अन्तरराष्ट्रीय स्त्री दिवस के सौ वर्ष पूरे होने के अवसर पर 
स्त्री मुक्ति के संघर्ष को शहरी शिक्षित उच्च मध्‍यवर्गीय कुलीनतावादी दायरों के बाहर लाना होगा

शिवानी

हर साल दुनिया भर में 8 मार्च का दिन अन्तरराष्ट्रीय स्त्री दिवस के रूप में मनाया जाता है। विश्व भर में स्त्रियाँ इस दिवस को अपनी मुक्ति को समर्पित दिवस के रूप में मनाती हैं। यह हमारी लड़ाई का प्रतीक दिवस है। इस बार भी पूरी दुनिया में आम मेहनतकश स्त्रियों ने अपने इस दिन को पूरे जज्बे और जोशो-खरोश के साथ मनाया। इसका एक कारण यह भी था कि यह अन्तरराष्ट्रीय स्त्री दिवस का शताब्दी वर्ष था। शोषण, उत्पीड़न, दमन, पुरुष वर्चस्ववाद के तमाम रूपों से मुक्ति और जीवन के हर पहलू में पूर्ण समानता के लिए स्त्रियों के संघर्ष को सौ वर्ष पूरे हो चुके हैं।

इन पिछले सौ वर्षों में स्त्रियों ने अपने अधिकारों के लिए संघर्ष जारी रखा है और पूंजी की लूट और पितृसत्ता के उत्पीड़न के खिलाफ अपनी आवाज को बार-बार बुलन्द किया है। दुनिया के सभी देशों में स्त्रियों ने मेहनतकश वर्गों के आन्दोलनों, किसानों के संघर्ष और राष्ट्रीय मुक्ति युध्दों में पुरुषों के साथ कन्‍धे से कन्धा मिलाकर संघर्ष किया है और बेमिसाल कुर्बानियाँ दी हैं।

पूँजी की लूट और मुनाफे पर टिकी व्यवस्था के खिलाफ शुरू हुए स्त्रियों के संघर्ष की याद में अन्तरराष्ट्रीय स्त्री दिवस की शुरुआत हुई। लेकिन आज यह संघर्ष पूँजी के विरुध्द संघर्ष के साथ महिलाओं के राजनीतिक अधिकारों के लिए संघर्ष, पितृसत्तात्मक उत्पीड़न के विरुध्द संघर्ष और विभिन्न प्रकार की स्त्री विरोधी असमानताओं के विरुध्द संघर्ष तक विस्तृत हो चुका है। पिछले 100 वर्षों में स्त्रियों ने अपने संघर्षों के दम पर तमाम सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और कानूनी अधिकारों को प्राप्त किया है। अपने हकों को हासिल करने की हमारी यह लड़ाई आज भी जारी है। यह सच है कि हमने बहुत कुछ हासिल किया है लेकिन यह उससे भी बड़ा सच है कि अभी बहुत कुछ हासिल करना बाकी है।

यह विडम्बना ही है कि 8 मार्च की इस क्रान्तिकारी विरासत से आज हमारे देश की ज्यादातर मेहनतकश स्त्रियाँ नावाकिफ हैं। जिस दिन की शुरुआत हमारी मेहनतकश बहनों के संघर्ष के तौर पर हुई थी, आज उसी के इतिहास को धूमिल करने और उसे महज एक त्योहार में बदल देने की कोशिशें की जा रही हैं। पूँजी की लूट और शोषण के खिलाफ शुरू हुए संघर्ष के इस प्रतीक दिन को पूँजीवादी व्यवस्था हाथोंहाथ ले रही है। इस दिन तमाम बड़ी-बड़ी कम्पनियों की महिला अधिकारियों को पुरस्कृत करने से लेकर कई कम्पनियों द्वारा विज्ञापनों के जरिये मध्‍यवर्गीय स्त्रियों को लुभाने के नये तरीके भी निकाले जा रहे हैं। अन्तरराष्ट्रीय स्त्री दिवस की क्रान्तिकारी धरोहर के बारे में विभ्रम पैदा करने के नित नये हथकण्डे अपनाये जा रहे हैं। इस विभ्रम का जवाब केवल क्रान्तिकारी प्रचार द्वारा ही दिया जा सकता है। इसके अलाव बहुतेरे स्त्री संगठन इस मौके पर कुछेक रस्मी कवायदें करके अपना कर्तव्य निर्वाह करते हैं। इनके लिए स्त्री दिवस को मनाना एक जश्न मनाने के समान होता है। अन्तरराष्ट्रीय स्त्री दिवस को बस मना लिया जाना काफी नहीं है। आज स्त्री मुक्ति के संघर्षों को ऐसे अनुष्ठानवादी और कवायदी गतिविधि के दायरे से बाहर निकालना जरूरी है।

अपनी मुक्ति के लिए संघर्ष के सौ वर्षों का सफर तय करने के बाद भी आज तक स्त्रियाँ पूँजी की दासता का शिकार हैं; पूँजीवादी व्यवस्था में हर चीज की तरह उनका भी वस्तुकरण हो रहा है; सस्ता होने के कारण स्त्रियों के श्रम को तमाम कम्पनियाँ और कॉरपोरेशन बुरी तरह निचोड़ रहे हैं; पूँजी की गुलामी का शिकार स्त्री और पुरुष दोनों ही हैं लेकिन स्त्रियों को पूँजी की गुलामी के साथ-साथ पितृसत्तात्मक उत्पीड़न का शिकार भी होना पड़ता है। सड़क से लेकर घर तक उसे अपमान और दमन-उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। स्त्रियों की एक विशाल आबादी तमाम पूँजीवादी आधुनिकता आ जाने के बावजूद चूल्हे-चौखट में ही कैद हैं। जो स्त्रियाँ बाहर निकल रही हैं और काम कर रही हैं, उन्हें भी पूँजी के शोषण के अतिरिक्त असुरक्षा और अपमान के माहौल में जीना पड़ता है।

ऐसे में यह सोचने का मुद्दा है कि स्त्रियों की मुक्ति का रास्ता आखिर क्या होगा? जैसा कि हमने पहले भी जिक्र किया है, स्त्रियों की मुक्ति का संघर्ष मेहनतकश स्त्रियों के संघर्ष के साथ शुरू हुआ था। आज भी पूँजी के शोषण और पितृसत्ता के दमन और उत्पीड़न के विभिन्न रूपों का शिकार सबसे अधिक मजदूर वर्ग और निम्न मध्‍यवर्ग की स्त्रियों को ही होना पड़ता है। जाहिर है कि जो इस लूट और उत्पीड़न का सबसे बुरी तरह शिकार हैं, वही इसके खिलाफ सबसे कारगर तरीके से लड़ेंगी। इतिहास बताता है कि उन देशों में स्त्रियों ने अपने संघर्ष के नये मुकाम हासिल किये जहाँ पर आम मेहनतकश जनता की सत्ता कायम हुई। 1917 में रूस में अक्टूबर क्रान्ति के बाद मानव इतिहास में पहली बार कोई ऐसी राज्यसत्ता अस्तित्व में आयी, जिसने औरतों को हर मायने में समान अधिकार दिये। वेश्यावृत्ति का खात्मा, समान काम के लिए समान मेहनताना, समान मताधिकार, समान सामाजिक-राजनीतिक अधिकार, काम करने की सुविधजनक और सम्मानजनक स्थितियाँ स्त्रियों की आर्थिक गतिविधियों में समान भागीदारी और घर के दायरे से बाहर निकलना, विवाह और तलाक के सम्बन्ध में बराबर अधिकार, शराबखोरी का खात्मा कुछ मील के पत्थर थे। पिछड़े हुए रूसी समाज में क्रान्ति के बाद के चार दशकों में उत्पादन, सामाजिक-राजनीतिक कार्रवाइयों, सामरिक मोर्चे और बौध्दिक गतिविधियों के दायरे में जितनी तेजी से औरतों की भागीदारी बढ़ी, वह रफ्तार जनवादी क्रान्तियों के बाद यूरोप-अमेरिका के देशों में पूरी दो शताब्दियों के दौरान कभी नहीं रही थीं। चीन में 1949 में क्रान्ति के बाद भी स्त्रियों की मुक्ति के नये क्षितिज सामने आये। राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में उनकी हिस्सेदारी पुरुषों से पीछे नहीं रही और एक ऐसे देश में यह बहुत बड़ी बात थी, जहाँ पितृसत्तात्मक गुलामी मध्‍ययुगीन बर्बरता के युग में थी। अभी भी स्त्रियों की असमानता के सूक्ष्म और बारीक रूप मौजूद थे लेकिन उनके खिलाफ संघर्ष के पहले ही इन देशों में मजदूर सत्ताओं का पतन हो गया। इन देशों में मेहनतकशों की सत्ताओं के पतन के साथ ही तमाम उपलब्ध्यिाँ नष्ट हो गयीं। इसलिए खुद इतिहास इस बात की ताईद करता है कि स्त्री मुक्ति का प्रोजेक्ट पूरा तभी हो सकता है जब यह मेहनतकश वर्गों की मुक्ति के संघर्ष यानी पूँजीवाद-विरोधी संघर्ष से जुड़े।

साथ ही, स्त्री मुक्ति के संघर्ष को हमें यदि किसी अर्थपूर्ण दिशा में आगे बढ़ाना है तो इसे शहरी शिक्षित उच्च मध्‍यवर्गीय कुलीनतावादी दायरों के बाहर लाना होगा। हमें स्त्री मुक्ति के नाम पर स्त्री मुक्ति आन्दोलन को महज स्त्री की पहचान की लड़ाई तक सीमित कर देने वाली एनजीओ संगठनों की घातक राजनीति के खिलाफ भी संघर्ष करना होगा। हमें स्त्री मुक्ति आन्दोलन को तमाम सुधारवादी माँगों की चौहद्दी से भी बाहर लाना होगा।

इस सन्दर्भ में हाल ही में राज्य सभा में पारित हुए महिला आरक्षण बिल पर छोटी सी चर्चा अनिवार्य है। हमारा स्पष्ट मानना है कि संसद-विधानसभाओं में 33 प्रतिशत सीटें आरक्षित कर देने से आम मेहनतकश स्त्रियों के जीवन पर कोई असर नहीं पड़ेगा। हम समझते हैं कि यह नारी आन्दोलन को भी संसदीय राजनीति के मलकुण्ड में समेट देने की एक साजिश के अलावा और कुछ नहीं है। जो संसद और विधनसभाएँ चोरों, लुटेरों, बलात्कारियों और इस पूँजीवादी व्यवस्था के चाकरों का अड्डा मात्र है, उसमें अगर कुछ और महिलाओं को पूँजीपति वर्ग का प्रतिनिधि बनने का मौका मिल भी जाता है तो इससे देश की बहुसंख्यक स्त्री आबादी की जीवन स्थितियों में कोई बदलाव नहीं आयेगा। चौंकाने वाली बात तो यह है कि तमाम तथाकथित वामपन्थियों के साथ-साथ कई नारीवादी संगठन भी इस बिल को लेकर काफी आशावान है और हर्षातिरेक का अनुभव कर रहे हैं।

साफ है कि जिस देश की ज्यादातर महिलाएँ मेहनत-मजदूरी करके, किसी तरह अपने परिवार का पेट भरने के लिए दिन-रात खटती रहती है, जो घर के भीतर, चूल्हे-चौखट में ही अपनी तमाम उम्र बिता देने को अभिशप्त हैं, जो आये दिन अनगिनत किस्म के अपराधें और बर्बरताओं का शिकार होती हैं, उनकी गुलामी और दोयम दर्जे की स्थिति को कोई कानून या अधिनियम नहीं खत्म कर सकता। वास्तव में स्त्रियों की मुक्ति पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर सम्भव है ही नहीं। स्त्रियों की मुक्ति सिर्फ उसी समाज में सम्भव होगी जो पूरी मानवता को उसकी पूँजी की बेड़ियों से मुक्त करेगा। इसलिए आज स्त्री मुक्ति के क्रान्तिकारी संघर्ष को सामाजिक परिवर्तन के संघर्ष के साथ जुड़ना ही होगा। दूसरी ओर, यह भी सही है कि सामाजिक परिवर्तन की कोई भी लड़ाई आधी आबादी की भागीदारी के बिना नहीं जीती जा सकती।

 

बिगुल, मार्च-अप्रैल 2010


 

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