर सड़कों पर थे और इस दौरान भी खूब उत्पात मचा। राजस्थान के गुज्जर भी आरक्षण की ‘लड़ाई’ में अपने हाथ आजमा चुके हैं। आरक्षण को लेकर उक्त तमाम आन्दोलनों में एक चीज़ जो आम तौर पर दिखायी देती है वह यह है कि ये तमाम जातीय समूह पिछड़ा वर्ग और अन्य पिछड़ा वर्ग के तहत शिक्षा और खासकर रोज़गार के मामलों में अवसरों की बढ़ोत्तरी के लिए एड़ी-चौटी तक का जौर लगाये हुए थे। एक बात और जो कि गौरतलब है वह यह है कि इनमें से अधिकतर जातियाँ ज़मीन के मालिक किसानों की जातियाँ रही हैं। सम्पूर्णता में अन्य जातियों के साथ तुलना में इनका आर्थिक-सामाजिक रुतबा और राजनीतिक पहुँच खासी मज़बूत रही है और ज़मीन को लेकर दलित जातियों के साथ इनके झगड़ों-टण्टों में इनकी स्थिति आम तौर पर उत्पीड़क की ही रही है। लेकिन सिर्फ़ जातीय आधार पर तुलना करके काम नहीं चल सकता क्योंकि अगर जातियों की भीतरी संरचना पर थोड़ा भी गौर किया जाये तो पता चलेगा कि जाति कोई एकाश्मी चीज़ नहीं है बल्कि इसके अन्दर भी अमीरी-ग़रीबी है, शोषक और शोषित हैं। हर जाति में थोड़े से लोगों का भविष्य तो सुरक्षित है लेकिन बहुसंख्यक आबादी के हालात बेहद खस्ता हैं। आज के रोज़गार विहीन विकास के दौर में सरकारें खुल्लम-खुल्ला ‘पूँजीपतियों की प्रबन्धकारिणी समिति’ होने का अपना किरदार बखूबी निभा रही हैं। तमाम जातियों की बहुसंख्यक आबादी सस्ती शिक्षा और रोज़गार से महरूम है तथा ग़रीबी, भुखमरी, कुपोषण से परेशान है। ऐसे में व्यवस्था का भला इसी बात में है कि लोग उस पर सवाल न उठायें और आपस में ही उलझे रहें व एक-दूसरे को ही दुश्मन मानते रहें, तमाम जातीय ठेकेदार आरक्षण जैसे मुद्दों को लगातार हवा देकर व्यवस्था की चौकसी ही कर रहे हैं। बहरहाल हम अपनी चर्चा में आरक्षण के लिए हरियाणा में हुए जाट आन्दोलन के विभिन्न पहलुओं पर बात करेंगे और कुछ आम निष्कर्षों तक पहुँचने का प्रयास करेंगे।

