स्तालिन के जन्मदिवस (21 दिसम्बर) के अवसर पर
लेनिनवादी पार्टी की मुख्य विशेषताएँ
जोसेफ स्तालिन सर्वहारा वर्ग के महान शिक्षक और नेता थे। स्तालिन ही थे जिनकी अगुवाई में दुनिया में पहली बार सोवियत संघ में उत्पादन के साधनों के समाजीकरण के काम को अंजाम दिया गया। स्तालिन के ही नेतृत्व में सोवियत जनता ने अपने दो करोड़ बेटे–बेटियों की बलि देकर और पूरे देश की भयंकर तबाही सहकर हिटलर की 200 डिवीजनों को धूल चटाई और फासीवाद से दुनिया की रक्षा की। उनके नेतृत्व में समाजवादी निर्माण का काम शानदार ढंग से आगे बढ़ा। समाजवादी संक्रमण की समस्याओं को समझने की शुरुआत करने में स्तालिन से देर हुई और कुछ सैद्धान्तिक गलतियाँ हुर्इं लेकिन समाजवाद के विरुद्ध भितरघातियों, गद्दारों, ढुलमुल तत्वों और साम्राज्यवादी एजेंटों के निरन्तर चलने वाले षड्यन्त्रों से जूझते हुए स्तालिन समाजवाद के निर्माण को आगे बढ़ाते रहे। यही वजह है कि दुनिया भर के साम्राज्यवादी उनके विरुद्ध कुत्सा–प्रचार और झूठ का अंबार खड़ा करने में आज भी जुटे रहते हैं।
यहाँ हम ‘बिगुल’ के पाठकों के लिए स्तालिन की प्रसिद्ध पुस्तक ‘लेनिनवाद के मूल सिद्धान्त’ के पार्टी विषयक अध्याय के प्रमुख अंश प्रस्तुत कर रहे हैं। – सम्पादक
पार्टी
क्रान्ति के पूर्वकालीन, न्यूनाधिक शान्तिपूर्ण विकास वाले युग में मज़दूर आन्दोलन में दूसरे इण्टरनेशनल की पार्टियों का ही बोलबाला था और पार्लियामेंट वाले ढंग ही उस समय संघर्ष के प्रधान साधन माने जाते थे। ऐसी अवस्था में पार्टी का न तो वह महत्व था और न हो सकता था जो उसने आगे चलकर खुले क्रान्तिकारी संघर्षों के युग में ग्रहण किया। दूसरे इण्टरनेशनल पर किये गये आक्षेपों का उत्तर देते हुए काउत्स्की ने कहा है कि उक्त इण्टरनेशनल की पार्टियाँ युद्ध का नहीं बल्कि शान्ति का अस्त्र थीं। इसीलिए युद्ध के काल में, अर्थात सर्वहारा वर्ग के क्रान्तिकारी संघर्ष के काल में, उनकी कोई महत्वपूर्ण भूमिका न हो सकी। काउत्स्की का कहना सही है। किन्तु इसका तात्पर्य क्या है? वह यह है कि दूसरे इण्टरनेशनल से सम्बन्धित पार्टियाँ सर्वहारा वर्ग के क्रान्तिकारी आन्दोलन को चलाने के सर्वथा अयोग्य थीं। वे मज़दूर वर्ग की लड़ाकू पार्टियाँ न थीं जो राजसत्ता पर अधिकार करने के संघर्ष में सर्वहारा वर्ग का नेतृत्व करतीं। बल्कि वे संसदीय चुनावों की और संसदवादी संघर्षों की लड़ाई लड़ने वाली केवल चुनाव समितियाँ थीं। यही कारण है कि जब तक दूसरे इण्टरनेशनल के अवसरवादियों का दौर था तब तक पार्टी नहीं बल्कि उसका संसदीय गुट ही मज़दूर वर्ग का प्रधान राजनीतिक संगठन बना रहा। यह सर्वविदित है कि उन दिनों पार्टी संसदीय गुट का एक पुछल्ला बना दी गई थी और उसी की अधीनता में काम करती थी। कहने की आवश्यकता नहीं कि इन परिस्थितियों में और ऐसी पार्टी की अगुवाई में सर्वहारा वर्ग को क्रान्ति के लिए तैयार करने का प्रश्न भी नहीं उठ सकता था।
किन्तु नये युग के आरम्भ के साथ परिस्थिति में भारी परिवर्तन हो गया है। नया युग खुले वर्ग संघर्षों का युग है; यह सर्वहारा वर्ग के क्रान्तिकारी संघर्षों का और सर्वहारा क्रान्ति का युग है; यह एक ऐसा युग है जिसमें साम्राज्यवाद का उच्छेद करने के लिए तथा राजसत्ता पर सर्वहारा वर्ग का आधिपत्य स्थापित करने के लिए सेना को खुलेआम संगठित किया जा रहा है। इस युग में सर्वहारा वर्ग को सर्वथा नये कार्य करने हैं। पार्टी के समस्त कार्यों को उसे नये और क्रान्तिकारी ढंग से फिर से संगठित करना है। राजसत्ता पर अधिकार करने के लिए मज़दूरों में क्रान्तिकारी संघर्ष की भावना का संचार करना है, अपनी कोतल शक्तियों को समेट कर आगे बढ़ना है तथा पड़ोसी देशों के सर्वहारा वर्ग के साथ और उपनिवेशों व पराधीन देशों के स्वाधीनता आन्दोलनों के साथ उसे सुदृढ़ सम्बन्ध स्थापित करना है। संसदवाद की शान्तिमय परिस्थितियों में पली हुई पुरानी सामाजिक जनवादी पार्टियों से इन नये कर्तव्यों के पूरा होने की आशा करना अपने को घोर निराशा और अनिवार्य पराजय के गर्त में डालना था। इन कर्तव्यों के सामने आ जाने पर भी यदि सर्वहारा वर्ग उन्हीं पुरानी पार्टियों के नेतृत्व को स्वीकार किये रहता तो वह पूरी तरह निरस्त्र बन जाता। कहने की आवश्यकता नहीं कि सर्वहारा वर्ग इस परिस्थति से संतुष्ट नहीं हो सकता था।
इसलिए आवश्यकता पड़ी एक नयी पार्टी की, एक लड़ने वाली और क्रान्तिकारी पार्टी की, एक ऐसी साहसी पार्टी की जो राजसत्ता पर अधिकार करने के संघर्ष में सर्वहारा वर्ग का नेतृत्व कर सके, एक ऐसी अनुभवी पार्टी की जो क्रान्तिकारी परिस्थिति की अत्यन्त जटिल अवस्थाओं में भी अपना विवेक न खोए, एक ऐसी कार्यकुशल पार्टी की जो क्रान्ति के जहाज को पानी के अन्दर छुपी हुई चट्टानों से बचाकर उसको अपने लक्ष्य तक पहुँचा दे।
इस तरह की पार्टी के बिना साम्राज्यवाद का अन्त करने और सर्वहारा अधिनायकत्व की स्थापना करने की बात सोचना भी व्यर्थ होता।
यह नयी पार्टी है लेनिनवाद की पार्टी।
इस नयी पार्टी की मुख्य विशेषताएँ क्या हैं?
