चीन में मजदूर संघर्षों का नया उभार
मजदूर हड़तालों के अनवरत सिलसिले से चीनी शासकों और दुनियाभर के पूँजीपतियों की नींद उड़ी
सत्यप्रकाश
पिछले कुछ सप्ताहों के दौरान चीन में मजदूर हड़तालों की लहर ने चीन के कम्युनिस्ट नामधारी पूँजीवादी शासकों को हिलाकर रख दिया है। चीन के मजदूर वर्ग के संघर्ष के इस नये उभार ने दुनियाभर के पूँजीपतियों को भी चिन्ता में डाल दिया है। अब तक चीन के मजदूरों के सस्ते श्रम को निचोड़कर भारी मुनाफा पीटने वाली बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ मुनाफा घटने की चिन्ता से परेशान हो उठी हैं।
पिछले करीब दो महीने के दौरान ही दक्षिण चीन के तटवर्ती इलाकों के औद्योगिक क्षेत्रों में 1000 से ज्यादा कारख़ानों में मजदूर हड़ताल कर चुके हैं। सभी जगह मजदूरों की लगभग एक-सी माँगें थीं – बेहद कम मजदूरी में बढ़ोत्तरी, काम के घण्टे कम करना, काम की अमानवीय परिस्थितियों को बेहतर बनाना और यूनियन बनाने का अधिकार देना। वैसे तो पिछले तीन-चार वर्षों के दौरान चीन में मजदूरों के स्वत:स्फूर्त संघर्षों और हड़तालों का सिलसिला 2009 में कुछ महीनों को छोड़कर कभी थमा नहीं है, लेकिन पहले से अलग इन हड़तालों की एक ख़ास बात यह रही है कि अधिकांश जगहों पर मजदूर किसी न किसी हद तक अपनी माँगों को पूरा कराने में कामयाब रहे हैं।
पहले जो चीनी सत्ता किसी भी विरोध और हड़ताल को कुचलने के लिए पूरी ताकत के साथ टूट पड़ती थी, उसने इस बार न सिर्फ दमन कम किया बल्कि कई जगह तो मालिकान पर मजदूरों की माँगें मानने के लिए परोक्ष दबाव भी डाला। वजह साफ है। चीनी शासक समझ रहे हैं कि मजदूरों में फैलते ग़ुस्से को अगर समय रहते सँभाला नहीं गया तो स्थिति विस्फोटक हो सकती है।
इस साल मई महीने में हड़तालों की इस लहर की शुरुआत हुई। फॉक्सकॉन कम्पनी में एक साल के अन्दर दस मजदूरों के आत्महत्या करने से मजदूरों में ग़ुस्सा भड़क उठा। अन्दर ही अन्दर घुटते कम्पनी के लाखों मजदूर खुलकर कम्पनी की भयंकर शोषण और उत्पीड़नकारी नीतियों के ख़िलाफ आवाज उठाने लगे। मजदूरों की यह नयी पीढ़ी इण्टरनेट और मोबाइल फोन के इस्तेमाल से बख़ूबी वाकिफ है और इनके जरिये कम्पनी के भीतर की ख़बरें चारों और फैल गयीं। देशी मीडिया को भी इसकी ख़बरें देने के लिए मजबूर होना पड़ा और फिर विदेशी मीडिया में भी इसकी काफी चर्चा हुई क्योंकि फॉक्सकॉन दुनिया की तमाम बड़ी कम्प्यूटर और इलेक्ट्रॉनिक्स कम्पनियों के लिए उत्पाद बनाती है। फॉक्सकॉन इलेक्ट्रॉनिक्स सामानों की असेम्बलिंग करने वाली दुनिया की सबसे बड़ी कम्पनी है। यह ऐप्पल कम्पनी के आईपॉड और आईपैड से लेकर सोनी और एच.पी. जैसी कम्पनियों के लिए कम्प्यूटर और दूसरे उत्पाद बनाती है। इसमें करीब 8 लाख मजदूर काम करते हैं। काम की अमानवीय परिस्थितियों, बेहद कम मजदूरी और कदम-कदम पर गाली-गलौच तथा निरन्तर मानसिक दबाव के कारण अपने दस साथियों की आत्महत्या का मजदूरों द्वारा कड़ा विरोध करने और कम्पनी की बदनामी से घबराये मालिकान को मजदूरी में 66 प्रतिशत यानी दो तिहाई बढ़ोत्तरी करने के लिए मजबूर होना पड़ा। फॉक्सकॉन के मजदूरों की कामयाबी से दूसरे कारख़ानों में ऐसी ही परिस्थितियों में घुट रहे मजदूरों को भी आवाज उठाने का हौसला मिल गया।
इसके बाद पर्ल रिवर इलाके में स्थित जापानी कार कम्पनी होण्डा की पार्ट्स फैक्टरियों में मजदूरों ने हड़ताल की और फिर ताबड़तोड़ अनेक कारख़ानों में हड़तालें शुरू हो गयीं। हड़तालों का सिलसिला कम से कम 6 औद्योगिक शहरों में फैल गया। करीब 15 दिन चली होण्डा की पहली हड़ताल के बाद मजदूर 30 से 40 प्रतिशत मजदूरी बढ़वाने में सफल रहे। उसके बाद से चीन में होण्डा के कारख़ानों में दो और हड़तालें हो चुकी हैं। यह रिपोर्ट लिखे जाने के समय होण्डा के कई कारख़ानों में हड़ताल जारी थी। कई जगह मजदूरों ने पुलिस के साथ उग्र झड़पें भी कीं। होण्डा के एक कारख़ाने के बाहर पुलिस और मजदूरों के बीच हुए टकराव में कई दर्जन मजदूर घायल हुए लेकिन फिर भी मजदूर डटे रहे। 2000 से ज्यादा मजदूरों वाली एक इंजीनियरिंग फैक्टरी के हड़ताली मजदूरों को बाहर जाने से रोकने के लिए बुलाये गये पुलिस और हथियारबन्द विशेष सुरक्षा बलों के बीच हुए जबरदस्त टकराव में पचास से ज्यादा मजदूर जख्मी हो गये।
भारत के अख़बारों और टीवी चैनलों ने सोचे-समझे तरीके से चीन के मजदूरों के संघर्ष की इन ख़बरों का पूरी तरह ब्लैकआउट कर रखा है, लेकिन इण्टरनेट पर उपलब्ध विदेशी अख़बार इन ख़बरों से भरे हुए हैं। उनसे पता चलता है कि यह लहर अब चीन के मजदूर आन्दोलन में एक नये उभार का रूप लेती जा रही है।
कई सालों से लगातार बढ़ता मजदूर असन्तोष
दरअसल, चीन के औद्योगिक इलाकों में मजदूर असन्तोष पिछले कई सालों से लगातार बढ़ता रहा है और बीच-बीच में यहाँ-वहाँ हड़तालों और टकरावों के रूप में भड़क भी उठता रहा है। 2008 में टैक्सी ड्राइवरों की हड़ताल और प्रदर्शन हुए,जिनसे दस शहर प्रभावित हुए थे। गुआघदाघ प्रान्त के श्रम विभाग के अनुसार वहाँ 2008 में औद्योगिक झड़पों की संख्या में दोगुना इजाफा हुआ। चीन में 2006 में ही लगभग 90 हजार बड़ी हड़तालें और शहरी तथा ग्रामीण प्रदर्शन हुए थे,इसके बाद चीन की सरकार ने ये आँकड़े प्रकाशित करना ही बन्द कर दिया। हड़तालों का सिलसिला 2009 से कुछ महीनों तक रुका रहा, लेकिन अब नये, प्रचण्ड वेग से फिर फूट पड़ा है।
आज पूरी दुनिया में बुर्जुआ मीडिया चीन की अभूतपूर्व विकास दर और ”बाजार समाजवाद” की उपलब्धियों का ख़ूब डंका पीट रहा है, लेकिन वह इस तथ्य को यथासम्भव दृष्टि से ओझल करने की कोशिश करता है कि यह विकास-दर मजदूरों-किसानों की भयंकर बदहाली, तबाही और भुखमरी की कीमत पर हासिल की जा रही है। एक ओर जहाँ चीनी समाज में अरबपतियों और करोड़पतियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है, वहीं