मज़दूर वर्ग के महान क्रान्तिकारी नेता व शिक्षक लेनिन के जन्मदिवस (22 अप्रैल) के अवसर पर
जनवादी जनतन्त्र: पूँजीवाद के लिए सबसे अच्छा राजनीतिक खोल
लेनिन
“धन-दौलत” की सार्विक सत्ता जनवादी जनतन्त्र में ज़्यादा यक़ीनी इसलिए भी होती है कि वह राजनीतिक मशीनरी की अलग-अलग कमियों, पूँजीवाद के निकम्मे राजनीतिक खोल पर निर्भर नहीं होती। जनवादी जनतन्त्र पूँजीवाद के लिए श्रेष्ठतर सम्भव राजनीतिक खोल है और इसलिए (पालचीन्स्की, चेर्नोव, त्सेरेतेली और मण्डली की मदद से) इस श्रेष्ठतम खोल पर अधिकार करके पूँजी अपनी सत्ता को इतने विश्वसनीय ढंग से, इतने यक़ीनी तौर से जमा लेती है कि बुर्जुआ-जनवादी जनतन्त्र में व्यक्तियों, संस्थाओं या पार्टियों की कोई भी अदला-बदली उस सत्ता को नहीं हिल सकती।
हमें यह भी नोट करना चाहिए कि एंगेलस सार्विक मताधिकार को भी पूर्णत स्पष्टता के साथ बुर्जुआ वर्ग के प्रभुत्व का अस्त्र कहते है।
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मार्क्स ने लिखा था: “कम्यून संसदीय नहीं, बल्कि एक कार्यशील संगठन था, जो कार्यकारी और विधिकारी, दोनों कार्य साथ-साथ करता था…
…तीन या छः साल में एक बार यह तय करने के बजाय कि शासक वर्ग का कौन सदस्य संसद में जनता का प्रतिनिधित्व तथा दमन करेगा (ver-und sertreten) सर्वमताधिकार को अब कम्यूनों में संगठित जनता के उसी प्रकार काम में आना था, जिस प्रकार अपने व्यवसाय के लिए मज़दूर, मैनेजर तथा मुनीम तलाश करनेवाले हर एक मालिक के लिए व्यक्तिगत मताधिकार काम में आता है।”
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केवल संसदीय-सांविधानिक राजतन्त्रों में ही नहीं, बल्कि अधिक से अधिक जनवादी जनतन्त्रों में भी बुर्जुआ संसदीय व्यवस्था का सच्चा सार कुछ वर्षों में एक बार यह फ़ैसला करना ही है कि शासक वर्ग का कौन सदस्य संसद में जनता का दमन और उत्पीड़न करेगा।
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“संसदीय नहीं, बल्कि कार्यशील संगठन” – आज के संसदबाज़ों और सामाजिक-जनवाद के संसदीय “पालतू कुत्तों” के मुँह पर यह भरपूर तमाचा है! अमेरिका से स्विट्ज़रलैण्ड तक, फ्रांस से इंग्लैण्ड, नार्वे आदि तक चाहे किसी संसदीय देश को ले लीजिये – इन देशों में “राज्य” के असली काम की तामील पर्दे की ओट में की जाती है और उसे महक़मे, दफ्तर और फ़ौजी सदर-मुक़ाम करते हैं। संसद को “आम जनता” को बेवकूफ़ बनाने के विशेष उद्देश्य से बकवास करने के लिए छोड़ दिय जाता है। यह बात उतनी सच्ची है कि रूसी जनतन्त्र तक में, जो एक बुर्जुआ-जनवादी जनतन्त्र है, संसदीय व्यवस्था की ये सारी बुराइयाँ असली संसद के बनने से पहले ही फ़ौरन ज़ाहिर हो गयीं। सड़ी हुई कूपमण्डूकता के स्कोबेलेव और त्सेरेतेली, चेर्नोव और बवक्सेन्त्येव जैसे सूरमा सोवियतों तक को अत्यन्त घृणित बुर्जुआ संसदीयता के ढंग से गन्दा करने में सफल हो गये हैं, उन्हें महज़ गप्पबाज़ी के अड्डों में बदल दिया गया है। सोवियतों के अन्दर श्रीमान “समाजवादी” मन्त्रिगण गाँवों के भोले-भाले लोगों को लफ्फाज़ी और प्रस्तावों से ठग रहे हैं। सरकार के अन्दर निरन्तर जोड़-तोड़ चल रही है, जिससे कि एक ओर तो अधिक से अधिक समाजवादी-क्रान्तिकारियों और मेंशेविकों को बारी-बारी से इज़्ज़त और आमदनी की नौकरियों की “दावत” में हिस्सेदार बनाया जा सके और दूसरी ओर, जनता का “ध्यान भी बँटा रहे”। और तब तक “राज्य” का असली “काम” सरकारी दफ्तर और फ़ौजी सदर-मुक़ाम “चलाते” हैं!
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बुर्जुआ समाज की ज़रख़रीद तथा गलित संसदीय व्यवस्था की जगह कम्यून ऐसी संस्थाएं क़ायम करता है, जिनके अन्दर राय देने और बहस करने की स्वतंत्रता पतित होकर प्रवंचना नहीं बनतीं, क्योंकि संसद-सदस्यों को ख़ुद काम करना पड़ता है, अपने बनाये हुए क़ानूनों को ख़ुद ही लागू करना पड़ता है, उनके परिणामों की जीवन की कसौटी पर स्वयं परीक्षा करनी पड़ती है और अपने मतदाताओं के प्रति उन्हें प्रत्यक्ष रूप से ज़िम्मेदार होना पड़ता है। प्रतिनिधिमूलक संस्थाएं बरक़रार रहती हैं, लेकिन विशेष व्यवस्था के रूप में, क़ानून बनाने और क़ानून लागू करने के कामों के बीच विभाजन के रूप में, सदस्यों की विशेषाधिकार-पूर्ण संस्थाओं के बिना जनवाद की, सर्वहारा जनवाद की भी कल्पना हम कर सकते हैं और हमें करनी चाहिए, अगर बुर्जुआ समाज की आलोचना हमारे लिए कोरा शब्दजाल नहीं है, अगर बुर्जुआ वर्ग के प्रभुत्व को उलटने की हमारी इच्छा गम्भीर और सच्ची हैं, न कि मेंशेविकों और समाजवादी-क्रान्तिकारियों की तरह, शीडेमान, लेजियन, सेम्बा और वानउरवेल्डे जैसे लोगों की तरह मज़दूरों के वोट पकड़ने के लिए “चुनाव” का नारा भर।
(राज्य और क्रान्ति से)
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन