गाज़ा पट्टी में बर्बर इज़रायली हमला
फ़िलिस्तीनी जनता का प्रतिरोध कुचला नहीं जा सकता
हर हमला अरब जनता में साम्राज्यवाद से नफ़रत की आग को और तेज़ करेगा…
नवीन पन्त
पिछले साल के आखिरी हफ़्ते में इज़रायल ने फ़िलिस्तीन की गाज़ा पट्टी में ज़बर्दस्त हवाई हमले शुरू किये और यह टिप्पणी लिखे जाने तक उसकी सेना गाज़ा पट्टी में घुसकर क़त्लेआम मचाये हुए थी। इज़रायली हमले में अब तक 850 से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं जिनमें ज्यादातर आम नागरिक, बच्चे और महिलाएँ हैं। इज़रायली हमलावरों ने स्कूलों और अस्पतालों तक को नहीं छोड़ा है। करीब 4,000 लोग बुरी तरह घायल हैं। महीनों से जारी इज़रायली प्रतिबन्धों और घेरेबन्दी के कारण गाज़ापट्टी में दवाओं और बच्चों के दूध जैसी चीजों की पहले से भारी कमी है। बिजली और पानी तक मुश्किल से मिल रहा है। ऐसे में मरने वालों की तादाद और भी तेजी से बढ़ रही है।
पूरा साम्राज्यवादी मीडिया इज़रायल के इस नंगे झूठ का भोंपू बना हुआ है कि उसने यह हमला “आत्मरक्षा” के लिए किया है। फ़िलिस्तीनी संगठन हमास द्वारा इज़रायल में दागे जाने वाले रॉकेटों से ख़ुद को बचाने के लिए ही उसे मजबूरन दुधमुँहे बच्चों, बूढ़ी औरतों और अस्पतालों में भरती मरीजों की जान लेनी पड़ रही है। हमारे देश का मीडिया भी इसी सुर में सुर मिला रहा है या फिर इस भयानक हत्याकाण्ड को मामूली-सी खबर के तौर पर पेश कर रहा है। आतंकवाद के नाम पर दिनों-रात युद्धोन्माद और अन्धराष्ट्रवादी भावनाएँ भड़काने में लगे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को इज़रायल का यह सरकारी आतंकवाद नज़र नहीं आ रहा है।
सच्चाई यह है कि हमास ने पिछले कई सप्ताह में जो रॉकेट दागे हैं उनसे 12 या 13 इज़रायलियों की मौत हुई है और कुछ लोग घायल हुए हैं।
इज़रायल का आरोप है कि संघर्ष-विराम तोड़कर हमास ने रॉकेटों से हमला किया। लेकिन सच्चाई क्या है? सच यह है कि फ़िलिस्तीनी जनता के ज़बर्दस्त संघर्ष और पूरी दुनिया की जनता के दबाव में 2005 में गाज़ा पट्टी से अपनी सेना हटा लेने के बाद से इज़रायल ने एक दिन भी गाज़ावासियों को चैन से जीने नहीं दिया है। सेना हटाने के बाद भी ज़मीन, हवाई और समुद्री रास्ते से इज़रायल गाज़ा पट्टी पर अपना नियन्त्रण रखे हुए था। बीच-बीच में उसके हमले जारी थे। 2007 में लेबनान पर हमले के ठीक पहले इज़रायल ने गाज़ा पट्टी में भीषण बमबारी की थी। पिछले वर्ष 5 नवम्बर को इज़रायली सेना ने हमास के 5 कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी थी। नवम्बर से ही इज़रायल ने अपनी घेरेबन्दी और सख़्त करते हुए गाज़ा पट्टी में बुनियादी ज़रूरत की चीजों की सप्लाई लगभग बन्द कर दी थी। संयुक्त राष्ट्र द्वारा आगाह किये जाने का भी इज़रायल पर कोई असर नहीं हुआ क्योंकि दुनिया के सबसे बड़े गुण्डे अमेरिका का हाथ उसकी पीठ पर है।
‘बिगुल’ के पाठकों के लिए फ़िलिस्तीनी समस्या और वहाँ की जनता के संघर्ष का विस्तृत ब्यौरा हम पहले कई अंकों में देते रहे हैं, पर संक्षेप में यहाँ इतना बता देना काफी होगा कि पश्चिम एशिया के एक छोटे-से इलाके में इज़रायल और फ़िलिस्तीन दो राष्ट्र हैं। यहूदी मूल के लोग इज़रायल से निकलकर पूरी दुनिया में फैले थे। दूसरे महायुद्ध में फासिस्टों द्वारा यहूदियों के कत्लेआम के बाद उनकी इस माँग को व्यापक समर्थन मिला कि उन्हें अपनी मूल धरती में अपना देश बसाने दिया जाये। उस वक़्त हुए समझौते के मुताबिक वहाँ दो देश बनाये गये – इज़रायल और फ़िलिस्तीन। इज़रायल में मुख्यतः वहाँ रह रही यहूदी आबादी और बाहर से आये यहूदी शरणार्थी बसने थे जबकि फ़िलिस्तीन उस क्षेत्र की अरब जनता का देश था। लेकिन इज़रायल ने फौरन ही फ़िलिस्तीनियों को खदेड़कर उनकी ज़मीन पर क़ब्ज़ा करना शुरू कर दिया और पूरी दुनिया से लाकर अमीर यहूदियों को वहाँ बसाने लगा। पाँच