फैक्टरियों के मजदूर और कम्यूनों की सामूहिक खेती की व्यवस्था के टूटने से उजड़ने वाले किसान निकृष्टतम कोटि के उजरती ग़ुलामों की जिन्दगी बसर कर रहे हैं। भारत में प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह से लेकर भाजपा तक विकास के चीनी मॉडल की तारीफ के कसीदे पढ़ते नहीं थकते। मनमोहन सिंह तो अकसर दिल्ली और मुम्बई को शंघाई और बीजिंग बना देने की बात किया करते हैं। लेकिन चीन की तरक्की क़ी चकाचौंध के पीछे की काली सच्चाई की कोई चर्चा नहीं करता। चीन की यह सारी तरक्की क़रोड़ों मजदूरों की बर्बर लूट और शोषण पर टिकी हुई है। मजदूरों का ख़ून और हड्डियाँ निचोड़कर विकास की जगमगाहट हो रही है। पचास करोड़ से ज्यादा चीनी मजदूर बेहद कम मजदूरी पर 12-12 घण्टे पशुवत कमरतोड़ मेहनत करके चीन के नये पूँजीवादी शासकों के लिए मुनाफा पैदा कर रहे हैं। दुनियाभर के पूँजीपतियों को सस्ते श्रम का लालच देकर चीन ने अपने यहाँ फैक्टरी लगाने के लिए आमन्त्रित किया है और पिछले दो दशकों के दौरान चीन के फैलते औद्योगिक इलाके दुनिया की लगभग सभी बड़ी कम्पनियों के कारख़ानों से भर गये हैं।
पर्ल रिवर डेल्टा, जहाँ हाल में सबसे अधिक हड़तालें हुई हैं, ऐसा ही एक इलाका है। हांगकांग, शेनझेन विशेष आर्थिक क्षेत्र और गुआंगझाऊ बन्दरगाह के बीच फैले इस इलाके में करीब 12 करोड़ मजदूर रहते हैं। सड़कों के किनारे-किनारे फैक्ट्रियों की कतार है। सड़क के दूसरी ओर तीन से छह मंजिला इमारतें हैं जिनके छोटे-छोटे कमरों में मजदूर रहते हैं। इस इलाके में सैकड़ों किलोमीटर तक यही दृश्य दिखायी देता है। यहाँ ज्यादातर ऐसे कारख़ाने हैं जो एक्सपोर्ट के लिए माल पैदा करते हैं या विदेशी कम्पनियों के सप्लायर हैं। ज्यादातर मजदूर चीन के देहातों से उजड़कर आये किसानों के बेटे-बेटियाँ हैं जो दिन-रात खटकर बस इतना कमा पाते हैं कि ख़ुद जानवरों की तरह जीते हुए कुछ पैसे बचाकर गाँव में अपने परिवार को भेज सकें।
मजदूरों के लिए बनाये गये रैनबसेरे और अपार्टमेण्ट बेहद भद्दे और गन्दे दिखते हैं। रैनबसेरे के एक कमरे में छह-सात से लेकर 12 मजदूर तक रहते हैं। इसकी वजह से कमरे में इतनी घिच-पिच और शोर-शराबा होता है कि तेरह-चौदह घण्टे हाड़-तोड़ श्रम के बाद मजदूर ठीक से सो भी नहीं पाते हैं। न तो वे अपने कमरे में खाना बना सकते हैं और न ही खाना गरम कर सकते हैं। किसी बाहरी व्यक्ति को रैनबसेरों में आने की अनुमति नहीं है, चाहे वे मजदूर के सगे-सम्बन्धी ही क्यों न हों। फॉक्सकॉन में काम करने वाले ज्यादातर मजदूर ऐसे ही रैनबसेरों में समय काटते हैं। काम के भीषण दबाव के कारण मजदूर एक कारख़ाने में तीन-चार महीने से ज्यादा नहीं टिकते। दूसरे, लगातार 12-12 घण्टों की शिफ्टों में रात-दिन, हफ्ते में सातों दिन, काम करने के चलते एक ही कमरे में रहने वाले मजदूर भी एक-दूसरे को ठीक से जान नहीं पाते हैं। कारख़ानों में मजदूरों के आपस में बात करने पर भी पाबन्दी होती है और बतियाते या हँसी-मजाक करते पाये जाने पर भारी जुर्माना लगाया जाता है। एक दिन छुट्टी लेने पर तीन दिन के पैसे काट लिये जाते हैं। ऐसे में मजदूर बेहद अकेलेपन के शिकार होते हैं। ऊपर से लगातार बेहद नीरस और ऊबाऊ काम करते-करते वे गहरी मानसिक थकान और निराशा के शिकार हो जाते हैं जो अक्सर मानसिक बीमारी का रूप ले लेती है।