हरियाणा के इतिहास में (यानी 1 नवम्बर 1966 से जबसे हरियाणा प्रदेश बना) इतने बड़े पैमाने पर हिंसा और जातीय विद्वेष पहले कभी नहीं हुआ। अब चूँकि ऊपर से मामला शान्त हुआ लग रहा है तो इस पूरे प्रकरण को लेकर एक-दूसरे समुदाय पर घोर जातीय नज़रिये से आरोप-प्रत्यारोप लगने शुरू हो चुके हैं। गैर जाट इसके लिए केवल जाटों को ज़िम्मेदार ठहराने पर तुले हैं और उनकी तुलना राक्षसों तक से की जा रही है वहीं जाट इसे अपने प्रति राजनीतिक साज़ि‍श करार दे रहे हैं और अन्य पर आरोप लगा रहे हैं कि हिंसा असल में जाटों के नाम पर अन्य जातियों के लोगों ने की है। चुनावी नेता तो हर बार की तरह तू नंगा-तू नंगा के खेल में लगे ही हैं। बुद्धिजीवियों की अलग-अलग राय प्रकट हो रही हैं; कुछ इसे कृषि संकट से उपजी समस्या बता रहे हैं; कुछ का कहना है कि इसके लिए जातीय राजनीति ज़िम्मेदार है और कुछ इतने हतप्रभ रह गये हैं कि अभी तक उक्त घटना (‘दुर्घटना’) से स्वयं उबर नहीं पाये हैं और ”जातीय भाईचारे” की मानवतावादी दलीलें दिये जा रहे हैं। इस पूरे प्रकरण पर मुख्य अन्तरविरोध को पकड़ने और समस्या की असली जड़ तक कम ही लोगों का ध्यान जा रहा है। इस सबके बीच पूँजीवादी व्यवस्था और जाति को वोट बैंक के लिए इस्तेमाल करने की गलीज़ पूँजीवादी राजनीति दामन पर चन्द दागों को लेकर साफ़ बच निकलती प्रतीत हो रही हैं। हरियाणा का रोहतक शहर हिंसा का सबसे प्रमुख केन्द्र रहा था लेकिन यह भी ज्ञात होना चाहिये की यहाँ एकाधिक संसदीय वामपन्थी पार्टियों के बड़े-बड़े कार्यालय भी हैं जो कि लम्बे समय से यहाँ ‘कार्यरत’ हैं। एक अपनी सबसे बड़ी मज़दूर ट्रेड यूनियन होने का दम भरती है और दूसरी खुद को देश की एक मात्र कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी पार्टी बताती है लेकिन लोगों को वर्ग सचेत बनाने की बजाय लगता है इन्होंने अपना पूरा ध्यान चुनावी चेतना पैदा करने में ही खर्च कर दिया और खेद की बात है इस मामले में भी ये संसदीय, लाल मिर्ची खाने वाले तोते कोई मैदान नहीं मार पाये।

आज पूरे देश के स्तर पर उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों को बढ़ावा दिया जा रहा है। संसदीय वाम पार्टियों समेत सभी चुनावी पार्टियों की इन नीतियों से पूरी सहमति है; विरोध की नौटंकी केवल विपक्ष में बैठकर ही की जाती है। ऐसे हालात में रोज़गार बढ़ना तो दूर उल्टा 2 प्रतिशत की दर से घट ही रहे हैं। इस स्थिति को रोज़गार विहीन विकास की संज्ञा से नवाज़ा जा रहा है। 2013 के श्रम और रोज़गार मंत्रालय के ही आँकड़ों के मुताबिक देश में 15-24, 18-29 और 15-29 साल के युवाओं के बीच बेरोज़गारी की अनुमानित दर क्रमशः 18.1,13.0 और 13.3 थी। वहीं 15-29 साल के स्नातक (‘बी.ए. पास’) युवाओं के बेरोज़गारी के आँकड़े और भी भयावह थे जो ग्रामीण क्षेत्रों में 36.4 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों में 26.5 प्रतिशत अनुमानित किये गये थे। देश में एक-एक भर्ती के पीछे हज़ारों की भीड़ होती है। पिछले दिनों उत्तर प्रदेश की घटना से बेरोज़गारी के आलम का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है जब चपरासी के कुल 368 पदों के लिए 23 लाख से भी अधिक आवेदन पहुँचे थे और अब यह भी हैरानी की बात नहीं होनी चाहिए कि उक्त आवेदनों में से बी.ए., एम.ए., एम.फिल., इन्जीनियरिंग और पीएच.डी. तक किये हुए नौजवान भी बड़ी संख्या में थे। हरियाणा की अगर बात की जाये तो यहाँ बेरोज़गारी में भयंकर बढ़ोत्तरी हुई है। 1966 में हरियाणा के रोज़गार दफ़्तर में 36,522 लोगों के नाम दर्ज थे जबकि 2009 में यह आँकड़ा बढ़कर 9,60,145 हो गया। यह बात भी सहज ही समझी जा सकती है कि इन रोज़गार कार्यालयों (असल में बेरोज़गार कार्यालयों) में वास्तविक संख्या से बेहद कम ही लोग नाम दर्ज कराते हैं क्योंकि उन्हें भली प्रकार से इस बात का पता है कि इससे कुछ होने-जाने वाला नहीं है।

रोज़गार हासिल करने की दुर्दम्य आपाधापी के बीच आरक्षण जैसे मुद्दे तनाव को बढ़ाने में आग में घी का काम करते हैं। अपेक्षाकृत कम अंक (‘मैरिट’) के बावजूद जब किसी आरक्षित अभ्यार्थी को नौकरी मिल जाती है तो दूसरों को लगता है कि उनके रोज़गार छीनने वाले इसी श्रेणी के उम्मीदवार या विशिष्ट जातियों से आने वाले लोग ही हैं तथा आरक्षित श्रेणी वालों को लगता है कि आरक्षण के लिए कमर कसे हुए लोग दरअसल उनके रोज़गार पर डाका डालने के लिए कमर कसे हुए हैं। यह कोई नहीं सोच पाता कि बेरोज़गारी के असल कारण क्या हैं। जातियाँ एक दूसरे के ख़िलाफ़ दुश्मन के तौर पर खड़ी कर दी जाती हैं। मध्ययुगीन मूल्य-मान्यताओं, घोर जातिवादी नज़रिये के कारण यह भी कोई नहीं सोच पाता कि कितने पद तो आरक्षित श्रेणियों के बीच के भी खाली पड़े रह जाते हैं क्योंकि दलित और पिछड़ी जातियों का बड़ा हिस्सा शिक्षा और रोज़गार की दौड़ में पहले ही पिछड़ा हुआ है। 2007-08 के ही एक आँकड़े के अनुसार कुल युवा आबादी में से केवल 7 फ़ीसदी ही उच्च शिक्षा तक पहुँच पाते हैं। दूसरी और पारम्परिक तौर पर कृषि से जुड़ी जातियों की बड़ी आबादी की कृषि के प्रति स्थिति साँप-छछून्दर वाली हो गयी है। ये खेती को छोड़ें तो तो सामने बेरोज़गारी का दानव और करें तो भी गुज़ारा नहीं। 2005-06 की कृषि गणना के अनुसार ही हरियाणा में 67 प्रतिशत भूमि मालिकों के पास 2 हेक्टेयर से कम भूमि थी और 47.67 प्रतिशत के पास तो एक हेक्टेयर से भी कम कृषि भूमि थी। पशुपालन पर आश्रित लोगों की अर्थव्यवस्था भी सामूहिक चरागाहों के ख़त्म होते जाने के कारण संकट में है। कुल मिलाकर छोटे पैमाने की कृषि और पशुपालन दोनों ही घाटे का सौदा हो चुके हैं। तेज़ी से छोटी हो रही जोत और संसाधनों में हो रही सिकुड़न किसान जातियों की इस बड़ी आबादी में असुरक्षा को लगातार बढ़ावा देती है।

जातियों के आपसी संघर्ष के पलीते में चिंगारी देने का काम करते हैं तमाम वोटों के व्यापारी। बेरोज़गारी के इन भयानक हालात में जातियों का रहनुमा बनने वाला न तो कोई चुनावी नेता और न ही कोई खाप का चौधरी अपने मुखारविन्द से बेरोज़गारी के ख़िलाफ़ सरकारों की नीतियों के विरोध में कोई बोल-वचन निकालता है और न ही इन हालात से उनके निजी जीवन में कोई फ़र्क पड़ता है क्योंकि अधिकतर के पास बेशुमार दौलत या ज़मीन-जायदाद है। इनमें से अधिकतर के सपूत-कपूत या तो विदेशों में पढ़ाई करते हैं या फ़िर वोट की राजनीति में ही लगे हुए हैं। आरक्षण के लिए होने वाले जातीय संघर्षों में दो तरह के लोग बड़ी ही आसानी से देखे जा सकते हैं –एक तो कीमती गाड़ियों का इस्तेमाल करने वाले और ऐशो-आराम की ज़िन्दगी जीने वाले बड़े-बड़े पग्गड़धारी और सफ़ेदपोश और दूसरी तरफ़ ट्रैक्टर-ट्रालियों में फरसों, गण्डासों, जेळी, डण्डों और जातीय नफ़रत की आग से लैस ग़रीब किसान आबादी जिसका एक हिस्सा लगातार बढ़ रही बेरोज़गारी और ग़रीबी के संकट के चलते लम्पट भी हो चुका होता है। आरक्षण के टुकड़ों पर लड़ने के लिए और एक-दूसरे का खून बहाने के लिए रह जाते हैं तमाम जातियों के मेहनतकश लोग। स्थिति जब जातीय हिंसा का रूप ले चुकी होती है तो आरक्षण का मुद्दा पीछे हो जाता है और चौधराहट का और एक दूसरे को नीचा दिखाने का मसला आगे आ जाता है, लड़ने वाले बहुत से लोगों को तो यह तक नहीं पता होता कि असल में उनकी माँग क्या है?

आज के समय किसानों-मज़दूरों और आम मेहनतकश जनता को वर्गीय आधार पर भाईचारे की ज़रूरत पर संजीदगी के साथ सोचना होगा क्योंकि यही आज हमारे अस्तित्व की शर्त भी है। आपसी जूतम-पैजार को छोड़कर हम सबके दुश्मन को पहचानना ही होगा। रोज़गार के मसले को लेकर हम ज़रा भी दिमाग पर जोर डालें तो बड़ी आसानी से निचोड़ तक पहुँच सकते हैं यानी सभी को रोज़गार देने के लिए तीन चीज़ों की आवश्यकता होती है: 1. काम करने वाले हाथ, 2. विकास की सम्भावनाएँ, 3. प्राकृतिक संसाधन। इन तीनों चीज़ों का ही हमारे यहाँ पर कोई टोटा नहीं है। करोड़ों लोग बेरोज़गार हैं जिनमें पढ़े लिखों की भी भारी संख्या है, देश की आज़ादी के क़रीब 69 साल बाद भी लोग बुनियादी ज़रूरतों से महरूम हैं जिन्हें पूरा करने के लिए विकास के ढेरों काम करने को पड़े हैं। और न ही हमारी इस शस्य श्यामला और खनिजों से भरपूर, सदानीरा जीवनदायिनी नदियों से युक्त धरती पर प्राकृतिक संसाधनों की ही कमी है। बस दिक्कत एक चीज़ की है और वो है मौजूदा व्यवस्था का निजी मुनाफ़े पर आधारित होना। इस व्‍यवस्‍था में विकास का मतलब लोगों की ज़रूरतें पूरी करना और सभी को सम्‍मानजनक रोज़गार देना नहीं है बल्कि मुट्ठीभर अमीरों के लिए मुनाफ़ा पैदा करना है। यहाँ पर ”सम्‍पत्ति का अधिकार” को तो मौलिक अधिकार का दर्जा मिला हुआ है लेकिन रोज़गार मौलिक अधिकार नहीं माना जाता। सरकारें सीधे तौर पर बड़े-बड़े धन्नासेठों की सेवा में ही काम करती हैं और लोगों को धर्म, जाति, रंग, नस्ल आदि के नाम पर बाँट दिया जाता है। इस तरह के तमाम झगड़ों और हिंसा की वारदातों से मेहनतकश जनता को कुछ मिलना तो दूर उल्टा उससे छिन ज़रूर जाता है। असल सवाल तो पूरी व्यवस्था में ही आमूलचूल बदलाव करके एक शोषण विहीन समाज के निर्माण का है। बेशक यह मंज़ि‍ल दूर है, रास्ता लम्बा है और व्यापक वर्गीय लामबन्दी की माँग करता है लेकिन मेहनतकश जनता की मुक्ति इसी रास्ते से सम्भव है। लेकिन तब तक हाथ पर हाथ धरने से काम नहीं चलेगा बल्कि रोज़गार, शिक्षा, बिजली, पानी, स्वास्‍थ्‍य आदि जैसी समस्याओं को एकजुटता के साथ उठाना होगा जो किसी एक जाति या धर्म की नहीं बल्कि सभी की समस्याएँ हैं। जातिवाद की दीवारें न तो ‘भाईचारा टूट गया’ कहकर स्‍यापा करने से ढहेंगी और न ही 36 बिरादरी की एकता कायम करने की मानवतावादी-भावनात्मक अपील से इन जाति की दीवारों को कमज़ोर किया जा सकता है। तमाम जातियों के लोगों की एकता साझा मुद्दों के आधार पर ही कायम हो सकती है यह सीधी सी बात हमें गाँठ बाँध लेनी चाहिए। हरियाणा के इतिहास में जब भी लोग साझे संघर्षों के लिए लड़े थे तो उनके मुद्दे भी साझा ही थे चाहे वह समय सल्तनत काल का रहा हो, चाहे फिर मुग़ल काल का किसान विद्रोहों का समय रहा हो या फिर 1857 से लेकर 1947 तक ओपनिवेशिक गुलामी के ख़िलाफ़ हरियाणा की जनता का साझा संघर्ष हो। ज़ाहिर सी बात है साझा संघर्षों के दौरों में ही जातीय बेड़ियाँ भी कमज़ोर होती हैं। वर्ना तो 36 बिरादरियों का भाईचारा एक मिथक से अधिक कुछ नहीं है। असल में इन बिरादरियों में इतना ही भाईचारा और प्यार-प्रेम रहा होता तो वे 36 बिरादरी की बजाय एक ही बिरादरी नहीं होतीं? बेशक जातिवाद की मानसिकता को भी संघर्ष की प्रक्रिया में ही तोड़ा और कमज़ोर किया जा सकता है और आपसी मित्रतापूर्ण अन्तरविरोधों को भी आसानी से हल किया जा सकता है।

देश की तरह ही हरियाणा प्रदेश की जनता को भी यह बात समझनी होगी की हर जाति में मुट्ठीभर ऐसी आबादी है जो किसी भी तरह की प्रत्यक्ष उत्पादन की कार्रवाई में भागीदारी नहीं करती केवल पैदावार का बड़ा हिस्सा हड़प लेती है, और बहुसंख्या में ऐसी आबादी है जो अपनी खून-पसीने की मेहनत के बूते देश की हर सम्पदा का सृजन करती है। शोषक जमात के हित मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था के साथ जुड़े होते हैं क्योंकि तमाम संसाधनों पर इनका नियंत्रण होता है जबकि मेहनतकश आवाम को इस व्यवस्था में अपनी हड्डियाँ गलाने के बावजूद केवल बेरोज़गारी, ग़रीबी, मुफ़लिसी और कुपोषण ही नसीब होते हैं। 35 बिरादरी बनाम एक बिरादरी के झगड़े में हमें नहीं पड़ना है क्योंकि असल में किसी भी समाज में दो ही बिरादरी होती हैं एक वो जो खुद मेहनत करती है और अपनी श्रम शक्ति को पूँजी के मालिकों के हाथों बेचने पर मजबूर होती है और दूसरी वह जो दूसरों की मेहनत पर जोंक की तरह पलती है। ग़रीब और मेहनतकश आबादी को वर्गीय आधार पर अपनी एकजुटता क़ायम करनी पड़ेगी। तभी एक ऐसे समाज की लड़ाई सफल हो सकेगी जिसमें हर हाथ को काम और हर व्‍यक्ति को सम्‍मान के साथ जीने का अधिकार मिलेगा।

मज़दूर बिगुल, मार्च-अप्रैल 2016


 

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