दशकों तक अपने वतन से दरबदर फ़िलिस्तीनी जनता के लम्बे संघर्ष के बाद उन्हें कटी-पिटी हालत में अपने देश का एक छोटा-सा टुकड़ा मिला। आज का फ़िलिस्तीन एक-दूसरे से अलग जमीन की दो छोटी-छोटी पट्टियों पर बसा है। एक है पश्चिमी तट का इलाका और दूसरा है गाज़ा पट्टी जहाँ सिर्फ 360 वर्ग किलोमीटर के दायरे में 15 लाख आबादी रहती है। फ़िलिस्तीनी मुक्ति संगठन (पीएलओ) के नेतृत्व के समझौतापरस्त हो जाने के बाद धार्मिक कट्टरपन्थी संगठन हमास ने फ़िलिस्तीनी जनता में अपनी जड़ें जमा ली हैं और आज उसे व्यापक आबादी का समर्थन हासिल है – इसलिए नहीं कि फ़िलिस्तीनी जनता अपनी सेक्युलर सोच छोड़कर कट्टरपन्थी हो गयी है, बल्कि इसलिए क्योंकि इज़रायली ज़ियनवादी फासिस्टों और अमेरिकी साम्राज्यवाद के साथ जनता कभी समझौता नहीं कर सकती और आज सिर्फ हमास ही जुझारू तरीके से साम्राज्यवाद से लड़ रहा है। कट्टरपन्थी और आतंकवादी तरीके दरअसल दशकों से लड़ रही जनता में फैली निराशा और बेबसी की ही अभिव्यक्ति हैं।
इज़रायली हमले का उद्देश्य अगर फ़िलिस्तीनियों के प्रतिरोध संघर्ष को ख़त्म करना है तो इसमें वह कभी क़ामयाब नहीं होगा। अगर हमास ख़त्म भी हो गया तो उसकी जगह कोई उससे भी ज्यादा कट्टरपन्थी संगठन ले सकता है। दूसरी सम्भावना यह भी है कि धार्मिक कट्टरपन्थ के नतीजों को देखने के बाद फ़िलिस्तीनी जनता के बीच से रैडिकल वामधारा को मज़बूती मिले। लेकिन इतना तय है कि फ़िलिस्तीनियों का प्रतिरोध संघर्ष थमेगा नहीं। फ़िलिस्तीन का बच्चा-बच्चा यह जानता है कि अगर उन्होंने लड़ना बन्द कर दिया तो इज़रायल उन्हें नेस्तनाबूद कर देगा।
इस स्थिति का दूसरा पहलू यह है कि हर इज़रायली हमला फ़िलिस्तीनी और अरब जनता में अरब शासकों के पाखण्ड और पी.एल.ओ. की समझौतापरस्ती के प्रति नफ़रत को और बढ़ाने का काम करता है। इज़रायल के कब्जे में रहे फ़िलिस्तीनी इलाकों में दो बार हुई इंतिफ़ादा (बग़ावत) का असर तो फ़िलिस्तीन के भीतर तक सीमित था लेकिर इस बार के हमले का असर पूरे पश्चिम एशिया की अरब जनता पर होगा।
हमेशा की तरह जनता के संघर्ष ने इज़रायली शासकों के भीतर भी फूट डाल दी है। इस फूट के भी कई संस्तर हैं। इज़रायली मेहनतकशों और मध्यवर्ग का एक हिस्सा अपने शासकों पर दबाव डाल रहा है कि फ़िलिस्तीन के साथ समझौता किया जाये। अरब जनता में फ़िलिस्तीनियों के प्रति मौजूद सहानुभूति और इज़रायल व अमेरिका के साथ ही अपने देश के शासकों के प्रति बढ़ते गुस्से से डरे अरब देशों के शासक भी दबी जुबान से ही सही, समझौते के लिए दबाव बढ़ा रहे हैं। पूरी दुनिया की जनता भी एक बार फिर फ़िलिस्तीनी जनता के पक्ष में खड़ी हो रही है। इराक और लेबनान से लेकर फ़िलिस्तीन तक पूरे अरब जगत को साम्राज्यवाद के अन्तरविरोधों की ऐसी गाँठ में तब्दील कर रहे हैं जो अन्ततः एक क्रान्तिकारी विस्फोट को जन्म देगी।
वैसे इज़रायल ने लेबनान पर 2007 के अपने हमलों से कोई सबक नहीं सीखा है। भीषण हमलों में सैकड़ों लोगों की हत्या और कई शहरों को तबाह करने के बाद भी इज़रायल हिजबुल्ला संगठन को खत्म नहीं कर सका बल्कि वह और मजबूत होकर उभरा। इस बार भी ऐसा ही हो सकता है। हमास वहाँ की जनता में इस कदर घुलामिला है कि जनता का सफ़ाया किये बिना हमास को नहीं मिटाया जा सकता। अगर पागलपन पर उतारू इज़रायली शासकवर्ग ने ऐसा ही करने की ठान ली और हमास की जड़ें उखाड़ने के लिए भयंकर जनसंहार का रास्ता अपनाया तो गाज़ा पट्टी से उजड़कर जो बहुत बड़ी आबादी दूसरे अरब देशों में फैल जायेगी वह इज़रायल, अमेरिका और उनके आगे घुटने टेक चुके अरब शासकों के प्रति अरब जनता की नफ़रत का भी फैलाव करेगी। बेशक, आने वाले चन्द एक वर्षों में तो ऐसा नहीं होगा, लेकिन पश्चिम एशिया की धरती पर साम्राज्यवाद की कब्र खुदनी तय है।
बिगुल, जनवरी 2009
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