लगातार तेरह-चौदह घण्टे काम करने के बाद भी मजदूरों की न्यूनतम पगार केवल 1,000 युआन तक हो सकती है,जिसमें ओवरटाइम शामिल है। ना-नुकुर किये बिना इस शोषण की चक्की में पिसने के लिए पहली भर्ती के समय मजदूरों को विशेष प्रशिक्षण दिया जाता है, जिसे सुपरवाइजरों की भाषा में ”सैन्य प्रशिक्षण” कहा जाता है। इसका उद्देश्य साफ-तौर पर नये ”रंगरूटों” को औद्योगिक अनुशासन के लिए तैयार करना होता है। फॉक्सकॉन जैसी बड़ी कम्पनियों से इतर छोटी-छोटी कम्पनियों में तो काम की स्थिति और भी भयावह है।
इन मजदूरों में करीब 90 फीसदी वे युवा हैं, जो पूँजी की मार से पारम्परिक खेती की तबाही और अत्याधुनिक तकनीकों,मशीनों और कीटनाशकों के प्रयोग से फार्महाउस खेती की बढ़ती उत्पादकता एवं श्रम की घटती माँग के कारण ग्रामीण इलाकों से निकलने को मजबूर हुए हैं और शहरों का रुख़ कर चुकी 20 करोड़ से अधिक आबादी का हिस्सा हैं। ये निर्माण कार्यों, नयी निर्यातोन्मुख फैक्टरियों या अन्य सबसे ख़तरनाक और गन्दे कामों में रोजगार तलाश करते हैं जहाँ उन्हें बुनियादी अधिकार भी हासिल नहीं होते। मजदूरों को काग़ज पर कुछ कानूनी अधिकार मिले हुए हैं। लेकिन वे किसी एक कम्पनी में लगातार दस वर्ष तक काम करने के बाद ही लागू होते हैं। उस पर भी जो मजदूर वास्तव में बीमा, चिकित्सा,पेंशन या काम नहीं होने पर पगार के कुछ हिस्से के कानूनी अधिकार का दावा करते हैं, उन्हें अक्सर निकाल बाहर किया जाता है। बहुत बार, मजदूरों को नौ साल या उससे कम अवधि में ही कम्पनी से निकाल दिया जाता है, ताकि दस वर्ष के बाद मिलने वाले कानूनी अधिकारों का झमेला भी नहीं रहे। कहने के लिए, सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ी ऑल चाइना फेडरेशन ऑफ ट्रेड यूनियन्स की शाखाएँ फैक्टरियों में मौजूद हैं, लेकिन इनमें मजदूरों के बजाय मैनेजमेण्ट द्वारा चुने गये प्रतिनिधि होते हैं।
लेकिन अब हालात बदल रहे हैं। चीन के युवा मजदूर अब चुपचाप बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं हैं। भारत की तरह ही आज चीन के मजदूरों में करीब 80 प्रतिशत 19 से 24 साल की उम्र के हैं और उनके बग़ावती तेवरों को उनकी बढ़ती संख्या से बल मिल रहा है। मजदूर अपनी स्वतन्त्र यूनियनें बनाने की कोशिश कर रहे हैं। मैनेजमेण्ट और पार्टी नौकरशाहों द्वारा डराने-धमकाने तथा उत्पीड़न की कोशिशों के बावजूद मजदूर अपनी जुझारू यूनियन के महत्त्व को समझ रहे हैं और उसके लिए लड़ रहे हैं।
इतना तो साफ हो गया है कि चीन की मेहनतकश जनता अपनी दुरवस्था को नियति मानकर झेलते रहने के लिए अब कतई तैयार नहीं है। पूँजीवाद की पुनर्स्थापना के बाद चीन में तेजी से बढ़ता वर्ग ध्रुवीकरण यहाँ-वहाँ स्थानीय और क्षेत्रीय स्तरों पर वर्ग संघर्षों के रूप में लगातार फूटता रहा है। यह सिलसिला अब लगातार व्यापक और गहरा होता जा रहा है। इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इस वर्ग संघर्ष को दिशा देने वाली विचारधारा और मनोगत शक्तियाँ भी, चाहे बिखरे रूप में ही सही, लेकिन परिदृश्य पर मौजूद हैं। स्थितियाँ महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के अन्तिम वर्षों के दौरान की गयी माओ की इस भविष्यवाणी को सत्यापित कर रही हैं कि ”चीन में यदि पूँजीवादी पथगामी पूँजीवाद की पुनर्स्थापना में सफल हो भी गये तो वे कभी चैन से कुर्सी पर नहीं बैठ सकेंगे।” दस वर्षों तक चलने वाली चीन की महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति ने चीन की मेहनतकश जनता को समाजवादी समाज की दीर्घकालिक संक्रमणशील प्रकृति, उसमें जारी वर्ग-संघर्ष की दिशा, पार्टी और राज्य में पूँजीवादी पथगामियों की मौजूदगी और पूँजीवादी पुनर्स्थापना के लम्बे समय तक मौजूद रहने वाले ख़तरे के बारे में गहराई से शिक्षित किया था और यह स्पष्ट बताया था कि चीन में यदि पूँजीवादी पुनर्स्थापना हो जाती है तो चीनी जनता को अविलम्ब पूँजीवादी पथगामियों के विरुध्द संघर्ष छेड़ देना चाहिए। अब हालात बता रहे हैं कि चीनी जनता ने सांस्कृतिक क्रान्ति की शिक्षा को भुलाया कतई नहीं था।
चीन के मजदूर संघर्षों की यह लहर अगर कुछ आंशिक सफलताएँ हासिल करने के बाद दबा भी दी जाये, तो भी इतना तय है कि चीनी मजदूर अब जाग उठा है और कम्युनिज्म के नाम पर जारी पूँजीवादी तानाशाही के नंगनाच को और बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं है। चीनी शासकों की तमाम लफ्फाजियों के बावजूद उनके असली चेहरे को अब वह पहचान चुका है। आने वाले वर्ष चीन में मजदूर आन्दोलन के जबरदस्त उभार का साक्षी बनेंगे – और इसका असर पूरी दुनिया की पूँजीवादी व्यवस्था को हिलाकर रख देगा। ऐसा होना ही है।
बिगुल, जून 2010
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन
bahut badia bhai acchi kahani banai hai satya prakash ji ne. aapke dvara diye gaye thathye vastvik kam kalpanik jyada hai response ka bahad utsukta se intjar
भाई हेमंत, मैं पेशे से फ्रीलांस अनुवादक हूं। एक बार चीन की एक अनुवाद एजेंसी के एजेंट से बात हो रही थी। उसने बताया कि भारत व उसकी तरह के विकासशील देशों और चीन वियतनाम आदि देशों के अनुवादकों को वह एक बराबर अपमानजनक रेट पर भुगतान करता है। और आपको शायद यकीन नहीं आये, उसका आफर दिल्ली की एजेंसियों के आफर से भी कम था।
अब आप चीनी मजदूरों की हालत का अनुमान लगा सकते हैं।