यह पार्टी मज़दूर वर्ग का अग्रदल है
पार्टी को सर्वप्रथम मज़दूर वर्ग का अग्रदल (हिरावल दस्ता) होना चाहिए। उसे मज़दूर वर्ग के सर्वोत्तम लोगों को ग्रहण करना चाहिए और उनके अनुभव, उनकी क्रान्तिकारी क्षमता और अपने वर्ग की नि:स्वार्थ सेवा की उनकी भावना का प्रतिनिधित्व करना चाहिए। किन्तु पार्टी वास्तव में अग्रदल तभी बन सकती है जब वह क्रान्तिकारी सिद्धान्त के अस्त्र से लैस हो और उसे आन्दोलन एवं क्रान्ति के नियमों का ज्ञान हो। ऐसा न होने से वह सर्वहारा आन्दोलन का संचालन और सर्वहारा क्रान्ति का नेतृत्व करने में समर्थ न हो सकेगी। मज़दूर वर्ग का आम हिस्सा जो कुछ सोचता और अनुभव करता है, पार्टी का काम अगर उसे ही व्यक्त करने तक सीमित रहा, अगर पार्टी स्वत:स्फूर्त आन्दोलन की पूँछ बनकर उसके पीछे–पीछे घिसटती रही, अगर वह उक्त आन्दोलन की राजनीतिक उदासीनता और जड़ता को दूर करने में समर्थ न हुई, अगर वह मज़दूर वर्ग के क्षणिक हितों के ऊपर न उठ सकी, और अगर वह जनता की चेतना को सर्वहारा के वर्गहितों के धरातल तक पहुँचाने में समर्थ न हुई तो फिर पार्टी एक वास्तविक पार्टी नहीं बन सकती। पार्टी को मज़दूर वर्ग के आगे–आगे चलना चाहिए, मज़दूर वर्ग से बहुत आगे तक देखना चाहिए और उसका नेतृत्व करना चाहिए, उसे स्वत:स्फूर्त आन्दोलन के पीछे–पीछे नहीं चलना चाहिए। “पिछलग्गूपन” का उपदेश देने वाली दूसरे इण्टरनेशनल की पार्टियाँ पूँजीवादी नीति की ही वाहक हैं और सर्वहारा वर्ग को पूँजीपतियों के हाथों की कठपुतली बना देने की कोशिश करती हैं। जो पार्टी सर्वहारा वर्ग के अग्रदल का काम करती हो, जो जनता की चेतना को सर्वहारा के वर्गहितों के धरातल तक पहुँचाने में समर्थ हो, सिर्फ़ वही पार्टी सर्वहारा वर्ग को “मज़दूर सभावाद” के पथ से उबार कर उसे एक स्वतन्त्र राजनीतिक शक्ति में परिणत कर सकती है।
पार्टी मज़दूर वर्ग की राजनीतिक नेता है।
मैंने मज़दूर वर्ग के संघर्ष की कठिनाइयों का उल्लेख किया है। मैंने संघर्ष की कठिन परिस्थतियों का, रणनीति और कार्यनीति का, कोतल शक्तियों के उपयोग और पैंतरेबाजी का तथा आक्रमण और बचाव सम्बन्धी जटिल प्रश्नों का निर्देश किया है। ये परिस्थितियाँ यदि युद्ध की परिस्थितियों से अधिक पेचीदा नहीं तो उनसे कम पेचीदा भी नहीं हैं। इन पेचीदगियों के बीच रास्ता ढूँढ़ निकालने में और करोड़ों मज़दूरों का नेतृत्व करने में कौन समर्थ हो सकता है? युद्ध में लगी हुई कोई भी सेना अपने अनुभवी सेनानायकों के बिना काम नहीं चला सकती; अगर वह ऐसा करे तो निश्चय ही उसकी हार होगी। तब क्या यह स्पष्ट नहीं है कि अपने सेनानायकों के बिना सर्वहारा वर्ग के लिए काम चलाना और भी कठिन है? अगर वह ऐसा करे तो निश्चय ही उसकी भी हार होगी। किन्तु ये सेनानायक कौन हैं? स्पष्ट है कि सर्वहारा वर्ग की क्रान्तिकारी पार्टी ही सेनानायकों का स्थान ले सकती है। क्रान्तिकारी पार्टी के बिना मज़दूर वर्ग की वही हालत होगी जो सेनानायकों के बिना किसी फ़ौज की होती है।
पार्टी सर्वहारा वर्ग का सेनानायक है।
किन्तु पार्टी मज़दूर वर्ग का केवल अग्रदल ही नहीं हो सकती, उसे अपने वर्ग का दस्ता, अपने वर्ग का एक अंग भी होना चाहिए और जीवन के प्रत्येक सूत्र से अपने वर्ग के साथ संबद्ध होना चाहिए, जब तक वर्गों का विलोप नहीं होता तब तक मज़दूर वर्ग और उसके अग्रदल का, पार्टी सदस्यों और साधारण जनता का भी भेद नहीं मिट सकता। यह भेद तब तक बना रहेगा जब तक कि दूसरे वर्गों के लोग मज़दूर श्रेणी में आकर मिलते रहेंगे और जब तक कि पूरे वर्ग की चेतना को अग्रदल की चेतना के धरातल तक पहुँचा देना सम्भव न हो जाएगा। किन्तु अगर यह भेद बढ़कर खाई का रूप धारण कर ले, साधारण जनता से सम्बन्ध तोड़कर पार्टी अपने ही खोल के भीतर सिमट कर बैठी रही, तो फिर पार्टी पार्टी न रह जाएगी। क्योंकि यदि उसका सम्बन्ध अपने से भिन्न जनता से (साधारण जनता से – संपादक) न रहे, यदि साधारण जनता पार्टी का नेतृत्व न स्वीकार करे, यदि जनता के बीच पार्टी की नैतिक और राजनीतिक साख न हो, तो फिर पार्टी अपने वर्ग का नेतृत्व नहीं कर सकती।
हाल ही में मज़दूरों की पाँत में से दो लाख नए सदस्य पार्टी में भर्ती किए गए हैं। इस सम्बन्ध में ध्यान देने की बात यह है कि ये लोग केवल अपने आप ही पार्टी में नहीं सम्मिलित हुए हैं, बल्कि उन्हें ग़ैर–पार्टी मज़दूर जनता ने भेजा है। पार्टी के लिए नए सदस्य चुनने में मज़दूरों ने सक्रिय भाग लिया है। उनके समर्थन के बिना कोई भी नया सदस्य पार्टी में स्वीकृत नहीं किया गया। इससे सिद्ध होता है कि पार्टी में बाहर का, मज़दूरों का विशाल जनसमूह हमारी पार्टी को अपनी पार्टी मानता है, उसे अपनी प्रिय पार्टी समझता है, उसकी प्रगति और संगठन में काफ़ी दिलचस्पी लेता है और उसके हाथों में खुशी–खुशी अपना भाग्य सौंप देता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि ग़ैरपार्टी जनता के साथ पार्टी का सम्बन्ध जोड़ने वाले इन नैतिक सूत्रों के बिना पार्टी अपने वर्ग की निर्णयकारी शक्ति नहीं बन पाती।
पार्टी मज़दूर वर्ग का अभिन्न अंग है।
लेनिन ने कहा है, “हम एक वर्ग की पार्टी हैं, इसलिए लगभग सम्पूर्ण वर्ग को (और युद्ध तथा गृहयुद्ध के समय में सम्पूर्ण वर्ग को) पार्टी के यथासम्भव निकट आकर उसके नेतृत्व में काम करना चाहिए। लेकिन यह समझना कि पूँजीवादी व्यवस्था में सम्पूर्ण वर्ग अथवा लगभग सम्पूर्ण वर्ग कभी भी अपने अग्रदल की, वर्ग सामाजिक जनवादी पार्टी की क्रियाशीलता तथा चेतना के स्तर तक पहुँच सकेगा, पिछलग्गूपन (“ख्वोस्तिज़्म”) और मन बहलाने का एक बहाना भर (मानिलोववाद अर्थात झूठा आत्मसन्तोष) है। किसी भी समझदार सामाजिक जनवादी को इस बात में कभी संदेह नहीं हुआ कि पूँजीवादी व्यवस्था में ट्रेड यूनियन संगठन भी (जो ज़्यादा पिछड़े हुए हैं और पिछड़े मज़दूरों के ज़्यादा नजदीक हैं) सम्पूर्ण अथवा लगभग सम्पूर्ण वर्ग को अपने भीतर नहीं ला सकते। यदि हम अग्रदल और उसकी ओर आकर्षित होने वाले जनसमूह का भेद भूल जाते हैं और उस अग्रदल के इस कर्तव्य को भूल जाते हैं कि वह अधिक से अधिक लोगों को उच्चतम धरातल पर लाने की चेष्टा करे तो हम अपने को धोखा देते हैं, अपने कार्यों की महत्ता को आँखों से ओझल कर देते हैं और अपने कार्यों को अत्यन्त संकुचित बना देते हैं।” (लेनिन, एक क़दम आगे, दो क़दम पीछे, ग्रन्थावली, खण्ड 4, पृ. 205–06)
पार्टी मज़दूर वर्ग का संगठित दस्ता है
पार्टी मज़दूर वर्ग का केवल अग्रदल ही नहीं है। यदि वह अपने वर्ग के संघर्षों का वास्तविक संचालन करना चाहती है तो उसे सर्वहारा का संगठित दस्ता भी होना पड़ेगा, पूँजीवाद की परिस्थितियों में पार्टी के कार्य अत्यन्त गंभीर और विविध हैं। भीतरी और बाहरी विकास की अत्यन्त कठिन परिस्थितियों में उसे सर्वहारा वर्ग के संघर्षों का नेतृत्व करना होगा। जब परिस्थिति आक्रमण के अनुकूल हो तब उसे अपने वर्ग को लेकर चढ़ाई करनी होगी; और जब स्थिति प्रतिकूल हो जाए तो शक्तिशाली दुश्मन के प्रहार से उसे बचाने के लिए अपने वर्ग को पीछे हटा लाना होगा। साथ ही पार्टी के बाहर के करोड़ों असंगठित मज़दूरों को संघर्ष का ढंग और अनुशासन सिखलाना होगा और उनमें संगठन और सहनशीलता की भावना उत्पन्न करनी होगी। पार्टी यह सब काम तभी पूरा कर सकती है जब वह स्वयं संगठन और अनुशासन का आदर्श रूप हो, जब वह स्वयं सर्वहारा वर्ग का संगठित दस्ता हो। पार्टी में अगर ये गुण न हों तो वह करोड़ों सर्वहारा का पथ प्रदर्शन करने की बात भी नहीं सोच सकती।
पार्टी मज़दूर वर्ग का संगठित दस्ता है।
पार्टी नियमावली के पहले अनुच्छेद में ही लेनिन का यह सर्वप्रसिद्ध सिद्धान्त विद्यमान है कि पार्टी को एक संगठित इकाई होना चाहिए। उक्त अनुच्छेद में पार्टी को अपने विभिन्न संगठनों का योगफल माना गया है और कहा गया है कि इनमें से किसी संगठन का सदस्य ही पार्टी का सदस्य हो सकता है। मेंशेविकों ने 1903 में ही लेनिन के इस सिद्धान्त का विरोध किया था और एक संशोधन द्वारा उसकी जगह यह विधान करना चाहा था कि पार्टी में स्वयं भर्ती होने की “व्यवस्था” हो; और ऐसे प्रत्येक “प्रोफ़ेसर” और “हाईस्कूल के विद्यार्थी” को, प्रत्येक “हमदर्द” और “हड़ताली” को पार्टी सदस्यता की “पदवी” दी जाए जो किसी भी तरह से पार्टी का समर्थन करता हो, उनका कहना था कि पार्टी के प्रत्येक सदस्य के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह पार्टी के मातहत किसी न किसी संगठन में काम करता हो या करने के लिए उत्सुक हो। यह प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं है कि यदि पार्टी के अन्दर यह अनोखी “व्यवस्था” प्रतिष्ठित हो जाती तो उसमें प्रोफ़ेसरों और हाईस्कूल के विद्यार्थियों की बाढ़ सी आ जाती और “हमदर्दों” के समुद्र में डूबती–उतराती हमारी पार्टी अपने आदर्श से स्खलित होकर एक ढीला–ढाला, असंगठित और श्रृंखलाहीन “ढाँचा” बनकर रह जाती। इस हालात में पार्टी और मज़दूर वर्ग के बीच का अन्तर मिट जाता और असंगठित जनसाधारण को अग्रदल के स्तर तक उठाने का पार्टी का उद्देश्य ही छिन्न–भिन्न हो जाता। कहने की आवश्यकता नहीं कि इस तरह की अवसरवादी “व्यवस्था” में हमारी पार्टी क्रान्ति के दौरान सर्वहारा वर्ग का संगठन केन्द्र बनने का कार्य न कर पाती।
इस सम्बन्ध में लेनिन ने लिखा था, “मार्तोव के दृष्टिकोण से पार्टी की सीमाएँ अनिश्चित हैं क्योंकि उनके अनुसार ‘प्रत्येक हड़ताली… अपने को पार्टी का सदस्य घोषित’ कर सकता है। इस लचीलेपन से क्या लाभ हो सकता है? उनका कहना है कि इससे पार्टी के ‘नाम’ का दूर–दूर तक प्रचार हो जायेगा। किन्तु इस व्यवस्था से बहुत भारी हानि होगी। पार्टी और वर्ग का भेद अस्पष्ट हो जायेगा जिससे पार्टी के अन्दर विघटन का घुन लग जायेगा।” (लेनिन ग्रन्थावली, खण्ड 6, पृ. 211)
किन्तु पार्टी अपने नीचे के संगठनों का केवल योगफल ही नहीं है; वह उन संगठनों की एकरस व्यवस्था को भी व्यक्त करती है। वह विभिन्न पार्टी संगठनों की नियमित एकता का केन्द्र है। उसके साथ वे अभिन्न रूप से बँधे हुए हैं, पार्टी के भीतर नेतृत्व की ऊँची और नीची समितियाँ हैं, उसके अन्दर अल्पमत को बहुमत के आगे सिर झुकाना पड़ता है और बहुमत के व्यावहारिक निर्णय सभी पार्टी सदस्यों के लिए मान्य होते हैं। इन लक्षणों के अभाव में पार्टी एक एकरस, संगठित और सम्पूर्ण संस्था नहीं बन सकती और न वह मज़दूर वर्ग के संघर्ष का व्यवस्थित और संगठित रूप से नेतृत्व करने में ही समर्थ हो सकती है।
लेनिन ने कहा है, “पहले हमारी पार्टी एक नियमपूर्वक संगठित दल न होकर विभिन्न गुटों का जोड़ थी; इसलिए इन गुटों में विचार साम्य को छोड़कर और कोई सम्बन्ध न था। अब हम एक संगठित पार्टी हैं जिसका अर्थ है अब हम अनुशासन सूत्र में बँध गए हैं। विचारों की शक्ति अनुशासन में बदल गई है। पार्टी की निम्न संस्थाओं को उच्चतर संस्थाओं के आदेशों को मानना पड़ता है।” (वही, पृ. 291)
अल्पमत का बहुमत से अनुशासित होने तथा एक केन्द्र द्वारा पार्टी कार्य का संचालन करने के सिद्धान्तों को लेकर ढीले–ढाले और अस्थिर विचार के लोग पार्टी को “नौकरशाहों” का और ‘औपचारिकतावादी’ संगठन बतलाते हैं। यह सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है कि इन सिद्धान्तों का पालन किए बिना पार्टी न तो एक संगठित संस्था के रूप में और व्यवस्थित ढंग से अपना कार्य कर सकती है और न मज़दूर वर्ग के संघर्षों का ही संचालन कर पाती है। संगठन के क्षेत्र में लेनिनवाद का तात्पर्य है इन सिद्धान्तों का दृढ़तापूर्वक प्रयोग करना। इन सिद्धान्तों के विरोध को लेनिन ने “रूसी नकारवाद” और “राजसी अराजकतावाद” का नाम दिया था। वास्तव में इस तरह का विरोध मात्र उपहास की चीज़ हैं और उसे हमें तिरस्कारपूर्वक ठुकरा देना चाहिए।
एक क़दम आगे दो क़दम पीछे नामक अपनी पुस्तक में लेनिन ने इन ढुलमुल विचार वाले लोगों के सम्बन्ध में ये बातें लिखी हैं, “यह राजसी अराजकतावाद रूसी निहिलिस्टों (नकारवादियों) की विशेषता है। पार्टी संगठन को वे भयानक ‘फैक्टरी’ समझते हैं; उनके विचार से पार्टी के विभिन्न अंगों का तथा अल्पमत का पूरी पार्टी से अनुशासित होना ‘दासता’ है। कुछ करुणा और कुछ हास्यास्पद स्वर में वे केन्द्र की देखरेख में काम के बँटवारे के सम्बन्ध में कहते हैं कि उससे लोग मशीन के ‘कल पुर्जे’ बन जाते हैं… पार्टी के संगठन सम्बन्धी नियमों पर वे मुँह बिचकाते हैं और बड़ी घृणा से… कहते हैं कि बिना नियम के ही काम चल सकता है।
मेरा ख़्याल है कि तथाकथित नौकरशाही की बात करके ये लोग जो हायतौबा मचाया करते हैं वह स्पष्टत: केन्द्रीय संस्थाओं के सदस्यों के प्रति अपने अंसतोष को ढँके रखने का केवल एक बहाना है… तुम नौकरशाह हो, क्योंकि पार्टी कांग्रेस ने तुम्हें मेरी इच्छाओं के अनुसार नहीं बल्कि उनके विरुद्ध नियुक्त कर दिया है। तुम नियमवादी हो, क्योंकि तुम मेरी सहमति की परवाह न करके कांग्रेस के नियमित निर्णयों को मानते हो! तुम एक जड़ के समान काम करते हो, क्योंकि केन्द्रीय संस्थाओं में सम्मिलत होने के सम्बन्घ में मेरी निजी इच्छाओं की ओर ध्यान न देकर तुम पार्टी कांग्रेस के ‘यांत्रिक’ बहुमत के आदेशों को ही प्रमाणिक मानते हो! तुम निरंकुश हो, क्योंकि तुम पुराने गुटों को (यहाँ ऐक्सेलरोद, मार्तोव, पोत्रेसोव आदि का ज़िक्र किया गया है। उन्होंने दूसरी कांग्रेस के निर्णयों को मानने से इन्कार कर दिया और लेनिन पर “नौकरशाह” होने का आरोप लगाया) पार्टी संचालन का अधिकार देने के विरुद्ध हो!” (लेनिन, ग्रन्थावली, खण्ड 10, पृ. 280, 310)
पार्टी सर्वहारा के वर्ग संगठन का उच्चतम रूप है
पार्टी मज़दूर वर्ग का संगठित दस्ता है। किन्तु वह अपने वर्ग का अकेला संगठन नहीं है। सर्वहारा के कितने ही अन्य संगठन भी हैं जिनके बिना वह पूँजीवाद के ख़िलाफ़ ठीक से संघर्ष नहीं कर सकती। ये संगठन हैं मज़दूर सभाएँ, सहयोग समितियाँ, मिलों और कारख़ानों के संगठन, संसदीय ग्रुप, पार्टी के बाहर स्त्रियों के संगठन, प्रकाशन सम्बन्धी, सांस्कृतिक और शिक्षा सम्बन्धी संगठन, युवा संघ, क्रान्तिकारी संघर्ष के दिनों में लड़ने वाले क्रान्तिकारी संगठन, अगर राजसत्ता पर सर्वहारा वर्ग का अधिकार हो तो शासन व्यवस्था से सम्बन्धित संगठनों के रूप में जनप्रतिनिधियों के सोवियत आदि आदि। इनमें से अधिकांश संगठन ग़ैरपार्टी हैं और उनमें से कुछ ही प्रत्यक्ष रूप से पार्टी का अनुसरण करते हैं या उससे संबद्ध हैं। किन्हीं विशेष परिस्थितियों में मज़दूर वर्ग को इन सभी संगठनों की आवश्यकता होती है, क्योंकि उनके बिना संघर्ष के विभिन्न क्षेत्रों में सर्वहारा की वर्ग स्थिति को दृढ़ करना सम्भव नहीं होता और न पूँजीवादी व्यवस्था की जगह समाजवादी व्यवस्था स्थापित करने का अपना ऐतिहासिक कर्तव्य पूरा करने के लिए सर्वहारा वर्ग में वह क्रान्तिकारी क्षमता ही आ सकती है। किन्तु इतने विभिन्न प्रकार के संगठनों के रहते हुए एकरस नेतृत्व की स्थापना कैसे हो सकती है? इसकी क्या गारंटी है कि संगठनों की यह अनेकता नेतृत्व में में भी विभिन्नता नहीं उत्पन्न कर देगी? कहा जा सकता है कि इनमें से प्रत्येक संगठन अपने विशेष क्षेत्र में ही काम करता है, अत: वह दूसरे के काम में बाधा नहीं बन सकता। यह कहना सही है। लेकिन यह भी तो सही है कि इन सभी संगठनों को एक ही दिशा में काम करना चाहिए क्योंकि उन सबका उद्देश्य एक ही वर्ग की, सर्वहारा वर्ग की सेवा करना है। तब प्रश्न उठता है कि इन विभिन्न संगठनों के कार्य की दिशा, उनकी नीति कौन निर्धारित करेगा? वह केन्द्रीय संगठन कहाँ है जो न केवल अपने आवश्यक अनुभव के कारण एक सामान्य नीति निर्धारित करने की क्षमता रखता है, बल्कि जो अपनी पर्याप्त प्रतिष्ठा के कारण अन्य संगठनों से भी इसपर अमल करा सकता है और इस प्रकार परस्परविरोधी दिशा में काम करने की संभावना को दूर करके नेतृत्व की एकता को स्थापित कर सकता है?
सर्वहारा वर्ग की पार्टी ही यह संगठन है।
पार्टी के पास ये सभी आवश्यक गुण हैं, क्योंकि पहले तो वह मज़दूर वर्ग के उन सर्वश्रेष्ठ लोगों को अपने अन्दर एकत्र करती है जिनका सर्वहारा वर्ग के ग़ैरपार्टी संगठनों से प्रत्यक्ष सम्बन्ध है और जो प्राय: उनका नेतृत्व भी करते हैं, दूसरे मज़दूर वर्ग के सर्वश्रेष्ठ लोगों के एकत्रीकरण का केन्द्र होने के कारण पार्टी उस वर्ग के नेताओं की शिक्षा की भी सबसे अच्छी जगह है और मज़दूरों के हर तरह के संगठन का मार्गदर्शन करने में समर्थ है। तीसरे, मज़दूर वर्ग के नेताओं की शिक्षा की सबसे अच्छी जगह होने के कारण और अपने अनुभव तथा प्रतिष्ठा के भी कारण पार्टी ही वह एकमात्र संगठन है जो सर्वहारा संघर्ष के नेतृत्व को केन्द्रित कर सकती है और इस प्रकार मज़दूर वर्ग के प्रत्येक और अनेक ग़ैरपार्टी संगठनों को अपना सहायक बना सकती है और उन्हें अपने वर्ग के साथ सम्बन्ध जोड़ने वाले सूत्र का रूप दे सकती है।
पार्टी सर्वहारा के वर्ग संगठन का उच्चतम रूप है।
इसका यह कदापि तात्पर्य नहीं है कि पार्टी के बाहर के मज़दूर संगठनों, मज़दूर सभाओं, सहयोग समितियों आदि को नियमत: पार्टी के अधीन बना देना चाहिए। इसका अर्थ सिर्फ़ यह है कि पार्टी के जो सदस्य इन संगठनों में काम करते हैं — और निस्संदेह वे इन संगठनों पर प्रभाव भी रखते हैं — उन्हें भरसक प्रयत्न करना चाहिए कि अपने कार्य में ये ग़ैरपार्टी संगठन सर्वहारा वर्ग की पार्टी के निकट खिंच आयें और उसके राजनीतिक नेतृत्व को स्वेच्छापूर्वक स्वीकार करें।
इसीलिए लेनिन का कहना है कि “पार्टी सर्वहारा जनसमूह के वर्ग संगठन का उच्चतम रूप है और सर्वहारा संगठन के अन्य सभी रूपों पर उसका राजनीतिक नेतृत्व होना चाहिए” (लेनिन, “वामपंथी” कम्युनिज़्म : एक बचकाना मर्ज़, ग्रन्थावली, खण्ड 10, पृ. 91)।
इसलिए ग़ैरपार्टी संगठन की “स्वाधीनता” और “तटस्थता” का प्रचार करने वाला सिद्धान्त निरा अवसरवादी है और लेनिन के सिद्धान्त और व्यवहार के सर्वथा प्रतिकूल है। इस अवसरवादी सिद्धान्त को मानकर चलने से संसद के स्वतन्त्र विचार वाले सदस्य, पार्टी से अलग–थलग रहने वाले पत्रकार, मज़दूर सभाओं के कूपमण्डूक नेता तथा सहयोग समितियों के जड़ और अधकचरे किरानी जैसे विविध जंतु मज़दूर वर्ग में पैदा होते हैं, लेनिनवादी पार्टी को इनकी कोई आवश्यकता नहीं है।
बिगुल, दिसम्बर 2006-जनवरी 2007
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन