मज़दूरों के महान शिक्षक और नेता लेनिन के जन्मदिवस (22 अप्रैल) के अवसर पर
मज़दूरों के सबसे बुरे दुश्मन लफ़्फ़ाज़
मैं सचमुच embarrass de richness (बहुतायत से परेशानी) अनुभव कर रहा हूँ और तय नहीं कर पा रहा हूँ कि ‘स्वोबोदा’ ने जो भ्रम पैदा किया है, उसे कहाँ से सुलझाना शुरू करुँ। अपनी बात में स्पष्टता लाने के लिए मैं एक मिसाल से शुरू करूँगा। जर्मनों को लीजिये। मैं आशा करता हूँ कि कोई इस बात से इंकार नहीं करेगा कि जर्मनों के संगठन ने भीड़ को समेट लिया है, उनके यहाँ हर चीज़ भीड़ से शुरू होती है और वहाँ के मज़दूर आंदोलन ने अपने पैरों पर चलना सीख लिया है। फिर भी जरा ध्यान दीजिये कि वहाँ यह लाखों और करोड़ों की भीड़ अपने ‘एक दर्जन’ परखे हुए राजनीतिक नेताओं को कितना महत्व देती है और कितनी दृढ़ता से उनसे चिपटी रहती है! संसद में विरोधी पार्टियों के सदस्यों ने अकसर समाजवादियों को यह कह-कहकर ताने दिये हैं: “अच्छे जनवादी हैं आप लोग! आप लोगों का यह वर्ग का आंदोलन बस नाम भर का है, असल में तो साल-दर-साल नेताओं का वही पुराना गुट, वे ही बेबेल और लीब्नेख़्त जमे रहते हैं। पीढ़ियाँ गुजर जाती है और उनमें कोई परिवर्तन नहीं होता। आपके संसद-सदस्य – जिन्हें कहा जाता है कि मज़दूर चुनते हैं – बादशाह सलामत द्वारा नियुक्त किये गये अफ़सरों से ज़्यादा मुस्तक़िल हैं!” परन्तु “भीड़” को “नेताओं” से लड़ा देने, भीड़ में दूषित और महत्वाकांक्षी भावनाएँ जगाने और “एक दर्जन बिुद्धमानों” में जनता का विश्वास नष्ट करके आंदोलन की मज़बूती, स्थायित्व को ख़त्म करने की इन धू्र्ततापूर्ण कोशिशों को देखकर जर्मन लोग केवल तिरस्कार से मुस्करा देते हैं। जर्मनों में राजनीतिक चिंतन काफ़ी विकसित हो चुका है और उन्होंने इतना ज़्यादा राजनीतिक अनुभव संचित कर लिया है कि वह यह समझने लगे हैं कि ऐसे “एक दर्जन” परखे हुए और प्रतिभाशाली नेताओं के बिना (और प्रतिभाशाली लोग सैकड़ों की संख्या में नहीं पैदा होते), जिन्हें अपने काम की पूरी प्रशिक्षा मिल चुकी हो, जो दीर्घकाल तक अनुभव प्राप्त कर चुके हों और जो पू्र्ण सहयोग और ताल-मेल के साथ काम करते हों, आधुनिक समाज में कोई वर्ग दृढ़ता के साथ संघर्ष नहीं कर सकता। जर्मनों के बीच भी ऐसे लफ्फ़ाज़ हुए हैं, जिन्होंने “सौ मूर्खों” की ख़ुशामद की हैं, उन्हें “एक दर्जन बुद्धिमानों” से ऊँचा स्थान दिया है, जनता के “ज़बरदस्त घूँसों” का गुणगान किया है और (मोस्ट और हैस्सेलमैन की तरह) उसे विवेकहीन “क्रान्तिकारी” कार्य करने के लिए उकसाया है और दृढ़ तथा स्थिर-चित नेताओं के प्रति अविश्वास पैदा किया है। समाजवादी आंदोलन में पाये जाने वाले ऐसे तमाम लफ्फ़ाज़ तत्वों के ख़िलाफ़ दृढ़तार्पूवक और निर्ममतार्पूवक संघर्ष करके ही जर्मन समाजवाद पनप सका है और आज की यह विराट शक्ति बन सका है। लेकिन आज जब रूस का सामाजिक जनवाद केवल इसलिए संकट से गुजर रहा है कि उसके पास अपने आप जागृत होती हुई जनता का नेतृत्व करने के लिए पर्याप्त संख्या में प्रशिक्षित, विकसित एवं अनुभवी नेता नहीं हैं, तब हमारे ये अक्ल के ठेकेदार मूर्खों जैसी गंभीरता के साथ चीख-चीखकर कहते हैं: “जब आंदोलन की जड़ें आम लोगों में नहीं होती, तब बुरा हाल होता है!”
“विद्यार्थियों की समिति किसी काम की नहीं होती, उसमें स्थायित्व नहीं होता।” यह बिलकुल सच बात है। परन्तु इससे जो नतीजा निकालना चाहिए, वह यह है कि हमें पेशेवर क्रान्तिकारियों की समिति बनानी चाहिए और इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि पेशेवर क्रान्तिकारी बनने की क्षमता किसी विद्यार्थी में है या मज़दूर में। लेकिन आप लोग इससे यह नतीजा निकालते हैं कि मज़दूर आंदोलन को बाहर से धक्का नहीं देना चाहिए! अपने राजनीतिक भोलेपन के कारण आप यह नहीं देखते कि आप लोग हमारे अर्थवादियों के हाथों में खेल रहे हैं और हमारे नौसिखुएपन को बढ़ावा दे रहे हैं। मैं पूछता हूँ कि हमारे विद्यार्थियों ने हमारे मज़दूरों को किस अर्थ में “धक्का दिया”? केवल इस अर्थ में कि विद्यार्थियों के पास स्वयं जो थोड़ा-बहुत राजनीतिक ज्ञान था, समाजवादी विचार के जो चंद टुकड़े उन्होंने जमा कर लिये थे (क्योंकि आजकल के विद्यार्थियों का मुख्य बौद्धिक भोजन – क़ानूनी मार्क्सवाद – उन्हें केवल प्रारम्भिक ज्ञान या ज्ञान के चंद टुकड़े ही दे सकता है), उन्हें वे मज़दूरों तक ले गये थे। इस प्रकार का “बाहर से धक्का देना” कभी बहुत ज़्यादा नहीं हुआ है, इसके विपरीत अभी तक हमारे आंदोलन में यह बात बहुत कम, बहुत ही कम देखने में आई है, क्योंकि हम लोग सदा अपने घोंघे के अन्दर ही बंद पड़े रहे हैं, हम “मालिकों तथा सरकार के खिलाफ़” प्राथमिक “आर्थिक संघर्ष” की पूजा दासों की तरह हद से ज़्यादा करते रहे हैं। हम, पेशेवर क्रान्तिकारी, इसे अपना फर्ज़ समझते हैं और समझेंगे कि अभी तक हमने इस प्रकार के जितने “धक्के बाहर से दिये” हैं, उससे सौ गुना ज़्यादा “धक्के” दें। लेकिन इसी एक बात से कि आपने “बाहर से धक्का देना” जैसी घृणित शब्दावली का प्रयोग किया है – जिन शब्दों से मज़दूरों में (कम से कम उन मज़दूरों में, जो उतने ही पिछड़े हुए है, जितना कि आप लोग) लाज़िमी तौर पर उन सभी लोगों के प्रति अविश्वास का भाव पैदा होगा, जो उनके पास बाहर से राजनीतिक ज्ञान और क्रान्तिकारी अनुभव ले जाते हैं और इससे मज़दूरों में ऐसे तमाम लोगों का विरोध करने की सहज प्रवृति उत्पन्न होगी – यह साबित हो जाता है कि आप लोग लफ्फ़ाज़ हैं और लफ्फ़ाज़ लोग मज़दूर वर्ग के सबसे बुरे दुश्मन होते हैं।
जी हाँ! और अब मेरे “बन्धुत्वहीन तरीके” से बहस करने का रोना मत शुरू कर दीजियेगा। मैं आपके इरादों की पवित्रता पर सपने में भी संदेह नहीं करता। जैसे मैं कह चुका हूँ, आदमी केवल राजनीतिक भोलेपन के कारण भी लफ्फ़ाज़ बन सकता है। परन्तु मैंने साबित कर दिया है कि आप लोग लफ्फ़ाज़ी पर उतर आये हैं और यह कहने में मैं कभी नहीं थकूंगा कि लफ्फ़ाज़ मज़दूर वर्ग के सबसे बुरे दुश्मन होते हैं। सबसे बुरे दुश्मन इसलिए कि वे लोग भीड़ की बुरी प्रवृतियों को बढ़ावा देते हैं और पिछड़ा हुआ मज़दूर यह नहीं पहचान पाता कि ये लोग, जो अपने को मज़दूरों का मित्र बताते हैं और कभी-कभी ईमानदारी के साथ पेश आते हैं, असल में उनके दुश्मन हैं। सबसे बुरे दुश्मन इसलिए कि फूट और ढुलमुल-यक़ीनी के ज़माने में, जब हमारे आंदोलन की रूपरेखा अभी गढ़ी ही जा रही है, तब लफ्फ़ाज़ी के ज़रिए भीड़ को गुमराह करने से ज़्यादा आसान और कोई बात नहीं है, और भीड़ को अपनी ग़लती बहुत बाद में अत्यंत कटु अनुभव से ही मालूम होती है। यही कारण है कि आज रूस के प्रत्येक सामाजिक-जनवादी कार्यकर्ता के लिए यह नारा होना चाहिए: ‘स्वोबोदा’ और ‘राबोचेये देलो’ के ख़िलाफ़ डटकर लड़ो, क्योंकि वे दोनों ही गिरकर लफ्फ़ाज़ी के स्तर पर आ गये हैं (इस बारे में ज़्यादा विस्तार में हम आगे चर्चा करेंगे, यहाँ हम केवल इतना कह दें कि “बाहर से धक्के देना” तथा संगठन के प्रश्न पर ‘स्वोबोदा’ के दूसरे उपदेशों के बारे में हमने जो कुछ कहा है, वह सभी अर्थवादियों पर पूरी तरह लागू होता है, जिनमें ‘राबोचेये देलो’ के समर्थक भी आ जाते हैं, कारण कि उन्होंने संगठन के विषय में या तो ऐसे विचारों का सक्रिय रूप में प्रचार और समर्थन किया है, या वे उनमें बह गये हैं।
“सौ मूर्खों के मुक़ाबले एक दर्जन बुद्धिमानों का सफ़ाया करना ज़्यादा आसान है।” यह विलक्षण सत्य (जिसके लिए सौ मूर्ख सदा आपकी प्रशंसा करेंगे) आपको इतना स्पष्ट केवल इसलिए लगता है कि तर्क करते-करते आप यकायक एक प्रश्न को छोड़ दूसरे प्रश्न पर पहुंच गये हैं। आपने जिस बात की चर्चा शुरू की थी और जिसकी चर्चा अब भी कर रहे हैं, वह है एक “समिति” अथवा “संगठन” का सफ़ाया हो जाने की बात, और अब आप यकायक “गहराई” में आंदोलन की “जड़ों” का सफ़ाया होने के प्रश्न पर पहुँच गये हैं। ज़ाहिर है कि हमारे आंदोलन को मिटाना इसलिए असंभव है क्योंकि उसकी सैकड़ों और लाखों जड़ें जनता में बहुत गहराई तक पहुँच चुकी हैं, परन्तु इस समय चर्चा का विषय यह नहीं है। जहाँ तक “गहरी जड़ों” का प्रश्न है, तो आज भी, हमारे तमाम नौसिखुएपन के बावजूद, कोई हमारा “सफ़ाया” नहीं कर सकता, फिर भी हम यह शिकायत करते हैं और शिकायत किये बिना नहीं रह सकते कि “संगठनों” का सफ़ाया हो जाता है और उसके परिणामस्वरूप आंदोलन का क्रम बनाये रखना असंभव हो जाता है। लेकिन आपने चूँकि संगठनों का सफ़ाया हो जाने का सवाल उठाया है और इस सवाल पर आप अड़े रहना ही चाहते हैं, इसलिए मैं ज़ोर देकर कहता हूँ कि सौ मूर्खों की तुलना में एक दर्जन बुद्धिमानों का सफ़ाया करना कहीं ज़्यादा मुश्किल है। और आप भीड़ को मेरे “जनवाद विरोधी” विचारों, आदि के खि़लाफ़ चाहे जितना भी भड़कायें, पर मैं सदा इस प्रस्थापना की पैरवी करूँगा। जैसा कि मैं बार-बार कह चुका हूँ, संगठन के सम्बन्ध में “बुद्धिमानों” से मेरा मतलब पेशेवर क्रान्तिकारियों से है। उसमें इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि उनको विद्यार्थियों के बीच में से प्रशिक्षित किया गया है या मज़दूरों में से। मैं ज़ोर देकर यह कहता हूँ: (1) नेताओं में एक स्थायी और आंदोलन का क्रम बनाये रखने वाले संगठन के बिना कोई भी क्रान्तिकारी आंदोलन टिकाऊ नहीं हो सकता; (2) जितने अधिक व्यापक पैमाने पर जनता स्वयंस्फूर्त ढंग से संघर्ष में खिंचते हुए आंदोलन का आधार बनेगी और उसमें भाग लेगी, ऐसा संगठन बनाना उतना ही ज़्यादा ज़रूरी होता जायेगा, और इस संगठन को उतना ही अधिक मज़बूत बनना होगा (क्योंकि जनता के अधिक पिछड़े हुए हिस्सों को गुमराह करना लफ्फ़ाज़ों के लिए ज़्यादा आसान होता है); (3) इस प्रकार के संगठन में मुख्यतः ऐसे लोगों को होना चाहिए, जो अपने पेशे के रूप में क्रान्तिकारी कार्य करते हों; (4) निरंकुश राज्य में इस प्रकार के संगठन की सदस्यता को हम जितना ही अधिक ऐसे लोगों तक सीमित रखेंगे, जो अपने पेशे के रूप में क्रान्तिकारी कार्य करते हों और जो राजनीतिक पुलिस को मात देने की विद्या सीख चुके हों, ऐसे संगठन का “सफ़ाया करना” उतना ही अधिक मुश्किल होगा; और (5) मज़दूर वर्ग तथा समाज के अन्य वर्गों के उतने ही अधिक लोगों के लिए यह सम्भव हो सकेगा कि वे आंदोलन में शामिल हों और उसमे सक्रिय काम करें।
(लेनिन की रचना ‘क्या करें?’ के अध्याय ‘नौसिखुएपन के बारे में’ से एक अंश)
मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2015
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन